वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 91
From जैनकोष
मिच्छादंसणणाणचरित्तं चइ ऊण णिखसेसेण।
सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं।।91।।
रत्नत्रय के भावक की प्रतिक्रमणरूपता- अब फिर भी प्रतिक्रमणस्वरूप ज्ञान की चर्चा प्रकट कर रहे हैं। जो भव्यपुरुष सर्वप्रकार से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का त्याग करके सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को भाता है वह पुरुष स्वयं प्रतिक्रमणस्वरूप है। जिस किसी पुरुष के बारे में प्रशंसा की जाती है तो यों भी कह देते हैं कि तुम्हें शांति देखनी है तो इसको देखिये यह है शांति। तुम्हें संतोष ढूँढ़ना है तो अमुक चंद को देखिये यह है संतोष जीता जागता। शुद्धभाव और भाववान में अभेद करके भी बात कही जाती है और तथ्य भी यही है कि भाव और भाववान् कोई अलग पदार्थ नहीं है। जिस जीव ने इन मिथ्यात्रयों का त्याग किया है और रत्नत्रय की भावना की है वह पुरुष स्वत: ऐसा निर्दोष गुणपुन्ज हो जाता है कि यह ही साक्षात् प्रतिक्रमणस्वरूप है।
मिथ्यात्रय का त्याग व रत्नत्रय का लाभ- मिथ्यादर्शन ज्ञानचारित्र का त्याग और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का स्वीकार एक साथ होता है, सर्वथा मिथ्यात्व का त्याग हो गया इसका अर्थ है कि सम्यक्त्व का लाभ हो गया। सर्वथा मिथ्याज्ञान का परिहार हो गया इसका अर्थ है कि सम्यग्ज्ञान का विकास हो गया। सर्वथा मिथ्या आचरण का परिहार हो गया इसका अर्थ है कि सम्यक्चारित्र का अभ्युदय हो गया। जैसे अँधेरा और प्रकाश दोनों एक जगह नहीं रह सकते हैं। परस्पर विरूद्ध चीजें हैं, ऐसे ही यह मिथ्यात्रय और रत्नत्रय एक आत्मा में एक समय में नहीं रह सकता है। जिस मुमुक्ष जीव के रत्नत्रय की स्वीकारता हो गयी है उसके यह निश्चयप्रतिक्रमण होता है।
मिथ्यात्रय का निर्देश- ये मिथ्यात्व आदिक क्या हैं? कुछ इनके स्वरूप को देखिये। सम्यग्दर्शन कहलाता है मोक्षमार्ग के अनुकूल पथ का श्रद्धान होना, उसके विपरीत आशय होना यही है मिथ्यादर्शन। इसमें होता है मोक्षमार्ग के प्रतिकूल अमार्ग का अथवा मार्गभास का श्रद्धान। अरहंत सर्वज्ञदेव जिस मार्ग से चलकर बने हैं वह मार्ग है सहज सिद्ध स्वत:सिद्ध कारणसमयसारस्वरूप आत्मतत्त्व का श्रद्धान, परिज्ञान और इस ही रूप ज्ञातादृष्टा बने रहने रूप सम्यक्चारित्र की एकता। इस मुक्ति मार्ग के विरूद्ध संसार का मार्ग है। वह क्या है? उस सहज अंत:स्वभाव के विपरीत अन्य–अन्य परभावों का आत्मरूप में विश्वास होना और ऐसा ही परिज्ञान होना और ऐसे ही बाह्य पदार्थों में विषय कषायों में लीन होना।
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व में प्रतीतिविरोध- यह मिथ्यात्रय सम्यक् रत्नत्रय से बिल्कुल विरूद्ध भाव है। यह मैं आत्मा समस्त परपदार्थों से न्यारा हूं, ऐसी श्रद्धा है सम्यग्दर्शन में तो मिथ्यादर्शन में यह श्रद्धा है कि ये दृश्यमान् पदार्थ ये परिजन ये ही मेरे प्राण हैं, ये ही मेरे स्वरूप हैं, ऐसी मिथ्या श्रद्धा है मिथ्यात्व में। सम्यग्दर्शन में विशुद्ध वस्तुस्वरूप की श्रद्धा है तो मिथ्यादर्शन में वस्तुस्वरूप की विपरीत श्रद्धा है। मैं ज्ञानस्वरूप हूं, ऐसा सम्यक्त्व में प्रतीत होता है। मिथ्यात्व में इस असमानजातीय पर्याय को निरखकर मैं सांवला हूं, गोरा हूं, बड़ा हूं, लंबा हूं, धनवान हूं, अमुक पोजीशन का हूं इत्यादि विपरीत धारणाएँ होती हैं, सम्यक्त्व के प्रकाश में अपनी शाश्वता नजर आती है। मैं अनादि अनंत एक स्वरूप हूं। कर्म लेप वश चाहे यहां से वहां कहीं भी भागना पडे़ जिस पर भी यह मैं चेतन शाश्वत हूं। यह न पैदा होता है और न मरता है। तो मिथ्यादर्शन में यह विश्वास बना होता है लो अब यह मैं मर गया, अब मैं यह जन्म गया। मिथ्या प्रतीतियों में आकुलता और क्षोभ ही होता है, वहां शांति प्रकट नहीं हो सकती।
सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान में जानन की पद्धतियां- सम्यग्ज्ञान के विस्तार में यथार्थविकासबुद्धि होती है। जो जैसा पदार्थ है, जिस स्वरूप में है उस स्वरूप में ही परिज्ञान रहना सो सम्यग्ज्ञान है, किंतु मिथ्याज्ञान में अवस्तु में वस्तुबुद्धि होती है और वस्तु का जो कुछ परिचय ही नहीं है। जैसे बालक लोग बरसते हुए पानी में उठते हुए बबूले को देखकर जलमयता की तो दृष्टि भी नहीं रखते, किंतु यह बबूला ही सब कुछ है ऐसा सोचते हैं। यों ही यह मोही बालक इन दृश्यमान् पदार्थों में परमार्थभूत द्रव्य का कुछ ईक्षण भी नहीं करता है, किंतु इसी दृश्यरूप को ही वास्तविक मानता है। सम्यग्ज्ञान का प्रकाश हो तब ही शांति का पथ प्राप्त हो सकता है।
मिथ्याचारित्र और सम्यक्चारित्र में अनुभवनभेद- भगवान अरहंत परमेश्वर सर्वज्ञदेव के द्वारा प्रणीत हुए सन्मार्ग के विरूद्ध जो संसार में रूलाने वाला मार्ग है उस मार्ग पर लगना सो मिथ्याचारित्र है। मिथ्याचारित्र में इस जीव को निरंतर आकुलता बनी रहती है। यह जीव चाहे विषयों की प्राप्ति कर ले और उनके भोगने के समय भी यद्यपि यह मोही मौज मान ले, किंतु उसके भीतर निरंतर आकुलता बर्त रही है। भोगों के सुखों को भोगने की आकुलता न हो तो उन सुखों के भोगने की प्रवृत्ति भी नहीं हो सकती। भोगों के भोगने की प्रवृत्ति आकुलता के ही कारण होती है, किंतु सम्यक्चारित्र में निरंतर अनाकुलता का अनुभव होता है।
सम्यक् चारित्र व मिथ्याचारित्र के पथभेद का मूल स्थान- सम्यक्चारित्र और मिथ्याचारित्र में मूल में थोड़ा ही अंतर है विधि का या यों कह लीजिए कि मानो प्रदेशमात्र का अंतर है अर्थात् सम्यक्चारित्र में तो है निज में प्रवेश और निज से रंच भी बाहर उपयोग रमा तो वह है मिथ्याचारित्र की दौड़, पर इस अंत: और बाह्य का इतना मूल का अंतर शांति और अशांति के महान् विस्तारभाव को प्रकट कर देती है।
धर्मप्रवेश के लिये मिथ्यात्रय के परिहार की प्रथम आवश्यकता- आत्मस्वरूप से विमुख होकर अनात्मतत्त्व में आत्मतत्त्व का दर्शन करना, अनात्मतत्त्व में आत्मतत्त्व का बोध रखना और अनात्मतत्त्व में रमन करना, संतोष करना यह है मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र। इन तीनों का जो सर्वथा परित्याग करता है उसके ही परमार्थप्रतिक्रमण हो सकता है। परमार्थप्रतिक्रमण में दोषों की निवृत्ति है। दोषों से लिपटकर दोषों से निवृत्ति कैसे हो सकती है, इसलिए परमार्थ शुद्धि के लिए मिथ्यात्रय के परिहार की सर्वप्रथम आवश्यकता है। जैसे धर्म के मार्ग में, धर्म के दरबार में कोई प्रवेश करना चाहे तो उससे यह कहा जायेगा कि पहिले तुम मिथ्यात्व का परिहार कर आवो। सबसे पहिली शर्त है यह, तब इस धर्म के मार्ग में प्रवेश कर सकते हो।
मिथ्यात्रय का स्वरूप- इस मिथ्यात्रय का अध्यात्मपद्धति से भी स्वरूप निरखो। निज आत्मतत्त्व का श्रद्धान होना और उसका परिज्ञान होना और इस निज आत्मतत्त्व में ही इसका अनुष्ठान होना, यह तो है इसका स्वरूप भाव। इसके विमुख होना अर्थात् स्वात्मतत्त्व का श्रद्धान नहीं है व अनात्मतत्त्व में आत्मरूप से श्रद्धान है, निज आत्मतत्त्व का परिज्ञान नहीं है, किंतु इस दृश्यमान् मायामय बाह्य पदार्थों को स्कंधों को निरख निरखकर ये ही सब कुछ हैं और अपने से निमित्तनैमित्तिकरूप से विषयीभाव से संबंधित देहादिक पदार्थों में यह मैं हूं यह मेरा है, इस प्रकार का परिज्ञान होना और आत्मतत्त्व में तो अनुष्ठान न होना किंतु अनात्मतत्त्व में इसकी बुद्धि जाय, उपयोग लगे तो यह सब है मिथ्यात्रय। ऐसा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रात्मक विभाव परिस्थिति का त्याग करके ही परमार्थप्रतिक्रमण की प्राप्ति की जा सकती है।
परमार्थप्रतिक्रमण के अधिकारी का आश्रयभूत त्रिकाल निरावरण अंतस्तत्त्व- परमार्थप्रतिक्रमण का अधिकारी निश्चयरत्नत्रयात्मक आत्मा ही है। निश्चयरत्नत्रय का विषय शुद्ध कारणपरमात्मतत्त्व होता है। यह कारणपरमात्मतत्त्व त्रिकाल निरावरण है। निज सत्त्व के कारण जो स्वरूप बना हुआ है उस स्वरूप पर आवरण कभी नहीं होता। निमित्तनैमित्तिकयोग के फंद में स्वरूप का शुद्ध विकास नहीं हुआ यह तो होता है, परंतु स्वरूप का आवरण कभी नहीं होता है। सहज सत्त्व के कारण जो सहजस्वरूप है वह तो सदा ही है, उस पर आवरण नहीं होता। यह कारणसमयसार त्रिकाल निरावरण है और यह कारणसमयसार ही आनंदस्वरूप है। जिसका जो स्वभाव है वह कभी मिट नहीं सकता। चाहे वह ढक जाय, उसका शुद्धविकास न हो, किंतु स्वभाव कभी बदल नहीं सकता है। यह जीव अनादिकाल से द्रव्यकर्म के आवरण से आवृत्त है और उसके उदय का निमित्त पाकर भावकर्म के आवरण से साक्षात् आवृत्त है। इतने पर भी इस जीव का जो ज्ञानानंदस्वरूप है, स्वभाव है वह स्वभाव न हटा। चाहे यह कितने ही काल बाद शुद्धविकास को प्राप्त हो, वह शुद्धविकास इस स्वरूप में से ही तो प्रकट होगा। स्वरूप किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होता है।
निश्चय रत्नत्रय- आत्मा का स्वरूप है ज्ञान और आनंद। ज्ञानानंदस्वरूप निरन्जन निज पारिणामिक भावरूप जो कारणसमयसार है वह ही परमार्थ आत्मा है। उस आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान हो, ज्ञान हो और ऐसी ही जानने देखने की स्थिति निरंतर बनायी जाय, यह है शुद्ध रत्नत्रय। ऐसा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप जो परम तपस्वी महंत संत हैं वह ही परमार्थप्रतिक्रमण स्वरूप हैं।
निकटभव्य की अभिलाषा- यह भव्य इस परमार्थ निजतत्त्व के स्वरूपरूप शुद्ध आनंद का अभिलाषी है। जिसे शुद्ध आनंद चाहिए उसे अपनी अभिलाषा का निर्णय कर लेना चाहिए कि मैं किस रूप हूं? ये जगत् के बाह्य पदार्थ जो मायामय हैं, भिन्न हैं, जिनका कुछ विश्वास भी नहीं हैं, ये जब तक साथ रह सकते हैं और कब तक साथ भी रहते हैं तब तक आकुलता और बरबादी का ही निमित्तरूप से सहयोग दे रहे हैं। ऐसे इन भिन्न असार भोगों के सुख की अभिलाषा एक बड़ा धोखा है। हुए हैं आज मनुष्य, मिला है पुण्य का उदय, भोग सकते हैं नाना तरह से विषयभोग, किंतु यदि इस सामर्थ्य का ऐसा दुरूपयोग किया कि भोगों में ही समय लगाया तो यह आत्मपदार्थ का और संसार क्लेश का निमित्तनैमित्तिक संबंध चलता रहेगा।
विषयांध की स्थिति- जो भोगविषयों में रहकर अपना ज्ञानबल नष्ट कर देगा वह पुरुष कैसी दुर्गति का पात्र होगा, ऐसा कुछ तो आंखों ही निरख लो। कितनी तरह के जीव जंतु इस संसार में भरे हुए हैं? वनस्पतियों का कोई ठिकाना नहीं है, ये अनगिनते प्रकार के हैं। अन्य स्थावर दो इंद्रिय, त्रींद्रिय आदिक कीड़े मकौड़े वगैरह ये सब ऐसी दुर्गति के स्थान हैं, ऐसी ही दुर्गति अपनी स्वच्छंदता के फल में हो जायेगी तब फिर कहां शान रहेगी? यहां तो कल्पित शान के पीछे मरे जा रहे हैं और इस कल्पित शान के अंधेरे में अपने अंतरंग की शान नहीं रखी जा रही है। भोगों से अरूचि होना और मायामय विभूतियों की प्रीति से दूर होना, इन सब उपायों से इस ज्ञान की रक्षा करना चाहिए, तभी आत्मा की वास्तविक शान रहेगी।
मोहनिद्रा के स्वप्न की चाँदनी- भैया ! यहां तो यह दो दिन की चाँदनी है, स्वप्न है। इस स्वप्न में कुछ भी बन जावो पर यह सदा टिक नहीं सकता। जैसे किसी घसियारे को स्वप्न में राज्यपद मिल जाय, थका हुआ था उसे बडी़ गहरी नींद आयी, कुछ समय बाद उसे स्वप्न आ जाय कि मैं राजा बन गया हूं, लो बहुत से राजा लोग मुझे नमस्कार कर रहे हैं, मैं लोगों पर हुकूमत कर रहा हूं, ऐसा कुछ स्वप्न आये तो बतावो वहां वह यथार्थ आनंद ले रहा है या कल्पित सुख में ही मौज मान रहा है? थोडी ही देर बाद नींद खुल जाय तो वहां क्या था? न कुछ पहिले था, न अब कुछ रहा। पहिले भी वह केवल कल्पना मात्र थी, अब वह कल्पना मिट गयी, वह नींद मिट गयी। कहां रहा वह सब कुछ? वह तो कल्पित बात थी। इसी प्रकार कुछ धन वैभव मिला, कुछ इज्जत मिली, कुछ राज्य, शान चला, प्रतिष्ठा मिली तो यह सब मोह की कल्पना है। मोहनिद्रा के स्वप्न हैं। यह टिक नहीं सकता, रह नहीं सकता। कुछ चीज हो मौलिक तो कुछ ठीक है, पर वहां तो कल्पना के विचार ही रहते हैं।
मायामय शान की प्रसारता- भैया ! इन इंद्रियविषयों में, इन मन की दौड़ों में जो इतना भागे जा रहे हैं, ये कल्पनाएँ, विषयसुख इनकी अभिलाषा करना व्यर्थ है। निजस्वरूप के अनुभव में उत्पन्न हुआ जो सहज आह्लाद है, निराकुलता है, सब निराकुलता की अभिलाषा बना लेना यह एक बहुत बड़ा पुरूषार्थ होगा। जो संग आपको विषयभोगों में प्रेरित करता हो, जो संग इन मायामय पदार्थों के संचय कराने में प्रेरित करता हो, जो संग यहां की छोटी इज्जत पोजीशन के बनाने में प्रेरित करता हो, वह संग तो आपकी बरबादी के लिए है। उससे अपना भला न समझिये। लौकिक शान भी अपने पास वास्तविक शान हो तो शोभास्पद बनती है। जैसे आजकल के जमाने में गणराज्य के वोटों द्वारा शान मिलने वाले खोटे समय में भीख मांगकर शान बनाएँ तो इसमें कौनसी शान रही? शान तो वह है कि जहां प्रजाजन हाथ जोड़कर आयें और कहें कि आप हमारा मार्गदर्शन कीजिए, हम लोग दु:खी हैं। अपना शुद्ध ज्ञानप्रकाश हो, तब समझो कि वह शान है। ऐसी शान उस पुरुष के ही हो सकती है जो इस मायामय शान से अपनी शान न मानता हो और अपने आध्यात्मिक शान को प्रगतिशील बनाए हो उसके ही वास्तविक लौकिक शान रह सकती है।
अभिलाषा के विषयनिर्णय की आवश्यकता- भैया ! पहिले तो अभिलाषा के विषय का निर्णय कर लो। तुम्हें किसकी तो अभिलाषा करना है और किसकी अभिलाषा नहीं करना है? यद्यपि हम आपकी वर्तमान परिस्थितियां ऐसी हैं कि जिनमें अनेक पदार्थों का संचय भी करना पड़ेगा, करना पड़ता है और लौकिक यश भी रखना पड़ता है, इस पर भी ज्ञान है, विवेक है तो श्रद्धा तो इस ओर ही होना चाहिए कि अभिलाषा करने के योग्य तत्त्व है कुछ, तो वह है आत्मा का सहज परम आनंदस्वभाव। जो पुरुष निज परमतत्त्व के अवलंबन से उत्पन्न हुए परमसहज आनंद का ही अभिलाषी है वही पुरुष परमपुरुषार्थी है। आत्मा का परम पुरुषार्थ है अपने आपको ज्ञानस्वरूप में निहारना और अपने आपको ज्ञानस्वरूपमात्र अनुभव करना और ऐसा ही अनुभव निरंतर बनाए रहना, ऐसे परम पुरूषार्थ में वही पुरुष उद्यमी हो सकता है जिसने की अपनी अभिलाषा के यथार्थ विषय का परिपूर्ण निर्णय कर लिया हो। ऐसा परमपुरुषार्थी पुरुष ही निश्चयरत्नत्रयादिक आत्मा की भावना करता है।
तपस्या से दोषी की निर्दोषिता की सिद्धि- जो संत निश्चयरत्नत्रयात्मक आत्मा की भावना करता है वही परम तपस्वी है। तपस्या किसे करना है? जो दोषी हो उसे तपस्या करना है ताकि तप के प्रसाद से उन दोषों की निवृत्ति हो जाय। यह शरीर तो दोषी है नहीं। हमें विपत्तियों में लगाने वाला तो है नहीं। फिर इस शरीर को ही दंड देते रहने से तपस्या कैसे संभव होगी?
अज्ञानी की तपस्या में आशय- शरीर की तपस्या, ये धूप, ठंड, गरमी, अनशन आदि कराना कई परिस्थितियों में हुआ करता है। जैसे एक तो अज्ञान दशा में होता है। मुझे मोक्ष जाना है, मुझे धर्म करना है अथवा मुझे लोग समझे कि यह साधुसंत हैं इससे अपना आचरण बिल्कुल शुद्ध बनाना है अथवा अपने आपमें ऐसी धुन बन जाय कि मैं साधु हूं, मुझे तो ऐसी अनेक तपस्याएँ करना ही चाहिए, इन सब अज्ञान के आशयों से भी देह की तपस्या करायी जाती है। तपाना तो था इस सदोष आत्मा को किंतु इसकी दृष्टि न होकर इस अज्ञानी ने तपा दिया है इस देह को। देह का तपश्चरण ज्ञानी पुरुष भी करते हैं, पर ज्ञानी पुरुष जिस विवेक से जिस पद्धति से तपश्चरण किया करता है, उन मर्मों का तो परिचय है नहीं और बाहरी बातें निरखकर ही यह अज्ञानी देह का तपश्चरण कराने लगें, इससे तो सिद्धि न होगी।
ज्ञानी के मर्म से अपरिचित अज्ञानी द्वारा किये गये नकल के विडंबना का एक दृष्टांत- एक बार किसी ऊँट ने कुम्हड़ा खाया। पूरा कुम्हड़ा मुँह में डाल लिया तो वह गले में अटक गया। अब वह ऊँट बहुत तड़फे। एक समझदार वैद्यराज निकले। उनके साथ एक बेवकूफ चपरासी भी था। ऊँट वाले ने वैद्यराज से प्रार्थना की कि महाराज मेरा ऊँट बहुत बीमार है इसे ठीक कर दीजिए। वैद्य ने उसे ऊपर नीचे देखा और परखकर कहा- हम तुम्हारा ऊँट अच्छा कर देंगे। लावो एक बड़ा पत्थर और एक कुछ छोटा पत्थर दो। पत्थर लाये गए। ऊँट के गले के नीचे एक पत्थर रक्खा और दूसरे पत्थर से उस जगह जहां कि कुम्हड़ा था, कूट दिया। कुम्हड़ा फूट गया और ऊँट उसे निगल गया। अच्छा हो गया। अब वह चपरासी सोचता है कि मैं व्यर्थ ही छोटी नौकरी करता हूं। पैसा कमाने का यह तो बढ़िया उपाय है, सो वह नौकरी छोड़कर स्वतंत्र वैद्यराज बन गया। अब वह देहातों में निकल गया, कहता है कि हम बडे़ नामी वैद्यराज हैं, हर एक रोग की हम पेटेन्ट चिकित्सा करते हैं। एक गरीब पुरुष के घर में एक अधबुढ़िया बीमार भी, घर वालों ने उस वैद्यराज को बुलाकर कहा कि हमारी मां बीमार है उनका इलाज कर दीजिए। तो वैद्य जी ने झट दो पत्थर मंगाये, एक पत्थर बुढ़िया के गले के नीचे रक्खा और दूसरे पत्थर से चोट लगा दिया तो वह बुढ़िया मर गयी। तो समझदार की वृत्ति की नकल अज्ञानी करे तो क्या कार्य सिद्धि हो जायेगी?
तत्त्वमर्म से अपरिचित अज्ञानी के तपश्चरण से कार्य की असिद्धि- ज्ञानी संत पुरुष किसी पद्धति से देह का भी तपश्चरण किया करते हैं, इस बात का मर्म तो विदित न हो और ऊपरी ही वृत्ति देखकर यह अज्ञानी देह का तपश्चरण करे तो क्या उससे कार्यसिद्धि होगी? नहीं होगी। तपश्चरण के अनेक कारण हैं। प्रथम कारण तो यह अज्ञानियों का बताया है। अब ज्ञानियों का कारण भी समझिये कि ज्ञानी पुरुष किस परिणाम को रखकर देह का तपश्चरण किया करते हैं?
ज्ञानी के तपश्चरण का उद्देश्य- ज्ञानी जीव की तपस्या का उद्देश्य क्या है? इसे सुनिये- एक तो यह है कि चूंकि विषयकषायों में चैन मानने का साधन इस देह का आराम है। इस कारण विषय-कषायों में प्रवृत्ति न हो सके, इस निर्दोषता के लिये वह ज्ञानी देह का तपश्चरण करता है। दूसरा कारण यह है कि आराम सहित याने बिना श्रम कष्ट के प्राप्त किया हुआ ज्ञान किसी दु:ख के आने पर नष्ट हो सकता है। इस कारण उस पुरुष के ज्ञान की निधि की सुरक्षा के लिए देह का तपश्चरण करना उन्होंने आवश्यक समझा है ताकि यह सामर्थ्य बनी रहे कि दु:ख और उपसर्ग के होते हुए भी अपने पाये हुए ज्ञान का विनाश न हो सके। तीसरा कारण यह है कि देह के तपश्चरण की परिस्थिति में ऐसी सहज वृत्ति बनती है कि कषाय भावों का विस्तार न होकर एक अध्यात्ममार्ग में उसकी प्रतीति होती है। इस आत्मकल्याण की साधना का उद्देश्य रखकर ज्ञानी जीव देह का तपश्चरण करता है।
ज्ञानी के पुरुषार्थ का फल- समस्त विभावों को छोड़कर तथा व्यवहार रत्नत्रयमार्ग के साधन से निश्चयरत्नत्रय के साधन की योग्यता पाने पर व्यवहाररत्नत्रय को भी छोड़कर निज अंतस्तत्त्व के ज्ञानी आत्मतत्त्व का अनुभवन करने वाले पुरुष ऐसे निज ज्ञान के श्रद्धान और निज के आचरण को प्राप्त करते हैं जो निज शुद्ध आत्मतत्त्व में शाश्वत नियत है। परमार्थज्ञाता पुरुष इस आत्मा में सदा काल नियत जो ज्ञायकस्वरूप है उस ज्ञायकस्वरूप का श्रद्धान कि इतना ही मात्र मैं हूं, ऐसी दृढ़ प्रतीति और इस स्वरूप का ज्ञान और इस आत्मस्वरूप में रमना, ऐसे रत्नत्रय की एकता को प्राप्त करते हैं।