वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 900
From जैनकोष
इति कतिपयवर्णैश्चर्चितं चित्ररूपं चरणमनघमुच्चैश्चेतसां शुद्धिधाम।
अविदितपरमार्थैर्यन्न साध्यं विपक्षैस्तदिदमनुसरंतु ज्ञानिन: शांतदोषा:।।
अज्ञानियों द्वारा चारित्र की अशक्यता- कितने ही अक्षरों के द्वारा वर्णन किया गया जो अनेकरूप निर्दोष चारित्र है सो ऊँचे चित्त वालों का तो शुद्धता का मंदिर है और जिसके परमात्मतत्त्व नहीं जगा है ऐसे पुरुषों के द्वारा यह असाध्य है। यह निर्दोष चारित्र जो ऊँचे चित्त वाले हैं, जिनको कल्याण की विशुद्ध भावना जगी है उनके लिए तो शुद्धता का मंदिर है, वे तो शुद्धि प्राप्त कर लेते हैं और जिन्हें इस यर्थाथतत्त्व का भान नहीं हुआ ऐसे पुरुषों के द्वारा यह चारित्र धारण नहीं किया जा सकता। जो लोग विषयों के प्रेमी हैं उनसे यह चारित्र कैसे निभ सकता है? और, विषयों की रति तब ही मिटती वास्तविक मायने में जब विषयकषायों के विकारों से रहित केवल चैतन्यस्वरूपमात्र आत्मतत्त्व का भान हो। जो लोग इस विषयरहित ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का अनुभव नहीं करते और फिर भी लोकजालों से या लौकिक बड़प्पन से या अन्य-अन्य सत्संगों के कारण विषयों से दूर रहते हैं, फिर भी वे मूल से निर्विषय नहीं बन पाते हैं, क्योंकि उनके यह भाव नहीं होता कि मेरा आत्मा विषयकषायों से रहित केवल जाननहार है, इस कारण सही मायने में विषयों की निवृत्त नहीं होती है। इसी प्रकार पापों से रहित मेरा आत्मा केवल ज्ञानमात्र है ऐसा अनुभव जगे बिना वास्तविक मायने में पापों से दूर भी नहीं हो सकते। तो इन अक्षरों के द्वारा जो कुछ चारित्र का वर्णन किया गया वह चारित्र ज्ञानियों के द्वारा तो धारण किया जा सकता है और जिन्हें अपना स्वरूप न विदित हो उनके लिए यह अशक्य है। ऐसे इस चारित्र को निर्दोष ज्ञानी पुरुष धारण करते हैं।