वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 136
From जैनकोष
मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती।
तेण हु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं ।।136।।
निजपरमात्मभक्ति- नियमसार का यह परमभक्ति अधिकार चल रहा है। नियम का अर्थ है- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र। जो विशेष रूप से आत्मा में संयमन करे, नियमित करे उसे नियम कहते हैं। नियम के प्रतिपादन में यह परमभक्ति अधिकार है, जिसमें मोक्ष और मोक्षपथ में प्रवृत्त होने की भक्ति दर्शायी गयी है। मोक्षमार्ग में अपने को भली प्रकार लगाकर जो पुरुष निर्वाण की भक्ति करता है उस जीव को इस भक्ति के प्रसाद से स्वत: समर्थ, स्वतंत्र, असहाय गुण वाले अपने आत्मा को प्राप्त करता है।
सकामता में अलाभ- जगत में किसी भी ओर चित्त लगावो, शांति प्राप्त हो ही नहीं सकती। इसका कारण यह है कि शांति का निधान यह आत्मा अपनी शांति से हटकर, अपने स्वरूप से चिगकर बाहर में जहाँ शांति का लवलेश भी नहीं है वहाँ उपयोग दौड़ाये तो शांति कैसे मिल सकती है? यह जीव मोह में कुछ से कुछ कल्पना करके बाह्यपदार्थों का आलंबन लेकर मौज मानते हैं, किंतु जगत में प्रत्येक प्रसंग में क्लेशविष भरा हुआ है। कौनसा मौज ऐसा है जो इस जीव को धीर और शांत बना सकता है? स्पर्शनइंद्रिय का विषय देखो, वह तो अशांति का साधन है, लेकिन व्यामोही जीव मैथुनविषय प्रसंग में अपनी कल्पना में सर्वोच्च सुख समझते हैं और इन व्यर्थ के झंझटों के पीछे बडी विडंबनाएँ मचाते हैं और इतने-इतने कुत्सित आचरण करते हैं कि इसी प्रकरण के कारण अपनी जान तक को भी गँवा देते हैं। कौनसा सुख विषयप्रसंग में मिलता है सारे जीवनभर की चिंताएं बढ़ाना, अपने कल्याण से दूर होना, सारी आपत्ति तो है इन विषयप्रसंगों से, किंतु लोकव्यामोही जीव इसमें ही मौज समझते हैं।
रसनादिक इंद्रियविषयों की व्यर्थता- रसनाइंद्रिय का विषय देखो, थोड़ी देर को कोई चीज सरस, स्वादिष्ट लग गयी, उससे बतावो क्या नफा हुआ? शरीर का स्वास्थ्य स्वादिष्ट भोजन पर निर्भर नहीं है, किंतु चीजों के खाने पर निर्भर है। इस आत्मा को खाने-पीने से संतोष नहीं होता है, वह तो उस बड़े रोग को मिटाने के लिए अल्परोग की चिकित्सा की जाती है। घ्राणेंद्रिय का विषय तो बिल्कुल बेकार सी चीज है, सुगंधित इत्र-फुलेल का सूंघना, इससे क्या लाभ है? चक्षुरिंद्रिय जो रूप अवलोकन करता है, मन को गंदा करता है उससे लाभ कुछ नहीं मिलता है और विपदाएँ, विडंबनाएँ अनेक आ जाती हैं, ऐसे ही कर्णेंद्रिय का विषय सुंदर राग की बातें सुन ली तो इससे आत्मा ने कौनसी शांति प्राप्त की। यह जीव अशांति से ही तो विषयों की कल्पना करता है, अशांति से ही विषयों को भोगता है और भोगने के बाद भी इसको अशांति ही रहती है।
सुभवितव्यता- जिस जीव का भवितव्य अच्छा होता है उसे ही ऐसी सुमति होती है कि स्वपर का यथार्थ भेदविज्ञान होता है और पर से उपेक्षा करके स्व में रत होने का यत्न करता है, इस ही का नाम संयम है। अपना आत्मा अपने आत्मा में नियत कर ले, उपयोग को नियंत्रित कर ले, इसका ही नाम नियम है और यह नियम कैसे प्रकट हो, उसके ही वर्णन में यह नियमसार कुंद-कुंदाचार्य देव ने रचा है। इस गाथा में अपने आपके परमात्मा की भक्ति का स्वरूप बताया है। अपने आपको संसार के संकटों से छूटाने के लिये मोक्षपथ में लगाना, यही निज परमात्मा की यथार्थ भक्ति है। हम आप सभी जीव स्वत:सिद्ध स्वयं कारणपरमात्मतत्त्व हैं, किंतु वहाँ अपने को निरखने की पद्धति एक विशिष्ट होती है। विरुद्ध पद्धति से निरखने पर हम अपने को संसार में रुलाते हैं और स्वानुरूपपद्धति से निरखने पर संसार से छूटकर मुक्ति में पहुंचते हैं।
कारणप्रभु के दर्शन का उपाय- इस कारणपरमात्मतत्त्व को इन इंद्रियों से नहीं निरख सकते हैं। यह प्रभु इंद्रियों का विषयभूत नहीं है। इसे मन से भी नहीं निरख सकते हैं। इंद्रिय और मन दोनों की कल्पना को त्यागकर केवल शुद्ध ज्ञान प्रकाशमात्र अपने आपको निरखने में लगें तो यह कारणपरमात्मतत्त्व हमें दर्शन देगा और हम अपने आपमें विराजमान् कारणप्रभु को निरखने लगें तब किसी भी प्रकार की आकुलता नहीं रह सकती।
लाभ में स्वयं के उद्योग का विवरण- भैया ! अब तक बहुत-बहुत परिश्रम करके सुख पाने का उद्यम किया है, अब कुछ ज्ञानात्मक उद्यम करके भी निरखिये और जानिये कि वास्तविक शांति किस उद्यम में है? ये बाहरी ठाठ-बाट हमारी आपकी कल्पना से नहीं उत्पन्न होते हैं। यह तो पूर्वभव में जो धार्मिक आशय किया था, विचार-आचार शुद्ध किया था उसके फल में जो पुण्यबंध हुआ उसका यह फल है। आप थोड़ा श्रम करें तो उतना ही मिलेगा और बहुत श्रम करें तो भी उतना ही मिलेगा, बल्कि अधिक परिश्रम न करके एक ज्ञान-ध्यान में अपना उपयोग विशेष लगाएँ तो पुण्यरस बढ़ेगा और यह ठाठ चतुर्गुणित हो जायेगा, लेकिन इस व्यामोही जीव को इस जड़ संपदा में इतना आकर्षण है कि वह धीरता की बात आ ही नहीं सकती।
परचेष्टा से स्वहित की आशा का अभाव- समस्त समागम, यह सांसारिक संपदा, ये सब पुण्य-पाप के आधीन हैं। अपना वश चल सकता है तो एक भावों के शुद्ध करने में चल सकता है। इस संपदा की प्राप्ति हो ही जाय, ऐसी हमारे वश की बात नहीं है। आपकी आधीनता तो आपके परिणामों के शुद्ध करने में है। अपना ज्ञानबल बढायें तो फिर आनंद ही आनंद है। मान लो, कदाचित् धन बढ़ जाय तो उससे लाभ क्या है और धन कम हो जाय तो उससे हानि क्या है? किन्हीं मायामयी पुरुषों ने निंदा अथवा प्रशंसा के शब्द बोल दिये तो उसमें कौनसी हानि अथवा लाभ हो गया? मान लो, यह सारा जगत कुछ न पूछे, न कोई प्रशंसा की बात कहे, कोई संबंध भी न रक्खें, कैसी भी स्थिति होवे तो उससे हानि-लाभ क्या है? कुछ नहीं है। यदि अपने आपके परिणामों में शुद्ध ज्ञानप्रकाश है, अपने कारणपरमात्मतत्त्व का झुकाव है तो वहाँ शांति प्राप्त होती है और किसी पुरुष का, नेता का सारा देश बड़ा स्वागत करे, लेकिन उसके परमात्मतत्त्व की ओर झुकाव नहीं है तो वह उसका सारा स्वागत व्यर्थ है, उसकी तो परेशानी ही रहेगी।
निश्चय निर्वाणभक्ति- जो जीव परपदार्थों में दृष्टि न देकर अपने आपमें ज्ञायकस्वभावरूप अंतस्तत्त्व का अनुभव करते हैं, आलंबन करते हैं उनके ही निश्चयरत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग ठहरता है। जिस रत्नत्रय में भेद की कल्पना नहीं है, यही है ज्ञानप्रकाश, इसको ही निरखना, इसमें ही रत होना, निर्विकल्प होकर केवल ज्ञानानुभव करके परमतृप्त रहना, ऐसे आनंदस्वरूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग में जो जीव लगता है वह अपने आत्मा की सिद्धि करता है, संकटों से मुक्त हो जाता है, जिन पुरुषों ने इस निरन्जन निज परमात्मतत्त्व के अनुभव के आनंदामृत का पान किया है और इससे तृप्त होकर समस्त अनात्मतत्त्वों से उपेक्षा की है वे ही पुरुष मुक्ति की परमभक्ति कर सकते हैं। ये संसार के समस्त समागम, उपद्रव, बंधन, संबंध छूटे हुए देखें और इससे छुटकारा पाने का परिणाम करें तब तो छुटकारा मिल सकता है। कोई दु:खों के साधनों को संचित करता जाय, दु:ख भोगता जाय और यह दु:ख है इतना भी न मालूम करे तो इससे बढ़कर और अंधकार क्या हो सकता है?
भेदविज्ञान का प्रताप और परिपाक- ये भव्य जीव भक्ति गुण के प्रसाद से निरावरण सहज ज्ञानस्वरूप स्वतंत्र इस आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं, यह सब प्रताप भेदविज्ञान का है। जैसे एक कहावत में कहते हैं कि गुरु और प्रभु, इन दोनों में बलिहारी अपने गुरु की है जिसने प्रभु का दर्शन कराया है ऐसे ही भेदविज्ञान और कारणपरमात्मतत्त्व का अनुभव, इनमें भेदविज्ञान तो गुरु है और आत्मानुभव देव है। उस गुरु की बलिहारी है, उस भेदविज्ञान का यह परमप्रसाद है जिसके प्रताप से हम आत्मानुभव कर सकते है। भेदविज्ञान के लिए वस्तु के स्वतंत्रस्वरूप के भान में रहना चाहिये। प्रत्येक पदार्थ कितना है? वह अपने द्रव्यगुण पर्यायरूप है, अपने स्वरूप से है, पर के स्वरूप से नहीं है, अपने का ही कर्ता है, पर की परिणति का कर्ता नहीं है; अपने ही परिणमन का भोक्ता है, पर के परिणमन का भोक्ता नहीं है, ऐसा स्वतंत्र प्रत्येक पदार्थ दृष्टि में आने लगे तो समझिये कि मेरा भेदविज्ञान परिपक्व हुआ है।
विडंबनावों का मूल कारण- भैया ! जितनी विडंबनाएँ होती हैं वे सब कर्तृत्व, स्वामित्व और भोक्तृत्व बुद्धि से होती हैं। मैं इन पदार्थों का मालिक हूं, यह मिथ्या आशय हो तो क्लेश होना प्राकृतिक हे। मैं अमुक कार्य को करने वाला हूं, ऐसी कर्तृत्व बुद्धि हो तो क्लेश होना प्राकृतिक है। मैंने ऐसा आराम भोगा, विषय भोगा, इस प्रकार के भोक्तृत्वबुद्धि का आशय हो तो क्लेश होना प्राकृतिक है। कौन किसका स्वामी है? पूर्व के अनेक भवों में कितनी संपदा पायी होगी, कितना राज्य पाया होगा, जिस सबके समक्ष आज की पाई हुई संपदा न कुछ की तरह है, पर उसमें कुछ भी आज नहीं है और अब भी जिसके पास है वह मरने पर साथ कुछ भी न ले जा सकेगा, लेकिन यह संतोष करता है व्यामोह में कि हम इस संपदा को साथ न ले जायेंगे तो हमारे बाल बच्चों के पास तो रहेगी। अरे मरने पर बाल बच्चे फिर तेरे क्या रहे? न जाने तू कहाँ पैदा होगा? न तेरी कल्पना में तेरे घर के लोग कुछ रहेंगे और न उनकी कल्पना में तू कुछ रहेगा। क्या संबंध है? कुछ ज्ञानचक्षु खोलना चाहिए और परजीवों के लिए ही अपना जीवनभर श्रम न करना चाहिए। अरे उनका भवितव्य ठीक है तो हो जायेगा, इन बच्चों के भाग्य से ही तो तुझे नौकरी करनी पड़ रही है। उन बच्चों के पुण्य के उदय से यह संपदा इकट्ठी हो रही है, तो इसका अर्थ यही है ना कि आपने बच्चों की नौकरी की है, अपना काम क्या निकाला है?
चिदानंदभगवान के विरोध में अलाभ- अपने इस चैतन्यस्वरूप को ही अपना सर्वस्व मानो। जितनी हम इसकी सेवा कर लेंगे, जितना हम इसका आश्रय कर लेंगे उतना तो ज्ञानबल हमारे काम का है और बाकी जितने विकल्पजालों में उलझते रहेंगे उतनी ही हमारे लिए विपदा है, ऐसा जानकर अब मोक्षपथ में अपने को लगावो, अपनी सेवा करो। अपनी सेवा यही है कि मोह, राग, द्वेष के कष्टों से छुटकारा पावें और ज्ञानानुभव का असीम आनंद भागें, यही वास्तविक अपनी सेवा है। कितना गहन मोहांधकार है? आपके बच्चे से भी अधिक रूपवान, कलावान कोई बच्चा है, पर उसमें प्रीति नहीं होती है, किंतु अपना बच्चा चाहे अज्ञानी हो, कलाहीन हो, आज्ञा न मानता हो, पर उससे बड़ी प्रीति रहती है। ये एक व्यामोह का ही तो परिणाम है।
व्यामोह से स्वपर का बिगाड़- व्यामोह करने से न दूसरे का भला होता है और न खुद का भला होता है। जैसे लोग कहते हैं ना कि बच्चे से लाड़ अधिक करोगे तो बच्चा बिगड़ेगा और ऐसा देखा भी जाता है कि जो लोग बच्चे से अधिक मोह स्नेह लाड़ करते हैं वह बच्चा न विशेष पढ़ पाता है और न सद्व्यवहार, सद्वचन बोलने वाला हो पाता है। बुद्धिमान लोग लाड़ भी करें तो प्रकट लाड़ नहीं करते हैं ताकि बच्चे पर दुष्प्रभाव न हो। लाड़ करके बच्चों को भी बिगाड़ा गया और खुद का भी बिगाड किया, क्योंकि वह प्रतिकूल बनेगा तो यह भी तो दु:ख मानेगा। तो लोक में भी तो प्रत्यक्ष यह बात नजर में आ रही है कि लाड़ में, मोह में दोनों ओर से हानि है। अध्यात्ममार्ग में आचार्य, ऋषि, संत यहाँ जो कह रहे हैं वह यथार्थ सत्य है। रागद्वेष, मोह करके न किसी दूसरे जीव का भला कर सकेंगे और न स्वयं का भला कर सकेंगे।
आत्मप्रयोग का आनंद- जो पुरुष अपने स्वरूप को परख कर उसमें अविचल रहते हैं, अपने आपको इस निरुपम सहज ज्ञानदर्शनात्मक चित्प्रकाश में लगाते हैं वे आत्मा इस चैतन्यप्रभु की भक्ति द्वारा इस श्रेष्ठ आत्मगृह को प्राप्त कर लेते हैं। जहाँ किसी भी प्रकार की विपदा नहीं है, जिस बात के बोलने से दूसरे भी अच्छा माने, महान् समझें उस बात के कर लेने में कितनी महत्ता और कितना आनंद होगा, इसका अनुमान करो। देखो- भगवान के सामने मुख से मोह और राग की बातें नहीं बोल सकते हैं, लोग सुनेंगे तो अच्छा न मानेंगे। जैसे हम प्रभु के आगे स्तवन में यह कहते हैं कि ‘हे प्रभो ! आतम के अहित विषयकषाय इनमें मेरी परिणति न जाय’ इसको हम जोर से बोलते हैं, सुनने वाले सुनते हैं, बोलने वाला भी प्रसन्न होकर बोल रहा है, चाहे मन में कुछ हो, चाहे मन में धनलाभ, यशोलाभ कुछ भी बसे हों, जिससे प्रेरित होकर यह पूजन कर रहा है, लेकिन मुख से सबके समक्ष यह नहीं बोल सकते कि हे प्रभो ! आज हमें इतना मुनाफा हो, मेरे लड़के खुश रहें, मुझे खूब विषय मिलें, ऐसा कोई भजन भी बनाकर नहीं बोलता है और कोई बोलेगा ऐसा तो सब उसे पागल कहेंगे। चाहे मन में मोह की बात बसी हो, पर भगवान के आगे बोल नहीं सकता, न किसी को सुना सकता है, तो इससे यह जानो कि वह बात गंदी है जिसे हम मंदिर में लोगों के सामने बोल नहीं सकते। वह कष्ट का कारणभूत है, जिस बात को हम प्रसन्नता के साथ गा बजाकर बोलते हैं प्रभु के समक्ष, यदि ऐसी परिणति स्वयं की बन जाय तो उसके आनंद का क्या ठिकाना?
पछतावा की बुद्धि- इन परिजनों के स्नेह में कितना अपने आपको बरबाद किया है? इस जड संपदा के मोह में अपने आपका कितना पतन किया जा रहा है? इसका पता मोह में नहीं लग सकता है। जब तत्त्वज्ञान जगता है तब ही भूल का पछतावा होता है। ओह ! इतना जीवन हमने व्यर्थ ही गँवा डाला अथवा जब मरणकाल होता है तो इसे कुछ विवेक होता है। ओह ! 40, 50 वर्ष की उमर मैंने व्यर्थ ही खो दी है। न कुछ लाभ हुआ, न शांति हुई। अब अशांत होकर, हानि में रहकर यहाँ से जा रहा हूं, क्या होगा अब? उसका तब पछतावा होता है। मोह में भूल का पता नहीं पड़ता है, भूल मिटे तब ही शांति हो सकती है। शांति तो ज्ञानसाध्य है, धनसाध्य नहीं है, शुद्ध ज्ञानप्रकाश अंतरंग में जगे तो वहाँ शांति अवश्य होगी।
विविक्त निजप्रभु का आश्रय- मैं सबसे न्यारा हूं, केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं, ऐसी दृष्टि होना इस ही के कारण ज्ञानप्रकाश है, यह केवल एक नजर द्वारा ही साध्य है, कुछ श्रम नहीं करना है, किसी पर की आधीनता नहीं है। अपने भीतर एक ऐसी नजर डाल लो कि यह तत्त्व दिखने लगेगा। जो समस्त पर से भिन्न है और अपने स्वरूप में तन्मय है, ऐसे इस शुद्ध स्वरूप की उपासना में अपने परमात्मतत्त्व की शोभा है, सेवा है और यही अपने उद्धार का करना है। अब रही-सही जिंदगी में एक बड़े पुरुषार्थ प्रयत्नसहित इस ज्ञानानंदस्वरूप निज कारणपरमात्मतत्त्व की सेवा करें, यही सच्ची परमभक्ति है।