वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 863
From जैनकोष
आशैव मदिराऽक्षाणामाशैव विषमंजरी।
आशा मूलानि दु:खानि प्रभवंतीह देहिनाम्।।
आशा की सकलदु:खमूलता- संसारी जीवों की आशा ही इन इंद्रियों को उन्मत्त करने वाली मदिरा है और आशा ही विष को बढ़ाने वाली मंजरी है। जितने भी जिसे क्लेश होते हैं वे सब आशा से होते हैं। जीव तो स्वभाव से ज्ञानानंदस्वरूप है किंतु अपने स्वभाव का दृढ़ परिचय न होने से स्वभाव में विश्राम तो नहीं हो पाता और आराम विश्राम की ही इसकी प्रकृति है। कहीं न कहीं यह रमण करना चाहता है। सो अपना धाम तो इसे मिला नहीं तब बाह्य में परवस्तुवों की ओर जाता है, आशा करता है। तो परवस्तु की आशा ही इसकी इंद्रिय को उन्मत्त करने वाली है। इन इंद्रियों को जितना प्राप्त विषय बरबाद नहीं करते जितना कि अप्राप्त विषयों की आशा बरबाद करती है। इस जीव में न तो परपदार्थों के भोगने की क्षमता है और न परपदार्थों के त्यागने की क्षमता है। प्राप्त समागम से जीव उतना बरबाद नहीं होता बल्कि कभी कभी तो पछतावा करता और अपने सत्यपथ पर ले जाता है लेकिन अप्राप्त विषयों की जो आशा लगी रहती है जीवों को वह प्रमत्त करने वाली मदिरा है। आशा ही विष को बढ़ाने वाली मंजरी है। संसार के सारे क्लेश आशा के आधार पर है। सभी क्लेशों का विचार कर लीजिए, सभी के क्लेशों के कारणभूत यह आशा है। आशा न हो तो क्लेशों का यहाँ नाम ही न रहेगा। ऐसा जानकर आशा का प्रतिषेध करे जिससे परिग्रह के सही मायने में त्यागी बनें। और, परिग्रह के त्याग से फिर आत्मध्यान की पात्रता जगे, आत्मा का ध्यान बन सके। लोक में आत्मध्यान ही शरण है, ऐसे शरणभूत अंतस्तत्त्व को पाने के लिए हम आप सबको परिग्रह त्याग के संकल्प की भावना आवश्यक है।