वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 866
From जैनकोष
सर्वाशां यो निराकृत्य नैराश्यमवलंबते।
तस्य क्कचिदपि स्वांतं संगपंकैर्न लिप्यते।।
सर्व आशावों का निराकरण करके नैराश्य के अवलंबन में सत्य निर्ग्रंथता- जो पुरुष आशा को दूर करके निराशा का आलंबन करते हैं उनका मन किसी भी काल में परिग्रहरूपी कर्दम से नहीं निकलता है। जो आशा को छोड़ दें उनके परिग्रहरूपी मल फिर किस भाव से लगेगा? अपने ही अंदर कुछ निरख लीजिए। है तो वह ज्ञानस्वरूप। जिसमें कल्पनाएँ जगती, विचार बनता, तर्क वितर्क उठता है वह है कोई ज्ञानात्मक चीज। कल्पना भी तो ज्ञान का रूप है। विचार तर्क ये सब ज्ञान की ही तो चीजें हैं। तो हम ज्ञान का कुछ परिणमन बनाये रहने के अतिरिक्त और करते क्या हैं? सो कुछ निरख लीजिए। सर्वत्र कहीं भी हो, मंदिर में हो, दुकान पर हो, गली में हो, किन्हीं भी परिस्थितियों में हो, किन्हीं भी स्थानों में हो, सिवाय एक ज्ञान का परिणमन बनाने के यह जीव और कुछ नहीं करता। उस ही ज्ञान की कल्पना में समस्त पदार्थों के कर्तव्य का भार लादे हैं। केवल एक ज्ञान की कल्पनाभर बनाता है यह जीव, और कल्पनाएँ ऐसी अटपटी बेढंगी बना लेता है कि जन्म मरण का होना, ऐसी अनेक कुयोनियों में जन्म लेना, अज्ञान अँधेरा छाना, सत्पथ न मिलना, पर्याय को ही सर्वस्व समझना ये सारी विपत्तियाँ, विडंबनाएँ उस पर सवार हो जाती हैं। केवल एक ज्ञान की परिणति को हम सही बना लें, कुपथ से अपने को हटा लें, इतना भर काम हम अपने अंदर में कर सकें तो कल्याण के लिए फिर जो कुछ कर्तव्य होता है वह सब यथार्थ बन जाता है। जो समस्त आशावों का निराकरण कर देते हैं, निराशा का आलंबन करते हैं वे पुरुष निष्परिग्रह हैं।
इच्छा की परिग्रहरूपता- इच्छा का नाम परिग्रह है। जिसके इच्छा है उसके अज्ञानमय भाव है, अज्ञानमय भाव ज्ञानी के नहीं होता। तो अज्ञानमय भाव न होने से ज्ञानी सदैव निष्परिग्रह रहता है। कहीं साथ जा रहे हों, दो चार मित्र साथ हों, नौकर भी साथ हों, किंतु पास में रखे हैं धन थैले में अथवा ट्रक में तो यह मालिक सबसे वचन भी ले लेता है। देखो भाई यह जगह डर की है, यहाँ चोर लुटेरे बहुत आते हैं, सब लोग खूब जागते रहना, सो मत जाना, देखो हम कुछ अपनी नींद अच्छी तरह से ले लें। सब लोग हाँ भी कह देते हैं, हाँ सेठ जी तुम खूब आनंद से सोवो, हम लोग बराबर देखते रहेंगे, पर हाल क्या होता है कि वे सब के सब तो आनंद से सोते हैं और यह मालिक खूब वचन भी ले चुका तिस पर भी सोता नहीं है, जगता रहता है। कितना ही किसी से कहलवा लो, कुछ प्रभाव तो भीतरी इच्छा का रहेगा। विवशता में कुछ भी बात कहलवा लो। जिनके इच्छा है चिंता तो वे करेंगे। वह सोचता है कि कह तो दिया इन लोगों ने कि हाँ हम जगते रहेंगे पर ये सो गये और धन चला गया तो क्या होगा, सो इस चिंता में वह सो नहीं पाता है। इच्छा का ही नाम तो परिग्रह है, आशा कहो, इच्छा कहो, परिग्रह कहो, ये करीब हेरफेर से लोभकषाय के ही नाम है। जो आशा का परिहार करे उसे परिग्रह का मोह लग नहीं सकता। बड़े-बड़े महापुरुषों के जो चरित्र हैं उन्हें देख लो, जब तक उन्होंने सर्वपरिग्रहों का त्याग नहीं किया तब तक वे दु:खी रहे, सुख तो तब मिला जब सर्वपरिग्रहों का त्याग किया। लोग इच्छा बनाये हैं, आशा बनाये हैं इस कारण नैराश्य अमृत का पान नहीं कर पाते। जैसे नपुंसक वेद में जो अंत: पीड़ा है, वेदना है वह विचित्र है, न भोग सकते, न तृप्त हो सकते। ऐसे ही और नहीं तो कम से कम वृद्धावस्था का तो कुछ दिग्दर्शन कर लो कि जहाँ इच्छा से कुछ भी काम नहीं बनता है पर इच्छा लगाये रहते हैं तीन लोक की। जब बच्चे लोग समृद्ध हुए, खूब आराम में हैं फिर भी इस आशावश वे वृद्धावस्था में भी दु:खी रहा करते हैं। न उनकी इच्छा पूर्ण हो पाती है, न उससे कुछ काम बनता है फिर भी इच्छा बनाये रहते हैं, यह एक बात इसलिए कही कि वृद्धावस्था तो बिना आशा गुजारने के लायक है। इंद्रियाँ शिथिल हो जाने से किसी चीज की चाह करने से लाभ कुछ नहीं है, लेकिन मानकषाय की शक्ति से, प्रेरणा से जवान बना रहता है। जो पुरुष इस आशा का निराकरण करके आशारहित, समस्त विकाररहित ज्ञानस्वरूप का अपने आपमें अवलंबन करते हैं वे पुरुष परिग्रह के मल से लिप्त नहीं होते।