वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 106
From जैनकोष
एवं भेदब्भासं जो कुव्वदि जीवकम्मणो णिच्चं।
पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदें सो संजदो णियमा ।।106।।
भेदाभ्यासी का प्रत्याख्यानाधिकार- इस प्रकार जो लोग जीव और कर्म में नित्य भेदभावना का अभ्यास करते हैं, वे संयमी पुरुष नियम से प्रत्याख्यान को धारण करने में समर्थ होते हैं। प्रत्याख्यान नाम है त्याग का। किसे त्यागना है, किससे त्यागना है। त्याग में दो तत्त्वों का होना आवश्यक होता है। जैसे अपादान कारक में एक ध्रुवरूप होता है और एक अध्रुवरूप होता है। ध्रुव तो अपादान है और अध्रुव है अपाय। जैसे कहते हैं कि वृक्ष से पत्ते गिरते हैं, यह अपादान का उदाहरण है। इस दृष्टांत में वृक्ष तो ध्रुव है और पत्ते अध्रुव हैं। पत्ते स्थान त्यागते हैं, इसलिए वे अध्रुव हैं और वृक्ष तो ध्रुव है। इसी प्रकार त्याग करना है तो किसका त्याग करना है और किससे त्याग करना है- ये दो बातें उसमें अवश्यंभावी हैं। त्याग करना है रागादिक समस्त विभावों का और त्याग किससे करना है? इस सहज चैतन्यस्वभावरूप आत्मा से। रागादिक विभाव अध्रुव हैं, इनका परित्याग हो सकता है और यह आत्मतत्त्व ध्रुव है। जब तक इन दोनों का भेद-भावना का अभ्यास न बन जाए, तब तक प्रत्याख्यान नहीं होता है।
भेदज्ञान से अभेदात्मत्व के ग्रहण में प्रत्याख्यान की परिसमाप्ति- चाहे यों कहो कि प्रत्याख्यान तो है ही। प्रत्येक जीव में परपदार्थों का अभाव है। प्रत्येक जीव के स्वभाव में केवल स्वभाव है। यों स्वभाव का और विभाव का जो भेदाभ्यास करता है, वही पुरूष परमार्थदृष्टि से प्रत्याख्यान को करने में समर्थ होता है। यह निश्चयप्रत्याख्यान के वर्णन का उपसंहार चल रहा है। वे ही पुरूष निश्चय और व्यवहार प्रत्याख्यान को स्वीकार करते हैं जो श्रद्धालु होंगे और अरहंतमार्ग के विचार करने में समर्थ होंगे। तत्त्व का जो स्वरूप कहा गया है, उस स्वरूप का विचार करने में जो निपुण होगा, वही पुरूष प्रत्याख्यान को कर सकता है। मोही, मिथ्यादृष्टि, पर्यायबुद्धि वाले जन जो पर्याय में ही अभेदाभ्यास किए हुए हैं कि यह मैं हूं- ऐसी मिथ्याबुद्धि में प्रत्याख्यान नहीं ठहरता है। जो अशुद्ध अंतस्तत्त्व और शुद्ध अंतस्तत्त्व दोनों का संबंध भेद निरखते हैं। अशुद्ध अंतस्तत्त्व है पररूप में तो कामार्णपुद्गल और निजक्षेत्र में रागादिक विभाव और शुद्ध अंतस्तत्त्व है, यह चैतन्यस्वभाव है- ऐसे स्वभाव-विभाव में जो बंधन के संबंध का भेद करते हैं, भेदाभ्यास के बल से वे संयमी निश्चयप्रत्याख्यान को स्वीकार करते हैं और व्यवहारप्रत्याख्यान को सहयोगी करते हैं। व्यवहारप्रत्याख्यान में तो परवस्तु का त्याग है और निश्चयप्रत्याख्यान में अपने आपमें जितने भी उपाधिसंबंध से होने वाले परिणाम हैं, उनका प्रत्याख्यान है। केवल एक शुद्ध शाश्वत चित्स्वभावमात्र ही जहाँ ग्रहण है, वहाँ ही निश्चयप्रत्याख्यान होता है। ऐसे निश्चयप्रत्याख्यान को यह संयमी स्वीकार करता है।
प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान व आलोचना में मूलभाववृत्ति- भैया ! करना क्या है? केवल एक ही बात। वर्तमानकाल में चलते हुए इन रागादिक भावों से भिन्न एक चित्प्रकाशमात्र अपने आपको जानना देखना है। इस एक ही काम में तीन काम हो जाते हैं- प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और आलोचना। वर्तमान में जो रागादिक भाव हैं, उनसे भिन्न आत्मतत्त्व को देखो। ऐसा देखने में प्रतिक्रमण तो यों हो जाता है कि पूर्व में बाँधे हुए जो कर्म हैं, उन कर्मों का वर्तमान में फल नहीं मिल सकता है। कर्मों का फल तब मिलता है, जब कर्मों के फल में आस्था हो, उपयोग दें तो फल मिलना होता है। कोई पुरुष उपयोग तो दिये हुए है एक शुद्ध ज्ञानप्रकाश में, यह मैं हूं- ऐसा ही अनुभव कर रहा है और कर्म बँधे हैं भव-भव के तथा उनका काल आने पर उदय भी चल रहा है। चले उदय, किंतु उस काल में उदयक्षण से एक समय पहिले उनमें से अनेक विरुद्ध वर्गणावों का स्तिबुकसंक्रमण हो जाता है और जो मंद अनुभाग वाले उदय हैं, वे बुद्धि में नहीं आते हैं, वे अबुद्धिपूर्वक निकल जाते हैं। इस प्रकार जो ज्ञानप्रकाश के अनुभव में जुटे हुए हैं, उनके प्रतिक्रमण होता है।
प्रतिक्रमण नाम है पहिले बँधे हुए कर्मों का फल बेकार हो जाना, फल न मिल सकना। जब वर्तमान में ज्ञानस्वभाव में उपयोग चल रहा है तो उसका अब फल नहीं मिल रहा है, यही हो गया प्रतिक्रमण।
प्रतिक्रमण का कारणभूत मूलभाववर्तन ही प्रत्याख्यान व आलोचना का कारण- प्रत्याख्यान कहते हैं भावी काल में फल न मिल सकने के लिए कर्मबँध न हो सकना। जिन कर्मों के उदय का भविष्य में फल मिलेगा, उसे कहते हैं प्रत्याख्यान। जो जीव वर्तमान में विभावों से भिन्न ज्ञानस्वभाव का अनुभवन कर रहा है, वह पुरुष कर्मबँध नहीं करता है और न भावी काल में उसका फल मिलेगा। यों एक ही काल में यह प्रत्याख्याता रागादिक भावों से विविक्त ज्ञानप्रकाशमात्र अपने आपको स्वीकार कर केवल उस व्रत में प्रत्याख्यान भी हो गया। विवक्त स्वभाव की दृष्टि में आलोचना तो स्पष्ट ही है। आलोचना कहते हैं वर्तमान दोषों को अपने से भिन्न निरखना। यह तो काम कर ही रहे हैं, इसलिए आलोचना भी चल रही है। यों केवल एक काम में ये तीन बातें चलती हैं।
एक वर में तीन सिद्धियों का लोकदृष्टांत- एक कथानक है कि एक पुरुष को देवता सिद्ध हो गया। वह देवता उससे प्रसन्न होकर कहता है कि ‘‘वत्स ! एक वर जो चाहो, सो माँग लो।’’ वह घर आया और माँ, बाप, स्त्री से पूछा कि ‘‘देवता से एक वर क्या मांगूँ ?’’ पिता ने उत्तर दिया कि ‘‘धन मांग लेना।’’ माँ ने सलाह दी कि ‘‘मेरे आँखें नहीं हैं, सो आँखें मांग लेना।’’ फिर स्त्री ने अपनी राय प्रकट की कि ‘‘एक पुत्र मांग लेना।’’ अब वह परेशान हुआ कि इनमें से कौनसी एक चीज मांगूँ ? तुरंत उसने एक उपाय सोच लिया कि क्या मांगना है? दूसरे दिन वह देवता के पास गया। उसे देखकर देवता ने कहा कि ‘‘वत्स ! अब एक वर मांग लो’’ उसने कहा कि हे देव ! मेरी माँ अपने पोते को सोने के कटोरे में दूध पीता हुआ देखे, मैं यही मांगता हूं।’’ उसने एक ही चीज मांगी ना? अरे, उस वर में तो तीनों चीजें आ गयीं। ऐसे ही मोक्षमार्ग के प्रकरण के जिस भाव में प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण और आलोचना- ये तीनों चलते हैं, वह भाव है सर्व से विविक्त ज्ञानस्वभावमात्र अपने आपको स्वीकार करना। इसमें तीन बातें आ गयीं।
विविक्त ज्ञानभावना- भैया ! जब उत्थान होता है तो ये तीन बातें आया करती हैं। पूर्व के अपराधों से हट जाना, आगामी कालों में अपराध न करना, वर्तमान में अपराध न करना- ये तीनों ही बातें एक निज सहज ज्ञानस्वभाव के अवलोकन में प्रसिद्ध हो जाती हैं। जो स्वभावदृष्टि करके सच्चा त्याग बनाए, व्रत बनाए, संयम बनाए, हो वास्तव में स्वभावदृष्टि, केवल बातों की कल्पना से यह बात नहीं आया करती है। यों प्रत्याख्यान के अधिकार में यह प्रत्याख्याता भावना करता है कि भविष्यकाल में होने वाले भावों से जो निवृत्त है, वह मैं हूं; जो नैमित्तिकतत्त्व हैं, वह मैं नहीं हूं। इसी प्रकार हम सब मुमुक्षुवों को दोषनिर्मुक्त होने के लिए पूर्ण ज्ञानानंदनिधान इस निजस्वरूप की निरंतर भावना करनी चाहिए।
परमतत्त्व की परख का अनुरोध- जैसे हम लोग इन आँखों से बाहर में कुछ देखा करते हैं और उसमें यह छटनी बना लेते हैं कि यह पदार्थ दर्शनीय है, इसे देखते रहना चाहिए। जैसे बाहर में यह छटनी करते हैं, इसी प्रकार इन आँखों से न देखकर हम इस ज्ञान-नेत्र से देखें तो वह कौनसी चीज है, जिसके देखने से संसार के सब दु:ख छूट जाते हैं? बस, इसका अवलोकन जिसने किया, उससे बढ़कर कोई विभूतिमान् नहीं है। हम इस ज्ञान-नेत्र से किस परमतत्त्व को देखें? जिसको हम देखेंगे, वह तत्त्व बाहर न मिलेगा; किंतु बाहर गयी हुई बुद्धि एक क्षोभ को ही उत्पन्न करती है। वहां वह परमतत्त्व नहीं मिलेगा, जिसको निरखने पर संसार के समस्त संकट छूट जाते हैं। वह तत्त्व खुद में ही मिलेगा, पर खुद को देखने की पद्धति में कुशल होना चाहिए। हम इस ज्ञान से जैसे अपने आपको निरखा करते हैं कि मैं अमुक चंद हूं, ऐसा मनुष्य हूं आदिक देखते हैं, उसे न निरखकर कुछ उस तत्त्व को देखना चाहिए, जिसको आँखें मींचकर निरखा जा सकता है। मैं अमुक चंद हूं, ऐसा मनुष्य हूं- यह सब इंद्रिय द्वारा ही जाना गया है। किन्हीं भी इंद्रियों से न जानें, केवल ज्ञान द्वारा ज्ञानस्वभाव को जानें- ऐसे तत्त्व अपने आपमें देखें।
विषवृक्षचिंतन की क्यारी से पार्थक्य- यह मेरा आत्मा शाश्वत है, सर्वसंकटों से मुक्त है, इसमें शरीर का भी संबंध नहीं है। यह शरीर संसार के भ्रमण को बढ़ाने का कारण है। इस शरीर का प्रेम संसार के संकटों की बगिया को हरी-भरी रखने के लिये, लहलहाती रखने के लिये जल-संचय के आधार जैसा काम कर रहा है। जैसे किसी बाग में क्यारी बनाकर नाली में पानी का प्रवाह करते हैं, उससे ये वृक्ष हरे-भरे बने रहते हैं, बढ़ते चले जाते हैं- ऐसे ही यह शरीर उस क्यारी की नाली की तरह है, जिसमें दुर्भावों का जल प्रवाह किया जा रहा है और उस जल-संचय से यह संसार का विषवृक्ष हरा-भरा होकर बढ़ता चला जा रहा है। तू इस शरीर से भी जुदा है, शरीर की रुचि से संसार के सारे संकट बनते हैं। सामायिक में, स्वाध्याय में या कहीं भी बैठे हों, दुकान पर ही क्यों न हों किसी भी जगह दो-चार सेकिंडों को भी कभी तो अनुभव करें कि यह मैं हूं, यह मैं स्वरूप सत् आत्मा सर्व परपदार्थों से भिन्न, शरीर से भी जुदा, केवल एक ज्ञानप्रकाशमात्र हूं। इस तत्त्व को न जानने के कारण कितना अंधकार छाया है इन जीवों में? इन्हें शुद्ध यथार्थस्वरूप नहीं सूझता है।
स्व का स्वतंत्र स्वरूप- यह मैं अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत् हूं। यह मैं सदा एक हूं, नानारूप नहीं हूं। जैसे जगत् में ये नाना प्रकार के जीव दिख रहे हैं- गाय, बैल, घोड़ा, भेड़, बकरी आदि, ऐसे ही ये हम आप भी जितने दिख रहे हैं, उन सबके संबंध में ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है कि मुझे तो कोई दिख ही नहीं रहा है। कहां प्रवेश करके ज्ञानी चिंतन कर रहा है? भिन्न-भिन्न मनुष्यों को निरखकर। एक मानने की बात तो दूर रही, वह तो सुगम बात है; किंतु वृक्ष-कीड़े, पशु-पक्षी जैसे अत्यंत भिन्न जीवों को निरखकर भी ज्ञानी इन सबमें एकत्व देख रहा है। ये सब केवल ज्ञानप्रकाशमात्र हैं। ऐसा ही यह मैं ज्ञानमय आत्मा शाश्वत हूं, ज्ञानदर्शनस्वरूप हूं।
स्वरूप की क्रियाकांड विविक्तता- यह मैं शाश्वत आत्मा सर्वप्रकार की क्रियावों से दूर हूं। मैं कुछ करता हूं, मैं अमुक क्रियायें करता हूं, इस प्रकार की दृष्टि में मेरा आत्मा ओझल हो जाता है। मैं भावप्रधान हूं, यह केवल अपने परिणाम ही बनाता है। उसी परिणाम पर शांति और अशांति निर्भर होती है। मेरा यह आत्मतत्त्व समस्त क्रियाकांडों से दूर है। ये नाक, कान के आभूषण जो स्वर्ण के हैं, ये नाक, कान की शोभा बढ़ाने के लिये हैं, किंतु वे ही आभूषण नाक, कान को छेदकर एक घाव बना दें तो वे आभूषण किस काम के हैं? ये क्रियाकांड चलना, उठना, बैठना, शुद्धता से हाथ पैर की वृत्ति करना, दूसरों से अलग रहना, छुवाछूत आदिक इन सब क्रियावों से चलना, इन सबका उद्देश्य तो निश्चयधर्म का श्रृंगार करने के लिये था; किंतु ये क्रियाकांड एक ममता को उत्पन्न करके हमारे ही धर्म में एक बड़ा रोग पैदा कर दें, बुद्धि को सड़ा दे, बहिर्मुखी दृष्टि हो जाये तो ये क्रियाकांड समूह मेरे किस काम के हैं? मैं शुभ, अशुभ, मन, वचन, काय के समस्त क्रियाकांडों से विविक्त हूं।
दुर्लभ समागम के सदुपयोग का अनुरोध- भैया ! जो समय गुजर रहा है, वह वापिस नहीं आ सकता। ऐसा श्रेष्ठ मनुष्य-जन्म बार-बार नहीं मिला करता। जो मनुष्य नहीं हैं, ऐसे बहुत से जीव जो नजर आ रहे हैं, उनकी जिंदगी तो देखो- भैंसा, बैल, घोड़ा, गधा आदि जोते जा रहे हैं, पीठ पर चाबुक लगती जा रही है और बांय-बांय करते जा रहे हैं। कितने दु:ख वे भोग रहे हैं? हांकने वाले जरा भी यह निर्णय नहीं कर रहे हैं कि इनकी भी हमारी ही जैसी जान है। कीड़े-मकौड़े आदि जीवों की हालत तो देख ही रहे हो, ये सब भी हम आपकी ही तरह चेतन जीव हैं। हम आपने सुखी होने का कोई पट्टा नहीं लिख रक्खा है। यह तो थोड़ा पुण्य का उदयकाल है, पर जो दुर्गति अन्य जीवों की हो सकती है, वही दुर्गति अपनी भी हो सकती है। इस कारण संसार से कुछ भय लायें, कुछ धर्म की ओर रुचि करें।
प्रत्याख्यानसाहसी के परमतत्त्वदर्शन की पात्रता- अच्छा, अब और आगे चलिए। जैसे मान लो अपने आपको ऐसा निरखते हैं कि मैं इसका प्रेमी हूं, मैं इसका विरोधी हूं- इस प्रकार से राग-विरोध भाव में अपने आपको लपेटकर निरखा करते हैं। उससे भी परे चलें और अपने आपमें देखे कि मैं कौन हूं, कौनसा वह परमतत्त्व है, जिसका आश्रय लेने से संसार के संकट नियम से टल जाते हैं? उस तत्त्व को न निरख पाया तो जैन धर्म का लाभ न लूट पाया, यह आप निश्चित् समझो। उस तत्त्व के निरखने के लिए इतना भी साहस करना पढ़े कि सब कुछ विभावों का परित्याग करना हो, वह भी मंजूर हो सके, इतना जिसमें आत्मविषयक प्रेम हो, रुचि हो, वह ही पुरुष अपने आपमें वर्तमान परमतत्त्व को देख सकता है, जान सकता है।
अंतर्भेदाभ्यासी की प्रत्याख्यानपात्रता- अब आगे और चलिए। जो ऐसा समझने वाले हैं कि यह मैं हूं, मैं जानता हूं, मुझे सब पता है, मेरे में सब प्रकार की जानकारी होती है, जिन जानकारियों में हम अपने को लपेटते हैं, वे सब जानकारियाँ भी परमतत्त्व नहीं हैं, वे जानकारियाँ मिट जाती हैं और कारण पाकर होती हैं। जो जानकारियाँ होती हैं, उनमें ही पहिले अंदाज लगावो कि जान लिया तो क्या कर लिया? जानना हुआ ना? तो जानने का क्या स्वरूप है? पहिले उस बर्त रहे जानन का स्वरूप ही पकड़ लीजिए। क्या है इस जानन में, जो कि जानन भी मिला है और राग भी मिला है? जरा उस राग अंश को तो उपयोग द्वारा निकाल फैंको और उसमें केवल जाननमात्र ही देखिए तो इस देखने से भी उस परमतत्त्व के जानने का मार्ग मिलेगा।
दृष्टांतपूर्वक स्वत्व की प्रसिद्धीकरण- जैसे पानी में लाल रंग घोल दिया तो पानी लाल हो गया। वस्तुत: वहाँ दों बातें हैं- पानी का स्वतंत्र शुद्ध स्वरूप है और यह रंग भी है। उस रंगे हुए पानी को देखकर क्या हम ज्ञान से यह नहीं परख सकते हैं कि रंग इसमें यह है, पानी इसमें यह है? इस रंग बिना ही पानी है, क्या हम यह नहीं जान सकते हैं? जान सकते हैं। ऐसे ही राग और ज्ञान- ये दोनों बर्त रहे हैं हम और आपमें, पर थोड़ा ज्ञानबल का प्रयोग करें तो क्या हम वहाँ यह नहीं जान सकते हैं कि यह राग अंश है, उस राग बिना भी जानन रहा करता है। उस जानन का क्या स्वरूप है? केवल जानन प्रतिभास। उस शुद्ध जानन का जो स्वरूप है, उसको ही अगर जानें तो उस समय जो विशिष्ट पदार्थ है, कुछ विशेष है, वह सब ओझल हो जाएगा। केवल एक सामान्य चित्स्वरूप ही प्रतिभास में आएगा। ऐसा जो जाननप्रकाश है, केवल प्रतिभास है, उसके आधारभूत जो शक्ति है, तन्मात्र मैं हूं, जिसे चैतन्यशक्ति कहते हैं, चित्स्वभाव कहते हैं।
संसारतारणी नौका- चित्स्वभावरूप यह मैं वह परमतत्त्व हूं, जिसका आश्रय करने से संसार के संकट नहीं रहा करते हैं। संसार का संकट आगे न रहेगा, यह तो है ही, पर जिस काल में अंत:प्रकाशमान् इस चैतन्यस्वरूप का आलंबन ले रहे हों, उस काल में भी एक संकट नहीं है। इस परमतत्त्व को जिनेंद्र भगवान ने संसारसमुद्र से तारने के लिए नौका के समान बताया है, जिस नौका में बैठकर, सुरक्षित नौका में स्थित होकर बड़े-बड़े समुद्रों को पार कर लिया जा सकता है- ऐसे ही इस चैतन्यस्वभाव की नौका में उपयोग को बिठलाकर अपने को पार करके इस संसार-सागर के संकटों से पार हो सकते हैं। ओह ! ऐसा तत्त्वदर्शन जिसने किया है, उसका यह शिवसंकल्प होता है कि उन समस्त विभावों को त्यागकर, मोह को जीतकर इस परमतत्त्व को परमार्थ रीति से भाता हूं।
शुद्ध चारित्र में परमतत्त्व की उपलब्धि- मैं किसकी ओर निगाह डालूँ, किसको जानता रहूं कि मेरा परम कल्याण हो? वह है मेरा ही चैतन्यस्वरूप। जो हम हैं, स्वयं हैं, शाश्वत हैं, उसका ध्यान संसार के समस्त संकटों को नष्ट कर देता है। जिनका उपयोग इस सहज परम आनंदस्वरूप में लग गया है, उनकी भ्रांति तो नष्ट हो ही चुकी है। अब वह पुरुष इसी चैतन्यस्वरूप में लीन होता है? बस शुद्ध चारित्र की मूर्ति ये ही साधु-संत हैं। बाहर में शरीर की क्रियाएँ प्रवर्तते हुए अपने को चारित्र हुआ है- ऐसी जो कल्पना है, वह कल्पना तो भ्रमरूप भी होती है। ये शरीर की क्रियाएँ तो विवश होकर करनी पड़ती हैं। अब ज्ञान का उदय हो गया तो उसमें यह विवेक चलता है कि यों न करना हो तो यों कर लो। जब करना ही पड़ता है तो यों नहीं करना है तो यों कर लो। इस तरह विवेकपूर्वक क्रिया करने को व्यवहारचारित्र कहते हैं।
व्यवहारचारित्र की निर्माणविधि का संकेत- जैसे चलना सबको पड़ता है। गृहस्थजन, व्यापारीजन व्यापार के उद्देश्य से गमन करते हैं, बैठे रहना उनका भी संभव नहीं है और मुनिजन एक स्थान पर रहें तो रागादिक भाव जम न जाएँ, उनसे बचने के लिए विहार करना आवश्यक है, जब चलना ही पड़ता है, चलना ही पड़ेगा तो असंयमी जनों की तरह बिना देखें यों मुँह उठाकर नहीं चलना है, सोच-समझकर देख-भालकर चलना है। असंयमी जन सब कुछ खाते हैं, वे खाने के लिए खाते हैं। वे समझते हैं कि वैषयिक-सुख भोगने के लिए अपना जीवन बना है और इसलिए अनाप-सनाप प्रवृत्ति रखते हैं, किंतु ज्ञानीजन संयम की साधना के लिए जीवन को आवश्यक जानकर जीने के लिए खाते हैं। खाना तो पड़ेगा ही, पर असंयमी जनों की तरह नहीं खाना है, सो शुद्ध चीजें खाते हैं। कायर बनकर न खावे तो शूर बनकर खावे, आसक्त होकर न खावे तो विरक्त होकर खावे। इस प्रकार का चलना, क्रिया करना, भोजन करना आदि व्रत मान लिया है। सो कुछ करना पड़ेगा ही, उसमें विवेक रखना- इसका नाम है व्यवहारचारित्र। यह ही स्वयं चारित्र नहीं बन गया, किंतु जिससे मुक्त होना हो, इस परमतत्त्व के ज्ञान में अपने उपयोग को स्थिर बनाना हो- यह है शुद्ध चारित्र। ऐसे शुद्ध चारित्र की जो महात्मा मूर्ति हो गये हैं, उन महात्मावों के निरंतर प्रत्याख्यान होता है।
परमतत्त्व के प्रकाश में निरंतर प्रत्याख्यान- प्रत्याख्यान मायने त्याग है। बाह्यदृष्टि वाला यदि कोई त्याग करता है तो क्या रात-दिन त्याग करता फिरता है? बाह्य त्यागी ने घर छोड़ा, अब घर तो रहा ही नहीं, दुबारा क्या घर त्यागे? धन छोड़ दिया तो धन तो रहा नहीं, अब क्या त्यागे? बाहरी त्याग निरंतर नहीं हो पाता है। जब मन में वैराग्य हुआ था, तब बाह्यपरिग्रह का त्याग कर दिया; किंतु यहाँ इस परमतत्त्व के प्रकाश में तो देखो कि कैसा निरंतर उस परमतत्त्व के अनुभव में शुद्ध चारित्र जगा है? सो इस चारित्रवान् संत के निरंतर प्रत्याख्यान है। वह प्रत्याख्यान है सर्वविभागों का, सर्वविकल्पों का। यों प्रत्याख्यान के अधिकार में मूल बातें कही गयी है, जिसका सहारा लिए बिना किसी का गुजारा नहीं है।
प्रत्याख्यान के यथापदाधिकारी- गृहस्थजन यह न जानें कि यह तो साधुवों की बात कही जा रही है। उस परमतत्त्व के दर्शन बिना सम्यक्त्व भी नहीं जग सकता है। गृहस्थ क्या सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं? होते हैं। जो सम्यग्दृष्टि गृहस्थ हैं, उनको नियम से इस चैतन्यस्वरूप अंत:प्रकाशमान् नि:संकट निर्विकल्प परमतत्त्व का दर्शन हुआ है। अंतर केवल स्थिरता का रह जाता है। गृहस्थों के अनेक झंझट हैं, वे इस तत्त्व में स्थिर नहीं रह पाते हैं, लेकिन जो उपासक हैं उन्हें यह ध्यान है कि मेरे करने का काम उस परमतत्त्व में स्थिर रहना है। जो पुरुष परपदार्थों में उपयोग बसाए रहते हैं, अपने आपमें उठे हुए औपाधिक रागादिक भावों में ममता, अहंकार की बुद्धि बनाये रहते हैं, जो पुरुष वस्तुस्वरूप के शुद्ध प्रतिपादन करने वाले जिनेंद्रमार्ग के सिवाय अन्य मार्गों में रागद्वेष और विकल्प में अपना उपयोग फँसाए रहते हैं- ऐसे त्यागियों तक के भी जिन्होंने घर-द्वार छोड़ दिया है, उन तक के भी प्रत्याख्यान नहीं होता। उनका तो फिर संसार में ही भ्रमण चलेगा।
ज्ञानी के प्रत्येक परिस्थितियों में साधना का साहस- देखो अपनी बात, देखो अपनी शाश्वत रहने वाली आनंदभरी बात और मोह-ममता में आपको कुछ न मिलेगा। यह जीवन यों ही नहीं खो देना है। अरे, अपने आपमें विराजमान् इस निर्मल गुणमय शुद्ध सहज आत्मा में जो नियतरूप से रहता है, उसे निरखो। इसके ही निरखने के प्रसाद से जो केवल आत्मा रह गये हैं, सिद्धप्रभु हुए हैं, उनमें तो यह अतिशयरूप से एकदम प्रकट विराजमान् है- ऐसे इस निज तत्त्व को अपने आपमें विराजा हुआ जानों। क्यों काम-वेदना से पीड़ित होकर इंद्रियविषयों को लक्ष्य में रखकर, इन असार बातों में फँसकर अपना जीवन गँवा रहे हो? इतना बल अपने में बनावो कि कैसी भी स्थिति गुजरे, हमें घबराना नहीं है, कैसी ही निर्धनता आए, कैसे ही निर्जन हो जायें, पर घबराना नहीं है। जैसे कोई चतुर व्यापारी हो तो वह ऐसा दम भरता है कि सरकार कैसे ही कानून बनाए, पर मैं सबमें अपना साधन बना सकता हूं। अरे, यह तो लौकिक बात है। यह भी दृष्टि दो कि कर्मों के किसी भी प्रकार के उदय में मुझ पर कैसी ही परिस्थिति बीते, उन सब परिस्थितियों में अपना साधन बना सकता हूं और जो मेरा मूल उद्देश्य है, इस परमशरण चैतन्यतत्त्व को ग्रहण करना है। उस धर्म में मैं रंच भी आँच न आने दूंगा।
ज्ञानी का सहजविश्राम- क्षमाशील ज्ञानी पुरुष अंत:सहजविश्राम प्राप्त करता है। अज्ञान अवस्था ही एक महान् संकट है, अन्य कुछ संकट नहीं है। वस्तु के स्वतंत्रस्वरूप की सुध न रहना और मैंने अमुक को यों किया, इस प्रकार का विकल्प चलना, यह एक संकट है। संकट और किसी बाह्यपरिणति का नाम नहीं है। ज्ञानी पुरुष के न शत्रुता का परिणमन है और न मित्रता का परिणमन है। उसका न तो किसी के साथ बैर है और न किसी के साथ राग है। वह सहज वैराग्य में परिणत है। ज्ञानी अपने आपमें शिवसंकल्प कर रहा है कि मैं परमसमाधि को प्राप्त होता हूं। अज्ञानीजन तो कषायों से थककर, झक मारकर विश्राम लेते हैं। होने दो, मरने दो, मुझे मतलब नहीं, यह उसके एक अज्ञान की अकुलाहट है, पर ज्ञानी पुरुष वस्तुस्वरूप के जानने के कारण सहजविश्राम ले रहा है। मैं उत्कृष्ट परमसमाधि को प्राप्त होता हूं, जिससे परमसमता का भाव व्यक्त होता है।
धर्मात्मा के उपयोग में धर्मसाधना का महत्त्व- भैया ! यह बाह्यपरिस्थिति क्या है? आज है, कल नहीं है, इसमें मेरा क्या पूरा पड़ता है? जब तक जीवित हूं, तब तक यह है, बाद में सारा का सारा छोड़कर जाना होगा। इसमें उपयोग फँसाने में कुछ भी लाभ नहीं है। इसके प्रति तो यह बल रहना चाहिए कि आवो जो कुछ आता हो, इसमें मेरा कुछ अटका नहीं है। मैं सब परिस्थितियों में अपनी धर्मसाधना बना सकता हूं- ऐसा बल गृहस्थों के होना चाहिये। यदि ऐसा बल न आ सके तो उसको सुखी करने वाला दुनिया में कोई नहीं हो सकता है। कौन रिश्तेदार कृपा कर सकता है कि आपके संकटों को मेटे? कौन मित्र ऐसा है कि आपके संकटों को बाँट ले? आपका ही बल, आपका ही साहस आपके संकटों को मेट सकता है।
पुराणपुरुषों की चर्या में आस्था–अपने पुराणपुरुषों की चर्या पर विचार करो कि क्या किया था उन्होंने? त्यागी रहे, निर्ग्रंथ हुए, आत्मसाधना में लगे और उन्होंने सदा के लिये आनंद प्राप्त किया। ऐसा ही करने की यदि हम आपकी धुन न हो, लक्ष्य न हो तो बेकार है। न कर सकें, यह दूसरी बात है, पर उस ओर का लक्ष्य ही न हो तो उसकी श्रावक संज्ञा नहीं है, उसे उपासक संज्ञा नहीं है। नाम तो कुछ भी अपना रख लो। धर्मात्माजनों की, अपने पुराणपुरुषों की चर्या में आस्था रहती है कि उन्होंने जो किया ठीक किया, यही हमें करना चाहिए था। ऐसा यह अंतरंग शुद्ध चारित्र जो पापरूप वृक्ष के वनों को जला देने में समर्थ है, अग्नि की तरह प्रज्ज्वलित है, वह चारित्रसंयमी जनों के प्रकट होता है।
त्याग में आनंद- यह प्रत्याख्यान सहज-सुख का देने वाला है। सुख त्याग से मिलता है, ग्रहण से नहीं मिलता है। अजमा-अजमाकर देखते जावो। जिन्हें आप लोग सुख कहते हैं, वे भी त्याग से मिल रहे हैं, ग्रहण से नहीं। कल के दिन भोजन में आनंद मिलेगा, यह आज आप भोजन त्याग दें तो मिलेगा। खाते रहो दिनभर तो यह आनंद न मिलेगा। ये पंचेंद्रिय के विषय भी तब सुख के कारण बनते हैं, जब विषय का त्याग कर दें। लगे रहें विषयों में तो विषयों में भी आनंद नहीं मिल सकता। जब विषयों का आनंद पाने के लिए त्याग करना जरूरी हो जाता है तो विषयों का सदा के लिये त्याग कर दें तो किस प्रकार का अद्भूत आनंद होता होगा, उसका अनुमान ही कर लीजिए।
परमतत्त्व का अभिनंदन- जिस सहज तत्त्व के आलंबन से मोहांधकार नष्ट होता है, वह तत्त्व सदा जयवंत रहो, सबमें प्रकट हो, सबके संकट मिटें। यह आनंद अद्भूत आनंद है। लौकिक सुख तो ईर्ष्या और अनुदारता को समर्थित करने वाला है। दूसरों का सुख देखकर ईर्ष्या हो जाती है अथवा ऐसा विचारता है कि यह धनी न बने, मेरे धन बढ़े, इसके न बढ़े, इस पर धन बढ़ गया तो हम निर्धन रह जायेंगे। अपना अधीपना बढ़ाने के लिये दूसरों को निर्धन बनाये रखना इस लौकिक सुख में आवश्यक है, किंतु इस परमार्थभूत आनंद में कोई ऐब नहीं है। अरे, मेरी ही तरह सारा जगत् आनंदमय हो जावे, मेरे आनंद को कोई छुड़ा न लेगा। यह आनंदमय परमतेज, यह हमारा ज्ञान रसास्वादन का ही बढ़ाने वाला है, दूसरा कोई नहीं है। यह तत्त्व आपेक्षित शाश्वत है, निर्दोष है, लोकोत्तम है, संसार-समुद्र में डूबे हुए इन जीवों को पार करने के लिए नौका की तरह है। इस संसार के संयोग-वियोग, सभी क्लेशों को नष्ट करने के लिए यह नौका की तरह है- ऐसे इस सहज तत्त्व को मैं पहिले प्रमाद को हटाकर, अपने उपयोग को शुद्ध रखकर, इसी को सर्वस्व समझकर मैं भावनमस्कार करता हूं अर्थात् मेरा झुकाव केवल एक इस परम पिता चैतन्यप्रभु की ओर ही रहे।
प्रत्याख्यानमय सहजतत्त्व का आनंद- इस प्रकार यह मूल का साधक पुरुष प्रत्याख्यानमय इस सहजतत्त्व का आश्रय ले रहा है। जिसने इस सहजतत्त्व का आश्रय लिया, पापरूपी बैरियों का ध्वंस किया, सर्वकर्मों से दूर हुए, जिस तत्त्व को बड़े-बड़े तत्त्ववेत्ता भी प्रणाम करते हैं और जिस विकासमय प्रभु का बड़े-बड़े योगीजन भी ध्यान करते हैं, जो सर्वगुणों का धाम है- ऐसे इस सहजतत्त्व को हम परमनमस्कार करते हैं और एक ही यह निर्णय रखते हैं कि मेरा सहायी केवल निज में विराजमान् इस शुद्ध स्वभाव का आलंबन ही है और जगत् में अन्य कुछ शरण नहीं है। अब समस्त विकल्पों को त्यागकर निर्विकल्प परमशरण कारणसमयसाररूप निज सहज परमतत्त्व का, चित्स्वभाव का आलंबनरूप शरण गहो। इसी से निश्चयत: सकल अपराधों का प्रत्याख्यान होता है।
इति नियमसार प्रवचन सप्तम भाग