वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 88
From जैनकोष
चत्ता हयगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू।
सो पडिकमणं उन्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।।88।।
सुगुप्त आत्मा के परमार्थप्रतिक्रमण- जो साधु अगुप्ति भाव को त्याग करके तीनों गुप्तियों से सुरक्षित है वह साधु प्रतिक्रमण कहा जाता है क्योंकि उस समय उसका भाव अभेदप्रतिक्रमणमय हो रहा है। गुप्त का अर्थ लोक में छुपाना प्रसिद्ध है, इस बात को गुप्त रक्खो, यह रहस्य गुप्त है ऐसा कहने पर लोग गुप्त का अर्थ छुपाना करते हैं, किंतु गुप्त का अर्थ छुपाना नहीं है, इसमें गुप् धातु है जिसका अर्थ है रक्षण, गुप् रक्षणे। इस बात को गुप्त रखना, इसका अर्थ है इस बात को सुरक्षित रखना। कहीं यहां वहां फैलकर बात छिन्न भिन्न न हो जाय, ज्यों का त्यों हृदय में सुरक्षित बना रहे यह अर्थ है गुप्त का। अपने आत्मा को गुप्त करो अर्थात् सुरक्षित करो। अगुप्त भाव का परिहार करो- अरक्षित तत्त्व का त्याग करो। यह आत्मा मनोदंड, वचनदंड और कायदंड के कारण अरक्षित है, क्योंकि आत्मा विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप है उसका विकास इन दंडों के कारण नहीं हो पाता।
मनोदंड से आत्मा की असुरक्षितता- इस संकल्प विकल्प ने इस ज्ञानानंदस्वरूप का घात किया है। अब यह आत्मतत्त्च स्वभाव के अनुकूल न विकसित हो सका। बड़े-बड़े पुरूषों को, देवी देवतावों को, भोगभूमिया के सुखी जीवों को मन का ही तो क्लेश बढ़ा हुआ है। जो लखपति, करोड़पति वैभवशाली हैं, राजा महाराजा हैं उन्हें क्या तकलीफ है? न भोजन की तकलीफ, न ठंड गरमी का कष्ट, किंतु मन के विकल्प दौड़ते रहते हैं कि मैं इन सबका सिरताज कहलाऊँ। और जैसी कल्पना करते तैसा होता नहीं है तब दु:ख मानता है और हो जाय तो खुशी के मारे विह्वल हो जाता है। लोग सोचते हैं कि मैं दुनिया में सिरताज कहलाऊँ, इसका अर्थ है कि मैं मूढ़ों में प्रमुख कहलाऊँ, मूढ़ों का राजा कहलाऊँ। भाव उसमें यह है कि उसने अपने में मलिनता ही बनायी, अपने को अपवित्र ही बनाया। मन के संकल्प विकल्प से तो यह आत्मा अरक्षित हो जाता है। अगुप्त हो गया अब।
वचनदंड व कायदंड से आत्मा की अरक्षितता- वचनों के अनाप सनाप बोलते रहने से भीतरी वज़न कम हो जाता है। भीतर में जो धीरता का भाव बना हुआ था, जो गंभीरता बनी हुई थी, आत्म विश्राम की ओर जाने की पात्रता हुई थी वह अधिक बोलने के कारण नष्ट हो जाती है। यह आत्मा जब अगुप्त हो जाता है अथवा खोटे वचन निकल जाते हैं तो खूब दंड मिलता है, खूब ठुकाई पिटाई हो जाती है। जेल में बंद होना पड़ता है या यह भी न हुआ तो पडौसियों की निगाह से गिर जाना पड़ता है। इस वचनदंड से भी आत्मा अरक्षित है, काय की प्रवृत्ति से भी आत्मा की अरक्षा है।
त्रिगुप्त के परमार्थप्रतिक्रमण- मन, वचन, काय की क्रियावों का परिहार हो जाय और यह अपने आपके विशुद्ध ज्ञानस्वरूप में उपयोगी रहा करे, यह रक्षा है। यह वास्तविक आत्मा की गुप्ति है। जो साधु अगुप्तिभाव का परिहार करके मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति से सुरक्षित हो जाता है वह साधु साक्षात् प्रतिक्रमणस्वरूप में स्थित होता है। यही निश्चयचारित्र का स्वरूप है। निश्चयचारित्र में प्रतिक्रमण सहज भरा हुआ है, या यों कह लीजिए कि इन तीनों गुप्तियों से गुप्त पुरुष के परमनिश्चयचारित्र होता है अथवा यों कह लो कि परमार्थप्रतिक्रमण होता है। दोनों का लक्ष्य शुद्धतत्त्व की ओर है। यह परमार्थप्रतिक्रमणस्वरूप साधु परमतपस्वी है। त्रिगुप्ति धारण किए बिना मन:पर्ययज्ञान प्रकट नहीं हो सकता, विशुद्ध अवधिज्ञान प्रकट नहीं हो सकता।
परमतपश्चरण और अपूर्व ध्यान- जो मुनीश्वर परमतपश्चरण रूप कमल के पुष्पों को विकसित करने के लिए प्रचंड सूर्य की तरह हैं, जैसे सूर्य के उदय होने पर ये कमल विकसित हो जाते हैं इसी तरह जिन मुनीश्वर के इस परमपारिणामिक भाव के अवलंबनरूप से परमतपस्या विकसित हो जाती है ऐसा यह आसन्न भव्य मुनीश्वर बाह्य प्रपंचों को त्यागकर अर्थात् मन, वचन, काय के विस्तार का परिहार करके यह अपूर्व आत्मा का ध्यान करता है अर्थात् जिस प्रकार से उस आत्मा को अब तक कभी नहीं देखा था, ऐसे सहज स्वभावमय रूप में अपने आत्मा का ध्यान करता है।
समताभाव में अपूर्व आत्मध्यान और निश्चयप्रतिक्रमण- आत्मा का अभेद ध्यान परमसमताभाव के बिना नहीं हो सकता। जब तक राग और द्वेष बसे रहेंगे तब तक इसका लक्ष्य भिन्न परविषयों की ओर रहेगा, जब बाह्य की ओर उपयोग है, संकल्प विकल्प में उपयोग व्यस्त है वहां इस ज्ञानानंद स्वरूप सहज चित्स्वभावमात्र आत्मा की दृष्टि कहां हो सकती है? अब यह आत्मा मन, वचन, काय को वश करके संकल्प विकल्प से रहित होकर मात्र ज्ञातादृष्टा रहता है उस समय वह महात्मा इस अपूर्व आत्मतत्त्व का दर्शन करता है। जो मुनीश्वर इस आंतरिक परमतपस्या से बाह्य प्रपंचों को तजकर समाधिबल से सहज ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा का अवलोकन करता है वह परमसंयमी निश्चयप्रतिक्रमणमय है।
असमाधिभाव में कल्याण का अभाव- यह परमार्थप्रतिक्रमण का प्रकरण है। इसमें दोषों का परिहार करके गुणों के विकास की कथनी की जा रही है, जिन्हें दूर करना है। उनमें उपेक्षा न आये तो दूर कैसे हो सकते हैं। जैसे घर के बूढ़े बाबा बहुत अपने पोतों को खिलाते हैं तो वे ही पोते उस बूढ़े के सिर पर चढ़ते हैं। तो इस आफत को किसने डाली? अरे उस बूढ़े बाबा ने स्वयं ही यह आफत अपने ऊपर डाल ली। अब अगर वे बूढ़े बाबा उन पोतों को मार दें तो कहो रोटियां भी न मिलें। अरे न करते पहिले से स्नेह तो ये आफतें, ये बवाल न आते। यह जीव भिन्न विषयवासनावों को अपनाता है, इसके फल में इसकी बरबादी होती है, अरक्षा है। जब तक उन दोषों से उपेक्षा न करें तब तक गुणों की ओर प्रीति नहीं हो सकती है। जो विषयभावों से, कषायपरिणामों से अपनी प्रीति बनाये रहते हैं उनको इनके संबंध में यह ध्यान भी न आ सकता कि ये कषाय दु:खों के घर हैं, ये मेरे स्वरूप नहीं हैं, ये दु:ख का बीज बोकर, दु:ख देकर नष्ट होते हैं, उन कषायों का जिन्हें परिचय नहीं है और उनको ही अपनाते हैं, कषाय करके ही अपने को चतुर समझते हैं ऐसे पुरूषों के गुणों की ओर प्रगति नहीं हो सकती है। गुणविकास करना है तो दोषों को दोष जानकर उनकी उपेक्षा करनी पड़ेगी और जो सहज स्वाधीन स्वतंत्र निर्मल निष्कलंक स्वत:सिद्ध गुण है उसकी ओर दृष्टि होगी तो गुणविकास होगा।
परमार्थप्रतिक्रमण के अर्थ चित्त को शांत करने की आवश्यकता- दोषों से उपेक्षा करके गुणों की ओर दृष्टि करके जो पुरुष परमविश्राम लेता है उसके यह निश्चयप्रतिक्रमण होता है अर्थात् यह संत उन सब दोषों को दूर करके अपने सहजशुद्ध आनंद में मग्न होता है। इस कारण हे भव्य पुरूषों ! हे कल्याणार्थी जनों ! इस मन के वश मत रहो। कुछ विवेक लावो, ज्ञानबल बढ़ावो। उसमें कल्याण का मार्ग मिलेगा। यदि कल्याण चाहते हो तो मन को हित कार्यसाधक बनावो। इस मन को अपने ज्ञानप्रकाश की ओर तो लावो। यह मन ज्ञानप्रकाश की ओर आ तो जायेगा किंतु ज्ञानप्रकाश के निकट आकर यह शांत हो जायेगा, बुझ जायेगा। फिर इस ज्ञानप्रकाश के अभ्युदय के समय केवल यह उपयोग ही काम आयेगा।
वचनगुप्ति की आवश्यकता- भैया ! इस वचन के भी वश में मत आवो। प्रथम तो दूसरे लोग जो वचन कहते हैं उस वचन के भी वश मत आवो अर्थात् उन वचनों को अनुकूल या प्रतिकूल मानकर हर्ष अथवा विषाद मत करो और अपने आपमें भी वचनक्रिया के प्रसंग न रक्खो। वचन बोलने के लिए ही अपनी तैयारी न बनावो, वचनों को वश रखो, अंतर्जल्प व बाह्यजल्प को तजकर नीरंग निस्तरंग स्वभाव में विश्राम करो।
शुद्धात्मभावना का उद्यम- इस शरीर को भी प्रवृत्तियों से रोको। कुछ क्षण मन, वचन, काय को शांत करके परमविश्रांत स्वभाव नियत आकिन्चन्य आनंदमय विशुद्ध अंतस्तत्त्व को देखो। इसके दर्शन से ही समस्त दोष, समस्त बंधन समाप्त हो जायेंगे। इस अंतस्तत्त्व की सीमा से जहां बाहर आये और बाहर कहीं ढूँढा वहां ही इस पर संकट लग जाया करते हैं। मन, वचन, काय की अगुप्ति को त्यागकर, उनके उपयोग को त्यागकर सम्यग्ज्ञानक पुन्ज इस शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना करो और शाश्वत सहज सिद्ध अपने आप जो अनुभव में आता हो उसको अनुभवो, चेष्टा करके कुछ भी मत करो।
एक चित्स्वभाव में ही स्थिरता करो।
आत्मरक्षा का अनुरोध- जो पुरुष इन अगुप्तियों का परित्याग करके गुप्तस्वरूप आत्मतत्त्व में स्थिर होता है उसके ही यह निश्चयप्रतिक्रमण होता है। यही वास्तविक शील है, यही निर्मल चारित्र है। केवल ज्ञाताद्रष्टा रहना, अपने आपमें निस्तरंग परिणत हो जाना यही वास्तविक प्रतिक्रमण है, यही गुणविकास का उपाय है, यही परमनिर्वाण का साधन है। इन साधनों से अपने आपको निर्मल बना सके तो इस अनादि अनंत काल में भटकते हुए जो आज दुर्लभ नरजीवन पाया है उसकी सफलता होगी। विषय-कषायों में भ्रमने से तो समय की ही बरबादी है। कौन भोग भोगता है? भोगों का क्या बिगाड़ होता है? भोगों को भोगकर यह जीव खुद भुग जाता है। इस अरक्षा को त्यागकर रक्षा की प्राप्ति में आवो और अपना शेष अनंतकाल आनंद के अनुभव में व्यतीत करो। इस तरह इस परमार्थप्रतिक्रमण को कहते हुए के प्रसंग में यह द्विचरण गाथा है। अब इसके बाद अगली गाथा में प्रतिक्रमण का स्वरूप अंतिम उपसंहार रूप से कहा जायेगा।