वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 105
From जैनकोष
णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो।
संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे।।105।।
प्रत्याख्यान का अधिकारी- निश्चयप्रत्याख्यान का अधिकारी कौनसा जीव है? उस जीव के स्वरूप का वर्णन इस गाथा में किया गया है। जो साधु विषकषाय हैं, दांत हैं, शूर हैं, व्यवसायी हैं, संसार के भय से भीत हैं- ऐसे साधुवों के यह आनंदमय प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान भाव आनंदमय है। त्याग में क्लेश नहीं होता है, बल्कि आनंद ही बरसता है। जिन पुरुषों के अंतरंग में तो विषयों की रुचि है और किसी आवेश में आकर त्याग कर देते हैं बाह्यपदार्थों का, उनका वह त्याग विडंबनारूप होता है और फिर वे क्लेश मानते हैं। वस्तुत: उन्होंने त्याग ही नहीं किया। बाह्यवस्तु के त्याग का नाम वास्तविक त्याग नहीं है, बल्कि अपने आत्मा में जो विषय-कषायों की तरंग उठती हैं, इच्छाएँ जगती हैं, उन इच्छावों के प्रत्याख्यान का नाम वास्तविक त्याग है। वास्तविक त्याग न करें और बाहरी पदार्थों को छोड़ दें तो उनको क्लेश मालूम होता है। त्याग में त्यागी हुई चीज पर दृष्टि नहीं होती है कि मैंने अमुक का त्याग कर दिया है, किंतु त्यागमय आत्मा का जो सहजस्वरूप है, उस स्वरूप की ओर झुकाव होता है। इसी कारण इस प्रत्याख्याता के सहज आनंद ही बरसता है।
प्रत्याख्याता की कषायकलंकमुक्तता- यह प्रत्याख्यान का अधिकारी साधु समस्त कषायकलंकरूपी पंखों से निर्मुक्त है। ये कषाय कलंकरूप हैं। जो परसंगति से उत्पन्न हुआ अपयश है, उसी को कलंक कहते हैं। किसी मनुष्य का कोई कलंक प्रकट हो तो उसका तात्पर्य यह है कि इसने पर का खोटा संबंध किया है। चाहे चोरी का कलंक हो, चाहे कुशील का कलंक हो या दूसरे जीवों पर अन्याय करने का, सताने का कलंक हो अथवा अनाप-सनाप दूसरों के द्रव्य को लेने का कलंक हो- ये सब कलंक पर की संगति से हुए हैं। परसंगति बिना कलंक नहीं कहलाता है। वस्तुगत कलंक तो कषायभाव हैं, किंतु कोई मनुष्य दूसरे का कलंक किन शब्दों में जाहिर करेगा? वह किसी न किसी परवस्तु के संग का नाम लेकर कलंक जाहिर करेगा। ये कषाय परभाव हैं। आत्मा में क्रोधादिक कषायें पर का निमित्त पाकर उत्पन्न होती हैं, अत: सब कषाय कलंकरूप हैं। जो कषाय कलंकों से रंगा हुआ हो, वह वास्तविक प्रत्याख्यान कैसे कर सकता है? वह तो हेय चीज का ग्रहण किया करता है। कोई पुरूष आवेश में आकर अनेक प्रयोजन से सब कुछ त्याग किया कर बैठे, मकान, घर, परिवार, कपड़े आदि सबका परित्याग करके साधु भेष बना ले तो उसने त्याग किया या ग्रहण किया? लोगों को दिखता यह है कि उसने सब कुछ त्याग दिया, पर अंतरंग में बात यह हो रही है कि उसने विभावों को और जकड़ करके पकड़ लिया है।
कषाय की हेयता- भैया ! छोड़ने योग्य चीजें कषायें है। कषायों के छूटने में सहयोग मिले, निर्दोष तत्त्व की दृष्टि की पात्रता रहे, इसके लिये बाह्यपदार्थों का त्याग है। मुक्तात्मा को होना है या इस शरीर को होना है? आत्मा जिन पीड़ावों से पीड़ित हो रहा है, उन पीड़ावों को छोड़े तो मुक्ति होगी या मकान, परिवार को छोड़े तो मुक्ति होगी? यद्यपि परिवार, मकान छोड़े बिना मुक्ति का मार्ग नहीं मिल सकता, पर उसमें मर्म यह है कि मुझे पीड़ा देने वाले जो विषय-कषायों के परिणाम हैं, वे परिणाम किसी परपदार्थों को विषयभूत करके उत्पन्न हुआ करते हैं। पर विषय बनाए बिना ये विभव उत्पन्न नहीं हो सकते हैं, इसलिए उन आश्रयभूत विषयसाधनों का परिहार कर दें। ये बाह्यपरिग्रह सामने न रहेंगे, निकट न रहेंगे तो विषय कषाय उत्पन्न होने का अवकाश न मिलेगा- यह एक साधारण विधि है। कोई पुरूष गृह, परिवार सब कुछ छोड़कर भी अपनी कल्पना में उनको सोच-सोचकर चिंतित रह सकता है। ठीक है, परंतु गृह, परिवार छोड़े बिना कोई जीव निर्विकल्प-ध्यान का पात्र नहीं बन सकता है। इससे बाह्यप्रत्याख्यान भी चाहिए और चूंकि परमार्थ के आश्रय बिना सिद्धि नहीं होती, सो प्रयोजनभूत परमार्थ यह अंतरंग में ज्ञान भी नियम से चाहिये। जो कोई कषाय-कीचड़ से विमुक्त है- ऐसा पुरूष ही इस निश्चयप्रत्याख्यान को धारण कर सकता है।
प्रत्याख्याता की दांतरूपता- ये साधु, संतजन जो परम आनंदमय प्रत्याख्यानसंयम को लिए रहा करते हैं, वे दांत होते हैं अर्थात् इंद्रियों का उन्होंने दमन कर दिया। जो इंद्रिय के विषयों क रुचि रखा करते हों, उनके प्रत्याख्यान कहां से हो सकता है? यह सारा जीवलोक इंद्रिय के विषयों का ही रोगी है। इसे इंद्रिय और मन के विषयों के अतिरिक्त कोई 7वीं बात लक्ष्य में नहीं आती है, इसी षट्चक्र के फेर में बना रहता है। स्पर्शन इंद्रिय का विषय भोगा, उसमें गंदे विकल्प किए, इसी प्रकार रसना, घ्राण, चक्षु और स्रोत्र आदि के इंद्रिय-विषयों में आसक्त रहे और मन की कल्पना के विकल्प बढ़ाते रहे। इस मायामयी दुनिया में, मायामय जीवों में अपनी किसी माया का बढ़ावा सोच रहे हैं, इन्हीं जालों में यह जीव उलझा हुआ है। जो आनंद की विधि है, उसमें यह प्रवेश नहीं पा सका। कैसे प्रवेश पाए? विषयों के रुचिया को अपने आपके सहज आनंद की गंध कहां से आए?
असंयम की रुचियों के संयम की अरुचि पर एक दृष्टांत- एक कथानक है कि एक कहारिन की लड़की और एक मालिन की लड़की दोनों परस्पर में सहेली थीं। दोनों ही अलग-अलग गाँवों में ब्याही गई। मालिन की लड़की किसी बड़े कस्बे में ब्याही गई थी और कहारिन की लड़की किसी गाँव में ब्याही गई थी। दोनों का व्यवसाय अलग-अलग था। एक बार कहारिन की लड़की मछली का टोकना लेकर उसी कस्बे में मछली बेचने गयी, जिसमें उसकी सहेली ब्याही थी। मछली बेचते हुए शाम हो गई तो उसने सोचा कि आज रात को सहेली के यहां ठहर जाऊँ और सुबह होते ही चली जाऊँगी। यह सोचकर वह सहेली के यहां जा पहुंची। सहेली ने कहारिन की लड़की का बहुत आदर किया। उसे खाना खिलाया, रात्रि में सोने के लिए बढ़िया पलंग बिछाया और उस पर फूलों की शय्या बिछा दी। फूलों की महक से कमरा महक उठा। जब कहारिन की लड़की पलंग पर लेटी तो उसे नींद नहीं आई। मालिन की लड़की बोली कि ‘‘सहेली ! नींद क्यों नहीं आती?’’ कहारिन की लड़की ने उत्तर दिया कि ‘‘कमरे में फूलों की गंध भर गई है, इस गंध के कारण मेरी नाक फटी जा रही है।’’ मालिन की लड़की ने उस फूल की शय्या को उठा दिया, फिर भी गंध तो कमरे में रह ही गई। अब पलंग के भी सारे कपड़े झाड़ दिए, फिर भी नींद न आई। तब कहारिन की लड़की कहती है कि ‘‘सहेली ! नींद आने का केवल एक ही उपाय है कि वह जो मछली का टोकना रखा है, उसे मेरे सिरहाने रख दो और इस टोकने में कुछ पानी भी डाल दो।’’ मालिन ने विवश होकर ऐसा ही किया, तब कहारिन को नींद आयी।
विषयों के प्रेमियों को ज्ञान में अरुचि- भैया ! जैसे मछली की गंध में चैन मानने वाली कहारिन को फूलों की गंध नहीं सुहाती- ऐसे ही विषयों में चैन मानने वाले अज्ञानी पुरुषों को ज्ञान और वैराग्य की बातें नहीं सुहाती। ये पुरुष कभी बाह्यपदार्थों का त्याग भी करें तो भी उनका प्रयोजन पंचेंद्रिय के विषयों का रहता है। सब कुछ छोड़ दें तो बड़ी भक्ति से, आराम से भोजन तो मिलेगा। साधु-बाना रखने से और लौकिक इज्जत भी बढ़ेगी। यों रहने से तो कष्ट भी हो रहे हैं। अहो, कितने ही विकल्प बनाए जाते हैं। ऐसे अज्ञानी पुरुष ने त्याग ही कहां किया? वह तो अपने उपयोग में विषयों को ही बसाए हुए है। जो भी पुरुष इंद्रिय-विषयों का दमन नहीं कर सकते, वे आनंदमय तत्त्व पा नहीं सकते। जो साधु समस्त इंद्रियों के व्यापार पर विजय पा चुका है और उस इंद्रिय-विषय के कारण परमदमन किए हुए है- ऐसे पुरुष के ही यह निश्चयप्रत्याख्यान होता है। व्यवहारप्रत्याख्यान भी ऐसे ही पुरुष भली प्रकार निभा सकते हैं।
ज्ञानशूरता- प्रत्याख्यान का पात्र साधु शूर होता है। सुभटों में शूरता अन्य सुभटों को मार गिराने में है और साधुवों की शूरता सर्वप्रकार के परिषहों को शांतिपूर्वक सहने में है। खूब ध्यान से सोचिए कि अनेक प्रतिकूल वातावरण चल रहे हों, गाली-गलौच, अपमान आदि अनेक दुर्गतियां सामने होने की अवस्था में भी विषय न जग सकें, क्षमाभाव बना रहे और इस चैतन्यस्वभाव के अवलोकन का प्रसाद बना रहे- इसमें कितनी बड़ी शूरता की आवश्यकता है? भीतर देख लो- यदि अंतरंग में कायरता है तो शरीरबल से विशिष्ट होने पर भी बल का काम नहीं दिख सकता है- इतना तक अंतर होता है। जैसे एक कहावत है कि एक बनिये का लड़का और एक क्षत्री का लड़का- ये दोनों आपस में लड़ बैठे। बनिया-पुत्र हष्ट-पुष्ट था, बल में तेज था और क्षत्रिय-पुत्र दुबला-पतला तथा कम ताकत का था। अत: बनिये के पुत्र ने क्षत्रिय-पुत्र को नीचे ढकेल दिया और छाती पर चढ़ गया। अब बनिये का पुत्र कहता है कि कहो, अब तुम हारे ना? क्षत्रिय-पुत्र कहता है कि हाँ, हम हार तो रहे हैं, पर यह तो बतावो कि तुम किसके लड़के हो? उसने कहा कि मैं बनिया-पुत्र हूं। इतनी बात सुनकर क्षत्रिय-पुत्र में इतना जोश आया कि वह झट उठकर उसकी छाती पर आ गया। अत: जोश में क्या कम शक्ति होती है? यह जोश क्या है? आत्मा के भावों की शूरता शरीर-बल नहीं है, बल्कि भाव-वीरता है।
क्षुधापरीषह की विजय- अभ्यस्त ज्ञानी पुरुष आत्मस्वरूप को निरखकर इतने शूर हो गये हैं कि उनके श्रद्धेय-कर्तव्य में उपसर्गों के द्वारा भी बाधा नहीं पहुंच सकती है। कितने प्रकार के परिषह होते हैं? उन परिषहों में कितने कष्ट सहने होते हैं? यह थोड़ा भी विचार करने पर समझ में आता है। कोई साधु अनेक दिनों का उपवास किए हुए हैं, आहार को जाता है, पर अंतराय हो जाता है और आहार नहीं हो पाता है। इस तरह बहुत से दिन व्यतीत हो जाते हैं, लेकिन वह अपने आपमें ‘‘शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप हूं’’ ऐसी दृष्टि होने के कारण अंत: प्रसन्न रहा करता है। लोगों को तो यह बड़ा कष्ट मालूम होता। परिषहों पर विजय करना कठिन काम है, किंतु इन शूरों के लिए यह बड़ा सुगम काम है। जैसे कोई बड़ा पहलवान बच्चों को कुश्ती सिखाए, दाव-पेच सिखाए तो सभी बच्चे थक जाते हैं, पर वह पहलवान नहीं थकता है। इसी प्रकार जो ज्ञानशूर है, जिसके निर्णीत ध्येय में कठिन उपसर्गों से भी बाधा नहीं आती है, उस पुरुष को ये परिषह जीत लेना एक आसान काम है।
तृषापरीषहविजय- ध्यान तो लाइये, अनेक उपवास हैं। गर्मी के दिन हैं, जहाँ साधारणजन दिन-रात ही पानी पीते रहते हैं- ऐसे गर्मी के दिनों में भी साधुजन आहारचर्या को निकलें और उन्हें योग न मिले तो उनकी तृषा का कौन वर्णन कर सकता है? लेकिन तृषा-संबंधी खेद का अनुभव उन्हें रंच भी नहीं होता है। अरे ! गृहस्थी भी जहाँ हजारों का मुनाफा मिल रहा हो- ऐसा रोजगार करने के लिए जायें तो उन्हें भी भूख और प्यास की वेदना नहीं मालूम होती है। सोचते हैं चलो एक-दो दिन के लिए ही तो ये वेदनायें हैं। जिनका ध्येय कुछ अभीष्ट, अपनी समझ में हितकारी है- ऐसे पुरुषों के चित्त उद्देश्य पाने में ही रमा करता है। उन्हें बाह्यउपसर्ग नहीं मालूम होते हैं। एक ही परिषह क्या, सभी परिषहों को निरखते जाइए।
शीतपरीषहविजय- यह साधु कितना शूर है? कैसे शांत-परिणामों से उन सब उपद्रवों को सहन कर लेता है? ठंड का परिषह भी क्या साधारण परिषह है? कायर लोग तो जरासी शीत में ही जान दे डालते हैं। जिस शीतकाल में बंदर भी हार जाते हैं, पशु-पक्षी भी प्राण गँवा देते हैं, उस शीतकाल में भी शीतस्थानों में शीत की वेदना को ऐसी शांति से सह लेते हैं कि जो अज्ञानी जनों के वश की बात नहीं है। वह कौनसी गर्मी है? इस चैतन्य-ज्योति को जो प्रज्ज्वलन किया है, इस ज्ञानी-संत ने उसके अंत: भावरूप उष्णता है कि बड़ी शीत-बाधाएँ उनके नहीं लगती हैं। गर्मी की बाधा भी कितनी विकट बाधा है? बैसाख और ज्येष्ठ के दिनों में जहाँ तेज लू चल रही हो, वहाँ एक बार भी आहार-पानी मिले, इसका भी कोई ठिकाना नहीं है।
उष्णपरीषहविजय- अनेक दिन के उपवासी भी हों- ऐसे पुरुष उष्णकाल में भी कठिन उष्णपरिषह पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। चूँकि लौकिक जनों के पर्यायबुद्धि है, वे ठंड के दिनों में गर्मी के परिषह का अनुमान व गर्मी के दिनों में ठंड के परिषह का अनुमान नहीं कर पाते हैं, पर गर्मी में गर्मी व ठंड में ठंड कैसी होती है, यह तो वे जानते ही हैं। वे साधुजन गर्मी के परिषह को भी शांतिपूर्वक सह लेते हैं। कोई ऐसी शीतल औषधि उनके अंतर में है कि जिससे गर्मी का परिषह सह लेते हैं। वह औषधि है ज्ञानानंदस्वभाव की दृष्टि। इससे ऐसे तृप्त रहा करते हैं कि उन्हें ये बाधाएँ भी कुछ वेदना नहीं कर पाती हैं। ऐसे सुभट-शूरों में यह ज्ञानानंदमय प्रताप प्रकट होता है। इस प्रकरण में प्रत्याख्यान के योग्य कौन साधु है, उसका विवरण चल रहा है। जो निश्चयप्रत्याख्यान का अधिकारी है, उसके ही विधिपूर्वक व्यवहारप्रत्याख्यान भी निभ जाया करता है।
ज्ञानशूर संत के दंशमशकपरिषहविजय- निश्चयप्रत्याख्यान अर्थात् भविष्यकाल में किसी भी प्रकार के अपराध को न करने का दृढ़ नियम ज्ञानशूर पुरुष के होता है, जिस ज्ञानशक्ति से कठिन परिषह भी समतापूर्वक सह लेता है। ये साधु-संत वन, उपवन आदि स्थानों में विराजे हुए ध्यान में रत रहा करते हैं। उनके शरीर को कोई मच्छर काटे तो वे मच्छर की वेदना की परवाह नहीं करते हैं और समतापूर्वक सह लेते हैं, चूँकि अपने ज्ञानस्वभाव की दृष्टि प्रबल अनुराग है और वे इस ज्ञानस्वभाव के दर्शन से हटना नहीं चाहते हैं। ऐसे ही खटमल, चींटा, बिच्छू आदि कोई भी कीट काटे तो भी अपने स्वरूप से बाहर इन कीट-पतंगों की ओर उपयोग देने में वे अपनी हानि समझते हैं। क्या उन पुरुषों में इतनी शक्ति नहीं है कि हाथ से उन्हें अलग कर दें और फिर आराम से ध्यान करें? अरे, वहाँ ध्यान ही क्या होगा, जहाँ प्रथम यह विकल्प ही उत्पन्न हो जाये कि ये इस शरीर को काट रहे हैं, मुझे सता रहे हैं, मैं इनको दूर कर दूं? इस प्रकार की कल्पना के विकल्पों को वे हानि समझते हैं।
नाग्न्यपरीषहविजय- साधुजन सब बाह्यपदार्थों से उपेक्षित रहते हैं। उन्हें किन्हीं भी बाह्यवस्तुवों से प्रयोजन नहीं है। जिन्होंने अपना ध्येय एक सर्वविमुक्त निज आत्मतत्त्व की साधना का ही रखा है। ऐसे पुरुष किन बाह्यपदार्थों में उपयोग लगायेंगे? परिणाम यह होता है कि वस्त्र तक भी छूट जाते हैं। जिस नग्नरूप में उत्पन्न हुए थे, उसी रूप में वे आ जाते हैं। बच्चे कहाँ कपड़े लपेटकर पैदा होते हैं और कहाँ भस्म या श्रृंगार लगाकर बच्चे पैदा होते हैं? जैसे वे नग्न निर्विकार होते हैं, शारीरिक कामविकारी नहीं होते हैं- ऐसे ही ये शारीरिक कामविकारों से परे नग्न दिगंबर साधु निर्विकारस्वरूप का अनुभव कर रहे हैं। देवांगना भी यदि गान, तान, भाव, नृत्य आदि करके उन्हें डिगाना चाहे तो भी वे अपने शुद्ध ध्येय से नहीं चिगते हैं। वे सहजस्वरूप की ही साधना करते रहते हैं। यह आत्मा भी स्वयं नग्नरूप है अर्थात् इसमें किसी भी परवस्तु का प्रवेश नहीं हैं। ऐसे ही ये साधु अंत:नग्न, बाह्यनग्न रहकर सहज ज्ञानानंदामृत का पान किया करते हैं। ये ऐसे कठिन उपसर्गों में भी विचलित नहीं होते हैं। शरीर के बड़े-बड़े सुभट भी जिनमें हाथी और सिंहों को भी परास्त कर देने की सामर्थ्य है- ऐसे बलि सुभट भी स्त्री के स्नेह के आगे घुटने टेक देते हैं। किंतु निर्ग्रंथ साधुवों पर कैसा भी उपसर्ग आये, लेकिन अपने सहजस्वरूप की साधना से विचलित नहीं होते हैं।
अरतिपरीषहविजय- भैया ! यह तो जीवन है, इसमें अनेक इष्ट और अनिष्ट पदार्थों का समागम हुआ करता है। कितने भी अनिष्ट पदार्थ सामने आयें, जो मनुष्य सुहाते नहीं हैं, वे सामने आयें, जो अमनोज्ञ विषय हैं, आहार अथवा अन्य प्रकार के विपरीत अनिष्ट विषय भी सामने आयें तो भी वे कभी यह स्मरण नहीं करते हैं कि हम पहिले कैसा बढ़िया खाया करते थे? राग करने की बात तो जाने दो और वर्तमान अमनोज्ञ विषय में द्वेष करने की बात से भी दूर रहो, किंतु वे पहिले भोगे हुए भोगों का स्मरण तक भी नहीं करते हैं। वे अनिष्ट पदार्थों के समागम में न विरोध करते हैं, न ग्लानि करते हैं, केवलआत्मसाधना में बने रहते हैं- ऐसे ये ज्ञानस्वरूप पुरुष ही समस्त अपराधों का परित्याग कर सकते हैं।
स्त्रीपरीषहविजय- किसी भी साधु से द्वेष हो जाए तो साधु को बरबाद करने का उपाय, साधु से बदला लेने का कठोर उपाय एक स्त्रीपरीषह है। पूर्व पुराणों में सुना करते हैं कि किसी ने किसी साधु को विचलित करने के लिए स्त्रियों का गान तान, नृत्य कराया और किसी ने प्रेमवश किया, यह जल्दी सिद्ध न हो जाए। यह क्या प्रेम है? यह तो द्वेष है। अत: उसे साधना से विचलित करने के लिए भी स्त्रीरूप में देवांगनावों तक ने, देवों तक ने उन्हें विचलित करने का साधन किया था, किंतु जो आत्मतत्त्व के रुचिया ज्ञानी पुरुष होते हैं, वे इन परिषहों से भी विचलित नहीं होते हैं। देवांगनायें भी इन साधुवों के चित्त को हरने में असमर्थ हैं। अन्य स्त्रियों की तो बात ही क्या है? ऐसे ये स्त्रीपरिषह के विजयी अंतरंग के ज्ञानशूर पुरुष होते हैं। ये ही समस्त विभावों का प्रत्याख्यान करने के अधिकारी हैं।
चर्यापरीषहविजय- ये साधु पुरुष गुरुजन की विनयपूर्वक, उन्हें ही अपना पिता समझकर, रक्षक समझकर सेवा किया करते हैं। गुरु की सेवा के प्रसाद से ही ज्ञान, ब्रह्मचर्य और वैराग्य दृढ़ होता है। ज्ञान के साधक साधुवों का यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे गुरुजनों की चिरकाल तक निष्कपट सेवा करते रहें। ऐसे ही जिनको अपना ब्रह्मचर्य पुष्ट रखना हो, उनका भी यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे गुरुजनों को बड़ी ही विनयपूर्वक अपना और महान् जानकर चिरकाल तक सेवा किया करें और ऐसे ही गुरुसेवा के प्रसाद से वैराग्य भी दृढ़ होता है। यों गुरु-चरणों की सेवा करके जिसने अपना ज्ञान, ब्रह्मचर्य और वैराग्य दृढ़ किया है यह साधु पुरुष गुरु की आज्ञा से कहीं विहार करने जाए और विहार करते हुए में कांटे-कंकड, कंकरीले पत्थर आदि पैर में छिद जायें तो भी वह समतापूर्वक सहन करता है और इतना तक भी ख्याल नहीं करता है कि मैं पहिले पालकी में चढ़कर जाया करता था, मैं हाथियों पर सवार होकर भ्रमण करता था, पर अब अपने आराम का वह स्मरण तक भी नहीं करता है और ऐसी कठिन वेदनावों को समता से सहन कर लेता है। वह इस शारीरिक चर्या पर दृष्टि न देकर चर्या की वेदना में उपयोग न देकर आत्मचर्या में ही उद्यत रहता है। यह मेरा ज्ञानस्वरूप मेरे ज्ञान में ही बर्तता रहे- ऐसे शूर पुरूष ही प्रत्याख्यान के अधिकारी होते हैं।
निषद्यापरीषहविजय- वे साधु पुरुष ज्ञान के शूर भयंकर वन में कंकरीली जमीन पर, टेढ़ी-मेढ़ी उठी हुई जमीन पर ध्यान करते हैं। रोग आ जाए, उपसर्ग आ जाए आदि बाधावों को समता से सहते हैं। जिस आसन से ध्यान करने बैठ गए, वह आसन फिर चिरकाल तक स्थिर रहता है। वे अपने आसन से चलायमान् नहीं होते हैं। जैसे मोही जन किसी के मोह में आकर चाहे जिस आसन से लगातार बैठ सकते हैं, क्योंकि उन्हें मोह की ओर तीव्र उपयोग जगा है, उसके विपरीत ये साधुजन चूँकि इस आनंदमय ज्ञानसुधासागर में इनका चित्त बसा हुआ हैं, सो उस वृत्ति के कारण वे एक आसन से बहुत देर तक बैठे रहा करते हैं। ये उपसर्ग आने पर भी और कंकरीली, पथरीली जमीन पर बैठे होने पर भी वे अपनी स्वरूपसाधना से चलित नहीं होते हैं- ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रत्याख्यान के वे पात्र होते हैं।
शय्यापरीषहविजय- ये साधु पुरुष निरंतर किसी न किसी आवश्यक काम में लगे रहा करते हैं। स्वाध्याय करें, लेखन करें, चिंतन करें, ध्यान करें, उपदेश दें याने किसी न किसी आवश्यक ज्ञानसाधक कार्य में लगे ही रहा करते हैं। जब शरीर थक जाता है तो कैसी ही कंकरीली, पथरीली जमीन हो, थोड़ी देर को उसी ही भूमि पर लेटकर शयन करते हैं। जमीन तिकौनी हो, कंकरीली हो, कठोर हो, कैसी भी हो, उस पर ही वे एक करवट से सीधे पड़े रहा करते हैं। किसी भी प्रकार से एक ही ढंग से शयन करते हैं और उनके इस पद्धति से लेटे हुए में रंच आकुलता नहीं होती है, क्योंकि उनका उपयोग इस शुद्ध ज्ञानानंदस्वभाव में लगा हुआ है। वन में सो रहे हैं तो वहाँ भी उन्हें यह भय नहीं होता हैं, घबड़ाहट नहीं होती है कि यह वन हिंसक जंतुवों से भरा हुआ है, कब सुबह हो तो जल्दी यहाँ से निकल जाना चाहिए। उन्हें परवाह नहीं है। जो शुद्ध परिणाम रखते हुए जीवन बिताए, उसको मरने का क्या भय? मर जायें तो क्या नुकसान? जो शुद्ध परिणामों से बर्त रहा है, मरकर भी सद्गति ही तो होगी। अपना आत्मा जिसके अपने उपयोग में सामने है, उसे मरने का क्या भय है? ऐसे शूर-संत कठिन परिषह भी शांतिपूर्वक सहा करते हैं। ऐसे ये प्रत्याख्याता पुरुष ज्ञानशूर होते हैं।
अक्रोशपरीषहविजय- ये साधु पुरुष कभी-कभी कुछ थोड़े समागम में भी पहुंच जाते हैं अथवा वहाँ कुछ लोग उनके निकट भी आया करते हैं, उनमें कोई दुष्ट पुरुष हो और ऐसे निरपराध, ज्ञानरत, निर्विकार साधुवों को देखकर अनेक गालियाँ दें कि ये बेशर्म हैं, कमाई करके नहीं खाते हैं, ये लट्ठ से पड़े हुए हैं-- ऐसी कितनी ही गालियों की बौछार भी आये, तिस पर भी उन साधुवों के चित्त में क्षोभ नहीं होता है। उनमें यद्यपि इतनी शक्ति है कि ऐसी गाली देने वाले सैकड़ों पुरुष भी हों तो भी उन्हें अपने शरीरबल से दंड दे सकते हैं। इन साधुवों में पहिले कोई राजा था, महाराजा था, सुभट था, बलि था, सेनापति था, चक्री था-- ऐसे बड़े शक्तिशाली साधु होते हैं। उनमें बड़ी सामर्थ्य है, फिर भी वे प्रतिकार नहीं करते हैं, वे तो अब ज्ञाताद्रष्टा रहते हैं। ये अन्य जीव हैं, इनमें इस प्रकार का कषाय भरा हुआ है, उसके अनुसार ये प्रवृत्ति करके दु:खी हो रहे हैं। उन गाली देने वालों पर इन साधुवों को दया आती है, द्वेष नहीं होता है। ये साधु ऐसे समय में भी अपने में विकार नहीं उत्पन्न होने देते। ऐसे ये ज्ञानशूर प्रत्याख्यान के अधिकारी होते हैं।
बधपरीषहविजय- इन साधुवों को कोई चोर सताये, डाकू आदि मारें-पीटें, प्राणघात करने आयें, पर वे तो यह जानते हैं कि मेरा आत्मा अछेद्य है, अभेद्य है, ज्ञानानंदस्वरूपमात्र अमूर्त है, यह तो अपने आपमें विकल्प उठाकर ही अपना घात कर सकता है, दूसरा जीव इसका बिगाड़ नहीं कर सकता है। ऐसे इस शुद्ध आत्मद्रव्य के अनुभव में वे साधु स्थिर रहा करते हैं।
याचनापरीषहविजय- ये साधु बड़े गौरवशाली होते हैं। इन्हें कितना भी रोग आ जाये तो भी ये औषधि की याचना नहीं करते हैं। इन्हें भूख-प्यास की कितनी ही वेदना हो तो भी वे दूसरों से भोजन देने की याचना नहीं करते हैं। हां, क्षुधा-शांति के लिए शास्त्रकथित विधिपूर्व धर्मात्मावों के मुहल्ले से निकल जाना तो उन्हें योग्य है, किंतु मुख से माँगेंगे नहीं कि अमुक चीज दो। ऐसी कठिन वेदना के समय भी नहीं माँगते हैं और न शरीर से इशारा करते हैं। वे तो अपने चैतन्यस्वभाव के दर्शन में ही संतुष्ट रहा करते हैं। ऐसे ये ज्ञानशूर साधु पुरुष प्रत्याख्यान कर रहे हैं।
अलाभपरीषहविजय- ये साधु किसी भी अनिष्ट प्रसंग में वेदना के उपस्थित होने पर भी और औषधि न मिले तो भी ऐसे अलाभ को लाभ से भी अधिक उत्तम समझते हैं। आहार करने को मिलता तो खाते-पीते समय तो कुछ तो अपने ज्ञान-ध्यान से चिगकर उस ओर लगना पड़ता। चलो यह भी एक लाभ ही है। कैसी रुचि है इन ज्ञानियों की? ऐसी कितनी ही बातें उनके चित्त में क्षोभ नहीं कर सकती हैं। भला बतावो तो कोई आराम में रहकर भक्तजन सब तरह की सुविधायें दें, तिस पर भी गाल फूल रहे हैं, क्रोध क्रोधित हो रहे हैं, ऐंठ रहे हैं तो कहाँ साधुता को निरखा जाये? ये साधु पुरुष बड़े-बड़े अलाभ के प्रसंगों में भी संतुष्ट रहा करते हैं। वे जानते हैं कि मेरा आत्मा ही परमवैभव है, वह तो मेरे निकट ही है। वे आत्मलाभ में भी तृप्त हुआ करते हैं। कोई कठिन रोग भी आ जाये और तपस्या के बल से उन्हें बड़ी विशिष्ट ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हुई हैं, जिन ऋद्धियों के प्रताप से स्वयं ही सैकड़ों रोगी अपने रोग से मुक्त हो जाते हैं। फिर भी अपनी ऋद्धि का प्रयोग अपना रोग मिटाने के लिए नहीं है। इन साधु-संतों को छूकर आई हुई हवा भी रोगियों के रोग को दूर कर देती है। इन साधु-संतों का पसीना, मूत्र, मल, थूक, खकार भी किसी को छू जाए तो वे भी रोग दूर कर देते हैं। इतनी विशिष्ट ऋद्धियाँ जिनमें उत्पन्न हों और उनके ही शरीर में कोई रोग हो तो वे अपने रोग को दूर करने का भाव भी नहीं रखते हैं। कैसी निर्विकल्प-समाधि की रुचि इन ज्ञानी-संतों के हुई है कि वे उसका प्रतिकार नहीं करते हैं, समता से सहते हैं और वह निरंतर देखा करते हैं कि यह मेरा आत्मा तो सर्वरोगों से परे केवल ज्ञानानंदस्वरूप है। ऐसे ज्ञानशूर पुरुष समस्त अपराधों का प्रत्याख्यान करते हैं।
तृणस्पर्शपरीषहविजय- चलते, बैठते, सोते, उठते आदि किन्हीं भी प्रसंगों में नुकिले तृण लग जायें, कंकरीली पत्थर की शिला से चोट लग जाए, देह के श्रम को दूर करने के लिए बैठें, उन्हीं कंकरीले स्थानों पर सोयें, इनसे वेदना हो तो भी वे खेद नहीं मानते हैं। वे काँटों की भी परवाह नहीं करते हैं। वे अपने स्वरूप के स्पर्श की ही धुन बनाए हुए हैं। वे ज्ञानशूर पुरुष समस्त विषय-कषायों का परिहार किया करते हैं। कषायों को जीतने में बहुत बड़ा ज्ञानबल चाहिए। कषाय करना तो आसान है, पर अपने में कषाय न आने देना, क्षमा आदि गुणों से तृप्त बने रहना- यह बड़े शूरवीर का ही काम है।
मलपरीषहविजय- साधु-संतों को स्नान से कुछ प्रयोजन नहीं है। उनका शरीर रत्नत्रय से पवित्र है। कितना ही पसीना आ जाए और उससे दाद, खाज आदि कितने ही चर्म-रोग हो जायें, फिर भी उनकी पीड़ा की ओर वे लक्ष्य नहीं देते हैं। खुजलाहट होने पर तो लोग शरीर को बहुत तेज रगड़ते हैं। दाद, खाज की खुजलाहट में मनुष्यों में खुजाये बिना चैन भी नहीं पड़ती है। वे साधुजन दाद, खाज को रगड़ना नहीं चाहते हैं। वे तो जानते हैं कि इस दाद, खाज में स्थित क्षुद्र-क्षुद्र जीवों को बाधा न पहुंचे, उनका घात न हो जाए। इस भाव से भी शरीर के मल को टाने के लिए कोई उबटन आदि का उपाय भी नहीं करते हैं। वे तो स्व के अनुभव में ही लीन रहा करते हैं। ऐसे विजयी साधु निश्चयप्रत्याख्यान कर रहे हैं। जो परीषहों में भी विचलित नहीं होते हैं, वे ही पुरुष मोक्षमार्ग में प्रगति कर सकते हैं। यों निश्चयप्रत्याख्यान के अधिकार में परीषहविजयी शूरों की कुछ कथनी की जा रही है।
सत्कारपुरस्कारपरीषहविजय- मात्र अपने चित्प्रतिभासस्वरूप में ही तृप्त रहने वाले ज्ञानी पुरुष अपनी स्वभावदृष्टि की सफलता में ही अपने को कृतार्थ समझते हैं। लौकिक पुरुषों के द्वारा किए गए सत्कार, सम्मान, तिरस्कार का कुछ मूल्य नहीं समझते हैं अर्थात् उनको लौकिक सम्मान में रंच रुचि नहीं है। जो पुरुष प्रत्येक पदार्थ को स्वतंत्र अपने-अपने स्वरूप में विराजे हुए देख रहे हैं, वे पुरुष सम्मान, अपमान की बातों का क्षोभ मन में नहीं लाते हैं। दूसरे पुरुष प्रशंसा करें, सम्मान करें, फिर भी अंतरंग में प्रसन्नता नहीं होती है। वे जानते हैं कि यह परपुरुषों के कषाय के अनुकूल प्रवृत्ति का फल है। जो ये वचन निकाल रहे हैं, इनका मेरे साथ कुछ संबंध नहीं है। कदाचित् कोई निंदा, अपमान करे तो उसमें ज्ञानी जीव रुष्ट नहीं होते हैं। वहाँ भी यही विवेकी जान रहा है कि यह अपने कषाय के अनुकूल अपना प्रयत्न कर रहा है और उसके परिणाम में ये मुख, ओठ, जीभ आदि चल रहे हैं, उनका निमित्त पाकर ये वचन निकल रहे हैं। इन वचनों का मेरे से कोई संबंध नहीं है, ये तो अन्य चीजें हैं, ऐसा जानकर निंद्य अपमान भरे वचन क्लेशकर नहीं होते हैं।
साधुवों की ज्ञानशूरता की प्रकृति- आत्मरसिक ज्ञानी साधु संत ऐसे ज्ञानशूर होते हैं कि कभी मोक्षमार्ग में कायरता का भाव नहीं लाते हैं। मैं इतना तपस्वी हूं, मुझमें इतना ज्ञान है, मैं इतना कठिन तप किया करता हूं, इस पर भी कोई मेरी मान्यता नहीं करता- ऐसा विकल्प उनके चित्त में कदापि नहीं आता। यह सब उपयोग की बात है। जैसे मरणहार पुरुष जिसका मरण निकट है, उसमें अपने आप ही कोई ऐसा बल प्रकट होता है कि किसी भी पदार्थ में ममता, रागद्वेष नहीं रहता है। यह प्राय: बात कही जा रही है। बहुत से ऐसे भी पुरुष होते हैं कि बड़े रागद्वेष से संक्लिष्ट होकर मरण करते हैं, किंतु जिनको कुछ भी प्रतिबोध है, चाहे वे कुछ अपने जीवन में कुछ भी व्यवस्था, प्रबंध राग करते आए हैं, वे भी मरण के समय में ऐसा विशिष्ट बल पाते हैं कि उन्हें किसी ओर मोह, ममता नहीं होती। मरण के समय में और शांति ही किस बात की है? किसी अन्य तत्त्व की ओर ममता न होना, यही तो शांति का रूप है। और शांति किसे कहते हैं? जान लिया कि हम यहाँ से जा ही रहे हैं, हमारा किसी से कुछ संबंध ही नहीं रहने का है- ऐसी स्थिति में उनका उपयोग किसी भी पदार्थ की ममता में नहीं फँसता।
सत्कारपुरस्कारपरीषहविजयी की प्रत्याख्यानपात्रता- ये साधु संत तो निकटमरणी प्रबुद्ध पुरुष से भी और सुंदर स्थिति में है। ये स्वरूपानुभव का स्वाद लेकर ही ऐसे तृप्त होते हैं कि उन्हें बाहर की बातें कुछ भी मालूम नहीं होती हैं। जैसे कोई व्यापारी पुरुष किसी काम में दस-पाँच हजार का लाभ लेता हो और उस प्रक्रिया में कुछ अपमान की बात आ जाए तो वह उसे कुछ भी नहीं गिनता है, क्योंकि उसका मूल ध्येय तो अपने आर्थिक लाभ में लगने का हैं। ऐसे ही ये साधु पुरुष अपना मूल ध्येय जो स्वात्मा की उपलब्धि है, उसमें ही लगे हुए हैं। निंदा और अपमान के वचन उनमें क्षोभ नहीं ला सकते और सम्मान, प्रशंसा के वचन उनमें प्रसन्नता नहीं ला सकते। ऐसे सत्कारपुरस्कारपरीषहविजय करने वाले ज्ञानी पुरुष प्रत्याख्यान के अधिकारी होते हैं।
प्रज्ञापरीषहविजय- ये ज्ञानशूर बहुत महान् बुद्धिशाली भी हो जायें, मिथ्यावादियों पर विजय भी प्राप्त कर चुकें, अनेक विद्यावों के पारगामी भी हो जायें, तिस पर भी उन्हें विद्या का घमंड नहीं आता है। तुच्छ पुरुष ही थोड़ी चतुराई और विद्याकला प्राप्त कर लेने पर गर्व से भरपूर हो जाता है, किंतु जिसे यह पता है कि मेरी वास्तविक निधि तो अनंत ज्ञान और अनंत आनंद की है। यह कितना सा ज्ञान है? तीन लोक और तीन काल के समस्त द्रव्य, गुण, पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानने की सामर्थ्य इस ज्ञान में है। यह ज्ञान कितना बड़ा है? न कुछ की तरह है। उसमें ज्ञानी पुरुषों को गर्व नहीं होता है और वे निज विज्ञानघनस्वभाव में ही उपयोगी बने रहा करते हैं। यह आत्मा ज्ञानघन है। घन उसे कहते हैं, जहाँ परतत्त्व का संबंध नहीं है। ठोस चीज को घन कहते हैं। प्योर (शुद्ध) केवल वह ही तत्त्व हो, उसे घन कहते हैं। यह आत्मा ज्ञानघन है। असंख्यात प्रदेशों में यह ज्ञानघन ही तो बर्त रहा है, ज्ञान से भरपूर है। घन का अर्थ वजनदार नहीं है, बल्कि घन का अर्थ है परतत्त्व से रहित होकर अपने ही तत्त्व में भरपूर रहना। यह आत्मा विज्ञानघन है- ऐसे ही स्वरूप में इस ज्ञानी पुरुष का उपयोग रहता है। इस ज्ञानस्वभाव के उपयोग में प्रत्याख्येय पदार्थ सब अपने आप छूट जाते हैं।
अज्ञानपरीषहविजय- यह ज्ञानी पुरुष ज्ञानप्रकाश की तपस्यावों को करता है। जो तप साधारण जनों से किया जाना असंभव है, बड़े तप करने पर भी यदि अवधिज्ञान प्रकट न हो तो यक संतजन खेद नहीं मानते हैं कि इतने वर्ष तक इतना उत्कृष्ट तप तपा और आज तक भी अवधिज्ञान नहीं प्रकट हुआ। लोग इसको मंदबुद्धि वाला कहते हैं। इतने वर्ष तो हो गए साधु बने, किंतु यह ज्यों का त्यों ही मूर्ख है, इसमें कुछ भी विद्या नहीं आ सकी है- इस प्रकार कुछ भी कोई बकता रहे, तो भी वे साधुजन खेद नहीं मानते हैं। वे तो जानते हैं कि मुझे विशेष ज्ञान नहीं हुआ तो न सही, मुझे तो अपने ज्ञानस्वरूप का ज्ञान करना है। बाह्यपदार्थों का ज्ञान यदि अधिक नहीं बढ़ पाया तो इसमें कौनसी हानि है? मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है कि मैं बाह्यपदार्थों को जानूँ। अवधिज्ञान न हो तो न सही। मुझे तो उसमें ही पूर्ण संतोष है कि मैं अपने सहज ज्ञानस्वभाव का स्पष्ट प्रतिभास कर लिया करता हूं- ऐसे अपने ज्ञानस्वभाव के ज्ञान में ही तृप्त रहने वाले साधुजन अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान न होने का खेद नहीं मानते हैं। ऐसे ही पुरुष भविष्यकाल में किसी भी प्रकार के अपराध के न करने का नियम रखते हैं, प्रत्याख्यान करते हैं।
अदर्शनपरीषहविजय- भैया ! बाहरी उपसर्गों से भी अधिक उपसर्ग अपने आपके ही विपरीत परिणमन से अपने आपमें कल्पनाएँ उठाते रहने का है और उन सबमें घोर कष्ट मिथ्यात्व का है। ये ज्ञानी साधु चिरकाल से दीक्षित होने पर भी बड़े-बड़े उपवास, तपस्या के करने पर भी इन्हें यदि अतिशय प्रकट न हो तो भी रंच भी यह कल्पना नहीं करते हैं कि मैं शास्त्रों में लिखी हुई विधि के अनुसार तो सब व्रत, तपस्या, नियम कर रहा हूं, किंतु उसके फल में मुझे कुछ भी अतिशय नहीं दिखता हैं। कहीं शास्त्र में ये सब बातें झूठ तो नहीं लिखी हैं- ऐसी कल्पना भी नहीं करते हैं। शास्त्रों में लिखा भी रहता है- ऐसे महोपवास तप के महात्म्य से ज्ञान में अतिशय प्रकट हो जाता है, केवलज्ञान हो जाता है, यह स्पष्ट लिखा हुआ तो है, उसे भी पढ़ लो। इतना अधिक तप करने के बाद भी कोई ज्ञान में अतिशय नहीं आ सका या कोई ऋद्धियां-सिद्धियां न प्रकट हों तो उसमें यह नहीं सोचते हैं कि ये शास्त्र मिथ्या मालूम होते हैं और अब हमारा तप करना व्यर्थ है- ऐसी कल्पना उनके नहीं जगती है। वे कभी सत्य श्रद्धान् से चलित नहीं होते हैं। उनको जो आत्मदर्शन हुआ था, उसमें दृढ़ रहते हैं, उसकी प्रतीति बनाए ही रहते हैं। ऐसे ज्ञानशूर पुरुष निश्चयप्रत्याख्यान का उपक्रम किया करते हैं।
परीषहविजय के लाभ- इन परीषहों के विजय से अनेक लाभ हैं। प्रथम तो जो बिना कष्ट सहन किए ज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह ज्ञान किसी दु:ख के उपस्थित होने पर छूट सकता है। परीषह के विजयी पुरुष का यह एक ही प्रथम लाभ है कि कैसा ही उपसर्ग आने पर उसका प्राप्त किया हुआ यह ज्ञान निधान खोया नहीं जा सकता। दूसरा लाभ यह है कि परीषहविजय में अनेक उदितकर्म निष्फल टल जाया करते है। तीसरा लाभ यह है कि पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा विशेष होती रहती है। चौथा लाभ यह है कि नवीन अशुभकर्म बँधते नहीं हैं, उनका संवर हो जाता है और 5वीं बात परीषहविजयी पुरुष नि:शंक रहते हैं। जो कायर पुरुष हैं, कष्टसहिष्णु नहीं हैं, वे ही पद-पद पर शंका किया करते हैं। हाय, अब क्या होगा उन्हें यह आगामी भय बना रहता है। छठा लाभ यह है कि परीषहविजयी पुरुष के सब गुण विकसित हो जाते हैं, उनमें धैर्य आता है, क्षमा प्रकट होती है, संतोष की वृद्धि होती है। वे तो इस लोक में भी सुखी हैं, परलोक तो आनंद प्राप्ति का उद्यम है ही। सातवाँ लाभ यह है कि इसके फल में परलोक में अभ्युदय प्राप्त होता है। अंतिम लाभ यह है कि वे संसार के समस्त दु:खों से मुक्त होकर परम आनंदमय मोक्षपद को प्राप्त करते हैं। ऐसे ये परीषहविजयी ज्ञानशूर पुरुष सर्वप्रकार के अहंकारों का परित्याग रूप व्यवहार प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानमय निज ज्ञायकस्वरूप का अवलोकनरूप निश्चयप्रत्याख्यान किया करते हैं।
प्रत्याख्यान के अधिकारी व्यवसायी- ये ज्ञानीपुरुष अपने मोक्षमार्ग में बड़े व्यवसायी होते हैं। निरुपाधि शुद्ध चैतन्यस्वभाव की दृष्टिरूप परमतपश्चरण में सदा निरत रहा करते हैं। मोक्षमार्ग का व्यवसाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का धारण है। ये रत्नत्रय कुशल ज्ञानी पुरुष निश्चयरत्नत्रय के पात्र हैं। ये ज्ञानी संसार के दु:खों से भयभीत हैं। ग्रंथों में लिखा है कि साधुवों को निद्रा नहीं आती है उनकी निद्रा का आना भी न आने की तरह है। श्वाननिद्रा से भी अत्यल्प उनकी निद्रा है। इसका क्या कारण है कि जो साधुवों को अन्य लौकिक जनों की भांति नींद नहीं आती है? इसका कारण यह है कि नींद न आने के दो हेतु हैं- एक तो विशिष्ट आनंदलाभ व दूसरा कोर्इ दु:ख आना। उन्होंने आत्मतत्त्व का दर्शन कर लिया है, जिसके अतुल आनंद में वे ऐसे प्रसन्न रहा करते हैं, जिस प्रसन्नता के कारण वे सजग रहते हैं। उन्होंने आत्मतत्त्व जैसी अतुल निधि पा ली है, जिससे उन्हें निद्रा नहीं आती है। और दु:ख भी उन पर हैं, वे तो इस संसार में बसने का ही बड़ा दु:ख मानते हैं, इस शरीर के बंधन को वे क्लेश समझते हैं। शुद्धज्ञानस्वरूप के उपयोग के अतिरिक्त अन्यत्र यह उपयोग रमे या फँसे, उसको बड़ा संकट समझते हैं। वे इन संकटों से भयभीत हैं, इनसे वे हटना चाहते हैं, इस कारण उन्हें निद्रा नहीं आती हैं। वे पुरुष संसार-भय से भयभीत हैं, इनमें व्यवहारप्रत्याख्यान और निश्चयप्रत्याख्यान प्रकट होता है।
निश्चयप्रत्याख्यान की नियमित हितरूपता- व्यवहारप्रत्याख्यान तो कदाचित् मिथ्यादृष्टि जीवों के भी संभव है। कदाचित् चारित्र मोह के उदय के कारणभूत जो द्रव्यकर्म और भावकर्म हैं, उनकी ऐसी ही मंदता हो जाए, जिसमें व्यवहारप्रत्याख्यान संभव हो जाता है। जैसे घर त्याग देना, वैभव त्याग देना, व्रत और संयम का पालना इसे व्यवहार संयम कहते हैं और अनंतानुबंधी कषाय की मंदता में इतना तक भी हो जाता है कि कोई बैरी द्रव्यलिंगी साधु को कोल्हू में पेल दे तो भी वह बैरी से द्वेष नहीं करता है। उसके अंतर में क्या बसा हुआ है, जिसके कारण इतने उपद्रवों को भी वह सह लेता है और द्वेष भी नहीं करता है? मैं मुनि हूं, मैंने मुनिपद लिया है, अत: मुझे द्वेष नहीं करना चाहिये, इससे ही हमें सद्गति मिलेगी। इस अध्यवसाय से द्वेष नहीं करते हैं। ऐसे जो विकल्प-बुद्धि में अटके हैं, वे इनको पार करके शुद्ध ज्ञानस्वरूप को नहीं निहार पाते हैं। व्यवहारप्रत्याख्यान तो ऐसे मिथ्यादृष्टि जनों के भी संभव हो जाता है, इस कारण निश्चयप्रत्याख्यान ही हितरूप है और यह अति आसन्न भव्य जीवों के प्रकट होता है।
ज्ञानी की साधना में व्यवहारप्रत्याख्यान का सहयोग- ज्ञानी के भी व्यवहारप्रत्याख्यान है, किंतु व्यवहारप्रत्याख्यान का प्रयोजन निश्चयप्रत्याख्यान है। उसकी लगार भी न हो तो व्यवहारप्रत्याख्यान मोक्षमार्ग में कार्य नहीं कर सकता है। जैसे स्वर्णपाषाण भी दो तरह के होते हैं। जिसमें स्वर्ण निकलता है, ऐसे पाषाणों की बात कही जा रही है। एक तो ठीक उपादेयस्वरूप स्वर्णपाषाण है और दूसरा कहलाता है अंधपाषाण। अंध पाषाण भी उस पाषाण की जाति का तो है, परंतु उसमें स्वर्ण का निकलना कभी संभव नहीं है। जैसे मुँग दो तरह की होती है- एक पक जाने वाली और दूसरी ऐसी कि जिसे कितना ही पकावो, पकती नहीं है। ऐसे ही मिथ्यादृष्टि जीव अथवा अभव्य जीव व्यवहारप्रत्याख्यान से सिद्धि नहीं पाते हैं और अत्यासन्न जीव व्यवहारप्रत्याख्यान भी करते हैं और उसके प्रयोजनभूत निश्चयप्रत्याख्यान में प्रगति करते हैं। इससे शुद्ध तत्त्वज्ञान उपादेय है।
प्रत्याख्यानभावना- संसार, शरीर और भोगों से निर्दोषता प्रकट होना, सो निश्चयप्रत्याख्यान का कारण है। फिर भविष्यकाल में ऐसे ज्ञानी पुरुषों के मर्यादित सर्वप्रकार के विभावों का परिहार हो जाता है। वही उनका परमार्थप्रत्याख्यान है अथवा भविष्यकाल में अंतर्जल्प और बहिर्जल्परूप विकल्पों का परित्याग हो जाता है। ऐसे ज्ञान के अभ्यासी पुरुष शुद्ध निश्चयप्रत्याख्यान को पाकर निकट ही काल में मुक्ति के पात्र होते हैं। हे मुमुक्षुजनों ! यह प्रत्याख्यान इस जीव को शरणभूत है अर्थात् अपराधों से दूर रहने का संकल्प कितनी प्रसन्नता उपादक है। यह प्रत्याख्यान सदा जयवंत रहो। इसके प्रसाद से ही उत्कृष्ट मोक्ष का सुख प्राप्त होता है। इस प्रत्याख्यान की निरंतर भावना हो और सर्वदोषों से रहित केवल ज्ञानस्वरूप अपने आपकी दृष्टि हो, इससे ही संसार के सर्वप्रकार के संकट दूर होते हैं।