वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 113
From जैनकोष
अंडेसु पवड्ढंता गब्भत्था माणुसा य मुच्छगया ।
जारिसया तारिसया जीवा एगेंदिया णेया ।। 113 ।।
क्रियाव्यापारहीनता में भी जीव के सद्भाव की संभावना का निश्चय―जैसे अंडे के अंदर पड़े हुए जीव के गर्भ में रहने वाले जीव के या किसी कारण से मूर्छा को प्राप्त हुए बेहोश हुए जीवों के बुद्धिपूर्वक व्यापार कुछ नहीं देखा जाता । अंडे में पड़ा हुआ जीव जो अभी पूर्ण कठोर अवस्था को भी नहीं प्राप्त हुआ, वह कुछ हरकत करता है क्या? गर्भ में रहने वाला जीव जो अभी एक-दो माह का है वह पेट के अंदर कुछ हरकत करता है क्या? ऐसे ही जो मनुष्य मूर्छित हो जाते हैं, मदिरा पीकर अति बेहोश हो जाते हैं उनके तो हाथ पैर भी नहीं डुलते हैं, उनमें बुद्धिपूर्वक कुछ भी व्यापार नहीं देखा जाता । फिर भी जिस प्रकार से लोगों के चित्त में यह बात रहती है कि इसमें जीव है, उनमें जीवपने की बात निश्चित की जाती है उसी प्रकार से यद्यपि एकेंद्रिय के भी बुद्धिपूर्वक व्यापार नहीं देखा जाने की समानता है उन अंडस्थ गर्भस्थ जीवों की तरह, फिर भी इनमें चैतन्य का निश्चय है ।
एकेंद्रिय जीवों में जीवत्व―भैया ! पेड़ों में तो स्पष्ट समझ में आता है कि ये जीव हैं, ये फलते हैं, फूलते हैं, सूखते हैं, हरे होते हैं । इससे लोग जानते हैं कि इनमें जीव है । वृक्षों के संबंध में लोगों को संदेह नहीं है । सब लोग समझते हैं कि इनमें जीव है । कोई कहीं से पेड़ का छोटा पौधा लाये और उसे लगाये । वह पौधा सूख गया तो लोग कहते हैं कि पौधा मर गया और वह पौधा हरा भरा हो गया तो लोग कहते हैं यह पौधा हरा भरा हो गया, जी गया । उस संबंध में तो लोग निश्चय रखते हैं कि इनमें जीव है । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, इन चार के संबंध में कुछ हैरानी-सी होती है जीव के सिद्ध करने में । लेकिन सुना गया है कि पहाड़ बढ़ते हैं, ऊपर को उभड़ते हैं, जल भी वृद्धिगत होता है, अग्नि बढ़ती है और वायु तो तेज बहती ही रहती है । किसी प्रकार से देखो―इनमें जीवत्व का निश्चय हो जाता है ।
जीवभेदप्रतिपादन की आवश्यकता―एकेंद्रिय जीव का वर्णन इस गाथा में करके अब दो इंद्रिय जीव का वर्णन किया जायगा । यह प्रकरण व्यवहार सम्यग्दर्शन का चल रहा है ।और व्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताने के लिए जीवादिक पदार्थों का वर्णन करना आवश्यक है । इन जीवादिक पदार्थों का जैसे वे हैं तैसे ही श्रद्धान करना इसका नाम सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहा है । उस ही सिलसिले में यह जीव के भेद का प्रतिपादन है । जीव दो प्रकार के हैं―संसारी और मुक्त । संसारी जीव दो प्रकार के है―मनरहित और मनसहित । उनमें से मन-रहित जीव का वर्णन चल रहा है । ये सब एकेंद्रिय जीव मन के परिणमन से रहित हैं ।