वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 158
From जैनकोष
सव्बे पुराण पुरिसा एवं आवासयं य काऊण।
अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्जय केवली जादा।।158।।
परमावश्यक के फल के प्रतिपादन में पुराणपुरुषों का उदाहरण―परम आवश्यक अधिकार की यह उपसंहार रूप अंतिम गाथा है। परम आवश्यक के प्रसाद से,निश्चय अध्यात्म विधान से परमआवश्यक कार्य को करके स्ववश पुराणपुरुष अप्रमत्त आदिक गुणस्थानों को प्राप्त करके केवलज्ञानी हुए हैं। इस गाथा में आवश्यक कार्य का फल बताया गया है। जो पुराण पुरुष निर्वाण पधारे वे जीव भी अनादि काल से मोहवासना में ग्रस्त हुए मिथ्यात्व में ही पग रहे थे। अनंतकाल व्यतीत हो चुका, मिथ्यात्व भाव में वे जीव परवस्तुवों से पृथक् चित्स्वभावमात्र अपने आपकी श्रद्धा नहीं कर पाये थे। यद्यपि उन आत्मावों में किसी प्रकार की विपदा नहीं थी, लेकिन भ्रमवश अपनी कल्पना बढ़ा-बढ़ाकर अपने आपमें भावात्मक बोझ लादते चले जा रहे थे। समवितव्यता से उन्हें तत्त्व श्रद्धा हुई व परमावश्यक के प्रताप से कैवल्य प्राप्ति हुई।
मोहभार से पीड़ित जीवन की दशा―मोह का भावात्मक बोझ विकट बोझ है जिस बोझ के कारण इस आत्मा की कुछ आगे गति ठीक नहीं हो पाती है। यह धनसंपदा को अपना समझता है जो प्रकट भिन्न पदार्थ हैं, अचेतन हैं, जिनका आलंबन लेने पर केवल विह्वलता ही साथ लगती है, ऐसे इन असार भिन्न पदार्थों को अपना मानते हैं, परिजन मित्र जनों को अपना समझते हैं। हैं प्रकट भिन्न जीव, उनकी कषाय उनके अधीन है, उनकी चेष्टा उनमें है, उनका अनुभव उनमें है लेकिन कषायवश यह जीव उन परजीवों को भी अपना मानता है, इस शरीर को भी अपना मानता है। शरीर से थोड़ा बंधन भी लगा हुआ है। निमित्तनैमित्तिक बंधन जिससे कुछ और विशेष यह देह को आत्मा मानता है। अपने आपमें उत्पन्न हुए रागद्वेषमोहभावों को भी अपना स्वरूप समझता है। कोई पुरुष किसी कषाय में बाधा डाले तो उसे वह बैरी सा मालूम होता है। इससे सिद्ध है कि इस जीव ने अपने कषायपरिणामको ही अपना रक्खा है।
मोही जीव के विकल्पजालों की अपनायत―अब जरा रागादिक भावों को भी और अंत: चलिए तो जो कल्पना-जाल होते हैं उन विकल्पों को पर्यायबुद्धि जीव ने अपना रक्खा है। कोई यह पुरुष ज्ञान की बात या कोर्इ भी बात रक्खे, वहाँ इसका कोई दूसरा विरोध करे अथवा कहना न माने तो वह दु:खी हो जाता है। यही कल्पनावों को अपनाने की निशानी है। कदाचित् यह जीव कुछ सत्य ज्ञान, केवलज्ञान आदिकी भी दृष्टि बना ले, ज्ञान में आये कि केवल ज्ञानादिक शुद्ध पर्याय ही इस जीव को शरण हैं तो वह उस शुद्ध पर्याय को ही अपना स्वरूप समझता है। यद्यपि शुद्ध पर्याय स्वभाव के अनुरूप है, लेकिन मैं शाश्वत चित्स्वभावमात्र हूँ,जिसका शुद्ध विकास अनंत ज्ञानादिक परिणमन हुआ है यह भान नहीं होता। यों इस जीव का काल मिथ्यात्व में ही व्यतीत हुआ।
निकटभव्यता का परिपाक―जब कभी निकट भव्यत्व आये तो इसे वस्तुस्वरूप का यथार्थज्ञान होने लगता है। ओह ! मैंने व्यर्थ ही इस अनात्मभाव में, परपदार्थों में यह मैं हूँ,इस प्रकार की वासना करके इतना समय खोया और विकलता का अनुभव किया, मैं आत्मा एक शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ। मेरा किसी भी परपदार्थ से कुछ संबंध नहीं है। मैं इस ब्रह्मांड में, लोकाकाश में केवल एक अकेला ही स्वतंत्र होकर अपने आपका परिणमन किया करता हूँ। इसका बोध न रहा था, इसी कारण संसार में भटकना पड़ा। ज्ञान होता है, सम्यक्त्व जगता है और इसके पश्चात् फिर इस ही शुद्ध स्वरूप में स्थिरता के लिए नानाव्रत आदिक का भी परिणमन करता है। यह जीव छठे गुणस्थान तक प्रमत्त माना गया है अर्थात् कुछ-कुछ बाह्य बातों का प्रसंग रहा करता है। प्रमत्त गुणस्थान केवल अकेला नहीं होता। प्रमत्त और अप्रमत्त इन छठे और सातवें गुणस्थान का परिवर्तन होता रहता है।
ज्ञानी की सातिशय अप्रमत्तता―यह जीव जब सातिशयप्रमत्त होता है अर्थात् संकल्पविकल्प व्यवहार, इन सबका परित्याग करके केवल शुद्ध ज्ञायकस्वरूप में स्थिर होता है तो इसके बाद यह प्रमत्तता और भी सातिशय हो जाती है, फिर क्षपक श्रेणी में बढ़कर यह जीव निश्चय धर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यान की उत्कृष्टता बनाकर क्षीणमोह हो जाता है। जितने भी पुराण पुरुष निर्वाण को पधारे हैं वे चाहे पर के उपदेश बिना स्वयं स्वयं बुद्ध होकर केवल ज्ञानी हुए हों और चाहे दूसरों का उपदेश पाकर बोधित बुद्ध बनकर केवलज्ञानी हुए हों, सभी इस निश्चय परम आवश्यक को करके ही केवलज्ञानी हुए हैं।
बाह्य और अंत: आवश्यक―व्यवहार में आवश्यक काम बताया है साधुवों को समता, वंदना, स्तवन,प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, जिसका कि विशेष वर्णन पहिले चारित्राधिकार में आ चुका है। इस षड् आवश्यक को करके भी यह ज्ञानी श्रमण साधु उन विकल्पों का परिहार करके केवल एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप अपने आत्मा के ही वश है। उस ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व में ही उपयोग को स्थिर करना सो निश्चय परमावश्यक कार्य कहलाता है। यह आत्मा के अधीन आत्मा का परमपुरुषार्थ श्रमण के सुख का कारण है। जगत् में बाह्य में कुछ भी कर्तव्य आत्मा की शांति का कारण नहीं हैं।
मोहनिद्रा के स्वप्न के दृश्य―जैसे स्वप्न में राज्यपद देख लेवे और उसमें मौज माने तो वह उसकी केवल कल्पना की बात है, राज्य तो रक्खा नहीं है। इस ही प्रकार मोह की नींद के इन लंबे स्वप्नों में जो किसी भव में 50-60 वर्ष तक स्वप्न आते हैं,किसी भव में और भी अधिक काल तक आते हैं। इस मोह की नींद के स्वप्न में यह जीव राज्य, श्रीमत्ता, प्रतिष्ठा, प्रशंसा के स्वप्न देख रहा है, पर ये भी सब कल्पना की चीजें हैं। यह आत्मा आकाश की तरह निर्लेप,अमूर्त,शुद्ध,चिदात्मक है, इसमें कहां धन है, कहां परिजन हैं, इसमें तो यह देह तक भी नहीं है। इस देहदेवालय में विराजमान् यह प्रभु भगवानआत्मा अब भी इस देह से भिन्न अपने आपमें निर्मल ही अपना स्वरूप रख रहा है, पर मोही जीव अपने प्रभु को मान नहीं सकता है, और इन अचेतन पदार्थों से ही भीख मांगता रहता है अर्थात् इन पदार्थों से सुख की आशा किए रहते हैं तो इसके लिए अन्य किसको दोष दिया जाय?
अपनी करनी व भरनी में परजीव की अतंत्रता―जो लोग किसी एक ईश्वर को जगत् का सुखदु:ख देने वाला मानते हैं वे भी इस समस्या पर जीव की करनी पर जोर देते हैं। जब यह समस्या सामने आती है कि ईश्वर तो दयालु है, उसकी दृष्टि में तो सब जीव एक समान होने चाहिएँ, सबको सुख दे, दु:ख किसी को न दे, तो उन्हें भी यह कहना पड़ता है कि ये जगत् के जीव जैसा पुण्य अथवा पाप कर्म करते हैं उसके ही अनुसार उन्हें सुखदु:ख आदि देते हैं। यद्यपि यह भी बात टिकने लायक नहीं है, क्योंकि ईश्वर दयालु है तो वह जीवों से पाप क्यों कराता है और पाप कराकर फिर उन्हें दुर्गति क्यों देता है, वह तो समर्थ है ना। यदि समर्थ नहीं है तो इसका अर्थ ही यह है कि ईश्वर भिन्न चीज है और ये जगत् के प्राणी भिन्न पदार्थ हैं, सभी पदार्थ अपने-अपने उपादान से अपने आपमें परिणत हुआ करते हैं। कोई किसी को सुख अथवा दु:ख का देने वाला नहीं है। यह जीव इस मोह की नींद के स्वप्न में कल्पनाएँ बनाबनाकर अपने आपको परेशान किए रहता है। किसी दूसरे पदार्थ में रंच भी सामर्थ्य नहीं है कि कोई परपदार्थ मुझे परेशान कर सके। सारी परेशानी में केवल इस खुद का ही अपराध है।
परमावश्यक आराधना का प्रमाद―हमारे ये सब पुराणपुरुष तीर्थंकर आदिक परमदेव और भी जो स्वयंबुद्ध होकर अर्थात् स्वयंज्ञानी बनकर,दूसरों से न सीखकर,अपने ज्ञान के विशिष्ट क्षयोपशम से स्वयं ही सब समस्यावों को यथार्थ जानकर परम आवश्यक कार्य को करके मुक्ति में पधारे हैं और जो ऐसे भी पुराण पुरुष हैं जिन्होंने दूसरों का उपदेश प्राप्त करके अपनी ज्ञानगरिमा द्वारा आत्मतत्त्व को पहिचाना वे भी इस निश्चय परम आवश्यक को करके निर्वाण पधारे हैं। यह परमात्मा सकल प्रत्यक्ष ज्ञान का धारी है अर्थात् प्रभु अपने ज्ञान से समस्त लोक के त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों को स्पष्ट जानता है, ऐसी प्रभुता उन्हें मिली है निश्चय परमावश्यक स्वरूप आत्मा की आराधना के प्रसाद से।
प्रभु की प्रभुता―भैया ! प्रभुता का जब वर्णन होता है तो सबके यह अभिलाषा जग जाती है कि प्रभुता हमें भी प्राप्त हो, ऐसे प्रभु का वैभव ही सर्वोत्कृष्ट वैभव है। जिसका ज्ञान समस्त पदार्थों को जानना है, जिनके ज्ञान में कोई भी पदार्थ बिना जाने हुए नहीं रह गया,जो है वह सबका सब ज्ञान है, और जब सबका सब ज्ञात है तो ऐसे ज्ञान में व्याकुलता नहीं हो सकती है। व्याकुलता होती है अज्ञान हालत में,जहाँ सब ज्ञान है वहाँ कुछ चाह ही नहीं हो सकती है। मालूम है कि ऐसा ही है, ऐसा ही होता है। यह होगा फिर चाह क्यों करेगा? इस प्रभु को यदि आगामी समस्त काल की बात आज भी ज्ञात है तो मानो वर्तमान में ही रक्खी हुई हों, इस तरह स्पष्ट प्रतिभास है फिर चाह कहाँ से हो? चाह उसकी होती है जो चीज ज्ञात न हो, प्राप्त न हो। जिसके ज्ञान में समस्त पदार्थ प्राप्त हैं उसकी चाह नहीं जग सकती है और इसी कारण प्रभु अनंत सुखसंपन्न है।
प्रभुताप्राप्ति के पुरुषार्थ की आदेयता―प्रभु की प्रभुता जानकर भाव तो होता है कि संसार में क्या रक्खा है? यहाँ विकट तो है जन्ममरण का क्लेश और साथ ही आज किसी से राग किया, कल किसी से राग किया, आज किसी से द्वेष किया, कल किसी से द्वेष किया, यों रागद्वेष के प्रवर्तन में यह आत्मा सुलझता रहता है।यहाँ आनंद नहीं है। प्रभु ही बनो, प्रभुता ही लावो, यह ही उत्कृष्ट कर्तव्य है। भाव तो होता है, मगर प्रभुता पाने के लिए क्या पुरुषार्थ करना होता है, इसको भी समझो और उस पुरुषार्थ को करो तो प्रभुता मिल सकेगी। प्रभुता पाने के लिए पुरुषार्थ है कैवल्य की दृष्टि। कैवल्य शब्द बना है केवल से। केवल मायने ओनली, सिर्फ वही का वही। दूसरा उससे कुछ संबंध न हो, ऐसा बनना इसही का नाम प्रभु होना।
कैवल्य में शक्तिवृंहण का स्वभाव―जो जितना केवल होता जायेगा उसमें उतनी शक्ति बढ़ती जायेगी। इन भौतिक पदार्थों में भी तो देखो। जब तक यह स्कंध है, अनंत परमाणुवों का मिलाजुला पिंड है तब तक उसमें शक्ति अधिक नहीं होती। जैसे ही वे स्कंध बिखरकर सूक्ष्म हो जायें तो उसमें शक्ति बढ़ जाती है और वही और बिखरकर आज के माने हुए वैज्ञानिकों के अनुसार अणु बन जाय तो उसमें और शक्ति प्रकट हो जाती है। आज का माना हुआ अणु वास्तव में अणु नहीं है, वह भी स्कंध है लेकिन इससे और छोटा कोई अविष्कार न हो जाय इसलिए उसे ही अणु कहते हैं। लेकिन सिद्धांत में बताया है कि उसका भी और सूक्ष्म हो जाय और बिखरबिखरकर इतना सूक्ष्म हो जाय कि जिसका कोई दूसरा भाग किया न जा सके, ऐसे अणु में इतनी सामर्थ्य है कि वह एक समय में 14 राजू तक गति कर सकता है। जैसे-जैसे ये भौतिक पदार्थ केवल होते जाते हैं इनमें भी शक्ति बढ़ जाती है। यह जीव द्रव्यकर्मों से घिरा है, रागद्वेष आदिक भावों से बँधा है,विकल्पकल्पनाजालों से घिरा हुआ है। इतना बोझ में है यह आत्मा,इस बोझ से दबकर यह इस संसार में रुलता फिर रहा है, भटक रहा है। यह जीव जब केवल बन जाय अर्थात् जो कुछ इसके साथ लदा पड़ा है वह दूर हो जाय, यह खाली केवल यही का यही रह जाय, इसी के मायने है प्रभु हो जाना। इस केवल होने में ही ऐसी प्रभुता पड़ी है कि वह समस्त लोकअलोक को जान जाए।
केवल के उपयोग में कैवल्य का प्रादुर्भाव―व्यक्तरूप में केवल बनाने के लिए पहिला कदम यह होना चाहिए कि मैं स्वरूप से ऐसा केवल हूँ,दूसरी चीजों में मिलजुलकर रहना मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो मेरे ही सत् में है,ऐसा पहिले के केवल का प्रत्यय होना चाहिए।मैं अकेला हूँ,केवल शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ,जिसे इस कैवल्य की श्रद्धा न होगी वह केवल के अनुरूप अपना उपयोग न बना सकेगा और न उसे कैवल्य की प्राप्ति होगी। अपने इस आत्मतत्त्व को केवल शुद्ध चैतन्यस्वरूपमात्र अनुभव करो। जो यह अनुभवदुरनुभव कलंक लगा हुआ है,उपयोग में निरंतर यह विश्वास बन रहा है कि मैं घरवाला हूँ,ऐसा लंबा चौड़ा हूँ,गोरा मोटा हूँ या अन्य जो जो भी अनात्मतत्त्वरूप श्रद्धा बन रही है, मैं नेता हूँ,त्यागी हूँ,साधु हूँ,मनुष्य हूँ,किसी भी प्रकार के अनात्मभावरूप अपने आपकी श्रद्धा हो रही है इसे छोड़ना होगा और अपने आपको केवल शुद्ध चिन्मात्र श्रद्धान में लेना होगा। जो पुरुष अपने को केवल शुद्ध चित्स्वरूप निरख रहा है उसमें यह प्रगति बनेगी कि वह शुद्धचैतन्यमात्र ही अपना ज्ञान रखेगा।
अवशवृत्ति का प्रसाद―मैं ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ,ऐसे अनुभवनरूप पुरूषार्थ को बनाए रहें,इस ही पुरूषार्थ का नाम है निश्चय परमआवश्यक कार्य। यह निश्चय परमआवश्यक ही सर्वोत्कृष्ट करने योग्य कार्य है, आवश्यक शब्द का अर्थ और न लेना किंतु अवश के द्वारा किया जाने वाला जो कार्य है उसको आवश्यक कहते हैं। अवश नाम है उसका जो किसी भी परपदार्थ के अधीन नहीं रहता है, केवल अपने शुद्ध आत्मतत्व को निरखकर प्रसन्न रहा करता है, स्वतंत्र है, ऐसे अवश अर्थात् ज्ञानी महापुरूष के द्वारा जो काम किया जाता है उसका नाम आवश्यक है। ये समस्त पुराणपुरूष इस निश्चय परमआवश्यक के प्रसाद से केवली हुए हैं, कैवल्य में ही आत्मा का चरम विकास है।
कर्ममलविध्वंस का कार्य―समस्त हमारे पुराणपुरुषों ने इस निज आत्मतत्त्व की आराधना से ही इन कर्मराक्षसों का समूह नष्ट किया और ये जिन हुए अर्थात् समस्त इंद्रियविषयों को,रागद्वेषों को मूल से नष्ट करने वाले हुए, यही शिव हुए, कल्याणमय हुए अर्थात् ऐश्वर्य से संपन्न हुए, ईश्वर हुए,जिसने अपने आपके चरम विकास की सृष्टि की, ब्रह्मा हुए। अब ये सदाकाल अपने इस शुद्ध आत्मा में ही रमण करने वाले बने, इनका ज्ञान समस्त लोकअलोक में एकदम फैल गया, विष्णु हो गए। इनका ज्ञान समस्त सत् पदार्थों को एक साथ स्पष्ट जानने वाला हुआ है सो बुद्ध हो गए, इन्होंने समस्त रागादिक भावों को हरा दिया है, नष्ट किया है, समस्त पापभाव इनके नष्ट हो चुके हैं सो ये हरि बने और शरीरादिक समस्त बाह्यमलों को दूर कर दिया है, केवल शुद्ध ज्ञानप्रकाश है यों हर हुए। इस प्रकार अनेक नामों से जिनकी आराधना की जा सकती है ऐसे शुद्ध उत्कृष्ट परमविकास को प्राप्त हुए हैं, ऐसे पुराणपुरुषों की जो पुरुष नि:स्पृह होकर अनन्यमन से केवल उनके गुणों की महिमा को जानकर उनके गुणानुराग से उनको नमन करते हैं वे समस्त पापों को ध्वस्त कर डालते हैं। हमारे पाप मोही पुरुषों की सेवा से न कटेंगे। पाप कटने का उपाय निर्मोह,ज्ञानी,विरक्त साधुसंतों की उपासना है और वीतराग सर्वज्ञदेव प्रभु के स्वरूप की उपासना है तथा परमार्थत: अंतस्तत्त्व की उपासना है।
परमगुरु की उपासना का प्रसाद―जो पुरुष इस परमपुरुषार्थ के प्रसाद से ऐसे उत्कृष्ट वीतराग हुए हैं उनके चरणों में सभी विवेकियों का समूह अपना सिर झुकाता है। हे कल्याणार्थी आत्मन् ! अब तू एक ही यह निर्णय कर ले, ये समस्त वैभव, ये कनककामिनी, ये परिजनमित्र समूह, इज्जत,प्रतिष्ठा ये सब भिन्न चीजें हैं। इनमें जरा भी फंसे तो फंसते चले जावोगे। उलझना तो सरल है, सुलझना कठिन है, ऐसे समस्त परपदार्थों के मोह को त्यागकर एक अद्वितीय,आत्मीय,स्वाधीन,सहज आनंद की प्राप्ति के लिए किसी परमगुरु की शरण में जा, उस सत्संग में रहकर अपने धर्म की दृष्टि बना, धर्म का आलंबन करके निज परमात्मतत्त्व में तू उपयोग बनाकर तृप्त रहा कर। यह परमात्मतत्त्व नित्य ज्ञानानंद से परिपूर्ण है,इसमें तू शीघ्र प्रवेश कर। अब किसी भी बाह्य पदार्थ में तू मत रह, उपयोग को उनमें मत बसा। केवल अपने इस शुद्ध चिदानंदस्वरूप परमात्मतत्त्व को ही परमपिता, परमशरण समझकर इनके ही आश्रय में रह। तेरे लिए केवल तू ही गुरु है। वस्तुत: तेरे लिए तू ही आलंबन है, तेरा सहाय मात्र तू ही है।
विशुद्ध ज्ञानाराधना के कर्तव्य का अनुरोध―हे हितार्थी ! एक शुद्ध ज्ञान को प्रकट कर। सबसे भिन्न ज्ञानानंदघन अपने आत्मतत्त्व को देख, वहाँ कोई भी क्लेश नहीं रहता है, क्लेश तो तब होता है जब हम अपने इस ज्ञानानंदघन स्वरूप से उठकर बाहर को मुड़कर देखते हैं। जहाँ बाहर में कुछ भी आकर्षण होता है, वहाँ ही इसे कष्ट हुआ करता है। तेरे में कष्ट के विनाश करने वाली प्रज्ञारूपी औषधि पड़ी हुई है, उस ज्ञानानुभूति को पाकर संसार के समस्त संकटों का विनाश कर लें, अपनी ऐसी दृष्टि बनायें कि मेरे करने योग्य काम तो वास्तव में आत्महित का ही है। इस बाहरी समागमों में मेरा कुछ हित नहीं है, ऐसी दृष्टि बनाकर धर्मपालन में ही अपने उपयोग को लगाओ। इस प्रकार यह निश्चय परमआवश्यक अधिकार में इस ग्रंथ में दसवां भाग समाप्त हुआ।
।।नियमसार प्रवचन दसवां भाग समाप्त।।