वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 124
From जैनकोष
किं काहदि वणवासो कायकलेसो विचित्त उववासो।
अज्झयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स। ।124।।
समता का महत्त्व- समता का नाम परमसमाधि है, रागद्वेष न होकर केवल ज्ञाताद्रष्टा रहना इसका नाम है समता। जिस योगी के समता नहीं है उस योगी को जंगल में रहना कौनसा अभीष्ट सिद्ध करेगा? जो रागद्वेष से मलिन हैं, विषयकषाय के अभिप्राय वाले हैं उनको जैसे जंगल में रहना, शहर में रहना बराबर है। जंगल में रहकर उनकी कौनसी सिद्धि होगी? जहाँ समतापरिणाम नहीं है वहां विकल्पों के कारण क्लेश ही निरंतर होता रहता है। समता ही सत्य सहज आनंद को उत्पन्न करने में कारण है। जो समस्त कर्म-कलंकों को छूटा देता है अथवा सर्वप्रकार के भावकर्मों के, प्रक्रियावों के कलंक से दूर है, ऐसे आनंद का कारण तो यह परमसमता है।
समता के बिना क्लेशजालों की उत्पत्ति- जगत् में जो भी जीव दु:खी हो रहे हैं वे समता के बिना हो रहे हैं, दूसरा कुछ क्लेश ही नहीं है। अपना कुछ मान लिया, कुछ पराया मान लिया, बस इसी स्व-पर के पक्ष में रहकर अनुकूल घटनावों को समझकर यह दु:खी हो रहा है। जैसे मान लो आज यह जीव हिंदुस्तान में है तो हिंदुस्तान के खिलाफ जो भी देश हैं वे देश इसे अनिष्ट लग रहे हैं, उनको यह शत्रु मान रहा है और मरण करके उन्हीं देशों में उत्पन्न हो जाय तब उसके लिए यह देश अनिष्ट हो जायेगा और नया देश इष्ट हो जायेगा।
उन्मत्त का व्यवहार- जैसे पागल पुरुष का इष्ट क्या और अनिष्ट क्या? अभी किसी से बड़े प्रेम की बात करता है तो थोड़ी ही देर बाद उसे वह गाली सुनाने लगता है। जिसे गाली दे रहा है तो थोड़ी देर बाद उससे प्रेम करने लगता है। उस पागल का ज्ञान मलिन हो गया है उसका क्या भरोसा है? उसमें कुछ टिकाव ही नहीं है, ऐसे ही मोह की मदिरा पीकर यह जीव पागल हो रहा है, इस कारण इसके किसी एक ओर टिकाव ही नहीं है, कहां टीके यह? थोड़ी देर को मनुष्यपर्याय में है तो इसे अपना मानता है, मरण करके जिस पर्याय में जायेगा उसे अपना मान लेगा। आज जिसे मित्र जाना जा रहा है कषाय अनुकूल पड़ने से, कदाचित् मन की स्वार्थवासना के विरूद्ध क्रिया बन जाय तो उसे विरोधी मानने लगेगा। यह मोही जीव ठीक पागल की भांति है। आज किसी से प्रेम में वार्तालाप कर रहा है तो कहो कल उसी से शत्रुता का बरताव होने लगे।
समतारहित का वनवास निष्प्रयोजन- जिस पुरुष के तत्त्वज्ञान नहीं है उसके समता नहीं है, उसके अनाकुलता नहीं है। जो समतारहित साधु हैं, जिन्हें अपने पराये का पक्ष लगा है- यह मेरा शास्त्र है, यह दूसरे का शास्त्र है, यह मेरा नाम है, यह दूसरे का नाम है, इसमें मेरी बड़ाई, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है, कितनी तरह के पक्ष लग रहे हैं। इंद्रिय के विषयों के भी पक्ष हैं, यह मिष्ट भोजन है, यह नीरस भोजन है, यहां अच्छा संगीत होता है, यहां तो कुछ भी नहीं होता है आदिक किसी भी प्रकार के पक्ष लगे हों तो ऐसे समतारहित साधु के किसी एकांत में, वन में, कहीं भी निवास करने से कौनसा प्रयोजन सिद्ध होगा? मुक्ति का मार्ग तो नहीं हो सकता। जो द्रव्यलिंगधारी योगी हैं, जिन्हें ज्ञान और वैराग्य नहीं जगा है, केवल निर्ग्रंथ भेष है, नग्न है, दिगंबर है और इतना ही नहीं, अपने मूल गुणों के पालन करने में सावधान हैं फिर भी समता नहीं है, अंतरंग में तत्त्वज्ञान का प्रकाश नहीं है, अंतर्मुहूर्त बाद अप्रमत्त दशा जिनके नहीं हो सकती है, ऐसे साधुवों को वन का निवास भी क्या मुक्ति दे देगा? वह द्रव्यलिंगधारी है, श्रमणाभासी हैं, श्रमणाभासी कहते हैं द्रव्यमुनि को।
साधुपद की श्रेष्ठता- साधुपद भी बड़ा उत्कृष्ट पद है। साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। इनकी मुद्रा, इनकी वृत्ति किन्ही-किन्ही रूपों में अरहंत भगवान के अनुकूल होना चाहिए, तब वह साधु कहला सकता है। प्रभु अरहंत आरंभ परिग्रह, रागद्वेष इनसे पूर्ण विरक्त हैं तो उन्हीं बातों में जिनकी गति चल रही हो, यही जिनका लक्ष्य हो, इस ओर जिनका सम्यक्आचरण हो उन्हें साधु कहते हैं। साधुवों के भी आरंभ नहीं होता है। वे अपने शास्त्र- अध्ययन, समितिपालन और षट् आवश्यक कार्यों के सिवाय; वंदनस्तवन, प्रायश्चित्त, कायोत्सर्ग आदिक आवश्यक कार्यों के सिवाय अन्य किसी काम में हाथ नहीं देते हैं। आरंभरहित हैं, परिग्रह से भी रहित हैं, किसी वस्तु की वांछा नहीं, किसी की ओर लगाव नहीं, एक विशुद्ध ज्ञायकस्वरूव आत्मा की ही जिनकी धुन है वे निष्परिग्रही साधु कहलाते हैं।
समतारहित के एकांतवास से मुक्ति का अलाभ- जिन्हें आत्मतत्त्व की कुछ सुध भी नहीं है, कभी इसका ज्ञान भी नहीं होता है तो आप जानो कि क्या उसके परमार्थत: साधुता रहा करती है। जो ज्ञानवैराग्य से शून्य हैं, जिनको आत्मा का अनुभव कभी नहीं होता, जिनकी दृष्टि परपदार्थों की ओर होती है, जिनके आत्मा का दर्शन नहीं हो पाता ऐसे पुरुष निर्ग्रंथ भेष में यदि हैं तो उन्हें श्रमणाभास कहते हैं, झूठे मुनि कहते हैं। ऐसे द्रव्यलिंगधारी श्रवणाभास के समता न होने के कारण मुक्ति का कोई कारण नहीं बन पाता है। वह वन में रहे, विविक्तशय्यासन करके रहे, महातप करे, अनशन आदिक दुर्धर आचरण करे तब भी मुक्ति का मार्ग नहीं मिल पाता है।
ज्ञानहीन समतारहित श्रमणाभास के वर्षायोग की निष्फलता- साधुवों की कितनी कठिन तपस्या है? वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे ही वे खड़े रहते और ध्यान करते रहते हैं। जंगल में कहां महल है, कहां रहने का स्थान है? कहीं कदाचित् कोई साधारण गुफा आदिक मिल गयी तो वहां भी ये रह सकते हैं, पर यह एक तपस्या है कि वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे बड़े-बड़े ध्यान करना। कोई तेज बरसात में पेड़ के नीचे खड़ा हो जाय तो उस पेड़ से बड़ी-बड़ी बूँदे टपकती हैं और मैदान में छोटी-छोटी बूँदे टपकती हैं, उन बड़ी-बड़ी बूँदों का सहना कठिन होता है, ऐसी कठिन बूँदों को भी वह साधु सहन करते हैं और ध्यान में रत रहते हैं। यहां एक शंका की जा सकती है कि फिर वे मैदान में ही खड़े रहकर क्यों नहीं ध्यान करते हैं? तेज वर्षा में वृक्ष में नीचे अधिक बाधा होती है, पत्तों से जो बड़ी-बड़ी बूँदें बनकर गिरती हैं, क्या उनसे बाधा न होती होगी? देखा होगा कि पेड़ों के नीचे पानी के बूँदों के गड्ढे बन जाते हैं, बाहर में पानी की बूँदों के गड्ढे न देखे होंगे, किंतु वे वृक्ष के नीचे खड़े होकर तप करते हैं। इसका कारण यह है कि पानी में जलकाय के एकेंद्रिय जीव हैं, यह पानी वृक्ष पर टक्कर मारकर नीचे गिरता है तो प्रासुक हो जाता है। वे साधु षट्काय की हिंसा से दूर रहने वाले हैं, मैदान का पानी सचित्त है और वृक्ष के नीचे का पानी अचित्त है, इस कारण जीवरक्षा के प्रयोजन से वे वर्षाकाल में पेड़ के नीचे तपस्या करते हैं। उनका तप कितना अद्भूत है, लेकिन तत्त्वज्ञान नहीं है, समता नहीं है तो वृक्ष की तरह खड़े होकर तप करने में कहीं मोक्ष की सिद्धि होती है?
श्रमणाभास के ग्रैष्मतप से भी मुक्तिमार्ग का अलाभ- मोक्ष का मार्ग शरीर की चेष्टा से नहीं मिलता है किंतु वस्तुस्वरूप का यथार्थ भान होने पर जो परतत्त्व हैं उनको त्याग दें और जो अंतस्तत्त्व है उसकी ओर लौ लगायें तो इस अद्भूत अंत:पुरुषार्थ से मोक्ष का मार्ग मिलता है। मुनिजन ग्रीष्मकाल में बैसाख-जेठ के महीने में जब कि बहुत कठिन धूप पड़ रही है, साधारणजन मकान से बाहर निकलने में भी बड़ी घबराहट मानते हैं ऐसे समय में भी पर्वत के शिखर पर किसी शिला पर बैठकर ध्यानमग्न रहते हैं। किसी को अभीष्ट चीज मिल रही हो, मानो कोई धन का लोलुपी है और उसे कहीं हजार-पाँच सौ का मुनाफा हो रहा हो तो वह भी कुछ-कुछ गरमी सह सकता है, धूप में जा सकता है लेकिन उसकी भी हद होती है। अत्यंत कठिन संताप में हजार-पाँच सौ के मुनाफे की संभावना होने पर भी गृहस्थजनों को घबराहट है। अब सोच लीजिए कि साधुवों को ऐसी कौनसी अनुपम चीज मिल रही है कि जिस तत्त्व की रुचि से, जिस तत्त्व के प्रसाद से ये कठिन से कठिन ग्रीष्मकाल का आताप भी समतापूर्वक सह लेते हैं। कोई अंतरंग में अद्भूत शीतलता देने वाला निधान प्रकट हुआ है, वह है ज्ञानप्रकाश का अनुभव। उसका आनंद आने पर फिर ये सब कष्ट न कुछ की तरह हो जाते हैं, लेकिन जो साधु तत्त्वज्ञान से शून्य हैं, समतापरिणाम से रहित हैं, जिनके रागद्वेष की तरंग बसी हुई है उनको ऐसे-2 बड़े तप भी क्या रंच भी मोक्षमार्ग प्रकट कर सकते हैं?
ज्ञानहीन पुरुष के शीतकालीन दुर्धरतप से भी मुक्ति का अलाभ- भैया ! विकल्पों का ही तो नाम संसार है। जो विकल्पों को अपने अंतरंग में ही बसाये रहता है वह संसार को बढ़ायेगा या मुक्ति को निकट करेगा? ऐसे बड़े तप भी समतारहित साधु के मोक्ष की सिद्धि करने वाले नहीं होते हैं। कितनी कठिन तपस्यायें हैं, जाड़े के दिनों में रात्रिभर दिगंबर दशा में रहकर किसी नदी के तीर, जंगल में या किसी मैदान में रहकर आत्मध्यान करते हुए विराजे रहते हैं। जहां ठंडी हवाओं के थपेड़े बेचैन कर देते हैं, ऐसे भी परिग्रह सहन कर ले, किंतु समता यदि नहीं है, तत्त्वज्ञान नहीं है, शुद्ध ज्ञान का अमृत का पान नहीं हो रहा है तो ऐसा कठिन तप करने पर भी साधुवों के मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती है। अब जानो कि कितना हितकारी यह तत्त्वज्ञान है?
श्रमणाभास के महोपवासों से मुक्तिमार्ग का अलाभ- भैया ! ऐसे-ऐसे भी उपवास कर लिए जायें कि शरीर को दुर्बल कर दें। हाड़-चाम मात्र ही शेष रह गया है, अत्यंत दुर्बलता शरीर में आ गयी है, बड़े क्लेश मालूम होते हैं, मोहीजनों को जिस दशा में, ऐसी भी शरीर की स्थिति बन जाय, देखा होगा कि कोई-कोई महीनों का उपवास कर डालते हैं, पीने को पानी का भी नाम नहीं है, ऐसे कठिन उपवास करके भी मोही, अज्ञानी, रागी, श्रमणाभासी मुनि को क्या मोक्षमार्ग मिल सकता है? जो तत्त्वज्ञान और वैराग्य से वासित हैं ऐसे पुरुष इन महोपवासों के बीच भी ज्ञानानुभव का शुद्ध आंतरिक भोजन किया करते हैं, उन्हें तृप्ति रहती है, पर समतारहित साधु को ऐसे कठिन महोपवास से भी कोई भला नहीं है। हाँ, स्वर्ग आदिक मिल जायेंगे, लेकिन वह भी संसार-दशा है और स्वर्ग मिलने पर भी विषयकषायों की ओर झुक गये तो कौनसी सिद्धि उन्हें प्राप्त हो गयी?
श्रमणाभास के अध्ययन का विपरीत लक्ष्य- साधुजन अध्ययन-कार्य में निरंतर निरत रहते हैं। स्वाध्याय करना, गुरुवों से पढ़ना, कुछ याद करना, कुछ पाठ करना, इन सब उपायों से वे अध्ययन में प्रगति कर रहे हैं। खूब पढ़े वे, किंतु लक्ष्य जिनका विशुद्ध नहीं है, तत्त्वज्ञान और आत्मप्रकाश जिनको प्रकट नहीं हुआ है उनका ऐसा विशाल अध्ययन भी क्या मोक्षमार्ग का आनंद पैदा कर सकता है? कोई भाषावों के ज्ञाता हो गए पर चित्त में बसा है यह कि लोग मुझे समझें कि हाँ यह विद्वान है अथवा वादविवाद करके हम सब पर विजय पायें आदिक बातों के पीछे घोर श्रम कर रहे हैं, फिर भी चूँकि आशय मिथ्या है, संसार से छूटने का चित्त में भाव नहीं है, एक वीतराग अवस्था पाकर मात्र ज्ञाताद्रष्टा रहने का लक्ष्य नहीं है तो ऐसा विशाल अध्ययन भी इस श्रवणाभास का क्या कुछ काम कर देगा? उससे भी कोई फल उपादेय नहीं प्राप्त होता है।
श्रमणाभास के मौन की अकिन्चित्करता- ऐसे ही कितने ही साधुजन महीना-महीना, वर्ष-वर्ष का मौन ले लेने पर वचनों का त्याग कर देते हैं निरंतर मौनव्रत भी रहा करता है फिर भी समतापरिणाम नहीं है, तत्त्वज्ञान नहीं है तो वह विकल्प ही तो अंतर में गूँथेगा और बल्कि कहना तो कुछ चाहता है, पर मौनव्रत लेने से कह नहीं सकता है। सो एक व्याकुलता भी उस मोही पुरुष के हो सकती है। तब उसका यह मौनव्रत क्या कुछ उपादेय फल को दे सकता है? इतनी कठिन साधना भी श्रमणाभास को कार्यकारी नहीं हो पाती है और भी कार्य हों; जाप, माला फेरे, रातदिन जाप-जाप में ही जुटा रहे, बड़े-बड़े विधान महोत्सव आदिक व्यवहार धर्म की धुन में पिल रहा है, कितने भी कोई कार्य कर ले, लेकिन जो द्रव्यलिंगी साधु हैं, श्रमणाभासी हैं, ज्ञान वैराग्य से शून्य हैं जिन्हें पारमार्थिक ज्ञानप्रकाश नहीं मिला है उन साधुवों को किन्हीं भी तप से, व्रत से उपादेयफल प्राप्त नहीं हो सकता है।
आत्महित का सीधा स्वाधीन उपाय- भैया ! अब जानियेगा कि आत्महित का कितना स्वाधीन उपाय है तत्त्वज्ञान हो, समता रही आये तो इतना तप भी न कर सके, इतना कष्ट भी न उठा सके, किंतु साधुता की सीमा में जो व्रत से रहना आदिक आवश्यक है वह निरारंभ, निष्परिग्रह है, ज्ञानध्यान की लीनता समा जाय तो उसे तो सिद्धि है और जिसे ज्ञानानुभव नहीं हुआ है, वह कठिन से भी कठिन तप करे तब भी कोई सिद्धि नहीं है। पहाड़ पर रहे, वन में रहे, गुफा में रहे, झाड़ियों में रहे, वृक्षों के खोखलों में रहें, कहीं भी जाकर रहे, फिर भी ज्ञान का अनुभव नहीं हो सका है। अपने सहजस्वरूप का परिचय नहीं हो पाया है तो विकल्प का जाल ही गूँथकर वह साधु कर्मबंध ही कर रहा है, संवर और निर्जरा का पात्र नहीं है। इंद्रिय का बड़ा-बड़ा संयम करे, रस परित्याग कर दे, बड़े उपवास करे, तीर्थयात्रा कर डाले, अध्ययन पूजा होम आदिक कार्य कर ले तब भी इस ब्रह्म की इस आत्मा की सिद्धि इन क्रियावों से नहीं है।
आत्मज्योति के उपासक में परमसमाधि की पात्रता- कल्याणार्थी पुरुष बाह्य साधन के अतिरिक्त अन्य कुछ उपाय गुरुवों के सत्संग में रहकर ढूंढ़े, जिससे ज्ञान का प्रकाश मिले और आत्मसिद्धि हो। समतारहित प्राणियों को उपवास आदिक तपों से कोई भला नहीं है, इसलिए समता का निधान, अनाकुल जो चैतन्यस्वरूप है उस स्वरूप की उपासना में लगो। परमपिता, परमशरण, सारभूत तत्त्व एक यह ही है आत्मप्रकाश। इस तरह परमसमता अधिकार में समाधि की पात्रता किनके होती है, उनका इसमें निर्देश किया गया है। यह समाधि आत्मानुभवी संत के हुआ करती है।