वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 87
From जैनकोष
मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले जो दु साहु परिणमदि।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।।87।।
नि:शल्यता में ही परमार्थप्रतिक्रमण- जो साधु शल्यभाव को छोड़कर नि:शल्यभाव में प्रवृत्त होता है वह साधु प्रतिक्रमण कहलाता है, क्योंकि उस काल में वह प्रतिक्रमणभावमय है। प्रतिक्रमण का अर्थ है लांघ जाना। जो गड्ढा है, दोष है, कुपथ है, अहित की चीज है उसको लांघ जाना, उससे दूर हट जाना। किसी भी वस्तु के लांघने में दो किनारे होते हैं, बीच में वस्तु है, यहां भी बहुत दोष किए थे। सो वह दोषी किनारा पहिले का भाव था अब उस भाव से हटकर सब दोषों को लांघ रहा है और निर्दोष तट पर पहुंच रहा है। ऐसा प्रतिक्रमण, जो अतीत दोषों को दूर कर दे तथा निर्दोष निज परमार्थ स्वभाव में ठहरा दे वह प्रतिक्रमण ऐसे ही संत पुरुष के होता है जो शल्य भाव को छोड़कर नि:शल्य स्वरूप में पहुंचता है।
तीन शल्य- शल्यभाव अनेक होते हैं। जिनको संक्षेप में विचारो तो तीन हैं- माया, मिथ्या और निदान। माया में छल कपट का परिणाम आता है। चित्त में कुछ और है? वचन में कुछ और कहा जा रहा है, यह शल्य परिणाम है। मायाचार रखने वाले पुरुष रात दिन चिंता, शोक, भय, शंका में पड़े रहते हैं। जिनका चित्त मायाचार से वासित है उनमें धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता है।
माया शल्य के परिहार में प्रतिक्रमण- भैया ! अपने जीवन में सरलता का गुण लायें उससे लाभ है। मायाचार किया जाता है किसी परवस्तु के लाभ के लिए या अपने किसी बड़प्पन के लिए। सो कौनसा पदार्थ ऐसा है जो इस जीव का हित करने वाला हो? मरने पर तो कुछ साथ जायेगा नहीं, यह तो निश्चित ही है, किंतु जीवन काल में भी किसी भी परपदार्थ से अपने को लाभ नहीं है। लाभ तो शांति का नाम है। जहां शांति और संतोष रहे वह है लाभ का पद। किंतु परिग्रह की दृष्टि में परिग्रह के आकर्षण में इस जीव को चिंताएँ ही बढ़ती हैं। जहां अशांति हो वह क्या लाभ है। और मान लो कल्पित मौज का भी लाभ है तो आंखें मिचीं मृत्यु हुई, वियोग हुआ कि सब खत्म। इससे मायाचार का परिणाम रखना बिल्कुल व्यर्थ है। जैसा हृदय हो तैसा वचन हो। लोगों ने तो बिना ही प्रयोजन आदत सी बना ली है मन की बात नहीं कहने की, सीधी ही बात हेर फेर कर कहा करते हैं लोग, कुछ रौद्र ध्यान जैसा उन्हें मौजसा आता है। मायाचार से वासित हृदय में शांति, धर्म, संतोष, ज्ञान इनका प्रवेश नहीं होता है। इसलिए जो माया शल्य को त्यागकर निशल्यभाव में स्थिर होता है उसके ही परमार्थप्रतिक्रमण हो सकता है अर्थात् धर्म की गति हो सकती है।
मिथ्याशल्य के परिहार में प्रतिक्रमण- जो मिथ्याभाव करके सहित हैं वह तो साक्षात् अज्ञानी ही है। परवस्तु को अपनी समझना, श्रद्धा में ऐसा रखना कि अमुक जीव, अमुक पदार्थ, अमुक संपदा ये सब कुछ मेरे ही तो हैं, अपने आपका ऐसा विश्वास रखना, मिथ्याश्रद्धान् रखना यही अज्ञान की जड़ है। मिथ्या आशय वाले हृदय में शांति का प्रवेश नहीं है। यह मान रहे हैं परपदार्थ को अपना और वह परपदार्थ अपना समय पाकर आयेगा जायेगा, परिणमेगा, यहां मान लिया अपना, सो अपनी इच्छा के माफिक परिणमें तब तो मौज मानेगा। इच्छा तो इसकी यह है कि संपदा मेरे पास सदा रहे, इच्छा तो यह है कि यह मेरा देह सदा बना रहे, इस लोक में मैं बड़ा प्रतिष्ठित होऊँ, सर्वप्रमुख बनूँ, परंतु किसी परपदार्थ के परिणमन पर अपना अधिकार क्या हैं? विरूद्ध परिणमन देखते हैं तो दु:खी हो जाते हैं। यह क्लेश मिथ्या आशय के कारण ही तो है। कैसी भी कठिन परिस्थिति आए, मान लो बहुत सा धन बरबाद हो रहा है, अथवा घर के कुछ लोगों का वियोग हो रहा है कुछ भी कठिन स्थिति आए, जो सावधान रहेगा, अपने को सबसे न्यारा ज्ञानमात्र अपने स्वरूपास्तित्त्वमात्र आकिन्चन्यमय देखेगा उसको आकुलता नहीं आ सकती है। दूसरे लोग कैसे सहाय हो सकते हैं? मिथ्या आशय छूटे तो इसे शांति का रास्ता मिले। मिथ्याआशय से कभी भी शांति नहीं आ सकती। जो मिथ्याशल्य का त्याग करे, और नि:शल्य भाव में परिणमे उसकी ही धर्म में प्रगति है। परमार्थप्रतिक्रमण है।
निदान शल्य में संताप- एक शल्य है निदान। प्राय: लोग इस निदान शल्य में अन्य शल्यों की भांति निरंतर रहा करते हैं। विषयभोगों की चाह करना, धर्मधारण करके इंद्रादिक पदवियों की चाह करना, धन संपदा बढ़ाना आदिक किसी प्रकार की चाह बनाये रहना यह तो शल्य ही हैं ना, क्योंकि आत्मा का स्वरूप तो निष्काम है, कामनारहित है, उस स्वरूप के विरूद्ध जहां कामना की, इच्छा बढ़ायी, विषयों की रूचि की तो ऐसा कदम ही आकुलतामय हैं।
सुरक्षित क्षेत्र के अपरित्याग की भावना- जैसे कभी सावन के महीने में घोर वर्षा हो रही हो, बिजली भी कड़क रही हो, कहीं-कहीं बिजली भी गिरती हो ऐसे समय कोई पुरुष अच्छे कमरे में बैठा हो तो जब वह कमरे में है तब वह सुरक्षित है, कमरे से बाहर गया तो अब उसकी रक्षा खतरे में है, विपदा में है। ऐसे समय में एक सुरक्षित कमरे में बैठा हुआ पुरुष कभी यह चाह नहीं करता कि मैं बाहर में दौडूँ खेलूँ, कूदूं, ऐसे ही इस जगत् में घनघोर विपत्तियों की वर्षा है, लोगों के प्रतिकूल परिणमनों की बिजली कड़कती है, यहां कल्पनावों के कारण नाना क्षोभ बन जाते हैं ऐसे समय में कोई पुरुष सुभवितव्यवश इन सब संकटों से रहित ज्ञान का प्रकाशमात्र आत्मा के दृढ़ किले में बैठा हो और वहां जिसने अपना सहज सुगम सत्य आनंद पाया हो वह पुरुष यह नहीं चाहेगा कि मैं बाहर घूमूँ। अपने आत्मस्वरूप से बाहर कभी दृष्टि लगाऊँ।
निदानरहित भाव में प्रतिक्रमण- बाहर कहीं दृष्टि लगाना, किन्हीं वस्तुवों की चाह करना यही तो निदान है। निदानग्रस्त पुरुष निश्चयप्रतिक्रमण का अधिकारी नहीं है। निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप वही तपस्वी है जो नि:शल्य भाव में रह रहा है, परम विश्रामरूप ज्ञाताद्रष्टा रहने की स्थिति जिसे प्राप्त हुई है ऐसा महान् तपस्वी पुरुष ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप है।
आत्मविकास- निश्चय से देखा जाय तो हम आप सब आत्ममावों में यह निशल्यस्वरूप परमात्मा शाश्वत विराजमान है। मोक्ष होने पर कोई नई चीज नहीं मिल जाती है। नई चीज का मिलना तो क्लेश का ही कारण है। दूसरी चीज का संबंध तो क्लेश ही पैदा करता है। मुक्त जीवों को कहीं दूसरी चीज नहीं मिल जाती है या कुछ वह अपना स्वरूप तजकर दूसरा नहीं बन जाता है। मुक्ति में वही स्वरूप है, बल्कि यहां बहुत सी चीजें तो मिली हुई हैं उनको और खो देना पड़ता है। तो जो मिले हैं, जिनसे हम बड़े बन रहे हैं बोझल भारी, संसारसमुद्र में डूब रहे है उन सब परवस्तुवों को, कलंकों को, परभावों को और मिटाना है। मुक्त अवस्था तो आत्मस्वरूप की शुद्ध हालत है। केवल आत्मतत्त्व जैसा है स्वत:सिद्ध अपने स्वरूप के कारण बस वह प्रकट हुआ है इसी के मायने हैं मुक्त अवस्था। मोक्ष में कहीं और कुछ नई बात नहीं आती। जो है वही यथार्थ रूप में प्रकट हो गया, इसी का नाम निर्वाण है। आत्मतत्त्व तो विशुद्ध कारणसमयसार स्वयं ही है।
व्यवहारदृष्टि में शल्यव्यन्जना- अब जरा अपने स्वरूपमात्र की दृष्टि न रखकर कुछ अगल-बगल झांकियेगा तो यह हो गयी व्यवहार की दृष्टि। अब व्यवहार की दृष्टि में निरखते है तो यह तो बड़ा दंदफंदी हैं, कर्ममल कलंकों से बसा हुआ है, शरीर से घिरा हुआ है। रागादिक विभावों से मलीमस्त हो रहा है, इस ही दृष्टि में देख लीजिए ये तीन शल्य उद्दंडता मचा रही है- माया, मिथ्या और निदान। तो ये शल्य व्यवहार दृष्टि में हैं, पर के संबंध से हैं इस कारण औपचारिक हैं, वास्तविक नहीं हैं।
प्रतिक्रमण की स्वरूपगतता- तीनों शल्यों को छोड़ करके जो परम नि:शल्यस्वरूप, केवलज्ञान प्रकाशमात्र, शरीर का भी जहां अवलोकन नहीं है, ऐसे शुद्ध ज्ञानमात्र तत्त्व में जो योगी ठहरता है वह योगी ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप है क्योंकि उस योगी के ही वास्तविक प्रतिक्रमण होता है। यह प्रतिक्रमण कहीं परवस्तु से नहीं लाना है, किंतु अपने स्वरूप में अपनी ही स्वभावपरिणति से प्रकट होता है। जैसे व्यवहार के दंड का संबंध परवस्तु से भी होता है जैसे आचार्य ने साधु को दंड दिया कि तुम गरमी में बालू की रेत पर दो घंटे ध्यान लगावो। हुआ न पर का संबंध? नदी के किनारे ध्यान लगावो, हुआ न इसमें पर का संबंध? अच्छा, उपवास कर लो इसमें भी हुआ न पर का संबंध? इसमें क्या हुआ? अरे आहार ही तो छोड़ा, पर का संबंध कैसे हुआ? अरे मैं आहार छोडूँ, उपवास करूँ, इस प्रकार की कल्पना का होना पर का संबंध ही तो है। इस निश्चयप्रतिक्रमण में न परवस्तु का संबंध है, न कल्पना का संबंध है किंतु केवल परमार्थ आत्मस्वरूप ही दृष्ट हो रहा है। यह है उन दोषों को निराकृत करने के लिए परमार्थ दंड, परमार्थप्रतिक्रमण।
परमार्थ के अपरिचय में परमार्थतपश्चरण की दुर्गमता- जैसे मोही पुरूषों को भोगों का भोगना, भोगों के साधन मिलाना बड़ा आसान लग रहा है और त्याग करना भोग छोड़ना यह कठिन मालूम होता है, इसी प्रकार अज्ञानी किंतु बड़े व्रत तपस्या में रहने वाले बाह्यत्यागीजन जिन्हें आत्मा के स्वत:सिद्ध स्वरूप का परिचय तो मिला नहीं है लेकिन धर्म की एक धुन छायी है, सो ईमानदारी व्रत कर रहे हैं तपस्या कर रहे हैं, ऐसे इन पुरूषों को ये अनशन आदिक बड़ी ऊँची तपस्याएँ रेतों में तपना, जाड़े में नदी के किनारे तप करना और-और भी बड़े-बड़े संकट झेलना ये व्रत तपस्याएँ उन्हें सरल मालूम होती हैं, इनको वे उत्साह से आसानी से कर लेते हैं, किंतु एक यथार्थस्वरूपदृष्टिरूप निश्चयप्रतिक्रमण उन्हें कठिन लगता है। इसी कारण इस परमार्थस्वरूप के ज्ञाता रहने को परमतपश्चरण बताया गया है।
शुद्धात्मभावना के अर्थ अनुरोध- जो साधु इस शल्यभाव को तजकर परमार्थ नि:शल्यभाव में परिणत होता है उसके ही वास्तविक निश्चयप्रतिक्रमण है। यह प्रतिक्रमण स्वरूपगत है, पर के अवलोकन से रहित है, अपने स्वरूप में अपने स्वरूप के दर्शन से प्रकट होता है। ऐसा परमार्थप्रतिक्रमण जिन साधुवों को विकसित होता है, वे संसार के समस्त संकटों को तजकर नि:संकट अनंत आनंदमय परमनिर्वाण को प्राप्त होते हैं। विवेकी वही है जो इन तीन शल्यों को छोड़कर नि:शल्य जो निजपरमात्मस्वरूप है, अपने आप अपनी सत्ता के कारण जो प्रकाशमात्र है उस स्वरूप में ही जो अपने को देखता है और इस ही प्रकार उस अविकाररूप परिणमता है वही तो विवेकी है। विवेकी पुरुष उन तीनों शल्यों को छोड़कर नि:शल्य परमात्मस्वरूप में ठहरे और सदा अपने आपके शुद्ध आत्मा के रूप में भावना करे।
भावनानुसार लाभ- भैया ! सब कुछ भावना से मिलेगा। चिंता की बात नहीं है। दुविधा में मत पड़ो। कैसे कल्याण होगा? इसकी आशंका में न आइए। भगवान जिनेंद्रदेव इस ही मार्ग से संसार संकट से तिरे हुए हैं जिस मार्ग को यहां परमार्थप्रतिक्रमण के प्रसंग में कहा जा रहा है। एक शुद्ध आत्मा की भावना बनावो। कौनसा कष्ट है शुद्ध आत्मा में? जैसे लोग अपने को ऐसा ध्यान में बनाये रहते हैं कि मैं अमुक मल हूं, अमुक चंद हूं, अमुक प्रसाद हूं, ऐसे ही बहुत से लोग ऐसी भावना बनाते हैं कि मैं इतने बच्चों वाला हूं, मैं स्त्री वाला हूं, मैं इतनी जायदाद वाला हूं, जैसे यह भावना बनाये हैं ना तो वहां भी भावना ही तो बनायी। मैं पुष्ट हूं, गोरा हूं, सांवला हूं, लंबा हूं, ठिगना हूं, भावना ही तो बना रहा है यह जीव। मैं बड़ा चतुर हूं। इन सब लोगों में बड़ी अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करने वाला हूं, ऐसी ही कुछ भावना ही तो यह बनाता है। अरे ये सब भावनाएँ संसार वृद्धि की ही कारण हैं। बजाय इन भावनावों के यह भावना करो कि मैं शरीर से भी विविक्त अकिन्चन समस्त परपदार्थों के संबंध से रहित केवल ज्ञानप्रकाशमात्र हूं।
शुद्धात्मभावना का उत्साह- भैया ! अपना स्वरूप सोचने में कुछ तकलीफ हो रही है क्या? हां उनको तकलीफ हो रही होगी जिनका उपयोग मोह में दूषित है, हृदय में तो वही मोह का उपयोग पड़ा हुआ है, वही विष भरा हुआ है, ऐसी अपवित्र भूमि में इस पावन भावना का प्रवेश कहां हो सकता है? हां जरा अपने आप पर करूणा करो और एक ही झटके में उन समस्त विभावों को झटक दो। एक दो सेकेंड सर्व पर को भूलकर केवल अपनी सही बुद्धि में आइए तो कौनसा बिगाड़ हो जाता है? अरे बाहर में कोई साथी न होगा, कोई शरण नहीं है। कोई शरण हो ही नहीं सकता। वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि मैं केवल अपने आपमें ही कुछ अपना कर सकता हूं। दूसरे वे अपने आपमें ही अपना कुछ कर सकते है। कहां आशा रखते हो, किसकी ममता रखते हो, क्यों उपयोग में बैठाए हो कि यही मेरा सर्वस्व है? तू इस देह से भी न्यारा है, देह भी तेरा नहीं है। तब ऐसी विशुद्ध ज्ञानमात्र रूप अपनी भावना तो बनावो। इस भावना से ही संसार संकटों से पार हो सकते हो।
सुगम स्वाधीन सहज स्वसाधना- भैया ! नहीं हो सकता है बड़ा ऊँचा तपश्चरण का काम, नहीं कर सकते हो बड़ी धूप ठंड भूख प्यास का सामना तो न करिये, किंतु जो केवल भावना के ही द्वारा साध्य है ऐसे इस निज सहजस्वरूप का दर्शन न भी किया जाय तो यह तो खेद की बात है। इस नरजीवन की सफलता पाना है तो इन सब माया मूर्तियों की दृष्टि को त्यागो। अपने आपको शुद्ध आत्मा के रूप में भावो। इस भावना के प्रसाद से शल्यों को तजकर नि:शल्य स्वरूप में आकर अपने को कार्य परमात्मा के रूप में प्रवृत्त कर सकते हैं। जो इन तीनों शल्यों को तजकर नि:शल्य परमात्मस्वरूप में स्थित होकर अपने आपको शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र रूप में ही भाता है वह नियम से सारे दु:खों से दूर होकर विश्व में सबका ज्ञाताद्रष्टा रहकर अनंत आनंदमय होगा।
शल्यभाव को छोड़कर नि:शल्यभाव में आने का अनुरोध- माया, मिथ्या और निदान- इन तीन शल्यों की दाह से यह मोही जगत जला जा रहा है। यथार्थस्वरूप का परिचय न होने से यह शांति की ओर जा ही नहीं पाता। हे कल्याणार्थी पुरुष ! ऐसे चित्त को तू शांत कर, अर्थात् इस चित्त को परमार्थस्वरूप आत्मतत्त्व की ओर ले जाइये, जिस उपयोग में रहकर फिर यह चित्त निश्चेष्ट हो जायेगा, शांत निश्चेष्ट भाव में स्थित। जैसे समुद्र में तरंगे उठ रही हैं तो उस समुद्र को अशांत कहते हैं। तरंगे न रहें, निश्चेष्ट हो जाय तो उसे शांत कहते हैं। यह चित्त परमार्थस्वरूप ज्ञानानंदमात्र अंतस्तत्त्व में जाय तो उस उपयोग में ये विकल्प सब शांत हो जाते हैं। अशांतमय चित्त, विकल्पमय उपयोग संसारभ्रमण का ही कारण है। जो काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह इन छहों शत्रुवों से आक्रांत है, जो कषाय के तरंगों से रंगा हुआ है, जिसमें शुद्ध सहज स्वच्छ स्वभाव का दर्शन नहीं हो पाता है ऐसे चित्त को शांत कर, ऐसे विकल्पभाव को तू छोड़ दे और स्वभाव नियत, अपने आपके स्वरूप के कारण जो शाश्वत् अंत:प्रकाशमान् है ऐसे कारणसमयसार की ओर अपना उपयोग दे।