वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 137
From जैनकोष
रायादीपरिहारे अप्पाणं जो हु जुंजदे साहू।
सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्सय कह हवे जोगो।।137।।
योगभक्ति- इस परमभक्ति अथवा निर्वाणभक्ति का दूसरा नाम योगभक्ति भी है। अपने आत्मा को रागादिक के परिहार में लगाना और सहज आनंदस्वरूप निज आत्मतत्त्व में उपयोग को जोड़ना, इसका नाम है योग। जो इस योग की उपासना करता है वह पुरुष योगभक्ति करिके सहित है। स्वरूप से विचलित होने वाले जीव के योग नहीं हो सकता है। जब यह आत्मा पर को पर जानकर, पर से उपेक्षा करके सहजस्वरूप में सहज विश्राम करता है अर्थात् जहाँ यह ज्ञानपरिणमन एक ज्ञानाकार ही रह जाता है, ऐसी परम समाधि के बल से यह योगभक्ति प्रकट होती है, जिसमें समस्त मोह, राग, द्वेष आदिक परभावों का परिहार है।
परभावविविक्तता की योग्यता के निर्णय की आवश्यकता- जिस जीव को रागादिक दोष दूर करना हो, उसे पहिले यह तो समझ लेना चाहिए कि मेरे से रागादिक दूर हो सकते हैं या नहीं। मेरे से रागद्वेषादिक दूर हो सकते हैं, इसकी समझ के लिए यह जानना आवश्यक है कि मेरा स्वरूप ही रागद्वेषादिक से पृथक है। यदि मैं रागद्वेषादिकरूप ही होऊँ, मेरा स्वभाव ही रागद्वेष करने का हो, तो फिर ये रागद्वेष कभी दूर नहीं हो सकते हैं। इसलिए यह जानना सर्वप्रथम आवश्यक है कि मैं रागादिक विकारों से न्यारा केवल शुद्धचैतन्यस्वरूप हूं, इतनी बात ध्यान में आये तब धर्म करने की बात जीभ से हिलाना कि अब मैंने धर्म किया, धर्म कर रहा हूं यह बात तब समझो जब अपने आपमें यह निर्णय हो जाय कि मैं आत्मा रागद्वेषादि विकारों से विविक्त केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूं। अब अपने-अपने अंत:करण में निर्णय कर लो कि रातदिन का सारा समय हम किस प्रकार का अनुभव करने में गुजार रहे हैं? मैं इस घर वाला हूं, इतने बच्चों वाला हूं, ऐसी पोजीशन का हूं, मैं धनपति हूं, अमुक नाम वाला हूं, मोटा दुबला हूं, कितने प्रकार की वासनाएँ अंत:करण में रातदिन रहा करती हैं, यदि यह बोझ लाद रहे हैं तो अपने को धर्ममय कबूल मत करो। स्वरूपप्रतीति बिना धर्म करते हुए भी, मंदिर दर्शन सत्संग करते हुए भी यह जानो कि अभी हमने धर्म नहीं किया।
धर्म के समझ की पात्रता- भैया ! अपना विवेक बनावो कि मुझे धर्म करना है। धर्म के बिना यह जीवन सुखमय नहीं हो सकता है। पापमय जीवन से कोई भी प्राणी सुखी हो ही नहीं सकेगा, क्योंकि पाप-परिणाम स्वयं आकुलतावों को उत्पन्न किए हुए है। कोई कुत्ता किसी के रसोईघर में चोरी से घुस जाय तो कैसा आंखें बचाकर चुपके से रोटी उठाकर भाग जाता है और धीरे से किसी एकांतस्थान में जाकर कायरता से, आसक्ति से वह रोटी को खाता है, यह भी देख लो जब कभी आप ही खुद किसी कुत्ते को बुलाकर रोटी डाले तो कितना पूँछ हिलाकर और कैसे पंजे फटकारकर और मुख की प्रसन्नता बताकर प्रेम से रोटी खाता है। किसने सिखाया उस कुत्ते को कि यह चोरी का पाप है और यह बुरा काम है? उसका अंत:करण खुद जानता है कि मैं पापकार्य कर रहा हूं, यह मेरे करने योग्य नहीं है इसीलिए वह खेदखिन्न होकर चोरी की रोटी खाता है और जहां न्यायपूर्वक रोटी मिल रही है वहाँ रोटी प्रसन्नता से खाता है, तो पापमय परिणाम से किसी भी जीव को शांति नहीं मिल सकती है।
पुण्यपाप के फलरूप सांसारिक घटनायें- जो लोग धन संपदा बढ़ाने के लिए अन्याय करते हैं और मन में छल-कपट का जाल गूँथते हैं वे अंत: कभी प्रसन्न और संतुष्ट न हो सकेंगे। संपदा छल के कारण नहीं आती है, किंतु जैसा उदय है पूर्व पुण्य का उसके अनुसार संपदा मिलती है। घसियारे लोग दिनभर श्रम करते हैं और अंत में उन्हें एक रुपया ही नसीब होता है और कितने ही लोग आराम से एक दो घंटा ही काम देखते हैं और उसी में सैकड़ों हजारों का मुनाफा पाते हैं। भले ही कोई देश आज समता के नाम से एक व्यवस्था बनाए कि सब लोग एक से समान रहें, कोई कम बढ़ धनी न रहे, सबके पास एक-सी विभूति रहे, कोई भी देश कितना भी इन बातों के लिए प्रबंध करे, किंतु किसी के पुण्य, यश आराम को कोई बना सकता है क्या? जो साम्यवाद का दम भरते हैं ऐसे देशों में भी प्रेसीडेन्ट और मिनिस्टर कैसी शान से रहते हैं, कितनी उन्हें मौज है, कितनी सलामियाँ मिलती हैं और कितना वैभव है और जो चपरासगिरी का काम करते हैं उनकी क्या हालत है, उनकी क्यों नहीं समता बनायी जा सकती है?
भावना से साम्यभाव का विस्तार- अरे समता तो भावों से बनाएँ तो बनेगी। बाहरी संपदा के छिन्न-भिन्न करने से समता नहीं बनती है। आध्यात्मिक ज्ञान का विस्तार हो और मिली हुई समस्त संपदा से विविक्त अपने स्वरूप का ध्यान हो व इसी प्रकार समस्त जीवों में स्वरूप का निर्णय हो तो वहां समता प्रकट हो सकती है। ज्ञानी गृहस्थ तो यह जानता है कि मेरे पास तो एक धेलामात्र भी संपदा नहीं है। समता तो समता में है। मैं तो सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं। रही एक साम्यवाद बनाकर लोककल्याण की बात। तो जहां ज्ञान में समता आ जायेगी वहां धन संपन्न लोग स्वयं ही अपने उदार भावों से लोककल्याण में संपदा का वितरण कर लेते हैं, किया है और कर रहे हैं। लोगों को सताकर लोककल्याण के लिए समता छीनकर या करों द्वारा पैसा इकट्ठा करना यह सुखविस्तारक काम नहीं है, किंतु लोक में ज्ञान की प्रगति कराकर उन्हीं की ही ओर से लोककल्याण के लिए वे स्वयं मुक्तहस्त से, उदारभावों से द्रव्य प्रदान करें, उसमें शोभा सबकी है। समतापरिणाम भावों से बनाना चाहिए। बाहरी चीजों की व्यवस्था करके समता नहीं बनायी जा सकती है।
अंतर्ज्ञान बिना संतोष का अभाव- भैया ! यह भी जानना चाहिए कि कोई पुरुष बाहरी संपदा की व्यवस्था बनाकर संतुष्ट होना चाहे तो संतुष्ट हो नहीं सकता है, जैसे किसी तराजू पर जिंदा मेंढकों को तौलना कठिन है, एक किलो जिंदा मेंढक जरा तौलकर दिखा दो, नहीं दिखा सकते हो ना। नहीं दिखा सकते हो ना। एक रक्खोगे तो एक उछल जायेगा, दूसरा रक्खोगे तो फिर कोई उछल जायेगा, तौल न सकोगे। ऐसे ही धन, संपदा, मकान, दुकान, इनकी व्यवस्था बनाकर अपने में संतोष लाने की बात उससे अधिक कठिन है। इससे कर्तव्य यह होना चाहिए कि वर्तमान में जो समागम है उस समागम में ही अपनी व्यवस्था बनाकर धर्मपालन के लिए यत्न करें, इससे तो विजय होगी और बाहरी बातें हम कुछ अनुकूल बना लें, कुछ व्यवस्था बना लें तब मौज से इकट्ठी धर्मसाधना करेंगे, ये उसकी स्वप्न की कल्पनाएँ हैं। जब इस ही समय अपने शक्ति माफिक धर्मपालन का परिणाम नहीं है तो भविष्यकाल में धर्मपालन के परिणाम की क्या आशा की जा सकती है? इससे इन बातों को रंच भी महत्त्व न दो। क्या संपदा है, क्या स्थिति है?
ज्ञान की संभाल में धर्म का अधिकार- यदि कोई खोमचा चलाकर भी अपना गुजारा करता हो तो वह भी उतने ही धर्म का अधिकारी है, उतना ही पात्र है जितना कि धनसंपन्न पुरुष है। पुण्य भावों से उत्पन्न होता है, किंतु यदि कोई धनसंपन्न होकर भी कंजूस प्रकृति का है तो उसके भाव बढ़ ही नहीं सकते, अतएव पुण्य नहीं होता। कहीं पैसे के रखने देने में पुण्य की बात नहीं है, भावों से पुण्य का बंध है। कोई संपन्न होकर व्यय न कर सके, त्याग न कर सके तो उसके परिणामों में उज्ज्वलता भी प्रकट नहीं हो सकती है, क्योंकि तृष्णा से रंगा हुआ है ना और एक गरीब पुरुष जिसके पास कुछ भी नहीं है वह अपनी शक्ति माफिक दो पैसे भी कहीं लगाता है तो वह उस कृपण धनी की अपेक्षा अधिक धर्म का अधिकारी है। सर्वत्र परिणामों की विशेषता है।
सहजस्वरूप के उपयोग में योगभक्ति- भैया ! ऐसा निर्णय करो कि यह संपदा कमाने से नहीं आती। यह तो पुण्योदय के अनुसार बिना विचारे ही अनेक उपायों से आ जाती है। इसकी तृष्णा क्या करना? इस ओर से संचय का परिणाम हटाकर अपने आपके इस ज्ञानस्वभाव की दृष्टि और इस ही परमार्थभक्ति में उपयोग लगाना चाहिए। जो जीव इस प्रकार सहजस्वरूप में उपयोग लगाते हैं वे निश्चयभोगभक्ति करते हैं। अपने को अपने में जोड़ लेना, इस ही का नाम निश्चययोग है। इस परमश्रवण, परमसमाधियुक्त साधु के निश्चययोग से हो रहा है। बाह्यपदार्थों में व्यासक्त कोई पुरुष इस योग का पात्र नहीं है। इस योग में ही कल्याण है और इस ही में आत्मा की समृद्धि है। योगभक्ति कहिये अथवा उपयोगभक्ति, शुद्ध निश्चयन से जो सहजस्वरूप की भक्ति है उसे जो साधु करता है उसके ही कर्ममल दूर होते हैं। अन्य जन जो बाह्य प्रपंचों का सुख भोगना चाहते हैं उनके योगभक्ति नहीं हो सकती है।
व्यवहारचारित्र का योग- व्यवहारचारित्र में योग नाम है- तपस्यावों का। क्लेश सहते हुए ध्यान से न चूकना, इसको योग कहते हैं। वर्षाकाल में जहां बिजली तड़क रही हो, मेघमाला बरस रही हो, विकट अंधेरा हो, ऐसे वर्षाकाल में योगी वृक्ष के नीचे अपने ध्यान में मग्न हो रहे हैं ऐसे इस व्यवहारयोग के समय में उन साधुजनों के निश्चय अध्यात्मयोग होता है और उस अध्यात्मयोग के कारण वे योगी कहलाते हैं। जाड़े के दिनों में जहां कि शीतवात चल रही है, शीत का विशेष प्रकोप है, शीतऋतु के कारण वृक्ष भी जल गए हैं ऐसे शीतकाल में नदी के तट पर स्थित पद्मासन अथवा खड्गासन से जो निज सहजस्वरूप का उपयोग कर रहे हैं उनके निश्चययोग होता है। गर्मी के दिनों में कितने ही दिनों तक आहार न हुआ हो भूख और तृषा दोनों की वेदनाएँ हों शरीर में, किंतु इन वेदनावों की ओर जिनका रंच ध्यान नहीं है, शरीर से भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व में ही जो हित समझते हैं और इसी कारण इस विविक्त आत्मतत्त्व के लाभ के लिए ही जिसका विचार और चिंतन चलता है, ऐसा योगी बडी तेज गर्मी में जहां लू की लपट की मार है, दसों बार पानी पीने वाले जहां प्यासे रहते हैं, ऐसे प्रबल ग्रीष्मकाल में पर्वतों के शिखर पर एकाकी ध्यानमग्न हो रहे हैं। अध्यात्म में उपयोग होने से जिनका प्रबल योग चल रहा है, ऐसे योगी पुरुष के योगभक्ति होती है।
बाह्य प्रपंच के जुड़ाव में योगभक्ति का अभाव व दुर्गति की पात्रता- जो साधु के नाम पर किसी भी भेष को रखकर केवल एक खानेपीने का यश लूटने का ही जिनका ध्यान रहता है, जो अपनी प्रशंसा के लोलुपी हैं, जिनका उद्देश्य लोक में अपना नाम जाहिर करने का है, जो सुंदररूप देखने, स्वादिष्ट खाने-पीने, सुहाती सुरीली चीज रागभरी बोली सुनने के लंपटी हैं, जो गुप्त पाप करके सुख लूटना चाहते हैं, ऐसे बाह्य प्रपंचों में, उनके सुख में जिनकी बुद्धि लगी है उनके कहां से योग होगा? शास्त्रों में लिखा है कि इस पंचमकाल में अनेक साधु और अनेक उनके सेवक श्रावक नरकगति में व निगोद में जायेंगे। ऐसा क्यों होता है? जो साधुभेष रखकर अपने इंद्रियविषयों और मानसिक विषयों के सुख के ही लोलुपी हैं उनके आत्मध्यान कहां होता है? कोई गृहस्थ भी बहुत पाप करता है, बाह्य सुखों में मग्न रहता है, लेकिन अपने बारे में मैं धर्मात्मा हूं, साधु हूं, ऐसी प्रसिद्धि नहीं रखता, इस कारण पाप करता हुआ भी उसके मायाचार का दोष नहीं लगता, किंतु जो गृहस्थ जैसा ही दिल रक्खे, गृहस्थ जैसा ही भोग और सुख चाहे अंतरंग में और बाह्य में भेष रख ले साधु का तो मायाचार का दोष लगता है। ऐसे मायाचारी साधु और उनके भक्त दुर्गति में ही जाते हैं।
धर्मवेश की ओट में मायाचार का दुष्परिणाम- कुसाधु व उनके भक्तों की दुर्गति का यह दूसरा कारण है कि जो धर्मपद मोक्षमार्ग के लिए था उसको कलंकित किया है और धर्मप्रभावना को नष्ट करके इतना अनर्थ किया है लोगों का कि लोगों को सन्मार्ग पर चलाने का उत्साह नहीं रह गया। हर एक कोई उदाहरण लिया करते हैं। अरे इस धर्म में क्या फायदा है, सब ढोंग है। देखो फलाना यों हुआ था यों हो गया। धर्म का भेष रखकर फिर धर्म की अप्रभावना के कार्य करना और अपने स्वार्थ भरे कार्यों को करके लोक में शुद्ध धर्म से जीवों की श्रद्धा हटा दे, यह कितना बड़ा अनर्थ और पाप का कार्य है? यही कारण है कि साधुभेष रखकर, ज्ञानी रहकर, विषयों के मौज का ही ध्यान बनाकर जो मायाचार का और धर्म की अप्रभावना का पाप करता है उसे दुर्गति में ही जाना पड़ता है और ऐसे पुरुषों की भक्ति कोई विवेकी बुद्धिमान् नहीं कर सकता। कोई पुरुष जो स्वयं भी पापों का रुचिया हो वही ऐसे साधुवों की संगति और भक्ति में रहेगा। जब दोनों का ही अनर्थ हो, जहां निश्चय अध्यात्मयोग की सुध नहीं है। वहां कोई अपना हित कैसे कर सकेगा?
परमभक्ति में शुद्ध ज्ञानपुन्ज की उपासना- परमभक्ति अधिकार में उत्कृष्ट भक्ति का वर्णन चल रहा है। उत्कृष्ट तत्त्व है यह शुद्ध ज्ञायकस्वरूप। भगवान की भी हम जो उपासना करते हैं उसमें भी शुद्ध ज्ञानपुन्ज की उपासना करते हैं। कोई उपासक चाहे किसी एक नाम से तीर्थंकर की उपासना कर रहा हो, किंतु उपासक के समता बुद्धि होती है। एक तीर्थंकर को पूजकर भी शुद्ध ज्ञायकस्वरूप ही उसके लक्ष्य में बसा करता है। वहां यह हठ नहीं है कि मैं तो शांतिनाथ को ही पूजूँगा और किसी भगवान को नहीं। जहां यह हठ नहीं है वहां शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की भक्ति है। अंतरंग में यदि यह परिणाम है कि शांतिनाथ अमुक के पुत्र हैं और इतने बड़े शरीर के हैं, इस कुल के हैं, उनको मैं पूजता हूं तो यह सच्ची भक्ति नहीं है, किंतु वह वीतराग है, ज्ञानानंद का परमविकास है, इस नाते से पूज रहा हूं। यह उसकी सच्ची भक्ति है। जैसे किसी श्रावक भक्त के किसी नामधारी त्यागी और साधु में भक्ति जगे और यह हठ बने कि मैं तो अमुक नाम वाले को ही मानूँगा। नाम के नाते से माने तो उस श्रावक की वास्तविक भक्ति न कहला सकेगी। यद्यपि सब आखिर नाम वाले ही मिलेंगे, बिना नाम का व्यवहार नहीं चलता तो भी ये अमुक साधु हैं, अमुक नाम के हैं, नाम भी लेते जावो, किंतु यह रत्नत्रय का विकास है, रत्नत्रय ही धर्म है, उस रत्नत्रय के विकास के नाते से जो भक्ति संगति होगी वह है गुरुभक्ति। ऐसे ही रागद्वेषरहित ज्ञानानंद के चरम विकास के नाते से यदि देव की भक्ति है, तीर्थंकर की भक्ति है तो वह है देवभक्ति।
व्यवहारभक्तियों में भी आत्मस्वरूपभक्ति का प्रवेश- कोई ज्ञानी पुरुष देवभक्ति कर रहा हो तो वहाँ भी आत्मस्वरूप की भक्ति है। कोई गुरुभक्ति कर रहा हो तो वहां भी आत्मस्वरूप की भक्ति है और धर्मसाधक जितनी भी क्रियाएँ कर रहा हो उन सबमें भी आत्मस्वरूप की भक्ति है। जैसे आपके पास कोई आपका मित्र बैठा है, कोट, कमीज, टोपी आदि पहिने हुए, आप उससे प्रेमपूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं और उसके ऊपर कोई चींटी या पुराल आदि का तिनका पड़ जाय तो आप उसे हटा देते हैं तो क्या आप उस मित्र के कपड़े की भक्ति कर रहे हैं? आप तो उस मित्र के प्रेम के कारण उस तिनके या चींटी को हटाते हैं। किसी घर के बड़े पुरुष की टोपी किसी खूँटी पर टंगी हो और वह गिर जाय धूल में तो आप उसे उठाकर झाड़ते हैं, कुछ अपना सिर नवाते हैं और उसी खूँटी पर टाँग देते हैं तो क्या आप उस टोपी की भक्ति कर रहे हैं? अरे आपकी भक्ति है, आपका अनुराग है उस महापुरुष से, सो आप उस महापुरुष की भक्ति कर रहे हैं। किसी त्यागी की चद्दर किसी जगह गिर जाय तो आप कितना पछतावा करते हैं और उसे धोकर रखते हैं, क्या आप उस चद्दर की भक्ति कर रहे हैं? मूल में निरखिए। अरे आपका अनुराग तो उस त्यागी से है, सो आप उस त्यागी की भक्ति कर रहे हैं। ऐसे ही यह ज्ञानी पुरुष भगवान की मूर्ति के सामने खड़े होकर वंदन नमस्कार करता है तो क्या वह पत्थर का वंदन कर रहा है? मूर्ति तो पत्थर की है? क्या वह पीतल का वंदन कर रहा है? नहीं। वह तो ज्ञानविकासको वंदन कर रहा है।
सावलंब ज्ञानियों के देवभक्ति की बाह्यरूप में उमड़- प्रभु में इस ज्ञानी श्रावक के इतना अनुराग जगा है कि प्रभु के नाम पर उनकी मूर्ति बनाकर पूज रहा है। यह क्या उस मूर्ति का प्रेम है? अरे ! मूर्ति का प्रेम नहीं है, मूर्ति का अनुराग नहीं है, मूर्ति का पूजन वंदन नहीं है, किंतु जिसमें इतना प्रबल अनुराग जगा है कि वह उनकी मूर्ति की स्थापना करके पूजता है तो वहां ज्ञानविकास की पूजा है। जो लोग इस मर्म को नहीं जानते हैं उनके यह शंका रहती है कि अजी किसी धनी की भक्ति करो तो वहां कुछ मिल भी जाय। देखो तो कुछ लोग जड़, पत्थर, पीतल इनके सामने सिर रगड़ते हैं, कितना अज्ञान है ऐसी लोग शंका करते हैं जिन्हें पूजा के मर्म का पता नहीं है और पूजक भी यदि यह परिणाम नहीं ला पाते हैं मूर्ति के समक्ष और वहां दृष्टि नहीं रख पाते हैं जिस स्वरूप में परमात्मतत्त्व बसा है और न अंतर्ध्वनि यह निकल पाती है कि प्रभु कल्याण का पथ तो यही है, मूर्ति में निगाह गड़ाकर नहीं कहना है, किंतु मूर्ति के समक्ष उस प्रभुस्वरूप में निगाह रखकर कहना है। कल्याण का मार्ग तो यही है। मैं कहां विषयकषायों में रुल रहा हूं और मूर्ति की नासाग्र दृष्टि निरखकर और शांत मुद्रा देखकर मूर्ति का ख्याल भूलकर केवल शांतमुद्रा ही निगाह में रह जाय और वहां अंतर्ध्वनि निकले कि हे प्रभो ! आपने उत्तम विकास पाया है, कितना आनंद झर रहा है, ऐसा भान करे तो वहां प्रभु की भक्ति हो रही है।
परमभक्ति में ज्ञानाकारोपयोग- इस परमभक्ति में यह पूर्णरूप से ज्ञानाकाररूप उपयोग कर रहा है, यही परमसमाधि है। इस परमसमाधि के द्वारा योगीश्वर समस्त मोह, रागद्वेष भावों का परिहार कर देता है। यह आसन्न भव्य जीव अपने में ऐसा सातिशय आनंद प्राप्त करता है जो अखंड है, अद्वैत है, अभेद्य है, सहज है, उस आनंद के द्वारा आत्मा में लगता है और योगभक्ति करता है, देखो अपने प्रयत्न से तो यह मन चलता है, किंतु इस मन का चलाव वहां तक है जहां तक आत्मा के प्रति मन की गति हो। आगे जब यह अध्यात्मयोग अनुभव में आयेगा तब यह मन स्वयं विराम को प्राप्त होगा। मन, वचन, काय ये तीन योग हैं। काययोग प्रभु से नहीं मिलाता है, वचनयोग प्रभु से मिलाता नहीं, मनोयोग प्रभु से मिलाने का उपाय तो बना देता है, पर प्रभु से जब मिलाप हो रहा हो तो वहां मन की गति नहीं होती है।
आत्मदर्शन के प्रसंग में मन के सहयोग का दृष्टांतपूर्वक समर्थन- जैसे कोई सेठ किसी राजा-महाराजा से मिलना चाहे तो द्वारपाल उस सेठ को ले जाकर वहां तक तो सहयोग देता है जहां तक राजा का दर्शन न होता हो। जिस जगह से राजा का दर्शन होने लगता है उस भवन, उस कमरे के भीतर द्वारपाल का फिर काम नहीं है। अब तो वही सेठ अकेले जाकर राजा से अपनी चर्चा करेगा। द्वारपाल वहां से हट जाता है। ऐसे ही यह उपयोग सेठ इस अंतस्तत्त्व प्रभु से मिलना चाहता है तो इस मन द्वारपाल से यह उपयोग कहता है कि मुझे प्रभु के दर्शन तो करा दो तो यह मन द्वारपाल इस उपयोग सेठ को वहां तक तो ले जाता है। अपनी भावनावों से, चिंतनावों से, ध्यानों से जहाँ वह अंतस्तत्त्व विराज रहा है, उस अध्यात्म आँगन तक ले जाता है, उसके बाद जब इस मन ने उपयोग को संकेत करके दिखा दिया, देखो विराजा है अंतस्तत्त्व तो अब उस प्रभु से मिलाप करने के समय मन की गति न रहेगी, मन वहां से लौट आयेगा, शांत हो जायेगा, विश्राम पायेगा। अब यह उपयोग इस अंतस्तत्त्व कारणपरमात्मप्रभु से एकाकी एकरस होकर मिल रहा है, इसी को कहते हैं आत्मानुभव, ज्ञानानुभव। यह अनुभव मन, वचन, काय से परे है, इस अनुभव में आत्मा को जोड़ने का नाम है परमयोगभक्ति। जो आत्मा इस उपयोग को, आत्मा को आत्मा के साथ निरंतर जोड़ता है वह योगीश्वर निश्चय से परमयोगभक्ति वाला है।
सम्यक्त्व की उपासना का चिंतन- अपने को इस उपदेश से यह प्रयोजन निकालना चाहिए कि हम जहां बस रहे हैं, रात-दिन जिसमें पड़े रहते हैं, उनमें बसने में, उनमें रमने में, उनकी बात सुनकर हर्ष मौज मानना और वहां ही चैन समझना, यह बहुत बड़ी लंबी भूल है। हम आप इस समय सघन वन में भटक रहे हैं, शांति का मार्ग नहीं पा रहे हैं। यत्न न कर सकते बने न करें, कैसे कर लेंगे? अभी शक्ति प्रकट नहीं हुई है, पर यथार्थ ज्ञान करने में तो कोई बाधा नहीं है, वह तो ज्ञान की बात है, जान जायें कि यहां सत्य तत्त्व क्या है? कितने ही काम यहां पर कर लें, पर एक यथार्थ ज्ञान न बनाया तो शांति का मार्ग नहीं मिल सकता है। कुंदकुंदाचार्यस्वामी ने दर्शन पाहुड में कहा है कि जो योगी चरित्र से भ्रष्ट हो जाय वह भ्रष्ट तो है, पर भ्रष्ट नहीं कहा जाता एक वास्तविक भ्रष्टता को ध्यान में रखकर, किंतु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हो जाय, श्रद्धा ही जिसकी भ्रष्ट हो जाय उसको भ्रष्ट कहा है। हालांकि चारित्र से भ्रष्ट हुआ भी भ्रष्ट कहा जाता है, पर सन्मार्ग के परिचय से भ्रष्ट नहीं कहा जाता है। सम्यक्त्व से भ्रष्ट हो जाय, श्रद्धा ही न रहे तो उसे भ्रष्ट कहा है और वह संसार में अपना जन्ममरण करता रहेगा
सम्यग्ज्ञान का आदर- यथार्थ ज्ञान का बहुत आदर करो। इतनी हिम्मत बनावो कि इस ज्ञानप्राप्ति के लिए कहीं जाना पड़े, हजार पाँच सौ का खर्च भी हो तो उसके करने का उत्साह रक्खो। नुकसान पड़ जाय तो कुछ हर्ज नहीं, सत्संग में रहकर कुछ धार्मिक नुकसान हो जाय तो उसे भी लाभ की बात समझो। केवल जिनमें मोह ही बस रहा है उनके ही खातिर सब कुछ आपका तन, मन, धन, वचन लग रहा हो, यह क्या ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व प्रभु के लायक बात है? इन विनाशीक पदार्थों से अविनाशी वस्तु का लाभ बन सके तो इसके करने में बुद्धिमानी है। परवाह मत करो। इस सब ठाठबाटों को पुण्य के उदय पर छोड़ दो। लक्ष्मी की अटकी हो तो आये, पर मेरी नहीं अटकी है कि मैं उस लक्ष्मी का जाप करूँ कि मुझे इतना धन मिल जाय। मुझे तो जितना उदय में है उतना मिलेगा, उतने में ही अपनी व्यवस्था बनाकर अपना गुजारा करूँगा, मेरी उस लक्ष्मी के बिना कुछ अटकी नहीं है।
धर्मसाधना का संकल्प- भैया ! कितने दिनों का यह खेल तमाशा है, जिसके पीछे इतना हताश होकर दौड़ा जाय। कुछ तत्त्व नहीं है और दौड़ने से कुछ सिद्धि भी नहीं है, जो होने को है सो होगा। ये सांसारिक सुख-दु:ख सब पुण्य-पाप कर्मों के उदयानुसार है। इसका यह पुरुषार्थ तो मोक्षमार्ग में काम देगा। यह ज्ञान ज्ञान का ज्ञान करना चाहे तो क्यों न होगा? यह ज्ञान रागद्वेष से रहित होकर शुद्ध ज्ञातादृष्टा रहना चाहे तो क्यों न रह सकेगा? अपना बल, अपना पुरुषार्थ हो तो अपने आपके हित पंथ पर चल सकता है, पर जड़ संपदा के संचय पर नहीं चल सकता है। जो परिस्थिति आए उसमें ही गुजारा रखने का परिणाम रक्खो और धर्मसाधना में कभी कमी मत करो तो इस चर्या से आगे बढ़कर कभी इस अध्यात्मयोग को भी प्राप्त कर लोगे।