वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 842
From जैनकोष
स्मरभोगींद्रवल्मीकं रागाद्यरिनिकेतनं।
क्रीडास्पदमविद्यानां बुधैर्वित्तं प्रकीर्तितम्।।
धन की कामसर्पवल्मीकसदृशता- विद्वान पुरुषों ने धन को कामरूपी सर्प की बामी बताया है। जैसे बामी सर्प के रहने का घर है। बामी में बड़ी निर्भयता से सर्प रहता है, ऐसे ही यह धन कामविकार का घर है। किनके लिए धन जोड़ा जा रहा है? कुछ तो उद्देश्य होगा। मैं धन को जोडूँ और फिर खूब दान करूँ, ऐसा जिनके भाव है वे दान का सही स्वरूप नहीं समझे। वह तो एक यश जैसी प्राप्त करने की बात है। धनसंचय करने का अभिप्राय विषय साधन है। यों कोई थोड़ा समझदार हो तो मन के विषय का साधन है। मन का विषय है यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा, नामवरी आदिक। और, प्राय: करके बहुतायत से मनुष्य जो धनसंचय करता है उसका प्रयोजन केवल कामसाधना, मौज मानना विषयों का साधन ही उसके धन संचय करने का उद्देश्य है। जब यह बात बिल्कुल सही बैठ गई कि जैसे सर्प के रहने का घर बामी होती है इसी प्रकार काम आदिक विकारों के बसने का घर धन होता है। एक लौकिक कथा में बताया है कि एक संन्यासी नाम का व्यक्ति एक नगर में रहता था, वह सत्तू मांगकर लाता था और सत्तू की पोटली खूंटी पर टाँग देता था, किंतु उस झौंपड़ी में एक ऐसा बलवान चूहा रहता था कि वह उछलकर उसी पोटली पर पहुँच जाता और मनमाना सत्तू खाता था। संन्यासी रोज बड़ा हैरान रहता। वह नहीं समझ पाता कि मेरे सत्तू रोज रोज कौन बिगाड़ जाता। एक दिन तक कर देखा तो वही चूहा आते हुए दिख गया। समझ गया कि यह चूहा ही रोज रोज हमारे सत्तू बिगाड़ जाता है। सो उसने उस चूहा के घर को ही उजाड़ देने की सोचा। आखिर जब वह उस चूहे के गड्ढे को खोदकर बहाने लगा तो उसमें बड़ा धन मिला। वह धन चूहा किसी से ले आया था। उस धन के ही कारण वह चूहा अपने को सुखी मानता था और खूब तगड़ा हो रहा था। जब मन प्रसन्न होता है तो स्वास्थ्य अच्छा बनता है। हालांकि उस चूहे के काम वह धन नहीं आता पर धन तो सभी को प्रिय है ना। इन बच्चे लोगों को भी धन बड़ा प्रिय है, तो उस धन को उस संन्यासी ने बटोर लिया। जब चूहे को वह धन न मिला तो बड़ा चिंतातुर हो गया, यहाँ तक कि उसका खाना पीना तक छूट गया। इतना उसे क्लेश पहुँचा। कुछ ही दिनों में वह अत्यंत दुर्बल हो गया। तो यह धन नाना विषयों का साधन होता है। नाना कामविकारों का घर यह धन है। जब बहुत धन जुड़ जाता है तो राजा महाराजा लोग एक क्या सैकड़ों स्त्रियाँ रख लेते हैं। और, ऐसी ऐसी अनेक कहानियाँ भी मिलती हैं। तो यह धन कामादिक विकारों का घर है, जैसे सर्प का घर बामी है।
धन की अविद्याक्रीडास्पदता तथा रागाद्यरिनिकेतनता- यह धन रागादिक शत्रुवों के रहने का घर है। जैसे कोई लापरवाह पुरुष अपने आपके घर में शत्रु को आराम से रहने दे तो उसे कोई विवेकी न कहेगा। इसी तरह यह मलिन आत्मा भी रागादिक भावों को रहने के लिए अपना घर दिए हुए है। अर्थात् आत्मप्रदेशों में ही ये रागादिक बस रहे हैं, यह आत्मा इसलिए मूढ़ कहलाता है, मोही है, अज्ञानी है और उन रागादिक के रहने के लिए वे सुविधा पूर्वक रह सके उसका साधन है धन। अतएव रागादिक दृश्यों के रहने का यह घर है धन और अविद्या की क्रीड़ा करने का स्थान है। जैसे कोर्इ पार्क होता है, सभी लोग खेला करते है ऐसे ही यह धन भी अविद्या का अज्ञानता का खूब जी भरकर खेलने का स्थान है। धन से अविद्या बढ़ती है। यों यह परिग्रह आत्मा के अनर्थ का कारण है ऐसा जानकर साधु संतजन जिन्हें आत्मतत्त्व की उपासना की तीव्र उत्सुकता जगती है जिस कर्तव्य के सामने अन्य सब सांसारिक कार्य झंझट मालूम होते हैं ऐसे एक अंतस्तत्त्व के अनुभव के रुचिया साधुसंत पुरुषों को यह परिग्रह रंच भी नहीं रुचता। वे तो अपने को निष्परिग्रह रखते हैं, बाह्यपरिग्रहों का त्याग कर देते हैं और अपने अंतरड्ग में भी विषयकषायों के भाव को नहीं आने देते। यों विद्वान पुरुषों ने इस धन वैभव को कामरूपी सर्प की बामी कहा है। रागादिक दुश्मनों के रहने का ठौर बताया है और अविद्या क्रीड़ा करने का स्थान बताया है। अर्थात् इस धन के कारण बड़े बड़े अनर्थ होते हैं, इस धन वैभव को त्यागकर साधुजन निजपरमात्मतत्त्व की निरंतर उपासना ही किया करते हैं।