वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 901
From जैनकोष
सम्यगेतत्समासाद्य त्रयं त्रिभुवनार्चितम्।
द्रव्यक्षेत्रादिसामग्या भव्य: सपदि मुच्यते।।
द्रव्यक्षेत्रादिसामग्री द्वारा रत्नत्रय की सम्यक् साधना- तीनों लोक से पूज्य रत्नत्रय से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सामग्री के अनुसार अंगीकार करके भव्य जीव शीघ्र ही कर्मों से छूट जाते हैं। अब रत्नत्रय की महिमा बतायी जा रही है। इससे पहिले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का वर्णन किया। ये आत्मध्यान के अंग हैं। अन्य लोग ध्यान के साधन प्राणायाम करना, कोई वस्तु का त्याग करना, प्रत्याहार करना, नियम संकल्प आदि करना मानते हैं। यहाँ आत्मध्यान का साधन बताया है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। अब इस रत्नत्रय की महिमा गा रहे हैं। जो पुरुष इस रत्नत्रय को अपनी शक्ति के अनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की सामग्री से धारण करता है वह कर्मों से छूट जाता है। जिस क्षेत्र में जितनी शक्ति से चारित्र धारण किया जा सकता हो, जिस परिस्थिति में, जिस समय में जिस प्रकार सम्यक्चारित्र अधिकाधिक धारण किया जा सकता हो ऐसी भावना होना चाहिए। दर्शनविशुद्धि आदिक 16 कारणों में एक कारण बताया है शक्तित: त्याग। इसका अर्थ कुछ लोग यों कर देते हैं कि शक्ति के अनुसार त्याग करें, अधिक न करें, शक्ति के अनुसार तप करें, शक्ति से ज्यादा न बढें। क्योंकि शक्ति के अनुसार बताया है। तो केवल एक दृष्टि का फेर है। बात वही है। उसका अर्थ यह लेना कि अपनी शक्ति न छिपाकर जितनी भी शक्ति अपने में है सारी शक्ति लगाकर त्याग करें। समस्त शक्तिपूर्वक तप करें। यद्यपि अर्थ वही आया लेकिन इस अर्थ में उत्साह भरा हुआ है और उस अर्थ में शिथिलता बसी हुई है। तो ऐसे ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हैं।