वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 843
From जैनकोष
अत्यल्पे धनजंबाले निमग्नो गुणवानपि।
जगत्यस्मिन् जन: क्षिप्रं दोषलक्षै: कलंकयते।।
धनपंक में निमग्न गुणी पुरुष के भी कलंकितता- इस धन रूपी कीचड़ में फंस हुए बड़े गुणवान पुरुष भी दोषों से कलंकित हो जाते हैं अर्थात् थोड़े भी धन से कालिमा लग जाती है। इस धन के कारण लोग कितनी ही शंकायें कर डालते हैं। किसी का बैंक में रुपया जमा है तो वह सोचता है कि कहीं ऐसा न हो कि धन न मिले। धन के कारण आसपास ठहरे हुए लोगों के प्रति भी बड़ी बड़ी शंकायें हो जाती है। अपने गुरु के प्रति, माता पिता के प्रति, भाई बहिन के प्रति इस धन के कारण न जाने कैसी कैसी शंकाएँ हो जाती हैं? कहीं यह मेरा धन रख न ले, चुरा न ले, यों अनेक शंकायें हो जाती हैं। अरे भला बतावो माता पिता उस धन को रखकर करेंगे क्या? कहाँ धन ले जायेंगे, उनके तो जीवन के अंतिम दिन निकट हैं पर उनके प्रति भी लोग शंकायें कर डालते हैं। हाँ यदि कोई पुत्र कुपूत हो, अपने माँ बाप को दु:ख देता हो तो भले ही माँ बाप ऐसा सोचें कि यह सारा धन अपने ही पास दबाकर रखो, इस पुत्र को न दो, नहीं तो शीघ्र ही गंवा देगा। यह तो ठीक है, पर माँ बाप के प्रति भी लोगों की जो दूषित भावनाएँ बनती हैं उन सबका कारण यह धन है। यदि धन समीप है तो लोग माँ बाप पर भी अजीब शंकाएँ कर डालते हैं। और, एक ही बात क्या, थोड़ा भी धन का संबंध बने तो लाखों ऐब उसमें आ जाते हैं। किसी दूसरे को अपने समान न निरखना, दूसरों को लघु समझना, खुद में अभिमान आ जाना ये सारे ऐब धन के संबंध से आ जाते हैं। तो भला यह बतलावो कि धन का संबंध रहते हुए कोई साधु मुक्ति के मार्ग में चल सके, यह बात कैसे हो सकती है? साधु संतों के इस कर्तव्य को आचार्यदेव समझा रहे हैं, थोड़ासा भी धनरूपी कीचड़ हो, उसमें फंसा हुआ मुनि इस जगत के तत्काल दोषों से कलंकित हो जाता है, अतएव उनका लोभ न रखें और एक विशुद्ध आत्मस्वरूप की उपासना में लगें।