वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 90
From जैनकोष
मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविदा पुव्वं।
समत्तपहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण।।90।।
भावित और अभावित भाव- परमार्थप्रतिक्रमण की भक्ति में ज्ञानी जीव पूर्वा पर परिणतियों के अंतर को देखता हुआ चिंतन कर रहा है कि इस जीव ने मिथ्यात्व आदिक परिणाम पूर्वकाल में बहुत दीर्घकाल से भाये हैं, किंतु सम्यक्त्व आदिक परिणाम इस जीव ने नहीं भाये हैं। इन दु:खी जीवों को पता नहीं रहा कि इस लोक में मैं सबसे न्यारा अपने लिए केवल अकेला हूं और स्वयं अपने लिए आनंद से भरपूर हूं, इस सही बात का पता न होने से इस जीव ने दरदर भटककर नाना विपत्तियां सही है। कितनी तनिक सी बात है? अपने आपमें झुकने और सामने की बात है। पर को रिझाने का, पर को प्रसन्न करने का प्रोग्राम होना तो कठिन बात है, पर यह तो खुद-खुद में समाये, व्यापे ऐसी स्वाधीन बात है।
स्वरूप के निकट में भी स्वरूप के अपरिचय से परेशानी- अहो, जिसे रास्ते का पता नहीं है वह अभीष्ट घर के पास भी खड़ा हो तो भी वह परेशानी में रहता है। मुझे अमुक घर जाना है, मिल नहीं रहा है अथवा असहाय सा खड़ा हो, दूसरे से पूछता है भाई अमुक घर का रास्ता कौनसा है? वह कहता है कि यही तो है जहां तुम खड़े हो। ऐसे ही आनंद का घर सर्वकल्याण का आश्रय यह खुद ही है, पर खुद को अपने इस निज स्वरूप का पता न होने से यह संकल्प विकल्प में डूब रहा है। संकल्प विकल्प करके यह अपने को ही परेशान कर रहा है, दूसरे का क्या बिगड़ता जिस दूसरे पर द्वेष की दृष्टि भी रखी हो तो उस दृष्टि में इसने अपना ही बिगाड़ किया, यह दूसरे का बिगाड़ करने में तो त्रिकाल असमर्थ है। निमित्त की बात अलग है। यदि किसी का दु:खी होने का उपादान है तो उसकी दु:खकारक प्रकृति के उदय का निमित्त पाकर परवस्तु आश्रयभूत हो जाता है।
क्लेश में परवस्तुवों का अनपराध- ये दिखने वाले परपदार्थ मेरे क्लेश के निमित्त नहीं हैं। ये तो क्लेश के निमित्त के नोकर्म हैं। तभी यह व्यभिचार देखा जाता है कि एक ही पदार्थ को देखकर कोई प्रसन्न हो जाता हैं कोई दु:खी होता है, कोई ज्ञाताद्रष्टा रह जाता है। ये पौद्गलिक पर्यायें इंद्रिय के विषयभूत पदार्थ मेरे सुख के अथवा दु:ख के निमित्त नहीं हैं। हम सुखी और दु:खी जब होते हैं तो इन पदार्थों को विषय बनाकर ही दु:खी सुखी हो पाते हैं। ऐसा विषयविषयी संबंध है पर इनमें दु:ख सुख के कर्तृत्व का संबंध नहीं है। कितनी हैरानी की बात है? अपना आनंद कितना सुगम है, कितना निकट है, फिर भी यह हैरानी है। यह सब कुबुद्धि का परिणाम है।
निमित्तनैमित्तिक योग का न्याय- भैया ! हम कुबुद्धि करें तो उसके विपाक दु:खी होना निश्चित्त ही है, न्यायानुकूल ही है। लोग समझते हैं कि आजकल बड़े अन्याय हो रहे हैं। सभी जगह कोई किसी को किसी तरह सताता है, सच्चाई का नाम नहीं रहता है, नाना मायाजाल पूरा जाता है, पद-पद पर दु:ख है, बड़ा अन्याय छाया है पर मूल में देखो तो अन्याय कहीं त्रिकाल हो ही नहीं सकता। क्योंकि पूर्वकाल में जो अशुभभाव किया था और वहां जो अशुभ कर्मों का बंध हुआ था उसके उदय काल में यदि भली बात मिल जाय तो अन्याय है। पाप के उदय में यदि सुख मिल सके, यदि शांति मिल सके तो हम उसे अन्याय कहेंगे। उदय पाप का है और उसे दु:ख हो जाय तो यह अन्याय में शामिल है या न्याय में शामिल है? कोई जीव बुरे भाव कर रहा है, भ्रष्टाचार करके दूसरों को सताने का उद्योग कर रहा है वहां न्याय हो रहा है यह कि ऐसे खोटे परिणामों का निमित्त पाकर वहां पापकर्म का बंध हो रहा है यह है न्याय और जिन जीवों के पापकर्म का उदय है उनको नाना प्रतिकूल घटनाएँ मिलकर दु:ख हो रहा है, यह है न्याय। अन्याय कहां है?
साक्षी की दृष्टि में- यह मोही जीव जब अपने मन के अनुकूल बाहरी परिस्थिति नहीं देखता, उसे अन्याय कह बैठता है, पर जो साक्षीभूत है ऐसे ज्ञानी आत्मा के सामने तो यह सारा न्याय हो रहा है। घड़ी में चाभी न रहे घड़ी बंद हो गयी, यह क्या अन्याय है? न्याय है, क्योंकि निमित्तनैमित्तिक संयोग इस प्रकार का है कि उसे बंद हो जाना चाहिए घड़ी में यदि चाभी भरी हो तो चलेगी। सब विज्ञान का न्याय है।
कल्पित चतुराई में दो कलावों को अधिकता- एक बार किसी आम सभा में कोई मुसलमान भाषण कर रहा था। वह भाषण देने में बड़ा चतुर था जिस बिरादरी के लोगों को जाते हुए देखे उसही की कोई बात छेड़ दे तो उन लोगों की जिज्ञासा हो जाती थी कि सुने यह क्या कहता है इसके संबंध में? यों बहुत आदमी एकत्रित हो गये थे। दस पाँच जैन भाई भी निकले। मुसलमान ने देखा तो जैनियों के प्रति बात छेड़ दी, देखो भाई दुनिया में कला 72 होती हैं मगर जैनियों में दो कला ज्यादा हैं, यह बात सुनकर जैन लोग वहां चले गये कि हम अपनी दो कलाएँ तो जान लें कि कौनसी दो कलाएँ जैनियों में बढ़ी हुई हैं। उस प्रवक्ता को तो अपना उद्देश्य बताना था। उसे तो जीवों की हिंसा खुदा के नाम पर करने को धर्म बताना था। उसकी मंशा तो भाषण में यह कहने की थी। सो बड़ी युक्तियों से अपनी समझ के अनुसार चातुर्य से हिंसा में धर्म भाषण में सिद्ध किया। खैर बहुत देर के बाद किसी ने छेड़ ही दिया कि आपने तो जैनियों में दो कलाएँ अधिक बतायी वे कौनसी हैं? तो उसने बताया कि जैनियों में दो कलाएँ ये हैं कि खुद जानना नहीं, दूसरों की मानना नहीं। हो गयी दो कलाएँ अधिक की नहीं?
अज्ञानियों की अतिरिक्त कलावों का शास्त्र में संकेत- आप सोच रहे होंगे कि ये कैसी दो कलाएँ निकाली? आपको याद होगा इस संबंध में अमृतचंद्र जी सूरि ने भी इन दो कलावों का निर्देशन किया है।
‘‘इदं तु नित्यव्यक्ततयाऽंत:प्रकाशमानमपि कषायचक्रेण सहैकीक्रियमाणत्वात्स्वस्यानात्मज्ञतया परेषामात्मज्ञानामनुपासनान्च न कदाचिदपि श्रुतपूर्वं, न कदाचिदपि परिचितपूर्वं, न कदाचिदपि अनुभूतपूर्वं निर्मल विवेकालोकविविक्तं केवलेमेकत्वम्।’’
इस दुनिया के जीवों ने विषयों की कथाएँ बार-बार सुनी, परिचय में लायीं और अनुभव किया किंतु यह परमशरण परमात्मतत्त्व जो अंत: नित्यप्रकाशमान है, पर कषायों के साथ अपने उपयोग को एकमेक कर दिया है जिसके कारण इसकी बुद्धि ऐसी खोटी हो गयी है कि परमात्मप्रभु को न तो यह स्वयं जानता है और उस परमात्मतत्त्व के जो जाननहार हैं उनकी उपासना संगति नहीं करता है। इसलिए सारशरणभूत तत्त्व न इसने कभी सुना, न परिचय में आया, न इसके अनुभव में आया। दो कलाएँ इसमें हैं कि नहीं? खुद जानना नहीं, जानने वालों की मानना नहीं।
प्रतिक्रामक का चिंतन- यह जीव अपने आपकी रक्षा के लिए बड़ा आलसी बन रहा है। इसने अपने आपकी शांति के लिए यथार्थ कार्य नहीं किया, मोह ममतावों में ही बसा रहा। यह परमार्थप्रतिक्रमण का अधिकारी संत चिंतन कर रहा है दूसरे जीवों को कुछ बताने का बहाना करके यह कह रहा है अपनी ही बात को। अहो देखो इस जीव ने अब तक मिथ्यात्व परिणाम ही भाये, पर सम्यक्त्व आदिक भावों की भावना नहीं की। ऐसा वही कह सकता है जिसे सम्यक्त्वभाव प्रकट हुआ है और वहां दूसरों का तो कहने का बहाना है, अपने आपके बारे में यह सोच रहा है कि मैंने कितना अनंतकाल खोटी वासनावों में लगा दिया और बड़ी मुश्किल से यह मनुष्यभव आज पाया है। अब यह सम्यक्त्वपरिणाम मेरा शिथिल न हो, ऐसी भावना है।
धर्मोपदेश में स्व का अध्ययन- जैसे सेना के सुभट लोग राजा की, सेनापति की जय बोलते हैं। उस जय बोलने में उनके भीतर में छिपी हुई अपने आपकी जय है। मैं सामने अमुक सुभट से लड़ रहा हूं तो मैं जीत जाऊँ, इस उद्देश्य के लिए बड़े पुरुष की जय बोलते हैं। ज्ञानीसंत जितने भी व्याख्यान करते हैं, लेखन से या बोलने से, जितनी भी देशना करते हैं उपदेश आदि देते हैं दूसरों को, यह एक उनकी विधि है। उपदेश देने के समय भी वे अपने आपका ही अध्ययन करते हैं। स्वाध्याय के 5 भेदों में धर्मोपदेश नाम का भी भेद बताया है। अर्थात् उसमें भी स्वाध्याय याने स्व का मनन है। यदि स्व के अध्ययन की दृष्टि नहीं है तो वह धर्मोपदेश स्वाध्याय में गर्भित नहीं हो सकता। जैसे कि पृच्छना- दूसरे से प्रश्न पूछना इसमें स्व के अध्ययन की दृष्टि है। तो पृच्छना भी स्वाध्याय हो जाता है। यदि स्व के अध्ययन की दृष्टि नहीं है अपनी कला दिखाने की दृष्टि है उस प्रतिक्रिया से दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने की दृष्टि है अथवा लोक में मेरा मान इससे भी अधिक रहे, यह दृष्टि है तो समझो कि वह स्वाध्याय नहीं है। यह स्वाध्याय तभी है जब स्व के अध्ययन की दृष्टि हो।
अज्ञान का परिणाम- यह गुणप्रकर्ष का इच्छुक दोषपरित्याग का इच्छुक ज्ञानी सोच रहा है इसने मिथ्यात्व अविरति कषाय योग के परिणाम जो कि कर्मबंध के कारणभूत हैं वे तो भाये, उनमें ही यह रमा, किंतु जो शुद्ध ज्योति है उसके निकट नहीं पहुंचा। मात्र मोह मिथ्यात्व कषाय से अपने उपयोग को रंजित बनाया, रंगीला बनाया। इससे ज्ञानी पुरुष के वचन इसमें घर नहीं कर सके, खुद नहीं समझा और जो उपदेशक हैं आचार्य हैं, ग्रंथ हैं, शास्त्र हैं, उनमें जो वाणी लिखी है, इन समस्त साधनों की उपासना से भी अपने हृदय को पवित्र न किया।
शास्त्र की वास्तविक विनय- भैया ! जरा इस प्रसंग में यह विचारिये कि शास्त्र की विनय क्या है? शास्त्र की अच्छी जिल्द बंधवा दिया अथवा, कपड़े में अच्छी तरह बांधकर शास्त्र को रखा, यह क्या शास्त्र की विनय हो गयी? अरे शास्त्र की विनय वहां है जहां शास्त्र में लिखे हुए जो वचन हैं उनके मर्म का परिज्ञान हो और प्राय: इस मर्म परिज्ञान के साथ ही आनंद के अश्रु भी निकल बैठें, वहां इसने शास्त्र का विनय किया। शास्त्र का उत्कृष्ट विनय यथार्थ विनय वही है कि शास्त्रों में जो मर्म भरा है उसका परिचय हो और दूसरे जीवों को परिचय कराये यह उस शास्त्र का उत्कृष्ट विनय है। शास्त्र की विनय ही ज्ञान की विनय है। ज्ञान कैसा होता है, क्या होता है, उस ज्ञान पर न्यौछावर हो जाना आत्मसमर्पण कर देना, सर्व कुछ न्यौछावर कर देना, यह है वास्तविक ज्ञान की विनय शास्त्र की विनय।
अकरणीय और करणीय विनय- इस जीव ने अब तक स्त्री बच्चों की खूब विनय की। वे गालियां सुना दे तो भी सुनना पसंद किया। वे कितने ही हुकुम दें उन हुकुमों के मानने में दिन रात विनय कर मोह का कर्तव्य निभाया, अपना मन, वचन सब कुछ न्यौछावर उस मोह के विषयभूत परिजनों के लिए किया। आत्मरक्षा के लिए क्या किया? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की विनय किसने की? ज्ञानस्वरूप और ज्ञान के साधक देव शास्त्र गुरु में हमारी असली विनय वृत्ति बने तो हमने कुछ किया समझें।
जीव की विपरिणती का विस्तार- इस जीव ने अज्ञान अवस्था में जो वासनाएँ बनाई हैं वे हैं मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग की। इन्हीं चार विभावों का विस्तार जब होता है, देखा जाय तो इसे कहते हैं तेरह गुणस्थान। मिथ्यात्व में पहिला गुणस्थान है, अविरति में मिथ्यात्व रहित अविरति तो दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान में है और सामान्यतया पहिले से चौथे तक है। अविरतिरहित कषाय 5 वें से लेकर 10 वें गुणस्थान तक है। और साधारणरूप से पहिले गुणस्थान से लेकर 10 वें गुणस्थान तक है। मिथ्यात्व, अविरति, कषायरहित योग केवल 11 वें, 12 वें और 13 वें गुणस्थान में है और वैसे सामान्यतया पहिले गुणस्थान से लेकर 13 वें गुणस्थान तक है। यहां तक कर्मों का आश्रव बताया गया है। जिसका होनहार मुक्ति के निकट नहीं है ऐसा अनासन्न भव्य जीव एक इस निजपरमात्मतत्त्व की प्रतीति से रहित तब तक रहता है जब तक इसने सम्यक्त्व की भावना नहीं भायी।
जीव की विपरिणति का मूल कारण- इस मोही जीव को इसका विशद बोध नहीं है कि देखो जो भी कोई पदार्थ होते हैं वे अपने आप हैं, अपने आप अपना सत्त्व रखते हैं। जो स्वयं अपना सत्त्व रख रहा है उसका स्वरूप निरपेक्ष है, स्वाधीन है, विविक्त है, अपने आपके स्वरूप में है, पर के स्वरूप से दूर है। ऐसे सहज निरपेक्ष स्वत:सिद्ध निरन्जन सदाशिव निजपरमात्मतत्त्व की श्रद्धा न रही थी, इस कारण इस मिथ्यादृष्टि भव्य जीव ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय योग इनकी भावना और वासना तो बनायी परंतु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की उपासना, भावना, दृष्टि नहीं की। विशदरूप में, अनुभूति के रूप में यह आत्मतत्त्व तब प्रकट होता है जब नैष्कर्म्य चारित्र होता है, जहां कोई क्रिया नहीं रहे, जहां कोई रंग तरंग नहीं रहे, ऐसी जिस क्षण स्थिति बने उस क्षण आत्मा की अनुभूति होती है।
आत्मानुभूति की एक पद्धति- भैया ! मोक्षमार्ग की प्राक्पदवी में जहां अप्रत्याख्यानावरण कषाय का भी उदय है और अंतर में उसका संस्कार भी है इतने पर भी कुछ क्षण ऐसे मिल जाते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीव का कुछ क्षण कषायों में उपयोग नहीं रहता और वहां रंग-तरंग वृत्ति नहीं चलती है। ऐसी निष्कर्म अवस्था में अर्थात् क्रियारहित अवस्था में, ज्ञानस्वभाव में ही जब उपयोग हो रहा है तो ऐसी अवस्था में आत्मानुभूति हो जाती है, चूँकि अंतर में संस्कार कषाय का पड़ा हुआ है। अत: वह उपयोग इस ज्ञानस्वभाव पर देर तक नहीं टिक पाता है। फिर कषायों में उपयोग चला जाता है। परंतु आत्मानुभूति होती है तो वह सबके एक ही ढंग से होती है।
स्थिर अथवा अस्थिर आत्मानुभूति में आत्मतत्त्व का समान स्वाद- जैसे किसी गांव में बड़ी प्रसिद्ध एक हलवाई की दुकान है जो बहुत मीठा पेड़ा बनाता है। खोवा को मंदी आंच में सेका, उसी खोवा में जब थोड़ी शीतलता हो जाय तो उसे बूरे के साथ खूब घोटा। खोवा से आधी तादात बूरे की रक्खी और उसे अच्छे आकार में बना लिया। उसका स्वाद अच्छा बन गया। अब अमीर पुरुष आधा सेर पेड़ा खरीद करके खाये और गरीब आदमी आधी छटांक ही पेड़ा लेकर खाये तो स्वाद तो दोनों को एकसा ही आया। यह तो नहीं है कि उस गरीब को पेड़ा कड़वा लगा हो और उस अमीर को मीठा लगा हो, पर इतनी बात है कि अमीर ने पेट भर छककर खाया और गरीब ने छककर पेट भर नहीं खाया, वह तृप्त न हो सका और तरसता रह गया। पर स्वाद तो जैसा उस अमीर को आया तैसा ही इस गरीब को आया। यों ही इस अव्रती महापुरुष को भी इन विभाव कर्मों की निर्जरा के उपाय से आत्मानुभूति प्रकट हुई है और इस सम्यग्दृष्टि पुरुष को कुछ क्षण के नैषकर्म्य यत्न से आत्मानुभूति प्रकट हुई है। स्वाद तो वही आया जो बड़े मुनीश्वरों को आता है। अब इतना अंतर है कि मुनीश्वर उस अनुभूति सुधारस को छककर पीते हैं और सदा प्रसन्न रहते हैं, तृप्त रहते हैं, उनकी बुद्धि व्यवस्थित है, जो कुछ करना है वह सब उनके लिए सुगम है, किंतु इस अविरत पुरुष को स्वाद तो उस नैष्कर्म्य के ढंग से आया, झलक तो आत्मानुभूति की आयी, परंतु संस्कार कषाय में थी वह उदय में आयीं, उनमें उपयोग भी गया, अब आत्मानुभूति छक करके न कर सका। वह तरसता ही रहा।
नियति और नियंत्रण- कितना उत्कृष्ट आनंद हुआ करता है इस आत्मानुभूति में? उसे तरसता रहता है यह अविरत ज्ञानी, पर स्वाद वही आया किसी क्षण जो अनुभूति हुई उसमें जो बड़े योगीश्वरों को अनुभूति में आया करता है। यह सब नैष्कार्य का प्रताप है। यह स्वरूपाचरण इस बहिरात्मा जीव को नहीं प्राप्त हुआ, यह स्वरूपविकल रहा, अपने स्वरूप को अपनी उपलब्धि में न ला सका। खुद और खुद का आनंद न ले सके यह कितने दु:ख की बात है? जैसे खुद की ही वस्तु आजकल के जमाने में कन्ट्रौल में हो जाय तो खुद लाचार हो जाय उसको भोगने में और रखने में। चीज खुद की है ऐसे ही यह ज्ञानानंदस्वरूप स्वयं का है पर ऐसा यह नियंत्रित हो गया, आवृत्त हो गया कि खुद की ही वस्तु खुद के भोगने में खुद के रखने में नहीं आ रही है। तब फिर जैसे दुकान में माल बहुत पड़ा है, पर उस माल का ग्राहक ही कोई नहीं है। कोई ले ही नहीं रहा है तो उस माल से आय तो नहीं रही। इतना अवश्य है कि उसको संतोष है कि हमारे घर में इतना माल है। ऐसे ही इस जीवक्षेत्र में, जीवास्तिकाय में आनंद की अपूर्व निधि पड़ी हुई है पर यह उपयोग में न आ रही, इससे कुछ आय नहीं हो रही है, बेकार पड़ा है? पर विदित हो जाय कि हां मेरे में आनंदस्वभाव की निधि बसी हुई तो उसको मोक्षमार्ग के योग्य ठसक तो रह सकती है कि है हमारे पास सब कुछ।
पास में निधि होकर भी गरीबी- भैया ! जब तक जिसको अंतस्तत्त्व का अवलोकन ही नहीं हुआ, परिचय ही नहीं हुआ तो वह तो उस गरीब की तरह है जिसके की गठरी में तो लाल बँधा है और वह रोटी-रोटी मांगने की वृत्ति कर रहा है। इस बहिरात्मा जीव ने जो कुछ गड़बड़ भी काम किया उसमें भी सहयोग तो मूल आधार तो इस चित्स्वरूप का ही है। चित्स्वरूप महामणि का उपयोग इस बहिरात्मा जीव ने विषयकषाय जैसे असार गंदी वृत्तियों में किया। जैसे किसी भी भिल्लनी को जंगल में कोई गजमोती, मणि मिल जाय तो उसका उपयोग अपरिचय होने के कारण पैरों के घिसने में किया जाता है, उन्हें पता ही नहीं है कि यह कोई मूल्यवान् पदार्थ है। उस मूल्यवान् मणि का उपयोग पैरों के घिसने में कर रहे हैं वे और लकड़ी बेचकर बड़ी मुश्किल से सूखा रूखा अधपेट ही खाकर अपना जीवन गुजारते रहते है। ऐसे ही अपने आपके स्वरूप में बसी हुई जो चित्स्वभाव महामणि है, चिंतामणि, उसका उपयोग यह जीव विषयकषायों के गंदे उपयोगों में कर रहा है और खुद पर की आशा करके भीख मांगकर दु:खी हो रहा है। जैसे किसी लकड़हारे को कोई मणि मिल जाय और यों ही समुद्र के तट पर बैठे हुए कौवों को मारने के ख्याल से उस मणि को जोर से फैंकता है और वह समुद्र में गिर जाती है। ऐसे ही यह चित्स्वभाव महामणि इस जीव के समीप है पर बहिर्मुख बनकर बाह्यपदार्थों की ओर दृष्टि देकर इन बाह्य पदार्थों में यह उपयोग फैंक रहा है और बाह्य पदार्थों का लक्ष्य करके उपयोग फैंका जो कि मिथ्यारस में डूब जाता है।
परमार्थदर्शन- इस बहिर्मुख जीव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की भावना नहीं भायी है। कोई निकटभव्य जीव अपने आपमें भेदभावना के अभ्यास से पायी हुई झलक के कारण सम्यक्त्व प्रकट करता है। तब यह जीव रत्नत्रय की भावना से सज्जित होकर मोक्षमार्ग में, शांतिमार्ग में दिन दूना बढ़ता है। अपने आपके सहजस्वरूप का दर्शन ही एक बड़ा प्रभाव ला देता है।
अंतस्तत्त्व के दर्शन में समस्यावों का समाधान-जगत की मायामय वस्तुवों की समस्त समस्याओं का समाधान एक ही क्षण के निज अंतस्तत्त्व की झलक से हो जाता है। कितनी समस्याएँ पडी़ हुई हैं, कितनी उल्झनें हैं, कितना काम पडा़ है। जिसके कारण कोई तो यह भी कह देते हैं कि हमको जरा भी फुरसत नहीं है पर फुरसत किसके लिए नहीं है? धर्म करने के लिए, ज्ञानार्जन के लिए, प्रभुभक्ति के लिए। तृष्णा पाप के लिए तो 24 घंटे फुरसत है। इस आत्मत्त्व की एक क्षण भी झलक हो तो ये सारी समस्याएँ, ये सारी विडंबनाएँ, आपत्तियां, अनेक दोस्तियां अनेक वायदे कर लेने से उनकी ओर किए जाने वाले, यत्न के विकल्प में हुई विडंबनाएँ, जिनमें ऐसा भी महसूस कर लिया जाता है कि यह काम यदि न कर सके तो बहुत आपत्ति है, फिर रहना न रहना बेकार सा है, ऐसी-ऐसी कठिन समस्याएँ भी एक अंतस्तत्त्व की झलक से प्राप्त होती हैं। काम पडे़ हैं सौ करने के लिए, उन सौ कामों का बड़ा बोझ सिर पर लदा है पर जहां अपने आपके आकिन्चन्य स्वरूप को निरखा, ज्ञानमात्र अपने आपकी झलक पायी और उसमें सहजपरम आनंद का अनुभव किया उसमें ये सब समाधान हो जाते हैं। मेरे को कहीं कुछ करने को है नहीं। ये सब न किये जायें, न हो ऐसा, जैसा कि अभी कुछ मिनट पहिले सोच रक्खा था, न हो न सही, मेरा कुछ काम अटका नहीं है और फिर मेरे सोचने से इन बाह्य पदार्थों में कुछ परिवर्तन भी नहीं हो पाता है। होता है तो होता है। हमारे विचारने से वहां क्या होगा? ऐसी अंतस्तत्त्व की झलक पा जाने से प्राक् पदवी में भी ज्ञानी पुरुष को बडी़ शांति है।
विपदा में भी धैर्य के कारण का एक दृष्टांत– एक मुसाफिर था दूसरे गांव को जा रहा था। उसे एक जंगल के निकट शाम हो गयी, लेकिन फिर भी थोड़ा चलता रहा तो पगडंडियां कई होने के कारण रास्ता भूल गया और एक जंगल में फँस गया। कोई मार्ग ही न दिखे। अब वह सोचता है कि अब हम जितना आगे बढेंगे उतना ही खोटे मार्ग में बढ़ जायेंगे। न जाने कितना और उलझ जायेंगे? अंत भी कुछ न मिल पायेगा इस कारण इस ही जगह अपने दिल को मजबूत करके ठहर जावे। जब कोई आपत्ति सामने आती है तो धैर्य बन जाता है। जब तक आपत्ति सिर नहीं आती है तो आपत्ति के ख्याल में यह अधीर हो जाता है। थोड़ा कुछ बुखार आने के लक्षण से दिख रहे हों, आया नहीं है, पर लग रहा हो कि अब तो मैं बुखार से घिर जाऊँगा, जितनी अधीरता, जितनी कमजोरी, जितना भय उस समय होता है, 103 डिग्री बुखार चढ़ गया, जाड़ा लग रहा है, कह रहा है रजाई लावो, उस समय इतनी अधीरता नहीं है जितनी कि बुखार आने के पूर्व समय में थी। अब तो जान रहा है कि इससे आगे अब क्या होगा? हो तो गया। अब उस मुसाफिर ने सोचा कि अब जंगल में मैं फंस गया। अब क्या है? सो वह तो धीर बना व वहीं ठहर गया। अब उसके चित्त में शंका ऐसी जरूर है कि मुझे मार्ग मिलेगा या न मिलेगा, या ऐसे ही जंगल में पड़े-पड़े जानवरों के द्वारा खाया जाऊँगा, क्या होगा? शंका तो है, पर उसी समय में बिजली चमकी। उस चमक से बहुत दूर तक का स्थल दिख गया। और यह भी दिख गया कि एक छोटासा रास्ता यहां से निकलता है और वह सड़क दिख रही है, उस सड़क से यह रास्ता मिल गया है, इतना दिख गया। अब फिर वही अँधेरा है, उसी जंगल में पडा़ है, मगर उसके चित्त के मित्र बनाकर उसके चित्त की फोटो लो जरा, क्या अब वह आकुलता है जो पहिले थी? वह तो प्रतीक्षा में है कि बीतने दो रात, चार घंटे का ही तो समय रह गया है रात्रि का। वह रास्ता है, यों जाना है और उस सड़क पर यों पहुंच जायेंगे, उसे धैर्य है, उसके मन में विनिश्चय निर्णय है, आशंका नहीं है।
ज्ञानी का धैर्य और आत्मोपलब्धिपथ- भैया ! ऐसी ही वृत्ति असंयत, सम्यग्दृष्टि की स्थिति की है। यह अविरत ज्ञानी मार्ग पर नहीं चल रहा, पर मार्ग का पूरा पता हो गया, उसे कहते हैं अविरत सम्यग्दृष्टि। अब हुआ सदसद्विेवेक का सवेरा और अणुव्रतों की पगडंडियों पर चलने लगा तो यह हुई देशविरत की स्थिति। अभी निर्वाध उत्सर्ग मार्ग पर, आम सड़क पर नहीं पहुंचा। अभी पगडंडियों से ही चल रहा है, आसपास छोटी मोटी स्नेहसाधनों की झाड़ियां भी है, उनमें उपयोगरूपी वस्त्र भी फंस रहा है, जिसे छुटाता भी जाता है बच-बचकर चल रहा है, यह है देशविरत सम्यग्दृष्टि की स्थिति और जब उत्सर्गमार्ग पर, मैदानी सड़क पर पहुंच गया, साफसुथरी सड़क पर पहुंच गया तो वह आ गयी महाव्रती सम्यग्दृष्टि की स्थिति। निर्ग्रंथ अवस्था में अब क्या चिंता है? एक ही उद्देश्य है। आत्मा के उपासना की, सम्यग्ज्ञान के भावना की। निर्वाध इस ज्ञानपथ से अब चला जा रहा है। यों यह मोक्षमार्ग में भावना हुई है और यत्न हुआ है। ऐसा जीव ही यह विचार सकता है कि मैंने कितना अनंत काल मिथ्या आशयों में, मिथ्या भावनाओं में गँवाया?
पूर्व अभावित भावनाओं की भावना का ध्येय भव का अभाव- ज्ञानी संत यह भावना भा रहा है कि इस संसार के चक्र में घूमते हुए मैंने जो पहिले कभी भावना भायी नहीं है उन अभावित भावनावों को भवों के अभाव के लिए मैं भाता हूं। संसारभ्रमण का अभाव संसारभ्रमण के कारणभूत भावनावों के विरूद्ध भावनावों के भाने से होता है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग- ये भाव संसारभ्रमण के कारण हैं। संसारभ्रमण का अभाव करने के लिए सम्यक्त्व की भावना, संयम की भावना, निष्कषाय वृत्ति की भावना और निश्चेष्ट रहने की भावना भायी जाती है। जैसा बनना है वैसा अपने को जरा भी निरखे नहीं, उस ओर की भावना ही न करे तो बन कैसे सकता है?
सम्यक् संयत निष्कषाय निश्चेष्टस्वरूप की भावना की आवश्यकता- हमें निरखना है सम्यक्त्वरूप, समीचीन स्वरूप। यदि समीचीन स्वरूप का हम दर्शन ही न करें, विश्वास ही न रक्खें तो सही स्वरूप की प्रकटता कैसे हो सकती है? हमें होना है पूर्ण अंत:संयमरूप, क्योंकि अविरत के परिणाम से संसार का भ्रमण ही चलता रहता है। उन अव्रत परिणामों से दूर होना अत्यंत आवश्यक है। अविरत परिणाम से जहां सर्वथा दूर हो जाया करता है वहां अंत:संयम की परिस्थिति हो जाती है। अपने आपमें अंत:संयम की जो स्थिति है, स्वरूप है उसकी भावना भाये बिना यह अंत:संयम नहीं हो सकता है। हमें होना है निष्कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ से रहित। तो निष्कषाय का जो स्वरूप है, ज्ञायकस्वभाव है उसका दर्शन विश्वास हुए बिना निष्कषाय की वृत्ति जग कैसे सकती है? हमें होना है नि:स्पंद, निश्चल, निश्चेष्ट क्योंकि सकंप रहने में, चेष्टावान रहने में कोई आत्मकल्याण नहीं है, क्षोभ ही है। जब तक अपने आपको निश्चेष्ट ज्ञानमात्र स्वरूप में न निहारें प्रतीति न करें तो यह स्थिति हमारी कैसी बन सकती है? अत: भवों के अभाव के लिए, संसार के सारे संकट समाप्त करने के लिए सम्यक्त्व आदिक भाव भाना सर्व प्रथम आवश्यक है।
संसारभ्रमण- इस जीव ने अब तक संसारचक्र में चलते हुए रागद्वेष की कीली पर स्वक्षेत्र में वहीं के वहीं रहते हुए इस भावसंसार में परक्षेत्र में 343 घन राजू प्रमाण इस लोक क्षेत्र में भ्रमण ही किया। यहां बाह्य क्षेत्र के भ्रमण से तो कोई हानि न थी। हानि तो भावसंसार के जो चक्र लगे हैं उनसे होती है, पर यह बात अवश्य है कि भावसंसार का भ्रमण न रहे तो यह द्रव्य, क्षेत्र का भ्रमण हो नहीं सकता, पर इन दोनों प्रकार के भ्रमणों में आकुलता का कारणभूत भाव भ्रमण ही है।
भोग और भोगियों का स्नेह बरबादी का कारण- इस जीव ने पंचेंद्रिय के विषयों में, मन के विषयों में सुख माना है और इस कारण इन इंद्रियविषयों में दौड़ दौड़कर भागता है। मन का विषय भी इतना तीव्र बना लिया है कि सारे विश्व पर एकक्षत्र तक राज्य करने का इसके चाव हो जाता है, और इतना ही नहीं, स्वयं भी संसारगर्त में गिरने का काम कर रहा है तथा दूसरों को भी इसी संसारगर्त में गिराने का यत्न कर रहा है, उन्हें उपदेश दे रहा है ऐसे भोग भोगो। जिन पर इस संसारी जीव का प्यार होता है वह उन्हें बरबाद करके रहता है। जैसे क्रूर जानवरों का स्नेह बरबादी का कारण है अथवा सिंह का अशन किसी जीव वध का ही कारण है, दुष्टों का प्रेम अथवा बेवकूफों का प्रेम किसी को आपत्ति में फंसाने का ही कारण है, ऐसे ही इस मोही पुरुष का प्यार जिस पर भी पहुंचे स्त्री पर पुत्र पर तो वह प्यार उन्हें बरबाद करने का ही कारण होता है, क्योंकि प्यार में क्या करेगा यह? इस जीव का मोह और अज्ञान के कारण जिन विषयों में सुख जंचा है उन विषयों का ही उपदेश देगा, उनमें लगाने का ही यत्न करेगा। यों खुद भी डूबा और दूसरे जीव को भी डुबाया। यह स्थिति रहती है इस मोही जीव की।
अंत:प्रवेश बिना घोर उपद्रव- अहो असार भोगों में लीन रहने का काम इसने एक ही भव में नहीं किया किंतु अनादि काल से यहां यह करता चला आ रहा है। अनंतकाल व्यतीत हो गया, इसने भोगविषयों की कथाएँ अनंत बार सुनीं, अनंत बार अनुभूत कीं, परंतु खेद की बात है जो अति सुगम स्वाधीन आनंदरूप ज्ञानभाव है उस ज्ञानभाव की ओर इसने दृष्टि नहीं की। जैसे जमुना नदी में तैरने वाले कछुवे जो कि बाहर मुँह निकाले रहते हैं वे पक्षियों के उपद्रव से दु:खी होते हैं। पक्षी उस कछुवे की चोंच को चोंटना चाहते हैं और यह बेवकूफ कछुवा ऊपर ही मुँह उठाये यहां का वहां बचना चाहता तो वह कितना मूर्ख है कि उन 10, 20, 50 पक्षियों के उपद्रव से दूर होने का उसके पास सुगम स्वाधीन सामान्य भ्रमरहित उपाय है और उसे नहीं कर पाता है, यह उपाय यही है कि थोड़ा चार अंगुल भीतर डूब जाय। जो बाहर में चोंच निकाल रक्खी थी उस चोंच को उस जल के अंदर ही कर लेवे, सारे पक्षी वहां से भाग जायेंगे, उपद्रव से वह कछुवा बच जायेगा। ऐसे ही यह मोही प्राणी अपने स्वरूप से, अपने क्षेत्र से बाहर परपदार्थों की ओर उपयोग होने से और उन्हीं की ओर दूसरों का भी उपयोग होने से दु:खी है। संसार की यह पौद्गलिक संपदा जितनी है उतनी ही है। उसके चाहने वाले अनगिनते लोग हैं तब वहां विवाद कलह झगड़ा होगा ही। हर एक कोई उसे समेटना चाहता है, इसी से उपद्रुत है और दु:खी है। उन सर्वसंकटों के मिटने का यही उपाय है कि अपनी ओर प्रवेश कर ले।
बिना मूल की बातों के स्वप्न के संकट- अच्छा, पौद्गलिक संपदा की बात जाने दो। इस सारे विश्व का मैं नेता बन जाऊँ, ऐसी चाह करने वाले भी तो अनगिनते लोग हैं, जीव हैं। अब बतावो यहां कुछ बात भी नहीं, फिर भी इतना बड़ा विवाद बन जाता है कि जितना संपदा के पीछे विवाद नहीं बनता है। झगड़े का जितना फैलाव है, झगड़ने की जितनी संख्या है उनमें 95 प्रतिशत झगड़े केवल बात की शान के हैं। पौद्गलिक संपदावों के संबंध में झगड़े 5 प्रतिशत होते हैं। खूब ध्यान से सोच लो, घर में भी दिन भर में अगर 50 बार झगड़ा हो जाता है तो वहां भी देख लो कि बात की शान के झगड़ों की कितनी संख्या है और धन वैभव संपदा के पीछे होने वाले झगड़ों की कितनी संख्या है? उन सब संकटों को नष्ट करने की जिस भाव में सामर्थ्य है, उस ज्ञानभाव में आस्था नहीं की। फिर बतावो यह मुफ्त का संकट कैसे मिटेगा?
स्वदया का यत्न- यह ज्ञानभाव अत्यंत सुगम स्वाधीन है। कहीं बाहर लेने को नहीं जाना है, किंतु अंतरंग में ही वह व्यक्त है, अंत:प्रकाशमान् है, पर यह उपयोग कितने समूह के साथ एकमेक घुलमिला रंगीला बन गया है जिसके कारण अब इस उपयोग को अंतरंग में विराजमान् यह कारणसमयसार प्रभु नहीं दिख रहा है। इसे तो इस जीव ने खुद जानने का यत्न नहीं किया और दूसरे जीव जो जानते हैं उन ज्ञानी संतों का सत्संग भी नहीं किया। इसी से इसे अपना यह ज्ञानमय एकत्व दृष्टिगत नहीं होता। इस ही में अपनी दया है, अपनी भलाई है कि इन सब मोह और अहंकार की भावनावों का परित्याग करें और सम्यक्त्वरूप, आकिन्चन्यरूप शुद्ध तत्त्व की भावना बनाएँ। इसही उपयोग से यह परमार्थप्रतिक्रमण प्रकट होता है, जिस पुरूषार्थ के बल से भव-भव के बांधे हुए कर्म क्षण मात्र में ध्वस्त हो जाते हैं।