वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 80
From जैनकोष
णाहं रोगो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण हि कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।।80।।
दोषों का प्रतिक्रमण- मैं राग नहीं हूं, द्वेष नहीं हूं, मोह नहीं हूं और रागद्वेष मोह का कारण भी मैं नहीं हूं, उनका कर्ता भी नहीं हूं, कराने वाला भी नहीं हूं और उनको करते हुए जो कोई भी हों उनका अनुमोदक भी नहीं हूं। परमार्थ प्रतिक्रमण का उपासक अपने सहज परमार्थस्वरूप को निरख रहा है जिस स्वरूप के निरखने से परमार्थप्रतिक्रमण हो ही जाता है। जो विभाव लग चुका था, जो द्वेष किया गया था उस द्वेष का प्रतिक्रमण किया जा रहा है याने उस द्वेष को दूर किया जा रहा है।
प्रतिक्रमण के संबंध में एक जिज्ञासा- भला बतलावो तो सही कि ये रागादिक दोष जिस क्षण में लगे थे वे तो स्वत: ही उस क्षण में लगकर फिर नहीं रहे, फिर दूसरे रागद्वेष आये। रागद्वेषादिक पर्यायें अपने समय में होकर अगले समय में विलीन हो जाते हैं और अगले समय में दूसरे रागद्वेष पर्याय हो जाते हैं। एक विविक्षित रागपर्याय चिरकाल तक नहीं रहता। वह परिणमन है, अपने समय में हुआ बाद में नहीं रहा। अब उसका प्रतिक्रमण क्या करना, जो है ही नहीं, अब उसे दूर क्या करना रहा? और जब हो गया तब हो चुका, अब उसे दूर क्या करना? फिर प्रतिक्रमण कैसा?
उक्त जिज्ञासा का समाधान- प्रतिक्रमण पूर्वकृत दोष का यों है कि जो दोष लग चुका है उस दोष के प्रति यदि यह परिज्ञान न बने कि मैं तो दोषरहित शुद्ध ज्ञायकस्वरूप हूं तो जो दोष लगा था वह तो उस समय लगा ही था, किंतु अब परमार्थस्वरूप के परिज्ञान के अभाव में उसके संस्कार रहने के कारण उस ही तरह दोष निरंतर लगते चले जायेंगे। इसलिए आवश्यक है कि जो दोष पूर्वकाल में लगा था उस दोष का प्रतिक्रमण किया जाय। वास्तविक बात तो यों है। अब निमित्तनैमित्तिक योग पूर्वक औपचारिक कहने का जो प्रयोजन हैं, जिस लिए प्रतिक्रमण किया जा रहा है वह भी देखो। जो दोष पूर्वकाल में लगा था उस ही काल में उस दोष लगने के ही समय में कर्मबंध हो गया, और वे वद्धकर्म सत्त्व में पड़े हुए हैं जिनका विपाक उदयावलि में मानों वर्तमानकाल में आ रहा है। अब उस लगे हुए दोष का प्रतिक्रमण करने से ऐसी पद्धति बनती है कि उस काल बांधे हुए कर्म का उदय फल न हो, उदयक्षण से पहिले ही संक्रांत हो जाय, उस ही क्षण जो अनुभाग में निर्णीत हो गया था वे सब प्रतिक्रांत हो जाते हैं, लगे हुए दोष अब इस योग में निष्फल हो जाते हैं।
प्रतिक्रमण के संबंध में परमपुरूषार्थ- प्रतिक्रमण के संबंध में पुरूषार्थरूप बात यह है कि सर्व पर और परभावों से भिन्न चैतन्यस्वरूप मात्र निज को निरखना इस ही में हो जाता है प्रतिक्रमण। इस पुरूषार्थ से ही प्रतिक्रमण नहीं हो जाता है, किंतु यथाख्यात और आलोचना भी परमार्थ से हो जाती है। वर्तमान में यह ज्ञानी समस्त रागद्वेषादिक विभावों से भिन्न ज्ञानस्वरूप अपने को तक रहा है। तो आलोचना तो स्पष्ट हो गयी परमार्थ पद्धति में और इस पुरूषार्थ के कारण पहिले बँधे हुए कर्म भी निष्फल हो गए। कैसे निष्फल हो गए कि पहिले बँधे हुए कर्मों के उदय का समय तो वर्तमान में है ना और वर्तमान में ही सर्वदोषों से भिन्न शुद्धज्ञानस्वरूप का अनुभवन कर रहे हैं, प्रतीति में ले रहे हैं तो इस काल पूर्वबद्धकर्म का उदय भी निष्फल हो रहा है। प्रतिक्रमण उसे कहते हैं कि पूर्वकृत दोषों को दूर कर देना, पूर्वकृत दोषों के कारण जो कर्मबंध हुआ उसका उदय इस वर्तमान भेदभावना के कारण निष्फल हो रहा है, तो यह प्रतिक्रमण ही तो हुआ। और इस ही पुरूषार्थ के कारण भविष्यकाल में भी तो फर्क पड़ जायेगा तो प्रत्याख्यान भी हो गया। यों दोषों से रहित केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र अपने आपको निरखने से परमार्थप्रतिक्रमण हो जाता है।
आत्मा के ज्ञान दर्शनगुण के परिणमन में औपचारिक विकार- यह परमार्थ प्रतिक्रमण का उपासक अपने आपमें चिंतन कर रहा है- मैं न राग हूं, न द्वेष हूं, न मोह ही हूं। रागद्वेष मोह क्या है? इनके दो हिस्से कर लो रागद्वेष। ये एक विभाग हुए और मोह यह एक विभाग हुआ। रागद्वेष तो हैं चारित्रगुण के विकार और मोह है श्रद्धा गुण का विकार। आत्मा में अनंतगुण हैं जिनमें चर्चायोग्य, प्रयोजनयोग्य कुछ गुणों के नाम ले लो। दर्शन, ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र, आनंद इनके अतिरिक्त क्रियावतीशक्ति, योगशक्ति इत्यादि अनंतगुण हैं, पर इस प्रकरण में इन पांचों को ले लीजिए। इनमें जो दर्शनगुण है और ज्ञानगुण है उसका कोई परिणमन संसर्ग से विकृत कहा जाता है। इसके स्वरूप में विकार नहीं है, जैसे ज्ञान का परिणमन जानना है, हम कैसे ही उल्टे चल रहे हों, खोटी दृष्टि से, खोटे आशय से जान रहे हों, बड़े विकल्प मच रहे हों उस काल में भी ज्ञान का जितना काम है वह तो साफ स्वच्छ है। जितनी उल्झनें लगी हैं उनमें ज्ञान का हाथ नहीं है, किंतु रागद्वेष मोह इन सब गंदगियों का वहां नाच है। ज्ञान के स्वरूप में विकार अंकित नहीं है। जो प्रतिभास मात्र की बात है वह तो ज्ञान का काम है और जो आकर्षण लगा है, विकल्प हो रहे हैं, इच्छा बढ़ रही है ये सब ज्ञान के काम नहीं है, ये सब रागद्वेष की बातें हैं। फिर संसर्गकृत अथवा परिस्थितिवश साधनकृत दर्शन और ज्ञान के भेद किए भी गये हैं। दर्शन चार हैं और ज्ञानमार्गणा 8 हैं। ज्ञान की चर्चा यहां विस्तृत नहीं करनी है।
आनंद गुण के परिणमन- एक गुण है आनंदगुण। आत्मा में आनंद नाम की शक्ति है, जहां तीन परिणमन होते हैं- सुख दु:ख और आनंद। जहां इंद्रियों को सुहावना लगे, इस प्रकार का जो आनंदशक्ति का विकार है उसे सुख कहते हैं और जो इंद्रियों को बुरा लगे ऐसा जो आनंदशक्ति का विकार है उसे दु:ख कहते हैं तथा सुख दु:ख विकार से रहित शुद्ध आह्लादस्वरूप अनाकुलतारूप जो आनंदशक्ति का स्वाभाविक परिणमन है उसको आनंद परिणमन कहते हैं। इसकी भी चर्चा इस गाथा में नहीं की जा रही है।
सम्यक्त्व गुण और सम्यक्त्व परिणमन- अब उन पांचों गुणों में से दो गुण शेष रहे श्रद्धा और चारित्र। संसर्गकृत समझो, अपेक्षाकृत समझो अथवा साधनकृत समझो, श्रद्धा गुण की मार्गणा 6 बतायी गयी हैं जिसे सम्यक्त्व मार्गणा कहते हैं। प्राचीन प्रणाली में इस गुण का नाम सम्यक्त्वगुण कहा है। इस सम्यक्त्वगुण के कई परिणमन हैं जिनमें एक सम्यक्त्व परिणमन भी है, मिथ्यात्व भी है, मिश्र भी है। तो जैसे आनंद शक्ति का भी नाम आनंद है और उस शक्ति का जो शुद्ध परिणमन है उसका भी नाम आनंद है, इसी तरह जिस श्रद्धा गुण को हम कह रहे हैं उस गुण का भी सम्यक्त्व नाम है और उस सम्यक्त्व गुण का जो स्वाभाविक परिणमन है उसका भी सम्यक्त्व नाम है। सम्यक्त्व मार्गणा के 6 भेद होते हैं- औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, मिथ्यात्व, सासादन भाव और मिश्रभाव। श्रद्धागुण के विकास में विश्वास प्रतीति श्रद्धान् अथवा आशय का विपरीत सही बनना यह कार्य हुआ करता है।
मोहपरिणमन का अंतस्तत्त्व में अभाव- जहां इस श्रद्धा गुण का बिल्कुल विपरीत परिणमन है, आशय विपरीत हो गया है उसे कहते हैं मोह। लोग सीधे कह देते हैं कि तुमने अपने लड़के से बड़ा मोह किया केवल इस बात को देखकर कि बहुत खिलाता है, उसे गोद में लिए रहता है, पर जिसको देखकर लोग मोह कह देते हैं वह तो राग है। उस राग की ओर भीतर जो यह आशय पड़ा हुआ है कि यह मेरा पुत्र है, इससे ही मुझे सुख मिलता है, मिलेगा, ऐसे विपरीत आशय का नाम मोह है। इस मोह के फलित परिणाम में लोक में मोह शब्द कहने की रूढ़ि है। मोह कहते हैं विपरीत आशय को। जिन पदार्थों का समागम हुआ है वे सब भिन्न हैं, मेरे लिए असार हैं। उनसे मुझमें कुछ आता जाता नहीं। मेरे लिए वे कुछ भी शरण नहीं हैं। इसके प्रति जो विपरीत आशय बनता है कि यह ही मेरा सब कुछ है, इससे ही मेरा जीवन है, इस ही मिथ्या आशय का नाम मोह है। यह मोह आत्मा में नहीं होता। मैं तो वह हूं जो अपने स्वरूप सत्त्व के कारण अपने आप अपने में नित्य प्रकाशमान् रहता हूं, अंत:प्रकाशमान् रहता हूं। यह मोह मिथ्यात्व नामक प्रकृति के उदय से होता है। इसलिए औदयिक भाव है, नैमित्तिकभाव है। मैं किसी पर का सहारा लेकर सत्त्व रखता होऊँ, ऐसा तो नहीं होता। यह मिथ्यात्वभाव तो पर के उदय का निमित्त पाकर होता है। मैं मोह नहीं हूं।
चारित्रगुण के विकार- दूसरा विभाग है रागद्वेष। ये चारित्रमोह के उदय से होते हैं। मिथ्यात्व दर्शनमोह के उदय से हुआ था जिसने दृष्टि को ही मोहित कर दिया था, बेहोश कर दिया था, विपरीत आशय वहां बन गया था, किंतु चारित्रमोह के उदय में यहां चारित्र मोहित हो रहा है, दूषित हो रहा है, यह आत्मा अपने आपके यथार्थस्वरूप में ही रमता हैं, यह था इसका चारित्र; यह थी इसकी कला और करतूत। पर हो क्या रहा है? इसने अपने आपके घर से हटकर बाहर में दृष्टि लगायी है और यह उनको सुहावना और असुहावना मान रहा है, ये हैं चारित्र शक्ति के विकार।
चारित्रगुण के विकारों में राग और द्वेष का विभाग- चारित्रमोह के 21 प्रकार हैं। उनमें से अनंतानुबंधी कषाय तो सम्यक्त्व गुण का भी घात करने में निमित्त है, इसलिए उसमें सम्यक्त्वघात की निमित्तता मुख्य समझ लीजिए। क्योंकि जो सम्यक्त्व का घात करता है वह चारित्र का घातक तो है ही, पर जो चारित्र का घात करता है वह सम्यक्त्व का घात कर सके या न कर सके, उसमें ऐसा भाज्यपन है। इन 21 कषायों में से उनको संक्षिप्त कर लीजिए तो वे सब क्रोध, मान, माया, लोभ- इन चार में गर्भित हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों में से क्रोध और मान तो कहलाता है द्वेष माया और लोभ ये कहलाते हैं राग। इस प्रकार नौ कषायों में हास्य, रति, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद ये तो कहलाते हैं राग और अरतिशोक ये कहलाते हैं द्वेष। भय और जुगुप्सा इनमें मुख्यता तो द्वेष की है, पर यह राग का भी संबंध रखता है। यों ये समस्त चारित्र के विकार दो भागों में बँट गए-राग और द्वेष।
आत्मस्वरूप में राग द्वेष मोह तीनों का अभाव- जहां इंद्रियों को सुहावनापन लग जाय वह तो है राग और जहां असुहावनापन लग जाये उसे कहते हैं द्वेष। ये रागद्वेष मेरे स्वरूप नहीं हैं। मेरा स्वरूप तो अनादि अनंत अहेतुक नित्य अंत:प्रकाशमान् ज्ञायकस्वरूप है। इन तीनों में से किसी भी रूप मैं नहीं हूं। यहां पर्याय को दृष्टि में लेकर नहीं कह रहे हैं किंतु स्वभाव, स्वरूप, सहज सत्त्व को दृष्टि में लेकर कहा जा रहा है, क्योंकि परमार्थप्रतिक्रमण परमार्थस्वरूप का आलंबन करने से ही हुआ करता है। मैं इन तीनों रूप नहीं हूं।
अंतस्तत्त्व में रागद्वेष मोह की कारणता का भी अभाव- मैं इन तीनों रूप नहीं हूं यह तो है ही, साथ ही यह भी स्पष्ट है कि मैं इन तीनों का कारण भी नहीं हूं। यद्यपि इन विकारभावों का आधार मैं हूं। ये विकार कहीं अचेतन पदार्थ में नहीं हो रहे हैं। जो चेतन हैं वहां ही रागद्वेषादि की तरंगे उठा करती हैं, किंतु यह मैं ज्ञायकस्वरूप भगवान् आत्मा उन विकारों का कारण हो जाऊँ तो फिर ये सदा रहने चाहियें। अंतरंगस्वभाव की दृष्टि से भी यह मैं चित्स्वरूप रागादिक विकारों का कारण नहीं हूं, किंतु रागविकाररूप भाव ही अथवा यों समझ लीजिए कि योग और उपयोग अथवा अभेदभाव से यों भी कह लीजिए कि वर्तमान विभावपर्याय परिणत यह जीव सो उपादान कारण है किंतु परमार्थस्वरूप की दृष्टि में निरखा गया यह शक्तिमात्र मैं कारणकार्य के भेद से भी रहित हूं। न मुझे कारण कहा जा सकता है और न मुझे कार्य कहा जा सकता है। यों मैं अंतस्तत्त्व, चित्स्वभाव उन रागादि विकारों का कारण भी नहीं हूं।
सच्चिदानंदानुभवी का चिंतन- शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से अपने आपको सच्चिदानंदस्वरूप अनुभव की स्थिति में इसने जो अनुभव प्राप्त किया था, उस आधार पर यह ज्ञानी चिंतन कर रहा है कि मेरे सर्वप्रकार के मोह, राग और द्वेष नहीं है और न मैं इन राग, द्वेष मोह का कारण हूं। इसका निमित्तकारण तो कर्मों का उदय है और उपादानकारण उस योग्यता से, विशिष्ट संस्कार से संपन्न यह जीवभाव है। यह मैं आत्मतत्त्व चित्स्वभाव परमब्रह्म हूं, इन दोषों का कारण नहीं हूं।
राग द्वेष मोह के कर्तृत्त्व का अभाव- अब यह बतला रहे हैं कि मैं इन दोषों का कर्ता भी नहीं हूं। ये राग, द्वेष, मोह योग्य उपादान और योग्य निमित्त का सन्निधान पाकर हो जाते हैं। यह मोही जीव, रागीद्वेषी जीव तत्संबंधी विकल्प करता हुआ भी और परपदार्थों के संबंध में यह मैं कर रहा हूं- ऐसा विकल्प करता हुआ भी इन विभावों को नहीं कर रहा है, किंतु ये विभाव योग्य परिस्थिति में होते चले आ रहे हैं, मैं इनका कर्ता नहीं हूं।
परमार्थत: कर्तृत्व का अनवकाश- जैसे रोना और हँसना इनको कोई कर नहीं सकता, किंतु परिस्थिति में हो जाते हैं, किसी का प्रोग्राम बनाया जाय कि अब यह इतने बजकर इतने मिनट पर अपने रोने का प्रोग्राम करे तो यह नहीं हो सकता है, जिसे वास्तव में रोना कहते हैं। यों तो कोई अपनी कला से ऐसा रोना दिखा सकता है कि जिसे देखकर लोग रो उठें, पर वास्तविक रोना जो चीज है वह परिस्थितिवश अपने आप हो जाता है। हँसना भी जो वास्तविक हँसना है वह परिस्थितिवश हो जाता है। किसी का प्रोग्राम रख दें कि यह 8 बजकर 10 मिनट पर हँसे, ऐसा हँसने का प्रोग्राम करे कोई तो हँसी न आयेगी। भले ही कोई झूठा हँसे और बाद में उस हसँने को देखकर लोग हँसे और उससे वास्तव में हँसी आ जाय तो वह परिस्थितिवश हँसी आ गयी, किंतु जब यह करने का भाव रख रहा था तब हँसी न आयी थी। यह एक मोटी बात कही जा रही है। ऐसे ही जानो कि राग द्वेष, मोह ये सब विभाव परिस्थितिवश जीव में होते हैं, इनका करने वाला जीव नहीं है। हां, इस दृष्टि से करने वाला कह लो कि जो परिणमता है वह तो कर्ता कहलाता है और जो परिणमन है वह कर्म कहलाता है और जो परिणति क्रिया है वह क्रिया कहलाती है। यों भेद डालने पर करना कहलाया जाता है, परंतु अंतर में तो देखो करना होता क्या है? योग्य उपादान और योग्य निमित्त के सन्निधान में उपादान में विभावरूप परिणमन बन जाया करता है। मैं इन रागादिक भावों का करने वाला भी नहीं हूं।
वियोगबुद्धि के कारण कर्तृत्व का अभाव- अब कुछ और अंतर में चलो तो अंतरात्मज्ञानी पुरुष की बात निहारो। यह सम्यग्दृष्टि ज्ञानीपुरुष रागादिक विभावों से निवृत्त करता हुआ अपना उपयोग रखता है अर्थात् विकाररहित बुद्धि बनाये रहता है। ज्ञानी जीव को किसी भी समय ज्ञान अवस्था में विभावों में संयोगबुद्धि नहीं जगती है। संयोग बुद्धि का अर्थ यह है कि यह विभाव मैं हूं, इस प्रकार की प्रतीति रखना। सो यह ज्ञानी विकारभावों को अर्थात् रागादिक भावों को नहीं प्राप्त हो रहा है। जब विकार में वियोग बुद्धि करता हुआ किसी हद तक स्वरूपाचरण में है तो उसे करने वाला कैसे कहा जाय? जैसे कोई पुरुष काम न करता हो किंतु परिस्थितिवश करना पड़ता हो तो करता हुआ भी उसे न करने वाला कहेंगे। क्योंकि अंतर से इच्छा, अभिलाषा, प्रतीति उसकी इस ओर नहीं लग रही है। तब यह ज्ञानीपुरुष जिसके कि पूर्वकृत कर्मोदय का निमित्त कर ये रागादिक विकार होते हैं उनमें संसर्ग नहीं करता है, फिर इसे रागादिक का कर्ता कैसे कहा जाय? यह इन विकारों का कर्ता नहीं है।
स्वभाव की अपरिवर्तनीयता के कारण कर्तृत्व का अभाव- अब इससे और अंतर में चलो, मैं यह आत्मा स्वत: अपने स्वरूप सत्त्व के कारण सहजचित्स्वभावमात्र हूं- यह स्वभाव, यह मेरा स्वरूप अनादि अनंत नित्यप्रकाशमान् है, इस स्वभाव को इस स्वभावदृष्टि में अपरिणामी निर्णीत किया गया है। यह मैं स्वभावमात्र अंतस्तत्त्व फिर करने वाला ही क्या रहा? यों मैं रागद्वेषमोहभावों का कर्ता भी नहीं हूं।
आत्मस्वरूप में रागादिक के कारयितृत्व का अभाव- इसी प्रकार मैं तो रागादिक भावों का कराने वाला भी नहीं हूं। कराने वाला उसे कहते हैं, जो करने वाले को प्रेरणा दे तथा जिसे कार्य का फल मिले, उसे कराने वाला कहते हैं। ये रागादिक भाव होते हैं, इनका करने वाला जो है, वही स्वयं प्रेरणा भी करने वाला हुआ। करने वाला और प्रेरणा देने वाला यह कोई भिन्न-भिन्न नहीं है। रागादिक का करने वाला रागादिक योग्य विकारभाव ही है और वह ही अपने आपकी कृत्ति में प्रेरणा बनाए रहता है। वैसे प्रेरणा और कर्तृत्व– ये खुद जुदी चीजें नहीं हैं। जब कर्तृत्व ही नहीं है, केवल होना मात्र है, परिस्थितिवश विकार का भवनमात्र है तो फिर किसी प्रेरणा की बात क्या कही जाए? दूसरी बात इसके करने वाले जो विभाव हैं, वे परिणमते रहते हैं।
अतीतकल्प अंतस्तत्त्व में कर्तृत्व भोक्तृत्व का भी अभाव- अब यहां यह निरखिए कि उन परिणमने वालों का प्रयोजन किसे मिलता है? इन रागादिक भावों के परिणमन का प्रयोजन इस अशुद्ध अवस्था को ही मिलता है। स्वभाव तो बंधमोक्ष की कल्पना से भी रहित निजस्वरूपास्तित्त्वमात्र है। वह कर्तृत्व और भोक्तृत्व से रहित है। इस आत्मा का न कर्तृत्व स्वभाव है, न भोक्तृत्व स्वभाव है, फिर यह कराने वाला ही क्या? कराने वाले में भोक्तृत्व की प्रधानता होती है, करने वाले में कर्तृत्व की प्रधानता होती है, पर यह अंतस्तत्त्व, यह परमपारिणामिक भाव शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से देखा गया कि यह चित्स्वभाव, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, बंधमोक्ष आदि सर्वप्रकार की विकल्पनावों से विविक्त है- ऐसा यह मैं अंतस्तत्त्व कराने वाला भी कैसे हो सकता हूं?
रागादिक के कर्तावों के अनुमोदकत्व का भी अंतस्तत्त्व में अभाव- इस ही प्रकार रागादिक भावों का अथवा रागादिक भावों के करने वाले का यह मैं अंतस्तत्त्व अनुमोदक भी नहीं हूं। इस प्रकार में ‘मैं’ का भली प्रकार निर्णय कर लो कि किस ‘मैं’ की बात कही जा रही है? जिस ‘मैं’ को बताया जा रहा है, उस ‘मैं’ का स्वरूप समझ में न आएगा तो यह सब वर्णन विरूद्ध जंचेगा और बेकार सा मालूम होगा, किंतु इस ‘मैं’ का जो सहजस्वरूप है, उस सहजस्वरूप में ‘मैं’ की निरख होने पर यह सब वर्णन सारभूत विदित होगा। अहो ! यह अंतस्तत्त्व सकल परभाव से विविक्त है। मैं इस स्वरूप को जाने बिना संसार में रूलता चला आया हूं। मैं ज्ञानानंदस्वरूप स्वभावत: कृतक्रत्य हूं, अपने अगुरूलघुत्व गुण के कारण शुद्ध अर्थपर्याय से परिणमन का वर्तन करने वाला यह मैं आत्मतत्त्व बाह्यदृष्टि के अपराध के होने पर भी मध्य में बना हुआ साथ चलता जा रहा हूं। यह ‘मैं’ आत्मा इन रागादिक के कर्तावों का अनुमोदक भी नहीं हूं।
व्यामोही जीव का संसारपरिभ्रमण- इस जीवलोक ने मोहवश इस लोक में अनंत परिवर्तन कर परिभ्रमण किया है और इन बाह्य और अंतरपरिभ्रमण में इसने यह चाह की कि सारे जगत् पर एकछत्र साम्राज्य बनाऊं। कितनी मूढ़ता की बात है? कहां तो यह जीव समस्त पर और परभावों से विविक्त निर्मल विशुद्ध सच्चिदानंद स्वरूप है और कहां असार भिन्न इन समस्त परपदार्थों की आशा बुद्धि दृष्टि लगाए हुए रह रहा है। इसने चाहा कि मैं सारे विश्व पर एकछत्र साम्राज्य करूं। ऐसा मोहरूपी पिशाच इसके पीछे लग बैठा कि अब यह अपनी अभिलाषा की पूर्ति के लिए कोल्हू के बैल की तरह ज्ञाननेत्र पर मोह की पट्टी बांधकर इन्हीं पंचेंद्रिय के विषयों में गोलमोल, बारबार भ्रमण कर रहा है, चक्कर काट रहा है। जो विषय कल भोगा था, वही आज भोग रहा है, लेकिन जान रहा है कि आज कुछ नवीन काम कर रहे हैं और नवीन-नवीन अनेक विषय भोग रहे हैं।
विषयजाल में फंसने का कारण- भैया ! यदि मोह की पट्टी न बंधी होती इसके ज्ञाननेत्र पर तो इन भोगों में आसक्ति ही नहीं हो सकती है। इन भोगों से अपना उपभोग अलग कर लेना। जैसे कोल्हू के बैल के नेत्र पर पट्टी बाँध देते हैं तेली लोग, जिससे कि उस बैल को पता न लगे कि मैं गोलगोल घूम रहा हूं, वह यही जानता रहे कि मैं सीधा चला जा रहा हूं। यदि उसके चित्त में यह आ जाय कि मैं गोलगोल घूम रहा हूं तो वह चक्कर खाकर गिर जाएगा, चल न सकेगा, इसलिए आंखों पर पट्टी बांध देते हैं। ऐसे ही इस जीवलोक के ज्ञाननेत्र पर मोह की पट्टी बंधी हुई है, क्योंकि यदि यह जान जाएगा कि मैं भव-भव के भोग छोड़ और ऐसे जूठे भोगों को भोग रहा हूं; जिनको भव-भव में भोगा और इस भव में भी बहुत काल तक भोगा तो ऐसे जूठे भोगों को भोग रहा हूं- ऐसा विदित हो जाएगा तो यह उनसे अलग ही हो जावेगा। इस प्रकार यह अज्ञान से तिरोहित होता हुआ इन विषयों को दौड़-दौड़कर, उचक-उचककर, अपने को बड़ा चतुर मानकर भोग रहा है।
विषयगर्त में गिरने की शिक्षा देने वाला कुशल प्रिंसिपल- भैया ! इतना ही नहीं कि यह विषयजाल में फंस ही रहा है, उन्हें भोग भी रहा है स्वयं और दूसरों को भोगने की कला बताकर यह प्रिंसिपल बन रहा है। सो इस प्रकार इस व्यामोही जीव ने अनंतबार इन भोगों को भोगा, अनुभव किया, परिचय किया, किंतु इन सब दोषों से विविक्त नित्य अंत:प्रकाशमान् इस चित्स्वरूप की याद भी नहीं की, क्योंकि कषायों के साथ निजबह्मस्वरूप को एकमेक कर डाला। जैसे हाथी के आगे हलुवा भी परोस दो और घास भी डाल दो तो उसको यह विवेक नहीं रहता कि मैं इस हलुवे को खाली चखकर तो देखूँ। वह तो घास और हलुवा दोनों को लपेटकर खा लेता है। यों ही यह अज्ञानी परमार्थत: भोग तो रहा है ज्ञान के परिणमन को, किंतु अज्ञानवश रागद्वेष विकारों को लपेटकर और इतना ही नहीं बल्कि कल्पना में रागद्वेष के आश्रयभूत इन बाह्यपदार्थों को लपेटकर अनुभवन करना चाहता है।
अंतस्तत्त्व के परिचय के अभाव में परमार्थप्रतिक्रमण का अभाव- यह अंतस्तत्त्व खुद ही खुद में प्रकाशमान् है, लेकिन इस मोहभाव के कारण तिरोहित है। सो अपने को इसने समझा ही नहीं कुछ कि मैं क्या हूं और इतना ही नहीं, जो इस ‘मैं’ के समझने वाले हैं- ऐसे संतपुरूषों की सेवा उपासना संगति भी नहीं की। इस कारण इस व्यामोही जीव ने न कभी निजपरमब्रह्म की बात सुनी, न कभी परिचय में लाया और न ही अनुभूत की। जब तक संपूर्ण दोषों से विविक्त विशुद्ध निजअंतस्तत्त्व का परिचय न होगा, तब तक दोष विकार निकल नहीं सकते। परमार्थत: इस अंतस्तत्त्व का निर्णय होने पर प्रतिक्रमण हो सकता है।
विविक्तता के दर्शन- परमार्थप्रतिक्रमण के उपासक इस ज्ञानी संत ने अपने आपको कितना विविक्त निरखा है- न मैं नारकादिक गतिरूप हूं, न मैं किसी मार्गणा गुणस्थान जीवस्थान आदिक रूप हूं, न मैं बालक, न मैं जवान, तरूण आदिक अवस्थावोंरूप हूं, न मैं रागद्वेष मोह विकाररूप हूं और इतना ही नहीं, बल्कि इन सबका मैं कर्ता भी नहीं हूं, कारयिता भी नहीं हूं और अनुमोदक भी नहीं हूं। ऐसे इन कल्पित समस्त कुटुंब परिवारों से, चेतन अचेतन परिकरों से उपेक्षित होकर इन देहबंधन, कर्मबंधन, भाव बंधन आदिक से रहित जिस सहज परमब्रह्मस्वरूप का भान रहता है, मैं तो वह हूं।
परमार्थप्रतिक्रमण का आधार निर्विकल्प स्वदर्शन- देखिये इस ‘मैं’ के बताने के प्रयोजन से ही अनेक ऋषि संतों ने यह बात प्रसिद्ध की है कि यह मैं आत्मा सर्वव्यापक एक हूं। एक आत्मा की ही झलक सब जीवों में पड़ी हुई है। इस संबंध में वास्तविकता क्या है? वस्तुत: निजप्रदेशमात्र, ज्ञान और आनंद का जितने में अनुभव हो सकता है, उतने विस्तार को लेकर ये समस्त आत्मा पृथक्-पृथक् अपने स्वरूप को रख रहे हैं, किंतु जब कोई आत्मा अपने इस व्यक्तित्व पर दृष्टि न करके अपने परिणमनों पर दृष्टि न करके केवल अपने सहजस्वरूप को निरख रहा है, तब अपने आपकी स्थिति इससे भी और विशाल होती है। यह अंतस्तत्त्व न व्यापक है, न अव्यापक है, यह अंतस्तत्त्व न एक है, न अनेक है। यह अंतस्तत्त्व मेरे ज्ञानप्रकाश में है, पर मेरी कल्पना में नहीं है। ऐसे परमविविक्त शुद्ध अंतस्तत्त्व की उपासना से तृप्त रहने वाला यह ज्ञानीसंत पूर्वकृत दोषों का प्रतिक्रमण स्वत: ही कर रहा है। मैं किसी भी दोषरूप नहीं हूं, किंतु शाश्वत् चैतन्यस्वरूपमात्र धर्मादिक द्रव्यों की तरह 6 साधारण गुणोंकर संपन्न चैतन्यतत्त्व हूं। इस प्रकार की दृढ़ भावना से यह ज्ञानीपुरुष परमार्थप्रतिक्रमण कर रहा है।
परमार्थप्रतिक्रमण में विभावविविक्तता का दर्शन- अब इस परमार्थप्रतिक्रमण के संबंध में जो आदि के पन्चरत्नोंस्वरूप गाथाएं चल रही थीं, उनमें से अब अंतिम गाथा में कषाय का प्रतिषेध करते हुए आचार्यदेव परमार्थप्रतिक्रमण की दिशा बता रहे हैं।