वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 8
From जैनकोष
प्रबोधाय विवेकाय हिताय प्रशमाय च। सम्यक् तत्त्वोपदेशाय सतां सूक्ति: प्रवर्तते।।8।।
सत्पुरुषों की सूक्तियों के प्रयोजन―सत्पुरुष क्यों उपदेश किया करते हैं, उनके उपदेश से जनता को क्या मिलता है?उपदेश के उन प्रयोजनों को बताने के लिये यह श्लोक आया है। सज्जन पुरुषों की वाणी जीवों के प्रबोध के लिये, विवेक के लिये, हित के लिये, शांति के लिये, और सम्यक्तत्त्वोपदेश के लिये प्रवृत्त हुआ करती है। जिस वाणी में ये प्रयोजन न हों, प्रत्युत उससे उल्टा ही प्रयोजन निकले तो वाणी एक बकवाद है। वह सूक्ति नहीं कही जा सकती है।
सूक्ति का प्रथम प्रयोजन― जो वाणी जीवों को प्रबोध दे सके ऐसी वाणी सत्पुरुषों की हुआ करती है। जो वाणी राग में अंधा बना दे वह वाणी सूक्ति नहीं कहला सकती। सज्जन पुरुषों का उपदेश विशेष रूप से इसलिये होता है कि लोगों का सही ज्ञान बने। यद्यपि उपदेशश्रवण का प्रयोजन इतना ही हे कि तुम निज को निज जान लो और पर को पर समझ लो तथा पर से निवृत्त होकरअपने आपमें लग जावो, किंतु इतना सा काम करने के लिये स्वपरविषयक विशेष ज्ञान होना चाहिये। यद्यपि स्वपर के संबंध में जिसके जितना भी यथार्थ ज्ञान है वह इतने से प्रयोजन की सिद्धि कर लेता है। फिर भी यह बात आम है, साधारण है कि पदार्थों के संबंध में जितना विशेष परिज्ञान होगा, भेदविज्ञान में उतनी ही निर्मलता आयेगी।
विषद ज्ञान में विशेष ज्ञान का सहयोग― जैसे एक तो सीधे यह जान लिया कि शरीर जुदा है और आत्मा जुदा है, जैसा कि सभी लोग कहते हैं, देहातों में भी आबाल गोपाल सभी लोग कहा करते हैं। किसी के मर जाने पर मरघट ले जाते हुये सभी याद किया करते हैं कि शरीर जुदा है, जीव जुदा है। शरीर को छोड़कर यह जीव चला गया। किंतु विशेष ज्ञान के परिज्ञान की विशेषता देखिये। यह शरीर एक मायारूप स्कंध है, आहारवर्गणावों से बना हुआ है। उन आहारवर्गणावों में मूल परमाणु है वह परमाणु कैसा होता है, कैसे स्कंध बनता है और कैसे इंद्रजाल बनता है? शरीर के संबंध में बहुत सी बातें विदित हों, जीव के संबंध में बहुत परिज्ञान हो, इसका क्या स्वभाव है, सहज परिणमन कैसा है, साधारण गुण का क्या प्रभाव है, विशेष गुण से इसमें कौनसी विशेषता है, कैसा परिणमन है, कैसे यह इन पर्यायों में आता है? जिसके विशेष-विशेष ज्ञान हो, ऐसा पुरुष देह से भिन्न जीव है, इतनी सी बात को कितनी विशदता से जानता है।
विशेष परिज्ञान की विशेषकता― प्रयोजन की सिद्धि में, शांति की साधना में पदार्थों का विशेषपरिज्ञान भी आवश्यक है। जैसे कोई पुराना नौकर है तो उसे सारी बातें मालूम रहती हैं इस कारण उसे थोड़ीसी बात बता दी। लो वह सब इशारे से ही समझ जाता है और कोई नया ही नौकर आये तो उसे वह थोड़ीसी बात भी समझने में कठिनाई होती है। ऐसे ही जिस पुरुष के ज्ञान है, प्रतिभा है वह थोड़ीसी बात सुनकर बहुत अधिक परिज्ञान कर लेता है और कोई पुरुष जिसके ज्ञान नहीं है, प्रतिभा नहीं है उसे जितना बतावो उतना ही अवधारण करता है। यह सब एक भीतरी प्रकाश का प्रताप है।
प्रतिभा का एक छोटा दृष्टांत― एक बार किसी दुकान पर रहने वाले पल्लेदार ने कहा मालिक से कि ऐ मालिक ! मैं तो रात दिन कितना बोझा ढोता हूँ, आपका बहुत काम करता हूँ, मुझे आप 20 रु. ही देते हैं और यह मुनीम जो कुछ नहीं करता, बैठे-बैठे हुकुम चलाया करता है इसे आप हमसे 5 गुना अधिक देते हैं, यह क्यों अंतर है? मालिक ने कहा बता देंगे 10-5 दिन में कभी। दूसरे दिन ही सड़क पर से एक बारात गुजर रही थी। तो मालिक ने पल्लेदार से कहा, जावो मालूम करो कि यह क्या चीज है? वह पल्लेदार मालूम करने गया। पूछा किसी से तो बता दिया कि यह बारात है। वह आकर मालिक से कहता है हुजूर यह बारात है। ठीक, थोड़ी देर बाद मुनीम से कहा सेठ ने कि देखो यह क्या बात है? तो मुनीम गया और बहुत सी बातें पूछकर जान लिया कि यह बारात है, किसकी है, कहाँ से आयी है, कहाँजायेगी, कितने दिन में लौटेगी? ये सारी बातें जान करके आया और एकदम सबकी सब बातें बता दी। फलाने गाँव की बारात है, अमुक आदमी की है, अमुक जगह जा रही है, सब कुछ बताया तो मालिक ने नौकर से कहा देखो यह अंतर इस बात का है। जितना हमने कहा उतना ही तुम समाधान लेकर आये और देखो इस मुनीम ने सारी बातें बता दी। यद्यपि ये सारी बातें बारात के बारात के संबंध में वह पल्लेदार भी जान सकता था, पर उन बातों की ओरउसका लक्ष्य ही नहीं दौड़ सका। तो अपना लक्ष्य होना चाहिये कि हम इसे हितपद्धति से और अधिक समझें। सज्जनों की सूक्ति ऐसे प्रकृष्ट ज्ञान के लिये होती है।
सत्पुरुषों की सूक्ति का द्वितीय प्रयोजन― सज्जनों की सूक्तियाँ विवेक के लिये होती हैं। विवेक का अर्थ यह है कि आत्मा और पर का भेद जानने में आये। विवेक का अर्थ लोग ज्ञान करते हैं। इसने बड़ा विवेक किया अर्थात् बहुत ज्ञान किया। पर विवेक का अर्थ ज्ञान नहींहै। विवेक का सीधा अर्थ है टुकड़े कर देना, न्यारा कर देना, पर न्यारा करना ज्ञानपूर्वक ही तो होता है, इसलिये विवेक का अर्थ ज्ञान प्रसिद्ध हो गया। पर जिसमें भेदविज्ञान न हो, हेय को छोड़ने, उपादेय को ग्रहण करने जैसी बात जिस ज्ञान में न समायी हो उस ज्ञान को विवेक नहीं कहा, और कुछ सुनने में ऐसा भद्दा भी लगता है जब विवेक शब्द का जहाँ सही प्रयोग होना है वहाँ ज्ञान का प्रयोग करे तो अटपटासा थोड़ा लगेगा। जैसे किसी चतुर पुरुष ने हेय चीज को छोड़कर उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धिमानी की, उसके संबंध में लोग यह कहेंगे ना, इसने बड़े विवेक से काम लिया। इसने बड़ा विवेक किया। उस प्रसंग में, उस कार्य के प्रतिबोधन के लिये यदि हम ऐसा कहें कि इसने बड़ा ज्ञान किया तो कुछ अटपटासा लगा या नहीं?विवेक का अर्थ भेद कर देना है। सज्जनों की सूक्ति हेय को छुटाकर उपादेय को ग्रहण कराने के लिये होती है। जिस ज्ञान के फल में हेय का त्याग और उपादेय का ग्रहण करने की बुद्धि नहीं जगती है वह ज्ञान किस काम का?
अविवेक की स्थिति में जानकारी की दशा―एक बहुत प्रसिद्ध दृष्टांत है, सुवा को खूब रटा दिया सुवा पिंजड़े में पला हुआ था। उसे रटा दिया गया पाठ कि देख तू इस पिंजड़े से भागना नहीं, भागना तो नलनी पर न बैठ जाना, नलनी पर बैठ जाना तो दाने चुगने की कोशिश न करना, दाना चुगना तो उलट न जाना, उलट भी जाना तो छोड़करउड़ जाना। पाठ इस तरह का उस तोते ने याद कर लिया। ज्ञान विवेक तो था नहीं। सो मौका पाकर वह पिंजड़े से उड़ गया, नलनी पर बैठ गया, दाने चुगने लगा, उलट गया, मजबूती से पकड़े है नलनी को, और पाठ वही पढ़ता जा रहा है। उसे छोड़कर भाग नहीं पाता। ऐसे ही मोही जीव का पाठ तो यह था कि जो मायामय चीजें हैं, विनाशकारी बातें हैं, इनका त्याग कर दो और सुखी करने की बातों को ग्रहण कर लो, पर यह न करे तो उस रटने से और उस ज्ञान से लाभ क्या?
विवेक से ही ज्ञान की सार्थकता― भैया ! हम भी पढ़ते हैं आप भी पढ़ते हैं―‘आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय।’ और कभी दिल में ठोकर ही न लगे। मैं कितनी निम्न दशा में हूँ, कैसा विषयकषायों में जकड़ा हूँ, यह वास्तव में अहितकारी है, मेरे लाभ के लिये नहीं है। इतना तक भी चित्त में न आये और रटा हुआ पाठ पढ़ते जायें तो उसे ज्ञान कैसे कहा जाय? ज्ञान तो वही है जो विवेक के लिये बने। सज्जन पुरुषों की प्रवृत्ति विवेक के लिये होती है। जैसे किसी को रटा दिया यस और नो, इन दोनों शब्दों को बहुत से लोग जानते हैं। कोई लोग ऐसे भी हैं जो यस की जगह नो कह देते और नो की जगह यस कह बैठते हैं, क्योंकि उन्हें सही पता तो है नहीं। वह यस और नो रटा लिया है, विवेकपूर्ण नहीं है। तो विवेक बिना तो यह ज्ञान भार है। चूँकि इस चैतन्य में ज्ञान हो रहा है ऐसा नहीं कह सकते, फिर भी करीब-करीब ऐसा मानों जैसे रिकार्ड बोल जाते हैं, ये विवेकपूर्वक बोलते हैं क्या? ऐसे ही विवेक बिना ज्ञान भार है। सज्जन पुरुषों की सूक्तियाँ विवेक के लिये हुआ करती हैं।
सत्पुरुषों की सूक्ति का तृतीय प्रयोजन― सत्पुरुषों का उपदेश हित के लिये होता है। हित उसे कहते हैं जिसमें शांति मिले। आत्मा का हित शांति है, और शांति वही है वास्तव में जहाँ आकुलता न हो, निराकुलता हो। निराकुलता सर्व प्रकार से सदा के लिये हो सके। मोक्ष में निराकुलता है। उस मोक्ष के लिये यत्न करना बस यही हित का प्रयत्न है। परम हित मुक्ति में है। मुक्ति का अर्थ है छूटना। शरीर, कर्म, कषाय, विषय, इच्छाएँ ये हम आपको जकड़े हुये हैं, और इसजकड़ाव से पदभ्रष्ट भी हम कोई हो जाते हैं। इस अज्ञान अंधकार में हम यत्न तो करते हैं बहुत-बहुत सुख के लिये, पर जो यत्न होते हैं वे दु:ख के लिये होते हैं।
संसरणदशा में हानि पर हानि― जैसे कोई कहते हैं ना जिसका उदय अच्छा नहीं होता कि भाई हमारा तो पाप का उदय है, हम जिसमें हाथ डालते हैं उसमें ही नुकसान पड़ता है और यहाँ संसार अवस्था में देखो तो तीव्र पाप का उदय है। ये संसारी जीव जो भी यत्न करते हैं, पुरुषार्थ करते हैं उसमें ही इन्हें हानि उठानी पड़ती है, लाभ कुछ नहीं मिलता है। जैसे 20, 50 वर्ष हो गये, घर गृहस्थी, बाल बच्चों की संभाल में कष्ट भी बहुत-बहुत उठाया। सब कुछ करने के बाद आज भी संतोष की स्थिति में नहीं हैं, कहो उल्टा और क्लेश की स्थिति में आ गये हों। जहाँ बहुत समूह हो जाता है, कोई बात मानता है, कोर्इ नहीं मानता। समझ रहे हैं यह कि ये पुत्रादिक मेरे आधीन हैं, में जो कहूँ सो इन्हें शतप्रतिशत वहीं करना पड़ेगा, किंतु हैं वे स्वतंत्र पदार्थ। उनके मन में आये तो करें, न मन में आये न करें, अब यहाँ दु:खी होना पड़ रहा है क्योंकि चित्त में यह बसाया है कि में इनका अधिकारी हूँ। जो मैं कहूँ सो इन्हें करना पड़ेगा और यह बात वहाँ होती नहीं तो वहाँ दु:खी होना पड़ता है।
भावसंसार में शांति का नितांत अभाव― भैया !10, 20, 50 वर्ष गृहस्थी में रहते हुये गृहस्थी के समस्त कार्य करते हुये आज बतावो कितनी शांति है, कितना लाभ हासिल किया है? कोर्इ कुछ बता सकता है क्या? बता ही नहीं सकता क्योंकि लाभ मिलता हो तो बतावें।कुछ हासिल हुआ हो तो बतावे।ऐसे ही इस समग्र संसार में हर जगह भ्रमण करते हुये यह जीव अब तक इतने समागमों में गुजर कर भी आज वैसा का वैसा ही दीन, कायर, आशावान्, जन्म–मरण के चक्र में रहने वाला बना हुआ है। कितनी कठिन स्थिति में फँसा है और फिर भी कोई मोही अपने को सुखी माने तो वह वास्तव में सुखी नहीं है। घर, दुकान के कार्यों में और उस सुख की मान्यता के विकल्पों में भी निरंतर क्षोभ बसा हुआ है, और वह शांत विश्रांत नहीं हो पा रहा है। इसकी उसे सुध नहीं है। इन सब बंधनों से मुक्ति मिले तो वहाँ निराकुलता समझिये।
मुक्ति के उद्यम में यथार्थ ज्ञान की कर्तव्यता― मोक्ष पाने के लिये हमें यही अभी से क्या काम प्रारंभ करना चाहिये? काम यही करना चाहिये कि जिनसे हम छूटना चाहते हैं, उनसे हम इस समय भी अपने स्वरूप सत्त्व की दृष्टि से न्यारे हैं, इतनी बात ज्ञान में आ जानी चाहिये, छूटना जब होगा तब होगा, पर शरीर का स्वरूप यह है; मेरा स्वरूप यह है अमूर्त ज्ञानानंदस्वभाव है, ऐसा भेद जानने लगे, यदि यह भी नहीं किया तो अभी मुक्ति का मार्ग मिला न समझिये। बल्कि यह संसारभ्रमण और लंबा होता चला जायगा। भेदविज्ञान की बहुत बड़ी महिमा है। भेदविज्ञान का हम अब बहुत-बहुत उपयोग करें, इसका आश्रय लिये बिना, इसकी कृपा पाये बिना हम दु:खों से छूट नहीं सकते। सज्जन पुरुषों की वाणी ऐसे ही हित के लिये हुआ करती है।
भेदविज्ञान व अभेदविज्ञान का कदम― हितपूर्ण ज्ञान में प्रथम तो भेदविज्ञान है और फिर भेदविज्ञान का फल तो यह था कि हेय से हटें और उपादेय में लगें तो हेय से हटकर हम अपने विषयभूत निज ज्ञानस्वरूप में लग गये। अब परतत्त्वों की सुध नहीं रही तो इसे कहते हैं अभेदज्ञान। तीन चीजें हुआ करती हैं, एक भेदविज्ञान का अभाव, दूसरी बात भेद विज्ञान और तीसरी बात अभेदज्ञान। भेदविज्ञान अभाव तो दु:खमय ही है। वह तो अज्ञान अवस्था है। भेदविज्ञान के काल में उत्कृष्ट शांति नहीं होती, पर हाँ शांति की शुरूवातहोने लगती है। उत्कृष्ट शांति का साधक तो निर्विकल्प अभेदज्ञान है, जिसमें सुख न मिले, शांति न मिले वह ज्ञान क्या?
सत्पुरुषों की सूक्ति का चतुर्थ प्रयोजन―सज्जन पुरुषों की सूक्तियाँ शांति के लिये होती हैं, न तो चंद्रमा की किरणें इतनी शीतल है, न शीतल रत्नों के हार, न हिमगृह इतनी शीतल है जितने शीतल सज्जन पुरुषों के वचन हुआ करते हैं। क्या मानसिक क्लेश वाले को बर्फ घर में धर दें तो आताप शांत हो जायेगा? सज्जन पुरुषों के वचनों में ही ऐसी क्षमता है कि मानसिक चिंतावों के आशय से जले हुये व्यक्ति को शीतल कर सकें। सज्जन पुरुषों के वचन भेदविज्ञान उत्पन्न कराकर समस्त क्लेशों को शांत करा देते हैं। सज्जन पुरुषों के वचन शांति के लिए ही हुआ करते हैं। शांति का अर्थ है विषाद, कषायें, आकुलताएँ मंद होना। सज्जन पुरुषों की सूक्तियाँ तो सभी जीवों में शांति उत्पन्न करने के लिए हुआ करती हैं।
सत्पुरुषों की सूक्ति का पंचम प्रयोजन― सत्पुरुषों के उपदेश सम्यक्यथार्थतत्त्व के उपदेश के लिए ही हुआ करते हैं जिन वचनों में विपरीत तत्त्वों का उपदेश भरा हो वे वचन सत्पुरुषों के नहीं हैं। जिनका अभिप्राय दूषित है वे जो बोलेंगे वह बिगाड़ के लिए बोलेंगे, और जिनका अभिप्राय विशुद्ध है वे भी जो वाणी बोलेंगे वह वाणी और पर के उपकार के लिए होगी। सज्जन पुरुष कहते ही उसे हैं जो संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो। जो न इस संसार में लिपटना चाहता हो, न इस शरीर में झुका रहता हो और भोगों से अत्यंत दूर रहता हो वह सज्जन पुरुष है। सज्जन पुरुषों की वाणी का आश्रय लेकर भव्य जीव संसार के संकटों से सदा के लिये मुक्त हो जाते हैं।
ग्रंथ की भूमिका में विविध ज्ञान का प्रकाश― यह ग्रंथ ज्ञानार्णव रचा जा रहा है। क्यों रचा जा रहा है, क्या प्रयोजन पड़ा है?इन बातों का समाधान देने के लिए ये 5 प्रयोजन दिखाये हैं। इन 5 प्रयोजनों की सिद्धि के लिए सज्जन पुरुषों की वाणी होती है। इस श्लोक में यह भी मर्म बताया गया है, रचयिता की ओर से मानों यहाँ कहा जा रहा है कि हम जो यह शास्त्र बना रहे हैं यह सर्वज्ञकी परंपरा से जो बात चली आयी है, जो उपदेश आया है उसी के अनुसार हम इसमें तत्त्व का उपदेश कहेंगे। सर्वज्ञ देव की परंपरा से चले आये हुए उपदेश इन जीवों को हितकारी हैं क्योंकि यही यथार्थ परंपरागत उपदेश प्रबोध करा सकता है, विवेक करा सकता है, हित करा सकता है, शांति करा सकता है, उन्हीं प्रयोजनों की सिद्धि के लिये हम इस ग्रंथ को बतायेंगे। इस भूमिका में क्या-क्या कहा जा रहा है?वह सब वर्णन चल रहा है, इससे भी हम आप सब बहुत-बहुत परिज्ञान करेंगे। आचार्यदेव की भूमिका कितना महान् आशय रखती है? इस भूमिका में आज के श्लोकों में यह बात कही गई कि इसमें जो भी उपदेश होगा वह हित के लिये और शांति के लिये ही होगा।