वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 81
From जैनकोष
णाहं कोहो माणो ण चेव माया ण होमि लोहोहं।
कत्ता ण हि कारयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।।81।।
ज्ञानी का केवलस्वरूप प्रतीति का पुरूषार्थ- परमार्थ सहज आत्मस्वरूप के अवलोकन के बल से परमार्थ प्रतिक्रमण को करता हुआ यह अंतस्तत्त्व का रूचिया ज्ञानी संत अपने आपके यथार्थस्वरूप की प्रतीति में चिंतन कर रहा है कि न मैं क्रोध हूं, न मान हूं, न माया हूं और न लोभ रूप हूं तथा मैं न इनका कर्ता हूं, न कराने वाला हूं और न इनका व इनके कर्तावों का अनुमोदन करने वाला ही मैं हूं।
ज्ञानी का केवलस्वरूपप्रतीति का पुरुषार्थ- इस अंतरात्मा ने निर्लेप निरपेक्ष स्वरूप सत्त्व के कारण स्वत: सिद्ध सनातन अंत:प्रकाशमात्र चैतन्यशक्ति का आलंबन लिया है और उस स्वभाव की ऐसी प्रतीति कर रहा है कि न मैं कषाय सहित हूं और न कषायरहित हूं। यहां तो यह बताया गया है कि मैं क्रोधादि कषायरूप नहीं हूं, किंतु साथ ही यह भी समझना कि मैं क्रोधादि कषायरहित भी नहीं हूं तब फिर तीसरी बात क्या है? न मैं कषायसहित हूं और न मैं कषायरहित हूं। तो तीसरी बात और क्या हो सकती है? तीसरी बात तो है ही? वह तीसरी बात नहीं है किंतु वह पहिले से भी पहिली है, वह है सहजचैतन्यस्वरूप। कषायसहित बोलने में तो विकार भाव का संसर्ग लगा है यह तो स्पष्ट विदित होता है पर कषायरहित बोलने में भी इसने इस अंतस्तत्त्व में पूर्वकाल में उनके संसर्ग लगा डाले हैं यह ध्वनित होता है। कषाय सहित होने के काल में भी यह जीव, यह अंतस्तत्त्व न कषाय सहित है और न कषायरहित है। ऐसे परम विविक्त अंतस्तत्त्व के संबंध में आज यहां यह कहा जा रहा है कि मैं, क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं हूं यह पूर्ण युक्तियुक्त है।
कषायों की चारित्र विकाररूपता- ये चारों कषायें आत्मा के चारित्र गुण के विकार हैं। चारित्रगुण का स्वाभाविक विकास आत्मरमण है। जैसा हमारा सहजस्वभाव है, उस स्वभाव में मग्न होना, उस स्वभावरूप निरंतर बर्तना- यह है चारित्र का शुद्ध विकास, किंतु जीव की स्वयं की अशुद्ध उपादान की योग्यता के कारण और बाह्य में क्रोधादिक प्रकृतियों के उदय अथवा उदीरणा का निमित्त पाकर यह जीव क्रोधादिक कषायोंरूप परिणत हो जाता है। क्रोधादिक कषायों से परिणत हो जाने पर वहां आत्मा में, सर्वांग सर्वप्रदेशों में क्रोधादिक होते हैं।
विकार में विकारी की विकारात्मकता- यहां ऐसा नहीं है के समुद्र में ऊपर से लगता है कि तरंग उठ रही है और समुद्र के बहुत भीतर चलकर विचलता का नाम भी नहीं है, वह ज्यों का त्यों शांत है- ऐसा इस आत्मा में नहीं है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक आत्मा तो एक द्रव्य है। एक-एक पूर्ण पदार्थ है और वह समुद्र, जितनी बूँदे हैं उन्हें कल्पना में लाइए, वहां अनगिनती बूँदे हैं, उन अनगिनती बूँदों का वह एक समूह है। जैसे 10-20 बालक एक के ऊपर एक लादकर यों खेल रहे हों तो चाहे ऊपर के बालक कुछ कर रहे हों और नीचे का बालक शांत पड़ा हो, क्योंकि भिन्न-भिन्न बालक हैं- ऐसे ही समुद्र में भी भिन्न-भिन्न बूँदे हैं। इस कारण वहां यह हो जाता है कि ऊपर तरंग है, भीतर जलकण बहुत सा निष्तरंग है, किंतु यहां आत्मपदार्थ में ऐसा नहीं है कि ऊपर से यह क्रोधादिक कषायोंरूप है और भीतर में यह शांत परिणम रहा है। क्रोधादिक की स्थिति में भी जो आत्मा को शांत निरावरण निर्दोष आदिक बताया जाता है, वह शक्ति अपेक्षा कही जाती है। स्वभाव मेरा ऐसा है कि स्वभावदृष्टि से क्रोध होता हुआ भी इस ज्ञान को क्रोध नहीं है- ऐसा नजर आ रहा है।
क्रोधकषाय की विभिन्नरूपता- क्रोधकषाय के अनुभागों की रेखा से उपमा दी गई है। क्रोधकषाय 4 प्रकार के होते हैं- अनंतानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, संज्वलन क्रोध। अनंतानुबंधी क्रोध पाषाणरेखा की तरह चिरकाल तक अपनी वासना बनाये रहता है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध खेत को जोतने से हलकृत जो गहरी रेखा होती है, उसकी तरह कुछ माह तक (6 माह तक) वासना रखता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध चक्रलीक की तरह कुछ दिनों तक (15 दिनों तक) वासना रखता है। संज्वलन क्रोध जलरेखा की तरह कुछ सेकिंडों तक ही (अंतर्मुहूर्त तक) वासना रख पाता है।
क्रोध की घातकरूपता व अनात्मरूपता- क्रोधभाव एक विकारभाव है। यह क्रोध आत्मा के समस्त गुणों को फूंक देता है। क्रोध को अग्नि की उपमा दी जाती है। कोई बड़ा परोपकारी और दयालु हो, दूसरों की मदद करता हो, किंतु एक क्रोध का स्वभाव बना हो तो उस क्रोधप्रकृति से वे सब उसके गुण तिरोहित हो जाते हैं। लोग उसका ऐहसान भी नहीं मान पाते हैं। क्रोध को चांडाल की उपमा दी गई है। साहित्य में क्रोध को चांडाल कहा गया है। क्रोधभाव क्रोधनामक कर्मप्रकृति के उदय अथवा उदीरणा से प्रकट होता है। क्षमागुण का घात करने वाला क्रोध है। यह शांति का साक्षात् घातक है। ऐसा विकारभाव क्या मैं हो सकता हूं? साधारण विवेकी भी यह नहीं मान सकता है कि मैं आत्मा क्रोधरूप हूं। मैं क्रोधरूप नहीं हूं।
आत्मा का वास्तविक बड़प्पन- मान घमंड को कहते हैं। जब इस जीव को अपने आनंदमय ज्ञानस्वरूप का परिचय नहीं होता है, तब अपना असली बड़प्पन इसकी अवलोकना में नहीं आता। सो भाई असार परतत्त्वों का लक्ष्य करके यहां नकली बड़प्पन मान्यता में रह जाता है। इसके ही मायने मानकषाय है। वास्तविक बड़प्पन ध्यान में आये तो मानकषाय रह नहीं सकता। मानकषाय की उल्टी चाल तो निरखिये। अपमान होना अच्छी बात है या बुरी बात है? अच्छी बात है। जीवस्थान चर्चा में आप पढ़ते हैं कि अपगतवेद होना अच्छी बात है या बुरी बात है? अच्छी बात है। अपगतवेद मायने वेद खत्म हो गये। ऐसे ही अपमान हो गया मायने मानकषाय खत्म हो गया, तो अपमान की अवस्था बहुत ऊँची अवस्था है। जहां मानकषाय अपगत हो गया- ऐसा ऊँचा ज्ञानीसंत ही अपमान की स्थिति का वास्तविक अधिकारी है।
अभिमानी का अभिमान ही वास्तविक अपमान- व्यामोही जीव ने जो अपना नकली बड़प्पन माना, वही मानकषाय है। एक अभिमानी पुरुष किसी अपने से गिरे पुरुष को तुच्छ निरखता है। जैसे पहाड़ पर चढ़ा हुआ व्यक्ति नीचे चलने वाले हजारों लोगों को कीड़े मकोड़ों की तरह निरखता है- ऐसे ही नीचे चलने वाले हजारों पुरुष पहाड़ पर चढ़े हुए व्यक्ति को कीड़े मकोड़ों की तरह दिखता है। अभिमान करने वाले को विवेकी लोग उल्लू बनाकर रखते हैं। वह जानता है कि यह लोग मेरा कुछ बड़प्पन बना रहे हैं, पर लौकिक पुरुष के द्वारा की गयी मजाक को भी वह मजाक नहीं समझ पाता है और अपना बड़प्पन महसूस करता है। यह है अभिमान की प्रकृति वाले पुरुष की आंतरिक कहानी।
मानकषाय की विभिन्नरूपता- मानकषाय से ह्रदय, उपयोग कठोर हो जाता है। इसी कारण मानकषाय की उपमा कठोर वस्तु से दी जाती है। मानकषाय संक्षिप्तरूप से चार भागों में विभक्त है- अनंतानुबंधीमान, अप्रत्याख्यानावरण मान, प्रत्याख्यानावरण मान, संज्वलन मान। अनंतानुबंधी मान वज्र की तरह या पाषाण की तरह कठोर होता है। अप्रत्याख्यानावरण मान हड्डी की तरह कठोर होता है, यह अनंतानुबंधी से कम कठोर है, प्रत्याख्यानावरण मान काठ की तरह कठोर बताया गया है। संज्वलन मान हरे पतले बांस की तरह याने बेंत की तरह कठोर याने जल्द नम्र होने वाला बताया गया है। यह सब मानकषाय विकारभाव है, विरूद्धभाव है।
मानकषाय की अनात्मरूपता- यह मानकषाय मान नामक कर्मप्रकृतियों के उदय होने पर व उदीरणा होने पर प्रकट होता है। ये दोनों द्वेषरूप परिणाम हैं। क्रोध तो प्रकट द्वेषरूप है और मान भी इसलिए द्वेषरूप है कि अन्य जीवों को तुच्छ माने बिना मानकषाय का परिणाम नहीं बनता। मैं मानकषायरूप भी नहीं हूं।
विकार की दुष्प्रकृति व अनात्मरूपता- यह विकारभाव है, औपाधिक हैं, क्लेशकारी है। खुद की चीज खुद के विनाश के लिए नहीं हुआ करती है। जो खुद के मिटाने के लिए हो, समझो कि वह खुद की चीज नहीं है और साथ ही यह भी जानो कि पर की चीज भी अपना विनाश करने में समर्थ नहीं होती है। यह विकार एक ऐसा झमेला है कि जिसे न पर की चीज कह सकते है, न निज की चीज कह सकते हैं। तभी यह निर्णय होता है कि यह परपदार्थ का निमित्त पाकर होने वाला निज में एक विकार है। वह विकार किसकी आज्ञा में चले- उपादान की आज्ञा में चले या निमित्त की आज्ञा में? विकार बड़ा कृतघ्न है। यहां विकार को आश्रय, आधार, स्थान तो दिया है जीव ने, किंतु यह हुकुम मानता है निमित्त का। निमित्त का उदय होने पर यह प्रकट होता है। उसके निमित्त का अभाव होने पर यह रंज में घुल घुलकर अपनी जान खो देता है। ऐसा यह निमित्त के प्रति कृतज्ञ बन रहा है विकारभाव और जिसने अपना स्थान दिया है, महल दिया है रहने के लिए- ऐसे इस आत्मा का यह हुकुम नहीं मानता। यह कषायभाव विकारभाव है। इस रूप मैं कैसे हो सकता हूं?
माया की मलिनता- मायाकषाय छल कपट करने को कहते हैं। माया की गंदगी कहां तक बतायी जाय? माया से ग्रस्त ह्रदय में धर्म का रंच प्रवेश नहीं होता है। यों तो क्रोधग्रस्त, मानग्रस्त पुरूषों में भी धर्म का प्रवेश नहीं होता है, किंतु वहां इतना अवकाश तो है कि जब तक क्रोध की ज्वाला है तब तक धर्म की ओर दृष्टि नहीं होती है, पर वह ज्वाला शांत तो होगी। फिर बन जाय यह दूसरी बात है। ऐसी ही मान की बात है। मानकषाय आ गया कोई मौका पाकर, सभा में, पंचों में, किसी वातावरण में हो गया, पर उस ऐंठ को यह रात दिन जोते तो नहीं रहता, दूर हो जाता है व तब अवकाश मिलता है धर्मदृष्टि का, किंतु मायाचार के संस्कारी पुरुष में तो रात दिन मलिनता बनी रहती है। वहां धर्मदृष्टि के लिए अवकाश नहीं मिल पाता है। यही कारण है कि मायाकषाय को शल्य में गिनाया है। शल्य में तीन कषायें नहीं बतायी हैं। जैसे माला के दाने में टेढ़ा छेद हो तो वहां सूत प्रवेश नहीं कर सकता, यों ही माया से जिसका ह्रदय टेढ़ा हो गया है, उस ह्रदय में धर्म का सूत नहीं पिरोया जा सकता।
मायाचारों की अनात्मरूपता- मायाचार की डिग्रियों के उपदेश में टेढ़ी चीज का उदाहरण लिया गया है। अनंतानुबंधी माया बांस की जड़ की तरह है। जैसे बांस की जड़ बहुत टेढ़ी मेढ़ी होती है, इसी प्रकार अधिक टेढ़ा भाव होता है अनंतानुबंधी माया में। सो जैसे बैल चलता जाए और मूतता जाए तो उसके मूत्र की रेखा कितनी टेढ़ी रहती है, जमीन पर देखा होगा। ऐसा ही वक्र ह्रदय रहता है अप्रत्याख्यान माया में और जैसे मेढ़ा के सींग गऊमूत्र से कम टेढ़ी होती हैं- ऐसे ही प्रत्याख्यान माया कम टेढ़ी हुआ करती है। खेत जोतने वाला हल बहुत कम जगह टेढ़ा रहता है। कहीं थोड़ा कम टेढ़ा हो गया, फिर आगे बहुत दूर तक बिल्कुल सीधा जाता है। ऐसे ही कम टेढ़ी होती है संज्वलन माया। ऐसे वक्रभाव होना मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वरूप नहीं है। मैं मायारूप नहीं हूं।
लोभकषाय की अनात्मरूपता- लोभकषाय को रंग की उपमा दी गयी है। जो अधिक लोभी होता है उसको लोभ कहते हैं कि यहां और का रंग न जमेगा, यह पक्का रंग है, यह रंग भी अनेक प्रकार से दृढ़ और अदृढ़ रहा करता है। सबसे अधिक रंग चक्के के ऊँगम का बताया गया है। बैलगाड़ी में जो चक्का लगाते हैं, उसमें तैल डाला जाता है तो वह तैल उसमें घिसता रहता है। वहां उस घिसे हुए लोहे का रंग कपड़े पर लग जाए तो कपड़ा चाहे फट जाए, पर रंग नहीं छूटता। ऐसा ही रंग अनंतानुबंधी लोभ का है। भव-भव तक साथ जाता है। पहिले समय में महिलाएं धोतियां मजीठ के जिस रंग से रंगती थीं, वह रंग चक्रमल से कुछ कम गहरा होता है, फिर भी बहुत गहरा होता है, यों ही अप्रत्याख्यानावरण लोभ है। इससे और हल्का रंग मान लो हल्दी का रंग, यह बहुत थोड़े समय तक रहता है- ऐसे ही होता है प्रत्याख्यानावरण लोभ। जैसे टेसू के फूल का रंग होता है, होली के समय लोग एक दूसरे पर डालते है यह बहुत हल्का रंग है, जरासी धूप में उड़ जाता है- ऐसा ही लोभ होता है संज्वलन में। यह आत्मा समस्त परद्रव्यों से अत्यंत विविक्त है, स्वरूपास्तित्त्वमात्र है, किंतु इन परपदार्थों की ओर जो इसका उपयोग छुपा है, आकर्षण होता है, यह एक अनहोनी सी बात है। ऐसा विरूद्ध आचरण मेरा स्वरूप नहीं है। मैं लोभरहित हूं।
विभावविविक्त ज्ञानानंदस्वरूपमात्र की प्रतीति- इस प्रकार यह परमार्थप्रतिक्रमण का उपासक ज्ञानीसंत अपने को कषायरहित तक रहा है और कषायरहित तके, इतने तक ही उसकी अनुभूति नहीं चल रही है, किंतु कषायरहित भी मैं नहीं हूं। कषाय और अकषाय इन दोनों स्थितियों से विवक्त केवल शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं- ऐसी प्रतीति कर रहा है।
आत्मस्वरूप में कषायभावों का अभाव- यह मैं चित्स्वभावमात्र आत्मतत्त्व क्रोध, मान, माया, लोभ आदिक किसी भी कषायरूप नहीं हूं। यह तो आबालगोपाल में भी प्राय: प्रसिद्ध है, किंतु मैं इन विभावों का कर्ता भी नहीं हूं। ये क्रोधादिक विभाव योग्य निमित्तभूत द्रव्यकर्म के विपाक का सन्निधान पाकर योग्य योग उपयोग की परिस्थिति वाले इस उपादान में वे विभाव अविर्भूत होते हैं। मैं इनका कर्ता नहीं हूं। इसी प्रकार मैं इनका कराने वाला भी नहीं हूं और न इनके करते हुए तत्त्वों का अनुमोदक हूं। इस प्रकार मैं चित्स्वभाव उक्त सकल पद्धतियों में इन कषायविभावों से विविक्त हूं।
आत्मा की कृति के संबंध में विधि निषेध की संधि-यहां तक अपने अंतस्तत्त्व में विभावव्यन्जनपर्यायरूपता का अभाव, नाना स्थानों का अभाव, बाल्यादिक देहों की अवस्थावों का अभाव, रागादिक विकारों का अभाव और अबुद्धिगत भी समस्त विकारों का अभाव बताया गया है, साथ ही यह भी बताया गया है कि मैं इन परतत्त्वों का अथवा परभावों का कर्ता नहीं हूं, कारयिता नहीं हूं और इनके करने वालों का अनुमोदक भी नहीं हूं। इतना निर्णय कर चुकने के बाद अब इसके उपसंहाररूप में यह बता रहे हैं कि यदि मैं नाना विकल्पोंकरि भरे हुए नाना भेदों से भिन्न रूप हुए विभावपर्यायों का, कषायादिक समस्त परतत्त्वों परभावों का कर्ता नहीं हूं, कराने वाला नहीं हूं और उनके करने वाले अर्थात् उनके निमित्तभूत पुद्गलकर्मों का अथवा साक्षात् उपादानभूत पुद्गलस्कंधों का मैं अनुमोदक भी नहीं हूं तो फिर मैं क्या किया करता हूं।
नारकपर्याय का अकर्तृत्त्व व चित्तत्त्व का सन्चिंतन- ज्ञानी अंतरात्मा पुरुष आत्मतत्त्व के संबंध में चिंतन कर रहा हैं कि मैं नारकपर्याय को नहीं करता हूं, किंतु सहजचैतन्यविलासात्मक ज्ञानदर्शनादिक गुणों के स्वत: सिद्ध अगुरूलघुत्व गुण के कारण शुद्ध अर्थपर्यायभूत अपने आत्मा को ही सचेत रहा हूं अथवा सहजअनंतचतुष्टय के विलासरूप अंतस्तत्त्व को अनुभव करता हूं। करने का तो कहीं नाम भी नहीं है, करना शब्द तो एक व्यवहार और उपचार का प्रदर्शन करने के लिए है। प्रत्येक पदार्थ हैं और परिणमते हैं। जीव और पुद्गल निमित्त पाकर विभावरूप परिणमते है, अन्य पदार्थ सदा स्वभावरूप परिणमते हैं, निमित्त के अभाव में जीव और पुद्गल स्वभावरूप परिणमते है। कैसा भी कोई परिणमे, होने का तो काम है, पर करने का क्या काम है? इसी होने को व्यवहारभाषा में अथवा भेदबुद्धि में अपने आपका परिणमन करता है- यों कहा जाता है। मैं नारकादिक पर्यायों को नहीं करता हूं, किंतु सहजचैतन्यविलासात्मक अपने आत्मा को अनुभव रहा हूं।
तिर्यंचपर्याय का अकर्तृत्त्व व चित्तत्त्व का सन्चिंतनन- मैं तिर्यंचपर्याय को भी नहीं करता हूं। पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े, वृक्ष आदिक तिर्यंचगति के जीवों के देह- ये तिर्यंचपर्याय कहलाते हैं। मैं इनका भी करने वाला नहीं हूं। ये असमानजातीय द्रव्यपर्यायें हैं। जीव और कर्म तथा आहारवर्गणा के संयोग से प्रकट होने वाली मायामय अवस्था है। सभी गतियों की ऐसी ही मायामय अवस्था है। मैं तिर्यंचपर्याय को नहीं करता हूं, किंतु सहजचिद्विलासस्वरूप निजात्मा को चेत रहा हूं।
मनुष्यपर्याय का अकर्तृत्त्व का चित्तत्त्व का संचेतन- मैं इस मनुष्यपर्याय को भी नहीं करता हूं। यह जीव है और ऐसे मनुष्यपर्याय में यह पड़ा हुआ है। इसका निमित्त पाकर इस मनुष्यदेह में वृद्धि, हानि आदिक अवस्थाएँ होती है। होती है तो होती रहो, किंतु मैं केवल अपने परिणामों को ही करता हूं और इससे भी अंतर में प्रवेश करके निरखें तो यह मैं सहज चैतन्यविलासात्मक स्वतत्त्व को ही करता हूं। करता क्या हूं? अनुभवता हूं, चेत रहा हूं।
देवपर्याय का अकर्तृत्व व चित्तत्त्व का संचेतन- मैं देवपर्याय का कर्ता भी नहीं हूं। उत्कृष्ट वैक्रियकवर्गणावों का जो एक देहरूप में जमाव है जो कि आत्मा के सन्निधान का निमित्त पाकर हो रहा है, धातु उपधातु से रहित, मल-मूत्र-खून-हड्डीरहित, विशिष्ट प्रकार के वैक्रियकवर्गणावों के पिंडरूप और असमानजातीय द्रव्यपर्यायरूप इस देवपर्याय को भी मैं नहीं करता हूं, किंतु स्वत:सिद्ध सहज चैतन्यस्वभाव के निजतत्त्व को चेत रहा हूं।
मागणास्थानों का अकर्तृत्व व चित्तत्त्व का संचिंतन- इस संसारी जीव के प्रसंग में और संसार अवस्था मिटने के प्रकरण में ये मार्गणास्थान हुआ करते हैं। वे संसारी जनों के प्रसंग में ये नाना मार्गणास्थान हैं व मुक्त होने की स्थिति में प्रत्येक मार्गणा में एक-एक विशुद्ध स्थान है। ये होते हैं निमित्त के सद्भाव और अभाव में, किंतु यह मैं सनातन शाश्वत प्रकाशमान् चित्स्वभाव उन मार्गणास्थानों को नहीं करता हूं, किंतु स्वत:सिद्ध सहज चैतन्यविलासात्मक ज्ञायकस्वभाव को ही अनुभव रहा हूं।
अनुभूति की उपयोगानुसारिता- देखिये बंधन और व्यवहार में कैसी भी परिस्थिति हो (इस जीव की बात कह रहे है), किंतु उपयोग जिस तत्त्व को ग्रहण किए हुए हो उसही का यह स्वाद लिया करता है। जैसे कोई पुरुष बाहर से कितने ही आराम से हो, भोजन की सुविधा है, काम भी कुछ करना नहीं पड़ता है, आराम से भोजन मिलता है, सब तरह के आराम हों; किंतु उपयोग में कोई इष्टवियोग का क्लेश बसा हो या निदान का परिणाम सता रहे हो तो वह क्लेश का ही स्वाद लेगा, आराम का स्वाद न लेगा। यों ही कोई ज्ञानीसंत पुरुष बड़ी विपत्तियों में पड़ा हो, शत्रु सताते हों, क्रूर जानवर सिंहादि सता रहे हों, अपमान की बौछारें आ रही हों, कैसी भी भयंकर विपत्तियां हों, किंतु ज्ञानीसंत का उपयोग निजसहज चिदानंदस्वरूप निजतत्त्व के अवलोकन में है। तो वह ऐसी विपत्तियों की स्थिति में पड़ा हुआ भी अंतर में विशुद्ध आनंद का अनुभव कर रहा है। ऐसे ही यह ज्ञानीपुरुष इस मनुष्यपर्याय में रहते हुए भी इस पर्याय को दृष्टि से ओझल करके शुद्ध चैतन्यस्वरूपात्मक निजतत्त्व को चेत रहा है।
गुणस्थानों का अकर्तृत्व व चित्तत्त्व का संचिंतन- यह मैं मिथ्यादृष्टि आदि अयोगकेवलीपर्यंत 14 प्रकार के गुणस्थानों का भी कर्ता नहीं हूं। यह मैं अनादिअनंत स्वत:सिद्ध अहेतुकशाश्वत अंत:प्रकाशमान् चैतन्यमहाप्रभु हूं। ये विविधिताएं हैं किसकी? यह मैं तो सहज चैतन्यविलासात्मक निजअंतस्तत्त्व का ही अनुभव कर रहा हूं। श्रद्धा और चारित्रगुण के विकारों और अविकारों की अवस्था इस मुझ अंतस्तत्त्व में नहीं है। यह मैं शुद्ध विधिरूप हूं। मैं किसी भी गुणस्थान को नहीं करता हूं, किंतु एक ज्ञानस्वरूप को ही चेत रहा हूं।
जीवस्थानों का अकर्तृत्व व चित्तत्त्व का संचिंतन- बहुत स्पष्ट दिखने में आने वाले एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, पंचेंद्रिय पर्याप्त अपर्याप्त, ऐसे इन सब जीवस्थानों को भी मैं नहीं करता हूं। यह मैं तो एक चित्स्वभाव हूं, केवल सहज चैतन्यविलासात्मक निजतत्त्व को चेत रहा हूं- ऐसा चिंतन करता हुआ यह ज्ञानीपुरुष विशुद्ध अनाकुलता का अनुभव कर रहा है। जैसे मिश्री खाने वाला पुरुष जब-जब मिश्री का चिंतन करता है अथवा दूसरे के मुख से मिश्री की महिमा सुनता है तो उसे बिल्कुल फिट बैठ जाता है कि हां यह बात बिल्कुल ठीक है। इसी तरह इस ज्ञायकस्वरूप के संचेतन की बात इस ज्ञानी पुरुष के अंतर में बिल्कुल सही बैठती जाती है कि मैं किन्हीं भी परभावों को, परपर्यायों को नहीं करता हूं, किंतु सहज चैतन्यविलासात्मक निजअंतस्तत्त्व को चेत रहा हूं।
बाल्यादिक देहावस्थावों का अकर्तृत्व व चित्तत्त्व का संचेतन- इस शरीर में बालक, जवानी, बुढ़ापा आदिक अवस्थावों के अनेक भेद हैं। अनेक परिस्थितियोंरूप यह देह रहा करता है, इस देहस्थानरूप मैं नहीं हूं और न मैं इस देहस्थान का करने वाला हूं। यह मनुष्य क्या यह चाहता है कि मैं बूढ़ा बन जाऊँ, तो इस बुढ़ापे को क्या यह जीव करता है? जैसे यह बुढ़ापे को नहीं करता, इसी तरह यह जवानी व बचपन को भी नहीं करता है। ये असमानजातीय द्रव्यपर्यायरूप प्रकट शरीर इन अवस्थावों को धारण कर रहे हैं, मैं उन्हें भी नहीं करता हूं, मैं तो सहजचैतन्यविलासस्वरूप इस निज ज्ञाता को ही अनुभव कर रहा हूं।
रागादिक विकारों का अकर्तृत्व व चित्तत्त्व का संचेतन- आभ्यंतर में ये रागादिक विकार हो रहे हैं। क्या हो रहे हैं, कैसे हो रहे हैं? इन सब बातों का सिद्धांत सुदृढ़ है। ये होते हैं ये विकाररूप भाव हैं, उपाधि का सन्निधान पाकर होते हैं लेकिन ये तो इस स्वभाव दृष्टि में करने वाले मुझको यों नजर आ रहे हैं जैसे पानी के ऊपर तैल व्यापक है। पानी उस तैल से निर्लेप है, ऐसी ही शक्ति व्यक्ति का अंतर डालकर जहां भी मैं देख रहा हूं कि ये रागादिक विकार मेरे ऊपर तैर रहे हैं, किंतु ये स्वभावरूप नहीं बन सकते हैं। मैं चित्स्वभावमात्र हूं। मैं इन रागादिक विकारों को नहीं करता हूं, किंतु सहज चैतन्यविलासात्मक निज आत्मतत्त्व को अनुभव रहा हूं।
कषायभावों का अकर्तृत्व व अंतस्तत्त्व का संचेतन- इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभरूप से विभिन्न इन भावकर्मोंरूप विषयों को भी मैं नहीं करता हूं। ये हो जाते हैं। जैसे रसोई घर में रोटी बनती है तो रोटी बनाने वाली महिला का हाथ चल रहा है, आग भी धधक रही है, तवा भी गरम हो रहा है और रोटियां भी सिक कर परिपक्व बन रही हैं, ऐसी स्थिति में हम उसे रोटी का करने वाली कैसे कहें? यह भी एक पक्ष में निर्णय नहीं कर सकते हैं। उस महिला ने रोटी नहीं की क्योंकि उसका हाथ पृथक् है, रोटी पृथक् चीज है पृथक् वस्तु में पृथक् वस्तु की कोई करतूत नहीं चला सकती। यों ही आग अलग है, तवा अलग है रोटी अलग है, किसने परिपक्व किया? तो यह कहें कि इन सबका निमित्त पाकर रोटी ने रोटी को कर दिया। खुद ने खुद को कर दिया, इसका क्या अर्थ है? यहां तो सर्वत्र होना ही होना नजर आ रहा है, करना तो कुछ नजर आता ही नहीं है। किसी के सन्निधान में, निमित्त में, प्रसंग में जो जब होना है सो हो रहा है। मैं इस कषाय भाव को नहीं करता हूं, किंतु सहज चैतन्य विलासात्मक निज आत्मतत्त्व का संचेतन कर रहा हूं, आत्मा को चेत रहा हूं।
परमार्थप्रतिक्रमण का अंत:पुरूषार्थ- इस प्रकार परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार के प्रारंभ में कहे हुए पंचरत्नों स्वरूप कथन में इस आत्मतत्त्व को समस्त विभाव पर्यायों से विभिन्न देखा गया है और यह ज्ञानी पुरुष उन पर और परभावों से कैसे दूर हो जाय? इसका विधान बताया गया है। इस प्रकार इन सब पर और परभावों से हटकर निजअंतस्तत्त्व का जो आश्रय करता है वही पुरुष परमार्थ प्रतिक्रमण कर रहा है। इस ज्ञानीपुरुष ने समस्त विषयों के ग्रहण करने की चिंता त्याग दी है। यह किसी भी विषय को अब ग्रहण नहीं करना चाहता। इस ज्ञानी पुरुष ने निज द्रव्यगुण पर्याय के स्वरूप में अपना यथार्थ प्रकाश पाया है, ऐसा यह ज्ञानीसंत जो सकल परिणतियों से विविक्त शाश्वत अंत:प्रकाशमान् चित्स्वरूप का अवलोकन कर रहा है, उसका ही आश्रय और अवलंबन कर रहा है। वह परमार्थप्रतिक्रमण के बल से समस्त विकारों को शुद्ध करके अर्थात् समस्त विकारों को दूर करके अपने आत्मा में विशुद्ध चित्प्रकाशमात्र अनुभवता है और इस कैवल्य के अवलंबन से कैवल्य अवस्था को प्राप्त करता है, अर्थात् संसार के समस्त संकटों से शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करता है।
धर्मपालन के लिए आंतरिक निर्णय- भैया ! धर्मपालन के लिए एक निर्णय रखिये। उपाय तो अनेक संभव हैं लेकिन उन सब उपायों से गुजर कर अपने सहज स्वरूप की पहिचान की जाय इस पर ही धर्म अवलंबित है। अपने आपको सर्वसकटों से पार कर देने वाले इस धर्मस्वभावरूप अपने आपको दृष्टि में लेकर सर्वचिंतावों को तजकर, सर्वविषयों का ग्रहण तजकर निर्विकल्प परमविश्रामरूप अपने आपको अनुभवना चाहिए, यही सर्वदु:खों से छूटने का विशुद्ध परिणाम है।