वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 157
From जैनकोष
लद्वूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्तें।
तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्त परणत्तिं।।157।।
परमतत्त्व की आराधना की विधि का प्रतिपादन―परम आवश्यक कार्य की व्याख्या कर चुकने के बाद अबकुंदकुंदाचार्यदेव इस गाथा में इस सहज तत्त्व की आराधना की विधि बता रहे हैं। अपने आपमें अपने स्वभाव से जो अपना स्वरूप है उस स्वरूप की आराधना किस प्रकार की जाती है? उस पद्धति को कह रहे हैं। जैसे कोई दरिद्र पुरुष किसी बड़ी निधि को पा ले तो उस निधि के फल को किसी रहस्यभूत स्थान में एकांत स्थान में गुप्त वृत्ति से अनुभव करते हैं, इस ही प्रकार इस ही जीव को जो कि अनादि काल से पर की आशा रखकर दीन दरिद्र होता चला आ रहा हैकदाचित् यह अपनी ज्ञाननिधि को पा ले तो ज्ञानी होकर यह भी समस्त परसंबंधों को त्याग कर एकांत निज स्वरूप में स्थित होकर बड़ी मूढ़ वृत्ति से अपनी इस ज्ञाननिधि के फल का अनुभव करता है।
पर के आकर्षण में आत्माराधना का अभाव―इसमें यह बात बतायी गयी है कि ज्ञाननिधि का भोग पर की और आकर्षित रहने में न हो सकेगा। संसार का वचनव्यवहार बनायें रहे तो वहाँ इस ज्ञाननिधि का भोग न किया जा सकेगा। यह तो सबसे विरक्त होकर एक निज स्वभाव में ही विशिष्ट धुन बने तो इस ज्ञानप्रकाश का अनुभव होता है। लोक में जो भी अपनी ख्याति,नामवरी,प्रशंसा आदिक चाहता है वह तो दरिद्रता प्राप्त करने का उपाय है। आत्मा में अतुल निधि पड़ी हुई है जिसकी दृष्टि में ही अतुल आनंद बरसता है। जिसने किसी पर-चीज में बाह्य में कुछ भी वांछा की वह अपने इस अतुल आनंदरस को नहीं भोग सकता है।
सत्यस्वरूप के ग्रहण के आग्रह का अनुरोध―लोगों की आदत होती है कि जिस चीज में आनंद मालूम पड़ा उसकी हठ पकड़ जाते हैं। जैसे स्वादिष्ट भोजन करने वाले कोई धनिक पुरुष होते हैं, वे अपने मन में ठान लेते हैं कि हमको आज अमुक चीज खाना है, परंतु बनना चाहिए, झट उसके बनवाने का उद्यम करेंगे। उनको भीतर में यह गौरव व गारव पड़ा हुआ है कि मैं समर्थ हूँ,मैं जो चाहूं वह तुरंत होना चाहिए। भैया ! जैसे अन्य अनेक नुकसान करके भी अपने मनचाही बात की सिद्धि में हठ कर ली जाती है आनंद पाने के ख्याल से तो जरा इस ओर भी दृष्टि दो कि इन विनश्वर, असार, अहित भिन्न चीजों की हठ में तो बुद्धिमानी है नहीं। यह काहे का सुख थोड़ी देर को हो और पराधीन बनकर हो, व अनेक विडंबनावों से परिपूर्ण हो। परवस्तुवों के प्रेम से पाया हुआ सुख कौनसा सुख है? एक शाश्वत आनंद की हठ तो बनावो, मैं तो अपने आपके सहज शुद्ध आनंद को ही पाऊंगा, मुझे न चाहिए ये बाह्य जगजाल। इन बाह्य पदार्थों से दृष्टि हटाकर केवल अपने आपमें अपने स्वरूप को निरखकर अद्भुत आनंद की हठ बनावो।
क्लेशकारी पुरानी कुटेवों के बदलने की सम्मति-लोग नुकसान पापाकर अपना रोजगार, व्यापार, आजीविका के साधन बदलते रहते हैं। इसमें ठीक मुनाफा नहीं मिला, बहुत दिन हो गए टोटा सहतेसहते, अब इस काम को बंद करके कोई नया काम देखें। अरे ! अनादिकाल से परद्रव्यों के प्रेम में टोटा ही टोटा सहते आये, उस व्यापार को तो नहीं बदलते। आँखों से स्पष्ट दिखता है, लोग जन्मते हैं, मरते हैं, सब कुछ छोड़कर चले जाते हैं। जब तक यहाँ जीवित हैं तब तक भी धन से, परिजन से,कुटुंब से किसी को शांति नहीं मिलती है, क्लेश ही क्लेश है। दूसरों के पुण्य के चाकर बनकर उनकी सेवा में जुट रहे हैं, इतना साफ देख भी रहे हैं किंतु मोह को त्यागने की और अपने आपमें विराजमान् प्रभु की उपासना की अभिलाषा नहीं होती है। कैसा मोह का विकट भ्रम पड़ा हुआ है?
राग की विपदा―भैया ! एक तो राग करना ही विपदा है और फिर राग में भी राग बनाया जाय, यह राग न मिटे, इस राग से ही मेरा बड़प्पन है, इससे ही मेरी शोभा है,यों राग का राग न मिटना यह इस जीव पर पूर्ण विपदा है। हम आप एक बड़ी यात्रा करते चले जा रहे हैं। इस यात्रा के बीच में एक मनुष्यभव का स्टेशन मिल गया है, इस पर यह गाड़ी रुकेगी नहीं। अपना समय पाकर यह आगे भी चली जायेगी, यह यात्रा ही करता रहेगा। इसकी यह विषम यात्रा तब समाप्त होगी जब इसे निज विश्रामगृह मिल जाय जो निर्वाध हो। यह विश्रामगृह है मोहरागद्वेष से निवृत्त होकर शुद्ध ज्ञानप्रकाश में मग्न हो जाना। यह स्थिति जब तक न मिलेगी तब तक जगह-जगह की यह भटकना बनी रहेगी।
बाह्य में अरम्यता―लोग सोचते हैं कि बड़ी प्रतीक्षा से ये भोग के साधन मिले हैं सो हर्षमग्न होकर अपने आपको भूलकर उन्हें भोग लें। अरे ! जो भोग मिले हैं उनसे भी कई गुणे भोग अनंते बार मिल चुके हैं पर तृप्ति किसी भी भवमें नहीं हुई। इस जीवन में ही देख लो,किसी भोग के बाद क्या तृप्ति हो जाती है? अरे ! बाहरी चीजें तो ज्यों की त्यों बनी हुई हैं, उन्हें भोगा क्या है पर खुद विडंबना में पड गए हैं। हम दूसरे को क्या भोग सकते हैं, बाह्य पदार्थों की ओरदृष्टि रखकर कोई निज प्रभु की आराधना नहीं कर सकता है। कल्याण के लिए बड़ा त्याग चाहिए, बड़ी उदारता चाहिए, बड़ी तपस्या चाहिए। जब तक उदारता न प्रकट होगी, परद्रव्यों से भिन्न अपने आपकी आराधना का जब तक यत्न न होगा, निर्मलता तब तक न आयेगी, शांति नहीं प्राप्त हो सकती है।
मोह में विडंबना―अहो ! यहाँ जगत के अनंते जीवों में से दो चार को अपनाकर कैसा विडंबित बखेड़ा बना लिया है, गृहस्थी है, व्यवस्था है, करना पड़ता है;पर लोग करना पड़ता है इस भाव से तो नहीं करते, उनकी तो यही दृष्टि है कि मेरा तो तन है, मन है, धन है वह सब इन कुटुंबियों के लिए है। इस ही धुन में ये अपने तन, मन, धन, वचन, सबका दुरुपयोग कर रहे हैं। यह बहुत बड़ी विडंबना है। रहना तो कुछ है नहीं, पर साथ ही पापबंध कर जाना होगा। उसके फल में दुर्गति ही सहनी पड़ेगी। सामर्थ्य है जरा इसलिए उद्दंडता करते हैं, मन को नहीं रोक पाते हैं, मन को वश में नहीं करते हैं। कषायवश ही ऐसा समझते हैं कि जो हम करते हैं ठीक है, लेकिन इसका फल कोई दूसरा भोगने आयेगा क्या? बताओ तो। जो स्वच्छंद, उद्दंड होगा, पतन की ओर बना होगा, फल तो वही भोगेगा। हमारा कर्तव्य है कि हम मोह में न बह जायें। अरे ! वे दूसरे प्राणी हैं, उनके भी उदय है। यदि उन्हें कोई कष्ट आता है तो उनके ही उदय से आता है, मैं उनमें क्या संभाल करूँगा? और यदि वे कुटुंबीजन आनंद से रहते हैं तो वे अपने पुण्य के उदय से आनंद से रहते हैं, उनको हम आनंद नहीं दे सकते हैं।
आत्मरमण―यह मैं आत्मा अकेला हूँ,असहाय हूँ,अपने भावों को ही गूँथता रहता हूँ। भावों के सिवाय हमारे पास और कुछ धन नहीं है। देह तक भी तो हमारा नहीं है, अन्य संपदा की तो बात ही क्या कहें? यह तो केवल भावात्मक पदार्थ है, इसके पास तो केवल भाव ही धन है। उत्तम भाव बना लिया तो इसकी रक्षा है, निष्कृष्ट भाव बना लिया तो इसकी बरबादी है। यह ज्ञानी पुरुष अनंत आनंद के फल को देने वाली इस ज्ञाननिधि को पाकर गुप्त ही गुप्त अपने आपमें ही चुपचाप मौनवृत्ति से इस ज्ञाननिधि का अनुभव करता जाता है और प्रसन्न रहता है। इसे बाह्य विकल्प परेशान नहीं कर पाते हैं।
परमतत्त्व की आराधना की विधि पर एक दृष्टांत―दृष्टांत में बताया है कि जैसे कोई दरिद्र अनेक वर्षों से बड़ी दरिद्रता के दु:ख सहता आ रहा है, लोगों से भीख मांगकर अपनी उदरपूर्ति कर पाता है, ऐसी दरिद्रता को कदाचित् सुकृत के उदय से कोई निधि कहीं मिल जाय तो उस निधि के फल को स्वयं सुरक्षित स्थान में बैठकर अत्यंत मूढ़ वृत्ति से चुपचाप देखकर उसका उपयोग करकरके आनंद का अनुभव करता है, ऐसे ही सहज तत्त्व के मर्म का ज्ञान करने वाला यह जीव अनादि काल से रागद्वेषमोह प्रसंगों में रहकर दरिद्रता को भोगता चला आया है। आनंद की निधि का इसे गौरव नहीं रहा और बाहरी पदार्थों से आशा करके भीख मांगकर गुजारा किया। अब यह ज्ञानी जीव जब कभी निकटभव्यता आये, संसारसंकटों से छूटने का अवसर पाये, तब इसमें सहज ज्ञान आदिक गुणों की दृष्टि जगी, सहज वैराग्य संपदा मिला। ज्ञान का काम जानना ही तो है ना। न जाने बाहर को, अपने आपके अंदर को ही जान ले, इसको आत्मज्ञान की यों निधि मिली, सहज वैराग्य की संपदा प्राप्त हुई और जो परम गुरु है, उन तत्त्वज्ञानी विरक्त गुरुवों के चरणकमल में रहकर उनकी सेवा भक्ति के प्रसाद से सहजज्ञान निधि पायी तो वह अपने आपमें अंत: गुप्त रहकर उस ज्ञानामृत का पान करके तृप्त रहा करता है।
अध्यात्मसाधना की निधि की मूढ़ता―यहाँ जानबूझकर,छुपकर,चुपचाप ज्ञानानुभव की बात करने को नहीं कह रहे हैं किंतु विधि ही उसकी ऐसी है। दूसरों को देखकर, दूसरों में बनकर, दूसरों में व्यवहार करके ज्ञानामृत का पान किया ही नहीं जा सकता है। कहीं यह बात नहीं है कि लोगों से छुपकर, डर कर, कहीं कोई देख न ले, कहीं कोई छुड़ा न ले, इस भय से वह ज्ञाननिधि का भोग करता हो। विधि ही यही है कि लोगों को जताकर लोगों के प्रति आकर्षित होकर लोगों में वचनव्यवहार बनाकर इस ज्ञाननिधि का भोग नहीं किया जा सकता जिस ज्ञाननिधि के अनुभव से,दृष्टि से संसार के संकटों से सदा के लिए छुटकारा मिलता है।
परजनतृप्तिपरिहार―ज्ञाननिधि को पाकर ज्ञानी के यह परजनों का समूह छूट जाता है। परजन के मायने जिस प्रकार का उसका आशय है ऐसा आशय जिनके न हो वे ही परजन कहलाते हैं। कोई आपके मित्र हों और उनमें कोई अब आपसे विपरीत हो गया हो तो आप कहतेहैं कि अब वह हमारा नहीं रहा,गैर हो गया। अरे ! वह तुम्हारा कब था? मोह की कल्पना में उसे अपना मान रहे थे। जब कषाय में कषाय न मिली, विरुद्ध आशय हो गया तो कहते हैं कि अब यह मेरा नहीं रहा, गैर हो गया;इसी प्रकार ये ज्ञानीजन भी गैरों से बचकर रहते हैं। ज्ञानियों के लिए गैर कौन हैं? जो ज्ञानहीन हैं, विपरीत आशय वाले हैं, आत्मस्वरूप की जिन्हें खबर नहीं है ऐसे मनुष्यों से बचकर रहते हैं। घृणा की वजह से नहीं किंतु अज्ञानीजनों के बीच की वासना ध्यान में बाधक होती है। अरे !जो हमने ध्यान बनाया है आत्मस्वरूप की साधना का, उसमें हमें जहाँ-जहाँ लाभ मिलेगा वहाँ-वहाँ ही तो हमारी प्रवृत्ति बनेगी। मोहीजनों के बीच बस करके इस आत्मा को लाभ क्या मिलता है? वही अज्ञान, वही रागद्वेष जग बैठता है। तो जो स्वरूप से विकल हैं ऐसे परजनों का समूह ध्यान में बाधा का कारण है। ऐसा जानकर ज्ञानी इनका त्याग कर देते हैं और अपने आपमें ही अपनी ज्ञानानुभूति को अपने में से झरा-झराकर पान करके तृप्त करते हैं।
लौकिक आशय से गृहीत धर्मवेश से अप्रभावना―इस गाथा में सहज परमतत्त्व के आराधना की विधि बताई गई है। दिखावे से धर्म न होगा। दिखावट, बनावट, सजावट इनसे धर्म नहीं है, किंतु अपने आप अपने को देखा जाय, अपने आपमें अपने को स्वयं अनुभवा जाय, अपने आपमें अपने भीतर सहज सजावट हो जाय तो वहाँ धर्म मिलेगा। किसी को दिखाने से धर्म नहीं मिलता है। इस बुद्धि को तो त्याग ही दो कि मैं बताऊं दूसरे को कि मैं बहुत धर्मात्मा हूँ,मैं अच्छा संयम पालता हूँ। दूसरों को दिखाने का रंच भी चित्त बनाया है तो समझिये उस पर पूरा मोह का अंधकार छाया है। ऐसी कलुषता बहुत बड़ी कलुषता है और वह तो धर्मव्रत भेष संयम की साधना करके भी हँसी कराता है क्योंकि जिसको अपने आपमें आत्महित की अभिलाषा नहीं है, लोगों के दिखाने, बताने का ही ख्याल है और इसको ही मौज माना है उसकी प्रकृति हास्यास्पद होगी। वह बढ़-बढ़कर बातें करेगा, बढ़-बढ़कर आगे आयेगा, लोगों को सुहायेगा नहीं।वहाँ तो न बाहर में धर्म की प्रभावना हुई और न उसही में खुद धर्म की प्रभावना हुई।
ज्ञानी के जीवन का लक्ष्य―हे आत्मन् ! तू इस लोक में अकेला है, असहाय है, खुद ही खुद के लिए तू सहाय है, तू बाहर में किसी से कुछ न चाह।चाहकर होगा भी क्या? तू किसको क्या बताना चाहता है। तेरे को तो कोई पूछता ही नहीं और तू ऐसी प्रवृत्ति से चलता है ‘कि मान न मान मैं तेरा मेहमान, ऐसी जबरदस्ती किसी परवस्तु पर थोपी नहीं जा सकती है। तू अपनी संभाल कर, अपने को प्रसन्न रख। अपने आपमें में अपने आपका पुरुषार्थ पा। दूसरों को खुश करने के लिए ही तू अपना जीवन मत समझ। अपने को न्यायपूर्ण निष्पक्ष परमात्मतत्त्व रस के भोगने के लिए प्रयोजन मान कि मेरा जीवन इस आत्मसाधना के लिए है।
सबको राजी करने की अशक्यता―एक सेठ के चार बालक थे। 5 लाख का धनी था। ठीक न्यायपूर्वक एक-एक लाख बांट कर दिया गया। सेठ नेभी अपने लिए एक लाख ले लिया। कुछ दिन बाद सेठ ने अपने सभी लड़कों से कहा कि अपन लोग शांतिपूर्वक न्यारे हो गए, कोई बाधा नहीं होने पायी, अब अपन ऐसा करें कि सभी बेटे बिरादरियों को प्रीतिभोज करें। तो सबसे पहिले छोटे लड़के ने बिरादरी के लोगों को प्रीतिभोज कराया। उसने 8, 10 मिठाई बनवायी। तो बिरादरी के लोग जीमते जावें और कहते जायें कि मालूम होता है कि छोटा बेटा तो अधिक प्यारा होता ही है सो इसके पिता ने इसे ही सारी जायदाद सौंप दी है, इसी से खुशी में यह 8, 10 प्रकार की मिठाई सबको खिला रहा है। उससे बड़े ने प्रीतिभोज किया तो उसने सिर्फ दो ही मिठाई बनवायी। तो बिरादरी के लोग खाते जायें और कहते जायें कि यह तो चालाक होशियार निकला, इसने तो दो ही मिठाई बनवायी। जब उससे बड़े तीसरे ने प्रीतिभोज करवाया तो उसने मिठाई का नाम ही नहीं लिया, सीधे पूड़ी और साग बनवाया, बिरादरी के लोग जीमते जायें और कहते जायें कि इसने तो मिठाई का नाम भी नहीं लिया, मिठाई का एक दाना भी जीभ पररखने को नहीं बनवाया। जब चौथे ने प्रीतिभोज करवाया तो उसने सीधी चने की दाल और रोटी बनवाई, पूड़ी साग तक का भी नाम नहीं लिया, तो बिरादरी के लोग जीमते जायें और कहते जायें कि यह सबसे दुष्ट निकला। यह सबसे बड़ा था इसी के हाथ में सब कुछ था, सब तो धर लिया होगा, पर खिलाने में पकवान तक का भी नाम नहीं लिया।
अपनी परमार्थ प्रसन्नता में लाभ―अरे भैया ! थोड़े ही लोग तुम्हारे अनुकूल बोलेंगे, बाकी सब प्रतिकूल बोलेंगे। तुम अपनी धुन अपने को प्रसन्न रखने की बनावो। हाँ ऐसा करो कि किसी पर अन्याय न हो, क्योंकि अन्याय के परिणाम से तुम्हारा ही घात है। तुमसे कोई पाप का काम न बने क्योंकि पापवृत्ति से तुम्हारा ही घात है। तुम अपने आपकी रक्षा के लिएअपनी प्रवृत्ति बनावो, तुम अच्छी प्रकार चलोगे, तो तुम्हारे वातावरण में जो जो भी आयेगा उसका भी भला होगा, और तुम स्वयं खोटी रीति से चलोगे तो न खुद का भला कर सकोगे और न दूसरों का भला कर सकोगे। अपने आपकी सुध रक्खो। जैसे कोई लौकिक पुरुष पुण्योदय आने पर निधि मिल जाय तो उसे औरों का संग छोड़कर कैसा गुप्त होकर उस निधि का भोग करता हैं, ऐसे ही तू ज्ञाननिधि पाकर दूसरों का संग त्याग कर गुप्त रूप से अपने आपकी ज्ञाननिधि का पान कर।
शुद्ध अनुभव के आनंद के पात्र―जो पुरुष सर्वपरिग्रहों को,जो कि जन्म मरण के कारण हैं, त्यागते हैं, और सहज वैराग्य को जो धारण करते हैं वे इससहज आनंद के अनुभव के कारण अनाकुल रहते हैं और अपने आपकी शक्ति में अपने आपको डाटे रहते हैं। जिनके मोह दूर हो जाता है वे महापुरुष इन समस्त लोक को जीर्ण तृण की तरह देखते हैं। जैसे जीर्ण तृण से हमारे जीवन का कोई काम नहीं सधता, ऐसे ही इन समस्त विभावों से मेरे आत्मा का कोई काम नहीं सधता है।येसमस्त परसमागम असार हैं, उनसे प्रीति को तजकर ज्ञानी पुरुष अपने आपमें गुप्त ज्ञाननिधि का अनुभव करते रहते हैं।