वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 864
From जैनकोष
त एव सुखिनो धीरा यैराशाराक्षसी हता।
महाव्यसनसंकीर्णश्चोत्तीर्ण क्लेशसागर:।।
आशा नष्ट करने वालों के ही क्लेशसंसार की उत्तीर्णता- जिन लोगों ने इस आशारूपी राक्षसी को नष्ट कर दिया है वे पुरुष धीर, वीर और सुखी हैं। महापुरुषों में और साधारण पुरुषों में एक यही तो अंतर है, जिनके आशा लगी है वे हैं साधारण पुरुष और जिन्होंने आशा का परिहार कर दिया वे हो जाते हैं महापुरुष। महापुरुषों की और पहिचान क्या है? कोई शरीर का ऊपरी चिन्ह ऐसा नहीं है कि जिसे देखकर समझ लिया जाय कि यह महापुरुष है। महापुरुष का परिचय तो नैराश्य से है। जिसके आशा बस रही है वह है लौकिक पुरुष। जो आशा के दास है, वे पुरुष धैर्य कहाँ धारण कर सकते हैं? आशा जगती है और धैर्य टूट जाता है। किसी भी काम की आशा हो, धन वैभव की, यश प्रतिष्ठा की, विषयसाधनों की इत्यादि, तो वहाँ धैर्य नहीं रहता और आत्मा में वीरता भी नहीं रहती। वीरता तो वह है कि कोई क्षोभ उत्पन्न न हो। जो बलवान पुरुष होते हैं उनको क्षोभ नहीं उत्पन्न होता है, इसी के मायने तो बलवत्ता है। तो वास्तविक बलवत्ता वह है जहाँ क्षोभ उत्पन्न न हो। जहाँ आशा लगी है वहाँ यह बल नहीं प्राप्त होता। जिनके आशा लगी है उसके सुख भी नहीं है। वर्तमान में है कुछ वैभव लेकिन इससे आगे के वैभव की आशा लगी है तो सारा ज्ञान उस अप्राप्त विषय में पहुँच गया। प्राप्त समागम का अब सुख क्या रहा? जैसे कोई खाने का तृष्णालु है तो जो भोजन कर रहा है उसका भी उसे सुख नहीं मिल रहा है क्योंकि उसको अन्य स्वादिष्ट भोजन पर दृष्टि है। तो अन्य वस्तु पर दृष्टि होने से भोगे जाने वाले विषय भी सुखकर नहीं हो पाते। यह आशा समस्त सुखों पर पानी फेर देती है। जो पुरुष इस आशा पर विजय कर चुके हैं वे ही धीर, वीर और सुखी होते हैं। जिन पुरुषों ने इस आशा का विनाश किया है वे पुरुष इस दु:खरूपी संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं। हे आत्मन् ! प्राय: रातदिवस किसी न किसी पदार्थ की आशा बसा बसाकर अपने को परेशान कर देते हो। कभी 10-5 मिनट तो इस आशारहित निज ज्ञानस्वरूप की उपासना तो करो। यह आशा क्यों जगती है? यह आशा मेरी चीज तो नहीं है, मेरे स्वरूप में तो नहीं है आशा। मैं तो प्रभुवत् ज्ञानानंदस्वरूप का पुंज हूँ। यह आशा राक्षसी क्यों जगती है ऐसा एक ध्यान बनाकर जरा आशारहित ज्ञानानंदस्वरूप निज अंतस्तत्त्व का ख्याल तो कर लो। समस्त कष्ट दूर हो जायेंगे। दु:खरूपी संसारसागर से पार हो जावोगे। जितने क्षण आशारहित होकर निजज्ञानस्वरूप के ध्यान में व्यतीत हो जायें उतने क्षण तो सफल हैं, इससे अतिरिक्त जो कुछ परतत्त्वों का आकर्षण बने, आशा बने वे सब तत्त्व बेकार हैं। यहाँ के ये सब लोग मायारूप हैं, इनसे मेरा कुछ हित नहीं। मुझे बाहर में किसी की आशा नहीं करना है, अपने अंदर ही अंदर गुप्त होकर एक ज्ञानानंदस्वरूप की आराधना का अमृत पीना है। यह मैं आत्मा अविनाशी हूँ, अमर हूँ, ऐसा भाव बनते रहने का नाम है अमृत का पान करना। जो न मरे ऐसे स्वरूप को उपयोग में लेना यही वास्तविक अमृतपान है। जो पुरुष आशा से दूर होते हैं वे इस अमृत का पान करते हैं। वे दु:खरूपी संसारसमुद्र से नियम से पार हो जाते हैं।