वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 865
From जैनकोष
येषामाशा कुतस्तेषां मन:शुद्धि: शरीरिणाम्।
अतो नैराश्यमालंब्य शिवीभूता मनीषिण:।।
आशावान् हृदय में शुद्धि का अभाव- जिन पुरुषों के आशा लगी है उनके मन की शुद्धि कैसे होगी? जिन्हें सुख चाहिए उन्हें अपने आप पर बड़ा भरोसा रखना होगा। कैसी भी परिस्थिति आ जाय वहाँ यही समझना होगा कि मेरा कुछ नहीं गया। मेरा कुछ बिगाड़ नहीं हुआ। जरा जरा से बिगाड़ पर अपने को चिंतातुर बना लेना यह कहाँ की बुद्धिमानी है? संसार के बिगाड़ों का कोई लेखा भी है क्या? किसी परिवार में धन भी मिट जाय, लोग भी गुजर जायें, वृद्धावस्था वाला कोई बूढ़ा बच गया, न धन रहा, न कुटुंब रहा उसे तो कम से कम यह कह लो कि मेरी अपेक्षा यह ज्यादा दु:खी है। अनेक आशाएँ ऐसी गड़बड़ हो जाती हैं कि जिससे अधिक बिगाड़ इस जीव का हो जाता है। तो संसार तो बिगाड़ों का घर है। यहाँ कि किसी बात को अनोखी क्यों समझते हो? कोई सेठ किसी अपराध से चला जाय जेलखाने में और वहाँ पिसाई जाय उससे चक्की और वह अपने आरामों का ख्याल करे, कमरे में ऐसे गद्दे पड़े हैं, मैं ऐसे आराम से रहता था, मेरे ऐसा लाखों करोड़ों का वैभव है, यों अपने वैभव का ख्याल करे और उस ख्याल करके वर्तमान कष्टों में माने खेद तो उससे उसका खेद बढ़ेगा कि मिटेगा? बढ़ेगा। और, कदाचित् यह जान जाय कि घर तो घर ही है, अब तो यहाँ जेलखाने में हैं। यहाँ तो ऐसा ही करना पड़ता है, न चक्की पीसे तो कोड़ों की मार सहेंगे। यहाँ का तो यही हाल है, ऐसा समझ ले तो जेलखाने में रहकर भी वह दु:खी न होगा कुछ धैर्य रखेगा। यों ही समझिये कि इतने बड़े विशाल बिगाड़ वाले जेलखाने में हम आप सभी रह रहे हैं, जहाँ अनेक परिणतियाँ अपने मन के प्रतिकूल हो रही हैं, जहाँ मनचाहे विषयसाधनों का अभाव बना रहता है, कोई किसी के अधीन नहीं है और यह चाहता है सबको अपने मन के माफिक, ऐसे इस बिगाड़मय संसार में यदि कुछ भी बात गुजरे, कुछ भी बिगाड़ हो तो इतना साहस तो बनावें कि यदि भगवंत जिनेंद्र की भक्ति जगी हो और तुम सच्चे जिनेंद्र के भक्त हो तो अंत: यह निर्णय कर लीजिए कि संसार ही सारा कुछ से कुछ बन जाय उस तक से भी मेरा कोई बिगाड़ नहीं होता। मैं अपने आपमें अपने भावों को बिगाडूँ, अपने स्वरूप की पहिचान से विलग रहूँ तो यह कर रहा मैं अपना साक्षात् बिगाड़।
नैराश्य के आलंबन में श्रेयोलाभ- जो परपदार्थों की आशा न रखे वही पुरुष धीर, वीर और सुखी होता है। और अनेक आपत्ति और कष्ट से भरे हुए दु:खरूपी संसारसमुद्र से पार हो जाता है। जिनके आशा लगी है उनके मन में पवित्रता कैसे जग सकती है? इसी कारण जो विवेकी बुद्धिमान पुरुष हैं वे निराश्यता का आलंबन करते हैं और अपने कल्याण की सिद्धि करते हैं। जिन्होंने आशा का परिहार किया उन्होंने ही अपना कल्याण किया। फल चाहते तो हैं निर्वाण और दादा बाबा बच्चों की आशा लगाये हैं तो यह बात कैसे हो सकती है? केवल बनना है तो यहाँ इस केवल को जानना चाहिए। और, इस केवलरूप से ही अपना आचरण बनाना चाहिए। बनना तो चाहें केवल और काम करें परपदार्थों के आकर्षण, विकल्प, आशा भाव बनाये रहने का तो कल्याण कैसे हो सकता है? जैसे लोग कहने लगते हैं कि वाह पुरुष तो चाहते हैं कि हमारी स्त्री सीता बने और खुद क्या बनना चाहते हैं? रावण। तो जैसे उन्हें धिक्कारते है ना, ऐसे ही धिक्कार योग्य बात यह है कि कुछ दिल बहलवाने के लिए, कुछ लौकिक यश के लिए, कुछ कुल परंपरा है इसलिए कुछ रूप दिखाये निर्वाणपने का और निरंतर आशा का विष ही अपने में बसाये रहें तो इसमें कौनसी बुद्धिमानी की बात है? जो आशा का परिहार कर दें वे ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं।