वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 9
From जैनकोष
तच्छ्रुतं तच्च विज्ञानं तद्ध्यानं तत्परं तप:।
अयमात्मा यदासाद्य स्वस्वरूपे लयं ब्रजेत्।।9।।
यह आत्मा जिसको पाकर अपने स्वरूप में लय को प्राप्त हो जाय बस वही वास्तव में श्रुत है अर्थात् शास्त्र श्रवण है, वही विज्ञान है, वही ध्यान है और वही उत्कृष्ट तप है।
शास्त्र श्रवण का प्रयोजन―जैसे कोई पुरुष बड़े चाव से, बड़े श्रम से तो रसोई बनाये, भोजन व्यवस्था करे और सब कुछ कर चुकने पर भी खिलाने या खाने की मन में बात ही न सोचे, विचार ही न करे यों ही छोड़ दे, फैंक दे तो उसे लोग पागल जैसा कहेंगे। काहे के लिये यह श्रम कर रहा है?जैसे कोई नदी में नाव में बैठकर नाव को खेवे और कभी पूरब, कभी पश्चिम, कभी उत्तर और कभी दक्षिण दिशा को वह नाव खेता रहे, किसी किनारे पर लगने का लक्ष्य ही न बनाये तो ऐसे नाव खेने वाले को तो कोई विवेकी न कहेगा। जैसे कोई लेखक भी ऐसे हो सकते हैं लिख डाले 5-7 सफे और उसमें क्या कहा गया है, कुछ न भरा हो तो ऐसा लेख लिखने वाला विवेकियों के आदर योग्य नहीं है, कोई पुरुष 10-15-20 मिनट तक बोले कहीं का छोर कहीं का ओर ऐसा बोलने वाले को कोई विवेकी आदर तो न देगा। ऐसे ही धर्म के नाम पर कितना ही कुछ कष्ट कर लिया जाय; भक्ति, पूजा, ध्यान, उपवास, गानतान, संगीत समारोह अथवा शास्त्र का प्रतिदिन सुनना, बड़ी ज्ञान की बातें कहना सब कुछ कर लिया जाय, लेकिन किसी भी क्षण यह आत्मा पर पदार्थों के विकल्प से हट कर अपने स्वरूप में प्रकाश न करे, अपने स्वरूप की सुध भी न ले तो ऐसे बड़े श्रमों को भी ज्ञानी संत आदर न देगा। शास्त्रश्रवण वही हैजिसका आश्रय करके जिस बीच ऐसा ध्यान लगाये, चित्त बनाये कि अपने स्वरूप में लीनता को प्राप्त हो सकता है।
श्रोतावों को धर्मानुभव का विशेष अवसर―देखो इस प्रसंग में वक्ता से भी अधिक आत्मीय आनंद लेने का अवसर श्रोता को है। सभा में बोलने वाला व्यक्ति किसी क्रम से बोले, कुछ कहना चाहे तो वह स्वरूप में लीन होकर तो नहीं बोल सकता, भले ही उसके निकट फिरता हुआ बोले। वक्ता को यह अवसर कहाँ है कि वह बोलते हुए अपने स्वरूप में लीन भी हो जाय और एक सहज आनंद का अनुभव भी कर ले। क्योंकि उसे श्रम करना है, बोलना है, लेकिन श्रोतावों को क्या हैं, बड़े ध्यान से सुन रहे हैं, वहीं किसी समय सर्वविकल्प तोड़कर अपने आपके स्वरूप में लीन होना चाहे तो उसे अवसर है। शास्त्र श्रवण तो वास्तव में वही है कि जिसको पाकर यह अपने स्वरूप में लीनता को प्राप्त हो जाय। सुनते हुए में यह ध्यान रहना चाहिये कि मेरा हित क्या है? मुझे हित चाहिये, शांति चाहिये, सत्यमार्ग चाहिये, मुझे कल्याण की वांछा है ऐसे भावपूर्वक शास्त्र श्रवण हो तो उससे इस प्रयोजन की सिद्धि संभव है। कोई पुरुष पहिले घर से ही चलते हुए यह सोचकर आये कि आज मैं जाऊँगा शास्त्र में और देखूँगा कि किस तरह से वक्ता बोलता है, क्या ढंग बनाता है और जो प्रभाविक कला होगी उसे भी हम सीखेंगे, हम भी वैसा बोलेंगे अथवा कोई बात अनुचित दिखे विरुद्ध निकले तो मैं दुनिया को बताऊँगा कि इनमें यह दोष है। तो कुछ भी बात हो, अथवा आज मैं ऐसा पूछूँगा और देखूँगा कि क्या उत्तर देते हैं? कुछ भी विकल्प करके यह विकल्पक शास्त्र श्रवण का आनंद नहीं ले सकता है। जो अपने को न कुछ सा समझकर आये, मुझे तो संसार के बड़े संकट लगे हैं, क्लेश जाल में पड़े हुए हैं, ये मेरे क्लेशजाल कैसे छूटें, शांति का मार्ग कैसे मिले, ऐसा विशुद्ध आशय हो तो शास्त्रश्रवण का आनंद उसके हाथ लग सकता है, और इस प्रकार का शास्त्रश्रवण वास्तव में श्रवण है।
श्रेाता का एक दृष्टांत― एक कथानक है कि एक घुड़सवार जा रहा था। उसे एक भवन में बड़ी जगह में बहुत से आदमियों की भीड़ जाती हुई दिखी। लोगों से पूछा कि यहाँ बहुत से लोग क्यों जा रहे हैं? लोगों ने बताया कि हम सभी कथा सुनने जा रहे हैं, यहाँ पंडित जी रोज-रोज कथा पढ़ते हैं। उसने कहा अच्छा मैं भी कथा सुनने चलूँगा।घोड़े को बाहर छोड दिया वह भी उसी हाल में पहुँचा। सुयोग की बात कि उस दिन कुछ वैराग्य का प्रकरण चला। उस प्रकरण को सुनकर इसको तो वैराग्य जग गया। घोड़ा तो कहीं चला गया और वह जंगल में जाकर किसी योगी से संन्यास लेकर उसका पालन करने लगा है। अब एक दो वर्ष बाद वही फिर उसी शहर से निकला तो उसी जगह बहुत से आदमी जा रहे थे।लोगों से पूछा कि भाई ये लोग कहाँ जा रहे हैं?बताया कि ये सभी लोग कथा सुनने जा रहे हैं। ये कथा सुनने कब से जा रहे हैं? बताया कि इसकी परंपरा 10-12 वर्ष से चली आ रही है। तभी से ये लोग जा रहे हैं। तब संन्यासी बोला कि अहो धन्य हैं ये भाई, हम तो एक दिन कथा सुनने पहुँचे तो हमारे ऐसे चोट लगी कि फिर मैं घर में नहीं रह सका और इनको धन्य है जो इतने दिनों से कथा भी सुन रहे हैं व रोज-रोज उपदेश की चोट भी सहते जाते हैं।
भैया ! भीतर से यदि हित की आकांक्षा जगी है तब तो शास्त्रश्रवण से लाभ है और यदि परंपरा चलाने की गरज से हम इस कुल के हैं, हमारा यह काम है, हम ही न आयेंगे तो समाज के और लोग कैसे आयेंगे या किन्हीं भी बातों से शास्त्र का सुनना ही तो वह किसी को लाभ न देगा। इस कारण सुनने में यह भावना हो कि मैं कर्मों से घिरा, शरीर से बँधा, नाना संकटों में पड़ा, कैसे इन संकटों से मुक्त हो सकूँ अब मेरा हित कैसे हो, शांति कैसे मिले, इस भावना के साथ शास्त्र का श्रवण होना चाहिये। देखिये अपनी भलाई की जो बात है वह सब अपने हाथ है। जिन विचारों में कल्याण भरा है उन विचारों का करना तो मुझे ही है, मैं ही अपनी भलाई के लिए सब कुछ कार्य कर सकता हूँ। शास्त्रश्रवण वही है जिसको पाकर यह आत्मा अपने स्वरूप में लीन होने का प्रयत्न करे।
सफल विज्ञान― विज्ञान भी वही है, विविध ज्ञान, भेद-विज्ञान भी वही है जिसको पाकर यह जीव अपने स्वरूप में लीन हो जाय। भेद-विज्ञान तब तक भेद-विज्ञान न कहलायेगाजब तक हेय से हटने और उपादेय में लगने का परिणाम उत्पन्न न हो। जैसे चावल शोधे जाते हैं तो उसमें यह भेदविज्ञान रहता है कि चावल तो यह है और बाकी कूड़ा यह है, मुझे चावल अपने पास रखना है और कूड़ा फेंकना है। ऐसा चावल शोधने में चित्त रहता है कि नहीं? न रहे तो वहाँ जाना ही क्या?ये क्रोधादिक भाव मेरे भाव नहीं हैं, परभाव हैं। मेरा भाव तो एक चैतन्य प्रतिभास है, प्रकाश है। ऐसा किसी को भेदविज्ञान जगे और क्रोधादिक से हटने का यत्न न हो तो इसे कौन मान लेगा कि यह भेदविज्ञान है? आश्रव आदिक परभावों में और आत्मा के सहज स्वभाव में भेदविज्ञान है तो कषायों से इसको हटाता हुआ ही उत्पन्न होता है। यह नहीं हो सकता कि भेदविज्ञान भी जग जाय और आश्रव में, कषायों में, विषयों में आसक्ति बनी रहे। यदि आसक्ति हैं तो वहाँ ज्ञान नहीं है।
आत्मपरिच्छेदन बिना विज्ञान की निष्फलता― विज्ञान वही है जिसकी प्राप्ति करके यह आत्मा अपने स्वरूप में लीन हो जाय। ज्ञान की बात जो बोले अर्थ तो उससे निकलेगा ही, पर उसका अर्थ हृदय में घटित न हो तो इसके लिये वह ज्ञान, ज्ञान नहीं रहा, वह तो एक बोलचाल रहा, श्रम रहा, सीखना रहा। जैसे किसी छोटे बच्चे को व्याख्यान रटा दिया। कलापूर्ण ढंग से वह व्याख्यान को बोल देता है, लेकिन उसका मर्म उसे विदित नहीं हो पाता है। कितने ही लोग संस्कृत के स्तवन बड़े राग से पढ़ते हैं परंतु उनका अर्थ विदित नहीं है तो मर्म नहीं उतर सकता।
ऊपरी ज्ञान वचन का एक दृष्टांत― एक किसी भाई ने तोता पाल रखा था और उसे यह सिखा दिया था इसमें क्या शक? एक कोई ब्राह्मण भाई आया, उसे वह तोता बड़ा सुंदर लगा, पूछा क्यों भाई ! तोता बेचोगे?वह बोला―हाँ-हाँ बेचेंगे।...कितने रुपये लोगे?...100 रुपये लेंगे। अरे ! तोते तो 8-8 आने के आते हैं, इसमें100 रु. के योग्य कौनसी खास बात है?उसने बताया कि इस तोते से ही पूछ लो कि तुम्हारी 100 रु. की कीमत है या नहीं। उस ब्राह्मण ने तोते से पूछा― कहो तोते तुम्हारी कीमत 100 रु. है क्या? तो ताते ने क्या कहा― इसमें क्या शक? ब्राह्मण ने सोचा कि तोता योग्य है, सो उसे 100 रु. में खरीद लिया। ब्राह्मण ने अपने घर ले जाकर उसे खूब अच्छी-अच्छी चीजें खिलाई। शाम को ब्राह्मण रामचरित्र लेकर बैठ गया, राम की कहानी सुनाने लगा तो तोता बोला― इसमें क्या शक? अब वह रामचंद्र के गुण गाने लगा। तोते से पूछा कहो तोते ठीक है ना? तो उसने क्या कहा?इसमें क्या शक? सोचा कि यह तो बहुत विद्वान मालूम होता है। कुछ आत्मस्वरूप की चर्चा करने लगा, फिर पूछा कहो ठीक है ना? तो तोता क्या कहता―इसमें क्या शक? अब तो ब्राह्मण को भी शक हुआ कि यह यही बात बार-बार बोलता है। ब्राह्मण ने पूछा―कहो तोते क्या मेरे 100 रु. पानी में चले गए? तोता क्या बोला? इसमें क्या शक? तो मात्र ऊपरी ज्ञान की बात, बोलने की बात और है, और घट में उतरने की बात और है।
वास्तविक विज्ञान― विज्ञान वही है जिसको पाकर यह आत्मा अपने स्वरूप में लीन हो जाय, स्वरूप में लीन होने का अर्थ क्या है? यह आत्मा जो परपदार्थों के संबंध में नाना विकल्प मचा रहा है, इष्ट अनिष्ट, झगड़ा विवाद, पक्ष नाना तरंगे उठ रही हैं ये सब तरंगें समाप्त हों और केवल एक जाननमात्र का अनुभवन रहे, कोई विकल्प न उठे, केवल एक प्रतिभास ही चारों ओर सम्यग्ज्ञान का रहे ऐसी स्थिति बने उस कहते हैं स्वरूप में लीन होना। ऐसी स्थिति जिस विज्ञान को पाकर हो, विज्ञान तो वही है।
अनुभूति की प्रयोग साध्यता पर एक लौकिक दृष्टांत― यह ज्ञान प्रयोग और अनुभव से संबंध रखता है। केवल एक शाब्दिक जाल से ज्ञान नहीं बनता। किसी को रोटी बनाने की विधि वचनों से खूब सिखा दो, देखो आध घंटा पहिले आटा सान लो, फिर उसे गूँदो, फिर उसकी लोई बना लो, लोई छोटी होनी चाहिये। परथन लगाकर उसे बेलों, फिर रोटी तवे पर डाल दो, उसे जल्दी ही पलट दो, दूसरे पर्त को कुछ देर में पलटो फिर धधकते हुए कोयले की आंच में रखकर उसे जल्दी-जल्दी उलटते जावो। किसी तरफ उसमें छेद हो जाय तो चिमटे से बंद कर दो। यों रोटी बन जायेगी। इस प्रकार वचनों से किसी को रोटी बनाना खूब सिखा दो और दूसरे दिन धर दो आटा व कहो बनावो साहब रोटी, तो क्या वह रोटी बना पायेगा? नहीं बना सकता। यों ही वचनों से चाहे चार महीने तक सिखा दो आत्मानुभव का स्वरूप, पर वह अनुभव नहीं बना सकता। जब तक कि खुद विकल्प तोड़कर अंतस्तत्त्व का प्रकाश न पाये। अरे वह तो प्रयोग साध्य चीज है। जैसे आपने वचनों से रोटी बनाना सिखा दिया, प्रयोग करके नहीं सिखाया तो वह रोटी कैसे बना पायेगा? ऐसे ही इन ग्रंथों के पढ़ लेने से बांच लेने से अपने आपको कुछ लाभ नहीं मिल पाता। जो भी शास्त्र में पढ़े अथवा सुने उसे अपने आपमें घटित करे, अपने आपमें अपना कार्यक्रम बनावे, यह विधि होगी शास्त्रविज्ञान की।
हितकारी ध्यान― ध्यान भी वही है जिस ध्यान को पाकर आत्मा अपने स्वरूप में लीन हो जाय। देखिये मनुष्य काम अनेक करता है, धन कमाना, मकान बनाना, बड़ी व्यवस्थाएँ करना, लोक में, गाँव में, देश में अपना रुतबा रखना, नाम रखना ये कितने प्रकार के काम मनुष्य कर रहे हैं, पर वे सब काम इस मनुष्य को शांत नहीं कर सकते। बहुत-बहुत काम करने के बाद रोता का ही रोता अपने को पाता है यह। बल्कि कभी-कभी तो अपने को लुटासा अनुभव करता है। इससे तो अच्छी मेरी 20 साल पहिले की स्थिति थी, आज अपने को लुटा हुआ सा अनुभव कर रहे हैं। बात यह है कि जो कुछ किया पर का विषय बनाकर, पर के संबंध में जो भी भावात्मक यत्न किया वह सब अपने घात के लिये किया गया है, अपने विकास के लिये नहीं किया गया।
संसारी जीव में ध्यान की वृत्तियाँ― ध्यान बिना कोई रहता है क्या? प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी ध्यान में रहता है, जिसको जो बात प्रिय है, जो बात इष्ट है वह उसके ध्यान में बना रहता है। किसी का धन में, किसी का पुत्र में, किसी का स्त्री में, किसी का भगवान के भजन में, किसी का आत्मस्वरूप में ध्यान बना रहता है। ध्यान बिना कोई मनुष्य रह नहीं सकता। इन बातों को अधिक बताने की आवश्यकता नहीं है। सभी को मालूम है, सभी को अपने-अपने जीवन का अनुभव है। सब पर घटनाएँ गुजरती हैं। सबके बुद्धि और प्रतिभा है।थोड़ा हित की आकांक्षा के भाव से निर्णय करें तो सब कुछ ठीक निर्णय में आ जाता है। ध्यान तो वास्तव में वही है जिसको पाकर अपने आत्मस्वरूप में लीन हो जाय। सम्यग्ज्ञान के प्रकाश बिना ये सब बातें उत्पन्न नहीं हो सकती।
नीरंग और निस्तरंग उपयोग― भैया ! सम्यग्ज्ञान वही है जिस प्रकाश में प्रत्येक पदार्थ खुद का अपना-अपना स्वरूप लिये हुए स्वतंत्र स्वयं में प्रभु हैं। इस प्रकार की दृष्टि न बने, ऐसा ज्ञान न जगे तब तक वह ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहला सकता। अहित से हटाये, हित में लगाये, ऐसा ज्ञान जब तक नहीं बन सकता तब तक सम्यग्ज्ञान कहला नहीं सकता। ध्यान वही श्रेष्ठ है जो इस आत्मा को अपने आपमें लीन कर दे, नीरंग निस्तरंग बना दे। समुद्र के या नदी के किनारे आप बैठें तो उसमें आपका प्रतिबिंब पड़ता है, आप अपना मुख उसमें देख सकते हैं। यदि वह जल नीरंग और निस्तरंग है तो आप उसमें अपना फोटो साफ निरख सकते हैं और यदि सरंग, सतरंग है तो उसमें अपना फोटो नहीं देख सकते। वह पानी गंदा हो, कीचड़युक्त हो तो उसमें आपको फोटो नहीं दिख सकती और जल में यदि चारों ओर से तेज लहरें चल रही हों तो भी उसमें आपको अपना फोटो नजर नहीं आ सकता। ऐसे ही इस आत्मा में रागद्वेष का रंग चढ़ा हुआ हो तब भी अपने स्वरूप के दर्शन नहीं हो सकते और वे रागद्वेष रंच भी कम हों, मंद हों लेकिन चंचलता अधिक हो, ज्ञान की स्थिरता न बन सकती हो वहाँ भी आपको अपना दर्शन नहीं हो सकता। सम्यग्यान के बल से जब एक सहज स्वरूप का ध्यान बनता है तो वहाँ रंग और तरंग दोनों हट जाते हैं और वहाँ स्वरूप दर्शन होता है। ज्ञान की स्थिरता को ध्यान कहते हैं। ध्यान हितकर वही है जिसे पाकर यह जीव अपने स्वरूप में लीन हो।
वास्तविक तपश्चरण― तपस्या भी परम वही है जिसमें स्वरूपदर्शन हो। अनशन कर लिया तो क्रोध और बढ़ गया, क्योंकि जब भूख रहती है तो क्रोध बढ़ने का अवसर प्राय: जल्दी आता है। कोई प्रतिकूल बात करे तो क्रोध बढ़ जाता है, यह सबकी बातें नहीं कही जा रही हैं, किंतु प्राय: जैसा साधारणजनों में होता है, वैसा बताया जा रहा है। तो वह तपस्या क्या रही जिसमें कषाय और बढ़ जाय, अथवा मान बढ़ जाय, लोग समझें कि ये व्रती हैं, ये ऐसा उपवास रखते हैं। तो वह तपस्या क्या रही? अथवा माया-लोभ बढ़जाय। देखो धर्म करने से पुण्यबंध होता है, फिर उसे स्वर्ग के सुख मिलते हैं। कर रहा है, लग रहा है तपस्या में। अरे भैया ! यहाँ शांति तो हुई ही नहीं अभी क्योंकि उद्देश्य भी सांसारिक रख लिया। तपस्या भी वही है जिसमें रहकर यह जीव अपने स्वरूप में लीन हो सके।
तपश्चरण की लाभप्रद पद्धति― देखो अनशन हो, कायक्लेश हो, गर्मी का सहन हो, किसी प्रकार का भी तपश्चरण हो उस तपश्चरण में सीधा लाभ तो यह होता है कि विषय कषायों में चित्त नहीं बसता और ऐसी स्थिति में जबकि विषयकषायों का विकल्प नहीं रहा तो इस तपस्वी को आत्मा के स्वरूप के स्वरूप में लीन होने का मौका मिलता है। पर यह लीनता एक ज्ञानानुभाव द्वारा ही होती है। इसमें यह शिक्षा दी है कि सुनो तो इस तरह कि अपने आपको छूते रहो, ज्ञान करो तो ऐसा कि अपने आपकी सुध रहे, ध्यान करो तो ऐसा कि अपने आपमें लीनता हो जाय, तपस्या करो तो ऐसी कि अपने आपके निकट रहा करें, यही एक अपने कल्याण की विधि है।