वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 125
From जैनकोष
विरदो सव्बसावज्जे तिगुत्तो पिडिदिं दिओ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।।125।।
समता का पात्र- जो सर्व तरह से विरक्त है, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति का पालने वाला है, जिसने इंद्रियों को निरुद्ध कर दिया है ऐसे भव्यपुरुष के सामायिक स्थायी होती है, ऐसा केवली भगवान के शासन में कहा गया है। सामायिक, समता दोनों का एक ही अर्थ है। चूँकि दिन में तीन बार जो व्रती पुरुष सामायिक करता है उसमें समतापरिणाम बनाने का यत्न किया जाता है, इसलिए उस क्रिया का नाम सामायिक रख दिया है। सामायिक वास्तविक मायने में समता का है और सामायिक में फर्क है। जाप में तो प्रभु का ध्यान किया जाता है किंतु सामायिक में रागद्वेषों को तजकर निर्विकल्प बनकर ज्ञाताद्रष्टा रहने का यत्न किया जाता है। यह अंतर है जाप और सामायिक में। संयममार्गणा में जहाँ संयम के भेद कहे गये हैं वहां सामायिक का नाम लिया जाता है- सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यातचारित्र। वहां सामायिक का प्रयोजन दिन में तीन बार जाप देने का नहीं है। साधु-संतों के 24 घंटा सामायिक रहा करती है अर्थात् वे संसार, शरीर, भोगों से पूर्ण विरक्त हैं, अत: उनकी किसी भी बाह्य साधना में राग और द्वेष नहीं होता है, इस कारण उनके समतापरिणाम बना रहता है।
परमसमाधि के उपाय का भी प्रदर्शन- यह सामायिक अर्थात् समतापरिणाम जो परमसमाधि स्वरूप है वह कैसे प्रकट होता है, इसका दर्शन इस गाथा में कराया गया है कि ऐसे मुनि के स्थायी सामायिेकव्रत होता है अर्थात् सामायिक परिणाम ठहरता है। जो समस्त पापकर्मों के व्यापार से रहित हैं, जिन्होंने मन वश में किया है, किसी का बुरा चिंतन नहीं कर सकते, जिसने वचन वश में किया है, किसी को अकल्याणवादी वचन न बोल सके, जिस शरीर को वश में किया है, हिंसाकारक चेष्टा कभी शरीर से नहीं कर सकते, ऐसे तीन गुप्तियों से सुरक्षित और सब प्रकार के इंद्रिय व्यापारों से जो विमुख हैं ऐसे संयमी मुनि के सामायिकव्रत ठहरता है, यह बात इस गाथा में कही गयी है।
सर्व सावद्य और उनका प्रतिनिधि- सावद्य 5 प्रकार के होते हैं-हिंसा, झूठ , चोरी, कुशील और परिग्रह। यद्यपि सावद्य के ये 5 भेद कहे हैं फिर भी इनमें मुख्य हिंसा है। क्योंकि झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह में भी हिंसा होती है, सो पांचों प्रकार के पाप हिंसा में समा जाते हैं। प्रमाद से, कषायभाव से अपने और दूसरे के प्राणों का सताना, विह्वलता उत्पन्न करना, इसका नाम हिंसा है। लोक में 5 प्रकार के संसारी जीव हैं- एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पंचेंद्रिय। इनका प्राणघात होना सो हिंसा है।
एकेंद्रियविघात- एकेंद्रिय जीव वे हैं जिनके केवल स्पर्शन इंद्रिय है। जिनके शरीर के अंगोपांग नहीं हैं जिनके मुख, पैर आदि भी प्रकट नहीं होते हैं, उसे स्थावर कहते हैं। वे एकेंद्रिय 5 प्रकार के हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति। इन 5 प्रकार के जीवों में केवल एकरूप शरीर शरीर है, स्पर्शन ही सर्वस्व है, शरीर के अंगोपांग नहीं हैं, न मुख है, न नाक है, न हाथ हैं, न पैर हैं, न वे सिकुड़ सकते हैं, न चल सकते हैं वे स्थावर जीव हैं। जल नीची जमीन पाकर बह जाता है, किंतु उसका नाम चलना नहीं है। अग्नि अपने स्वभाव से ज्वालाएँ उत्पन्न करती है, किंतु यह चलती नहीं है, हवा भी चूँकि उसका बहना स्वभाव है, पर उसको चलना नहीं बोलते। कोई हाथ-पैर से सरक कर हवा चलती हो, ऐसी बात नहीं है। वनस्पति, रूख, पेड़ ये सब स्थावर हैं, जहां हैं तहां ही ठहरे हुए हैं, यों एकेंद्रिय जीव का असंयमीजन अपने स्वार्थवश घात किया करते हैं।
साधु के एकेंद्रियविघात का भी परिहार- साधु पुरुष इन एकेंद्रिय जीवों का भी अपनी प्रवृत्ति से घात नहीं करते हैं। इस कारण साधुवों को भोजन न बनाने का नियम है। कोई श्रावक भोजन बनाए, सब घर के लिए रोज बनाते ही हैं, शुद्ध खायें रोज अथवा न भी खाते हों शुद्ध रोज, पर किसी दिन सभी घर शुद्ध खाये, ऐसे बने हुए शुद्ध भोजन में कोई साधु आ जाय और आहार कर जाय यह विधि धर्म में है। वे साधु अपने-अपने भोजन का निर्माण नहीं करते, क्योंकि इसमें हिंसा का दोष है और आसक्ति का दोष है। ये नाना प्रकार के एकेंद्रिय जीव हैं उनकी किसी प्रकार से हिंसा करना सो एकेंद्रिय की हिंसा है। साधुजनों के एकेंद्रिय जीव की भी हिंसा नहीं होती है।
साधुवों के विकलत्रय के हिंसा की असंभावना- दो इंद्रिय जीव जिनके अंगोपांग प्रकट नहीं हुए, किंतु किसी रूप में अंगोंपांग प्रकट हो गए हैं, मुख भी बन गया है, जिह्वा भी है, जो जमीन पर सरक कर ही धीरे-धीरे चल पाते हैं ऐसे लट केंचुवा, जोंक, शंख, कौड़ी, सीप आदिक जीव दो इंद्रिय कहलाते हैं। इन दो इंद्रिय जीवों का प्राणघात करना सो दोइंद्रिय जीव की हिंसा है। तीन इंद्रिय जीव वे कहलाते हैं जिनमें पैर भी प्रकट हो गए हैं किंतु उनके पैर अधिक होते हैं। चार पैर से ज्यादा तीन इंद्रिय जीव के होते हैं, जैसे चींटी, चींटा, खटमल, जू, बिच्छू ये सब तीन इंद्रिय जीव कहलाते हैं। अपने आराम के लिए अथवा अपने प्रसाद से इन जीवों का घात करना सो तीन इंद्रिय जीव की हिंसा है। चारइंद्रिय जीव वे हैं जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण और नेत्र भी प्रकट हो गए हैं। ऐसे जीव छोटे और उड़ने वाले होते हैं। मक्खी, मच्छर, टिड्डी, ततैया, भँवरा आदिक जीव चारइंद्रिय जीव कहलाते हैं। अपने आराम के लिए अथवा अपने प्रसाद से इन जीवों का घात करना अथवा रागद्वेषवश इनकी हिंसा करना, सो चतुरिंद्रिय जीवों की हिंसा है। इन विकलत्रिक हिंसा से भी परे साधु पुरुष होते हैं।
पंचेंद्रिय जीव के विघात का महापराध- पंचेंद्रिय जीव वे कहलाते हैं जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इंद्रिय प्रकट हुई हैं। ये कुछ तो मनरहित भी हो सकते हैं किंतु प्राय: सभी पंचेंद्रिय सैनी होते हैं, इनके मन और हो गया है। इस कारण इनका विकास पहिले के सब जीवों से अधिक है, अब संज्ञी जीव तो मुक्ति का मार्ग बताने में समर्थ हैं। सम्यग्दर्शन को नारकी, देव मनुष्य तो पैदा कर ही सकते हैं, तिर्यंचों में भी घोड़ा, बैल, हाथी, सिंह, नेवला, सांप बंदर ये सभी जीव सम्यग्दर्शन पैदा कर सकते हैं। मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है, ऐसे विकास को प्राप्त हुए पंचेंद्रिय जीवों की हिंसा करना यह पंचेंद्रिय जीवों की हिंसा है, और इसमें उनके मोक्षमार्ग के विकास में बाधा डालने का भी बड़ा अपराध होता है।
भावहिंसा का प्रधान सावद्य- हिंसा में तो हिंसा होती ही है और यह हिंसा हुई है अपने आपके परिणाम खोटे करने से। जो अपने परिणाम खोटे रखता है वही इन जीवों के घात के लिए प्रवृत्ति करता है। इनका घात होना द्रव्यहिंसा है और अपने परिणाम बिगाड़ लेना भावहिंसा है। पापों का बंध भावहिंसा से होता है लेकिन जो भावहिंसा रखता है उसकी प्रवृत्ति से द्रव्यहिंसा होती है। इस कारण परजीवों के घात को हिंसा पाप बताया है। वस्तुत: तो अपने आपके जो परिणाम बिगाड़े हैं, कलुषित भावनाएँ हुई है वे सब पाप के कारण हैं।
असत्यवाद में हिंसा का समावेश- भैया ! हिंसा में तो हिंसा का पाप होता ही है, किंतु झूठ में भी हिंसा का पाप समाया हुआ है। कोई पुरुष किसी दूसरे के संबंध में झूठ बात बोलेगा तो कुछ परिणाम कलुषित करना पड़ा तभी झूठ बोल सकती है। कभी विषम साधनों में कोई बाधक हुआ, उसके दु:खी करने का परिणाम हुआ तो इन कलुषित भावनावों से प्रेरित होकर झूठ बोला जा सकता है। झूठ बोलने में दूसरे प्राणी का भी प्राणघात हुआ और अपने ज्ञान दर्शन शुद्ध प्राण का भी विघात हुआ। झूठ बोलने में भी हिंसा समायी हुई है।
स्तेय में हिंसा का समावेश- चोरी करने में भी हिंसा का पाप बना हुआ है। लोग धन को प्राण की तरह समझते हैं। मोह का उदय है, सत्यमार्ग का दर्शन नहीं हुआ, वस्तुस्वरूप ध्यान में नहीं है, अपनी सीमा, अपनी स्वरूप सत्ता समझ में नहीं है तो मोहियों के जगत में अन्य मोहियों की चेष्टा को निरखकर स्वयं भी इस वैभव को प्राण मानने लगते हैं। कोई पुरुष दूसरों का धन चुरा ले, हड़प ले, छीन ले, तो इसमें उसने अपना परिणाम बिगाड़ा और दूसरे के परिणामघात का भी कारण हुआ। इस कारण इस चोरी के काम में भी हिंसा का पाप समाया हुआ है।
कुशील में हिंसा का समावेश- कुशील सेवन तो अति निंद्य काम है, शरीर की रुचि विषय प्रसंग घोर अनर्थ का कारण है। यह मनोबल, वचनबल और कायबल, सभी का विघात करने वाला है ऐसा परस्त्री या परपुरुषविषयक कामनावों में हिंसा का पाप समाया हुआ है। इसमें प्रथम तो अपना ही परिणाम बिगाड़ा, कुशील का परिणाम इतना दुषित परिणाम है कि कामविकारी पुरुष आत्मस्वरूप का ध्यान कर सकने का पात्र नहीं है। अपने परिणाम बिगाड़ने से, दूसरे के परिणाम बिगाड़ने से, असंख्यात कुंथु जीवों का विघात होने से हिंसा का पाप कुशील में समाया हुआ है।
परिग्रह में हिंसा का समावेश- परिग्रह में धनसंचय में भी हिंसा का पाप बना है। प्रथम तो इस धन के लोभी पुरुष ने परिग्रह में दृष्टि डाली, अपने स्वरूप से चिगकर बाह्य पदार्थों में अपना चित्त फंसाया, इस कारण उसके बहिर्मुखता होने से इसमें प्राणी के घात का दोष लगा और फिर जो अनेक विह्वलताएँ की जाती हैं वे सब हिंसा पाप ही तो हैं। इस प्रकार 5 प्रकार के पापों में हिंसा का पाप समाया हुआ है। जो साधु संत पांचों प्रकार के पापों से विनिर्मुक्त हैं, उनके सामायिेक; समता याने परमसमाधिभाव ठहरता है।
त्रिगुप्तिपालन में सामायिक भाव- जिनके शुभ अशुभ सर्व प्रकार के योगों का परित्याग है, जो तीन गुप्तियों के पालनहारे हैं, ऐसे पुरुषों के ये सामायिक व्रत ठहरता है। यह भी बात जिनेंद्र परमागम में कही गयी है। ये मन, वचन, काय इस मोही जीव को बहुत प्रिय लगते हैं। अपने मन के अनुकूल स्वार्थसिद्धि हो, दूसरे चाहे किसी विपत्ति में आएँ, पर अपन ने जो स्वार्थ सोचा है, न्याय अन्याय कुछ न गिनकर अपने स्वार्थ की सिद्धि करना, यह है मन का दुरुपयोग। वचन पाया है, कुछ बल पाया है, तो इन वचनों से दूसरे जीवों का विघात करना, अप्रिय, अहित वचन बोलना यह वचनों का दुरुपयोग है और शरीर से कुचेष्टा करना, हिंसा आदिक पाप करना यह काय का दुरुपयोग है। मन, वचन, काय के दुरुपयोग से दूर होकर और मन, वचन, काय की शुभ क्रियावों को लगाने का भी विकल्प तोड़कर परमसंयमी बनकर जो अपने आत्मग्रहण में सुरक्षित रहता है, ऐसे संयमी पुरुष के यह सामायिक ठहरती है।
इंद्रियविजय से सामायिक की प्राप्ति- सामायिक, समता, समाधि- ये सब एकार्थक हैं। ये साधु पुरुष जो परमसमाधि के पात्र होते हैं ये अपनी इंद्रियों को पूर्ण वश में किए हुए हैं। जो पुरुष इन इंद्रियों के द्वारा इंद्रिय के योग्य विषयों का ग्रहण कर रहे हैं उनकी दृष्टि बाह्य में फँसी है और वे आत्मनिधि का परित्याग कर चुके हैं, इस कारण उन जीवों को तृप्ति व शांति का मार्ग नहीं मिल पाता है। निज को निज पर को पर जानने का प्रकाश जिसके परम प्रकट हुआ है और जिसने इस आत्मीय प्रकाश के अनुभव से परम आनंद प्राप्त किया है ऐसे साधु-संतों के यह परमसमाधि प्रकट होती है। ये मुमुक्ष पुरुष हैं, इन्हें केवल आत्मा के शुद्ध विकास की वान्छा है, ये शरीर वैभव आदि से रहित होकर केवल अपने आपमें शाश्वत लीन हो जाएँ इसकी ही भावना रहती है। ऐसे मुमुक्ष पुरुषों के समतापरिणाम ठहर सकता है। जिसने इस जगत में किसी बाह्य वैभव में अपना उपयोग फँसाया है उनके समता नहीं हो सकती है।
समतावान के सामायिक की स्थायिता- ये परमवीतराग संयमी पुरुष हैं जिनके लिये शत्रु और मित्र दोनों एक समान है, कंचन और काँच जिनके लिए एक पौद्गलिक स्कंध ही नजर आ रहे हैं। निंदा और स्तवन जिनके लिए यों प्रतीत होते हैं कि ये तो अमुक रूप से परिणमी हुई भाषावर्गाणा की पर्यायें हैं। उन्हें भिन्न और अपने को यथार्थ ज्ञानस्वरूप जान रहे हैं, ऐसे परमवीतरागी, संयमी पुरुषों के सामायिक निरंतर ठहर सकता है।
आनंद का धाम- आनंद तो समतापरिणाम में ही है। जब कभी हम आपमें किसी की ऐसी स्थिति हो कि बड़े विश्राम से घर के चबूतरे पर बैठे हुए हों, किसी ओर का विकल्प नहीं, किसी विषयसाधना की ओर लालसा नहीं, सो उस समय में कोई आकर पूछता है कि कहो कैसे बैठे हो? तो वह कहता है कि हम सुख से बैठे हैं। भला बतलावो कि वह न किसी विषय का सेवन कर रहा है, न किसी प्रोग्राम जलसे में, न किसी यश-प्रशंसा की धुन में है, न कीर्ति-इज्जत की ओर कुछ ध्यान है ऐसा यह पुरुष कौनसा सुख भोग रहा है? सहज इंद्रियविषय को रोकने से सुखस्वभावी आत्मा में जो स्वयं आनंद का विकास हुआ है वह इसका सुख है। जो निर्विकल्प होकर इस समतापरिणाम में लीन होता है उसका जो आनंद है उस आनंद की उपमा तो तीन लोक में कहीं नहीं है, अध्यात्मयोग से प्रकट हुआ आनंद क्या कहीं विषयसाधना में मिल सकता है? ऐसे आनंद में मग्न साधु पुरुष के यह सामायिक व्रत ठहरता है।
समता में शुद्ध शीलप्रकाश- शुद्ध शील समता में है। शास्त्रों में सुना गया है कि परिपूर्णशील भगवान के प्रकट होता है। योगीश्वर से ऊपर, श्रेणियों के भी ऊपर वीतराग बनने के बाद जहाँ सर्वज्ञता प्रकट होती है वहाँ पूर्णशील की पूर्णता बतायी गयी है अर्थात् जैसा आत्मस्वरूप है पूरी तरह से वही स्वरूप रह जाय वह है आत्मा का शील। इस शील की प्राप्ति के लिए व्यवहारशील की आवश्यकता है। अर्थात् ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है। इस कारण लोक में ब्रह्मचर्य को शीलव्रत कहा गया है, पर शील का दर्जा बड़ा ऊँचा है और उस परमार्थदृष्टि से ब्रह्मचर्य का दर्जा बहुत ऊँचा है। ब्रह्म में, आत्मा में परिपूर्ण रीति से लग जाना, सो ब्रह्मचर्य है और आत्मा का जैसा सहजस्वभाव है उससे शोभित हो जाना, सो शील है।
परमार्थ धर्मपालन में परमसमाधि- जो पुरुष संसार के संकटों को उत्पन्न करने वाले पापों का परित्याग करता है और मन, वचन, काय का उपयोग दूर करके अपने आत्मा के शुद्ध ज्ञानस्वभाव का दर्शन करता है, अपने ज्ञानकला का विकास करता है ऐसा भव्य पुरुष स्थिर शुद्ध शांति से भरपूर अपने स्वभाव को प्राप्त करता है। समता ही परमचरित्र है। रागद्वेष का जहां कोई पक्ष नहीं रहता उसे समता कहते हैं। व्यवहार में धर्म व धर्मपालन का श्रम तो करें और सत्ता में बसे हुए पक्षों का कुछ भी परित्याग न करें तो बतावो धर्मपालन कहां से हो? मेरा घर है, मेरा वैभव है, मैं अमुक नाम का हूं, ऐसी प्रतीति तो निरंतर बस रही है तो कहां से धर्मपालन किया? इन सब प्रतीतियों को त्यागकर एक बार भी निज ज्ञानस्वरूप का अनुभव जगे तो वहां धर्मपालन होता है। परमार्थ धर्मपालन में ही परमसमाधि प्रकट होती है और परमसमाधि से ही आत्मा का कल्याण होता है।