वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 114
From जैनकोष
संवुक्कमादिवाहा संखा सिप्पी अपादगा य किमी ।
जाणंति रसं फासं जे ते वेइंदिया जीवा ।।114।।
दो इंद्रिय जीव―शंख, सीप, क्षुद्रशंख, गेडुवा, जोंक, सुरसुरी आदि ये सब कृमियाँ दो इंद्रिय जीव हैं । ये रस व स्पर्श को जानते हैं । इनके स्पर्शनइंद्रियावरण और रसनाइंद्रियावरण का क्षयोपशम है । शेष इंद्रियावरण का उदय है तथा नौ इंद्रियावरण का भी उदय है,ऐसी स्थिति में ये दोइंद्रिय जीव स्पर्श और रस के जानने वाले होते हैं, परंतु इनके मन नहीं है । जीवों के शरीर की रचना भी कितनी विचित्र-विचित्र पायी जाती है? ये दो इंद्रिय जीव भी कैसे विचित्र शरीर वाले हैं, जैसे कि एकेंद्रिय जीव अनेक विचित्र शरीर वाले हैं । पीपल के पेड़ कैसे, गेहूं, चनों के पेड़ कैसे, बेल का फैलाव कैसा, नाना प्रकार की वनस्पतियां हैं और साधारण वनस्पतियां तो और भी सूक्ष्म नाना हैं । पृथ्वी भी कितने प्रकार की हैं? सोना, चाँदी, रत्न, हीरा, जवाहरात, तांबा, लोहा, पत्थर, मिट्टी इत्यादि । जैसे ये नाना प्रकार के शरीर हैं ऐसे ही दो इंद्रिय जीवों में भी शरीरों की कैसी विचित्रतायें हैं?
विचित्र कायसंस्थान―यह विविध शरीर जीव को कैसे मिल जाता है, इसका कैसे ग्रहण होता है? इस संबंध को कोई तीसरा जोड़ता नहीं है । जीव ने जैसा परिणाम किया उन परिणामो से जैसा कर्मबंध हुआ उस उदय के अनुसार ये शरीर वर्गणायें इस प्रकार परिणम जाती हैं जीव का संबंध पाकर और यों निरख लो कि इस जीव के संबंध से तो जीव का आकार बनता है और जीव के संबंध से शरीर का आकार बनता है, जो कुछ भी आज दिख रहा है और उपयोग में आ रहा है । देखो ना, यह दृश्यमान सब एकेंद्रिय जीवों का शरीर है । पत्थर, गाटर, कागज, कपड़ा, जो कुछ भी आपके ये बराबर उपयोग में आ रहे हैं ये सब एकेंद्रिय के शरीर हैं । इनका यह आकार बन कैसे गया? ये पत्थर इतने लंबे चौड़े कैसे हो गए? ये जब खान में थे तो इनमें जीव था । उस एकेंद्रिय जीव के कारण यह पत्थर बढ़ा था । यह सब निमित्तनैमित्तिक संबंधवश आकार प्रकार प्रकृति से हो गया है ।
दोइंद्रिय जीवों से अंग उपांग का प्रारंभ―यह जगत चराचरमय है, इस चराचर-मय जगत में जीवत्व कितना है और अचेतनत्व कितना है, पुद्गलपना कितना है? ऐसा भेद-विज्ञान इस जीव का एक परम साधन है शांति के मार्ग में बढ़ने का । इस गाथा में दोइंद्रिय जीवों का वर्णन किया है । दोइंद्रिय जीव से अंगोपांग प्रकट होने लगते हैं । कितना ऊटपटांग इनके अंगोपांग होते हैं । बतावो जो गेडुवा है वह कितना लंबा है? कहाँ नाभि है, कहाँ इसका मुँह है, किस तरह यह चलता है, कैसा इसका ऊटपटांग शरीर है? फिर भी इसके अंगोपांग प्रकट होते हैं, किस ही प्रकार का हो । यहीं से अंगोपांग नामकर्म का उदय चलने लगता है ।