वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 93
From जैनकोष
ये जाता: सातरूपेण पुद्गला: प्राङ्मन: प्रिया:।
पश्य पुंसां समापन्ना दु:खरूपेण तेऽधुना।।93।।
सातरूप शरीरवर्गणाओं का दु:खरूप से संपन्नता― हे आत्मन् ! इस जगत में जो पुद्गल स्कंध पहिले जिन प्राणियों के मन को प्यारे और सुख उपजाने वाले थे वे ही पुद्गल स्कंध अब दु:ख के देने वाले हो गये। ऐसी बात अनेक परिस्थितियों में हो जाती है। जो पुद्गल वर्गणायें हष्ट पुष्ट शरीर के रूप में आकर इस जीव को सुख देने के कारण बनी थी वे ही पुद्गल स्कंध अब किसी रूप में, फोड़ा फुंसियों में और भी भीतर अनेक रोगों के रूप में इस ही भव में दु:ख के कारण बन जाती हैं अथवा यह हष्टपुष्ट शरीर बालपन में किशोर अवस्था में तो पुष्ट था और धीरे-धीरे पेट बढ़ गया तो दु:ख देने वाला बन गया अथवा यों पुद्गल स्कंध किसी भव में सुंदर शरीर के रूप में आकर इतना मन:प्रिय थे, वे ही पुद्गल स्कंध आज दुर्गंधित बनकर मन:प्रिय नहीं रहे। कितनी घटनाएँ ऐसी हैं अथवा अन्य का कोई शरीर जो मित्र और परिवार के रूप में आकर मन प्रिय बना हुआ था वह ही पुद्गल स्कंध अब किसी अन्य शरीर रूप शत्रु के रूप होकर वह ही इस मन को अप्रिय हो गया है अथवा इस ही भव में जिन-जिन शरीरों से स्नेह था वे कितना अधिक प्रिय लगते थे, लेकिन आज मन बिगड़ने पर, शत्रुता होने पर वे ही शरीर मन को अप्रिय लगने लगे हैं।
अचेतन वैभवों का भी दु:ख हेतुरूप में परिवर्तन― यहाँ इन शरीरों की अनित्यता का वर्णन चल रहा है। जगत् में ऐसा कोई भी पुद्गल स्कंध नहीं है जो शाश्वत सुखरूप ही रहता हो। यह तो जीवग्राह्य शरीर की बात कही गई है। अब धन, वैभव की बात ले लो। जो वैभव पहिले मन को प्रिय लगता था, कुछ कारण से या डाकुवों की उस पर दृष्टि लग जाने से वह ही वैभव अब दु:खरूप जंचने लगा है। इस वैभव को किसी क्षण छोड़ा भी नहीं जा सकता और रखा तो डाकुओं के द्वारा सताये जाने की शंका बनी रहती है, लो अब वह वैभव मन:प्रिय नहीं रहा अथवा कभी-कभी यही वैभव ही विपदा का, प्राणघात का कारण बन जाता है। अब यह स्थिति आती है इस धन के पीछे, डाकू धन भी ले जाय और साथ ही इस धन से यह भय रहता कि कहीं डाकू लोग आकर पकड़ न ले जायें। कहो वे डाकू सारा का सारा धन भी ले ले और प्राणघात भी कर दें तो ऐसी स्थिति आ जाने पर वही धन, वैभव जो पहिले बहुत प्रिय था, अब अप्रिय लगने लगा।
बनी और अनबन का अविश्वास― भैया ! इन पुद्गल स्कंधों से क्या प्रीति करना, ये थोड़ी देर को भले लग रहे हैं, थोड़ी देर बाद में ये अमंगल जंचने लगेंगे। अरे किससे तू द्वेष करता है? इस समय जो तुझे अप्रिय लग रहे हैं कहो कुछ समय बाद वे ही प्रिय बन जायें। जिस बिरादरी से जिस परिवार से आपकी कुछ अनबन सी रहती हो, कोई संयोग ऐसा हो जाय कहो कि उस ही परिवार के लोग खूब भले जंचने लगे अथवा जिस परिवार से आपकी खूब बनी थी, उस बनी-बनी हालत में ही कुछ बात पड़ जाय तो कहो अनबन हो जाय। लो जिस परिवार के लोगों से पहिले बड़ा प्रेम था वही परिवार अब अप्रिय लगने लगा। तो यहाँ कौनसे पुद्गल स्कंध विश्वास के योग्य है? न यह जीवित शरीर और न यह पुद्गल स्कंध कोई भी विश्वास के योग्य नहीं हैं और न ये रमण करने के योग्य हैं। उनसे प्रीति हटा और अपने शाश्वत सहजस्वरूप की ओर दृष्टि दे। यह ही अविनाशी है, सारभूत है और तेरा सहजस्वरूप है।
अनित्यभावना में साध्य प्रयोजन― अनित्य भावना बताने का प्रयोजन है अपने नित्यस्वरूप पर अधिकार जमा लेने का। यदि लक्ष्य की पूर्ति न करे और परिश्रम बहुत करे तो उसका परिश्रम व्यर्थ है। रसोई बनाये और यों ही सिगड़ी जला-जलाकर सारा खाना बनाकर धर दे तो उस खाना बनाने से लाभ ही क्या है? उसमें तो कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। क्या ऐसा करते हुए किसी को देखा है कि कोई खाना तो बहुत बना डाले और फिर उसे फैंक दे? ऐसा तो शायद न देखा होगा। कोई भी काम हो यह जीव अपने अभीष्ट प्रयोजन की सिद्धि के लिये किया करता है। यों ही कोई सबको अनित्य-अनित्य कहता रहे, यह मर गया, वह मर गया, यह नष्ट हो गया, वह नष्ट हो गया, कुछ भी यहाँ नहीं रहने का है यों बकता जाय और जो कुछ मैं हूँ उसकी दृष्टि ही न बने तो वह तो उन्मत्त वाणी है। मुकाबले से देखो ये स्कंध भिन्न हैं, विनाशीक हैं, नि:सार हैं और यह आत्मा का सहज चैतन्यस्वरूप स्व है, अभिन्न है, अविनाशी है और सारभूत है। तू इस अनित्य से उपेक्षा करके निज नित्य में उपयोग दे, इसकी दृष्टि करके प्रसन्न रहा कर।
वैभव पाने की क्या खुशी― हे आत्मन् ! वैभव पाने की खुशी मत बना। उसका तो ज्ञाताद्रष्टा रह। उदय था लो यह आ गया। यह भिन्न वस्तु रखी है, ठीक है, वैभव पाने में खुशी जितनी मानता है यह जीव उससे भी कई गुणी खुशी होनी चाहिये अपने आत्मा के स्वरूप का दर्शन होने पर। ओह ! यह अलौकिक तत्त्व, यह अलौकिक दर्शन सहज आनंदघन इस अंतस्तत्त्व का स्पर्श कितनी अलौकिक विभूति है, इसे न पाकर यह जीव अब तक नाना कुयोनियों में भ्रमण करता चला आया है। इस अविनाशी सहजस्वरूप की दृष्टि में अपने जीवन के लक्ष्य की पूर्ति मान।