वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 92
From जैनकोष
यातायातानि कुर्वंति ग्रहचंद्रार्कतारका:।
ऋतपश्च शरीराणि न हि स्वप्नेऽपि देहिनाम्।।92।।
शरीर का पुनर्यान का अभाव― इस लोक में ग्रह, चंद्रमा, सूर्य, तारे और ऋतुयें ये सब तो जाते हैं और आते हैं अर्थात् ये निरंतर गमनागमन करते हैं। आये हैं तो जायेंगे, गये हैं तो आयेंगे, परंतु जीव का गया हुआ शरीर स्वप्न में भी कभी लौटकर नहीं आता। उदाहरण इसमें लौकिक दिया गया है। वैसे तो ये ऋतुयें भी जो व्यतीत हो चुकी वही नहीं आती पर ऋतु में ऋतु सामान्य लिया है। बसंत गया है तो अगले साल फिर बसंत आयेगा, और ये चंद्र, सूर्य वगैरह रोज आते हैं, जाते हैं, लेकिन शरीर जो गया वह पुन: नहीं आता। यह प्राणी उन शरीरों के लिए वृथा ही प्रीति करता है। अनित्य भावना के इस प्रकरण में शरीर की अनित्यता दिखा रहे हैं।
शरीर की परता, क्षणिकता व असारता― इस मोही जीव का जिस शरीर में प्रेम है वह शरीर प्रथम तो पर है, आत्मा से अत्यंत भिन्न है। शरीर का लक्षण पौद्गलिकता के लिए हुए है और आत्मा का लक्षण चैतन्य स्वरूप के लिए हुए है। पहिली बात तो यह है कि यह शरीर भिन्न है, पर द्रव्य है। दूसरी बात यह है कि यह अत्यंत क्षणिक है। इसमें क्षण-क्षण में परिवर्तन होते रहते हैं। बड़ा परिवर्तन तो कुछ समय व्यतीत होने पर विदित होता है किंतु उसके भीतर क्षण-क्षण में परिणमन हो रहा है और की तो बात जाने दो, यह शरीर दिन रात में कई रंग बदलता है और ऋतुवों में तो रंग बदलता ही है। गर्मी के दिनों में शरीर में निखार होता है, जाड़े के दिनों में देखो तो मुर्दनीसी छाई रहती है। दिन में देखो रंग कुछ है, दोपहर को रंग कुछ है, और शाम को रंग कुछ है। काल के भेद से इसमें रंग बदलते रहते हैं। चिंता शोक आदि के भेद से भी यह शरीर रंग बदलता रहता है। यह देह कितना दुर्बल है, कितना बलिष्ट है और फिर आयु के क्षय होने पर तो यह शरीर सदा के लिए अलग हो जाता है। यों यह शरीर क्षणिक है। तीसरी बात यह है कि शरीर जहाँ से निमित्त है वहाँ से ऊपर तक देख लो, कहीं सार न मिलेगा।
शरीर में हितांश का भी अभाव― भैया ! जीव को हितरूप अंश क्या है इस शरीर में? वही माँस, लहू, चाम, मलमूत्र इत्यादि अपवित्र चीजें भरी हैं। इस शरीर में कोई भी सारभूत बात नहीं है। इस मनुष्य के शरीर में, लोक में भी, काम में अपने योग्य कोई बात नहीं है। लौकिक दृष्टि से पशुवों के शरीर में व्यवहार के योग्य कुछ बातें मिल जाती हैं, हाथी के दाँत, पशुवों के चाम, हड्डी इत्यादि लोक व्यवहार में काम आते हैं, लेकिन इस मनुष्य के शरीर में कोई भी चीज लोकव्यवहार में भी काम में नहीं आती है। उल्टा मरने के बाद यह शरीर यदि कहीं पड़ा रहे तो वहाँ बीमारी फैलने का भय रहता है, सारी दुर्गंध वहाँ भर जाती है। यों इस शरीर से उपद्रव भी आते हैं, लाभ कुछ नहीं होता। तीसरी बात यह है कि यह शरीर नि:सार हैं, ऐसे इस क्षणिक अत्यंत भिन्न शरीर में यह जीव वृथा ही प्रीति कर रहा है।