वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 115
From जैनकोष
जूगागुंभीमक्कणपिपीलिया विच्छियादिया कीडा ।
जाणंति रसं फासं गंधं तेइंदिया जीवा ।।115।।
तीन इंद्रिय जीव―इस गाथा में तीनइंद्रिय जीवों का प्रकार बताया गया है । ये जीव स्पर्शन, रसना और घ्राण इंद्रियजंय ज्ञान के आवरण करने वाले कर्मों के क्षयोपशम से व्यक्त होते हैं । इनमें चक्षुरिंद्रियावरण और श्रोत्रइंद्रियावरण का उदय है और नौ इंद्रियावरण का भी उदय है । ऐसी स्थिति में इस जीव के बाह्य में तीन इंद्रियां प्रकट हुई हैं―स्पर्शन, रसना और घ्राण । इन इंद्रियों के निमित्त से ये जीव स्पर्श, रस और गंध के जानने वाले होते हैं इनके आँखें नहीं हैं और मन भी नहीं है, ये सब असंज्ञी जीव हैं ।
शक्ति का तिरोभाव व आंशिक आविर्भाव―यद्यपि शुद्धनय से देखा जाय तो इन दोइंद्रिय तीनइंद्रिय आदिक कीड़ा मकोड़ा जैसे स्वरूप से यह आत्मतत्त्व पृथक् है । केवलज्ञान, केवलदर्शन से यह अभिन्न है, अपनी ज्ञानशक्तिमय है, लेकिन ऐसे शुद्धज्ञानस्वरूप की भावना जब नहीं रहती तो ऐसे-ऐसे नाना शरीर मिलते हैं । इन जीवों में मन नहीं है । सो ये जीव भावना कर ही नहीं सकते । हाँ मन से कुछ भावना चल सकती है, सो इनके भावना का साधनभूत मन भी नहीं है । तो जब भावना न बन सकी तौ आत्मतत्त्व की भावना से जो सहज आनंद प्रकट होता है उससे ये बिल्कुल शून्य हैं । हां वीर्यांतराय के क्षयोपशम से कुछ इसमें ऐसी व्यक्ति हुई है कि ये दो इंद्रियों से अथवा तीन इंद्रियों से कुछ सुख ले सकते हैं । ऐसे हो परिणामों में रहता हुआ यह जीव तिर्यंचगति को भोगता है और अपनी जाति के अनुकूल विषयों में उन्मत्त रहा करता है ।
तीनइंद्रिय जीव की परिस्थिति―तीनइंद्रिय जीवों के कुछ नाम ये हैं, जैसे―जुवा, खटमल, चींटी, बिच्छू गिजाइयां, सुरसुरी और भी जो कीड़े फिरते हैं, जिनके 4 पैर से अधिक पैर रहते हैं और चलते हैं, उड़ नहीं सकते, ऐसे जीव ये तीनइंद्रिय हैं । ये सब जीव स्पर्श, रस, गंध आदिक को जानते हैं । मोही जीवों के विशुद्ध ज्ञान दर्शनस्वभावी आत्मतत्त्व की सुध नहीं रही और इसी कारण आत्मीय आनंद का परिचय नहीं रहा, वे अपने आनंद सुधा से च्युत हो गए और वे इस ही इंद्रिय के स्वाद में मूर्छित हो गये, ऐसे जीवों के द्वारा जो-जो इंद्रियजाति नामकर्म बंधा है उस कर्म के उदय के अधीन होकर यह जीव तीनइंद्रिय बनता है । इनके वीर्यांतराय का क्षयोपशम है । कुछ शक्ति तो प्रकट है और स्पर्शनइंद्रियावरण, रसनाइंद्रियावरण, घ्राणइंद्रियावरण का भी क्षयोपशम है, किंतु श्रोत्रइंद्रियावरण और चक्षुइंद्रियावरण का उदय है जिससे आंखों का निशान तक भी प्रकट नहीं हुआ है । ये जीव मनरहित हैं ।
इंद्रियों का क्रमिक अभ्युदय―कोई मनुष्य जन्म से ही अंधा पैदा हो और ऐसा ही अंधा हो कि जिसकी आँखों के गोलक ही न प्रकट हुए हों,, जैसे गोल और सफेद आँख के गोलक हैं वे गायब हों, ऐसा भी मनुष्य पैदा हो तो भी उसके चक्षुइंद्रियावरण का क्षयोपशम है, वह न देख पा रहा, न देख, पायगा चाहे अपने उस जीवन में लेकिन चक्षुरिंद्रियावरण का क्षयोपशम अवश्य है । ऐसा नहीं हो सकता कि चक्षुरिंद्रियावरण का क्षयोपशम न हो और श्रोत्रइंद्रियावरण का क्षयोपशम हो जाय ।
इंद्रियों के आविर्भाव क्रम का अनतिक्रम―ये पाँचों इंद्रियाँ क्रम से व्यक्त हैं अर्थात जो तीनइंद्रिय जीव हैं उनके स्पर्शन, रसना, घ्राण ये तीन ही इंद्रियां होंगी । क्रम से अतिक्रम न होगा कि किसी के ऐसी तीन इंद्रियाँ बन जायें कि स्पर्शन, रसना और चक्षु इस तरह के अतिक्रम से इंद्रियाँ नहीं होंगी । इस प्रसंग में एक बात का और अनुमान कर लो । जिस जीव की जो अंतिम इंद्रिय होती है वह अन्य इंद्रियों की अपेक्षा प्राय: अधिक प्रबल होती है । जैसे दोइंद्रिय जीवों के मुख हो गया है तो अब उनको मिट्टी वगैरह खाने का निरंतर काम पड़ रहा है । चींटी के घ्राणइंद्रिय प्रकट हो गयी तो उसके नाक का गंध का ऐसा तीव्र विषय है कि आप मिठाई किसी जगह रखे हों वहाँ चलकर वे चींटियां पहुंच जाती हैं । इसी प्रकार मनुष्य की अंतिम इंद्रिय है मन । यद्यपि मन अनिंद्रिय है तो भी यह छठी चीज मिली तो है । यह मन अंतःकरण है, अंदर की इंद्रिय है । तो हम आप लोगों के मन का कितना तीव्र विषय है? पल भर में कितनी घटनाएं मन में ग्रहण कर लेते हैं और प्राय: करके यह मनुष्य अथवा जो भी संज्ञी पंचेंद्रिय जीव हैं उनके अधिकतर मन का ही सुख और दुःख रहता है । यह कभी इंद्रियजंय सुख को भोगे तो भी उसके साथ मन का विशेष हाथ है । ओर इस मन के सहयोग से सुख दुःख का अनुभव अधिक कर डालते हैं ।
उपद्रवी मन―भैया ! बहुत उपद्रवी कोई अपने आप में पड़ा हुआ है तो यह मन है । कैसा कठिन मन है कि यह पकड़ में नहीं आता, बंधन में नहीं आता, दिखाया नहीं जा सकता, किसी दूसरे के कैद भी नहीं कराया जा सकता । ऐसा यह अनियत फुर्तीला मन इस मनुष्य को परेशान किए हुए है । परमार्थदृष्टि से निरखी तो इस जीव का स्वरूप तो केवल अमूर्त एक चैतन्य स्वभावमात्र है लेकिन जब इस स्वरूप को अपने उपयोग में ग्रहण नहीं किया गया तो इसके अनंत भय उत्पन्न हो गया । जीव का तो निर्भय स्वरूप है इस भव की मृत्यु भी आये तो भी जीव का कुछ बिगाड़ नहीं है, पर कोई जीव के इस परमार्थ स्वरूप पर दृष्टि दे उसके ही तो समझ में यह बात आयगी ।
अज्ञान से मायाजाल का विस्तार―अहो निज परमार्थ स्वभाव पर दृष्टि न होने से बाह्यपदार्थों में इस जीव ने अपनायत की है और जिसे यह अपना-अपना मान लेगा उस चीज के वियोग में, विनाश में इसे नियम से अत्यंत कठिन क्लेश होगा । तो क्लेश से जिसे बचना है उसका उपाय तो सीधा-सा है कि किसी परपदार्थ को अपना न माने, किंतु यह बात जब कठिन हो रही है तब बड़ी-बड़ी समस्यायें सामने रक्खी हैं, पर को निज मानने की कल्पनाएँ न जगे तो जगत में एक भी समस्या नहीं है । ये समस्याएँ, विपदाएँ, चिंताएँ, ये सब मोहजाल पर ही आधारित हैं।
शांति के अर्थ अपना कर्तव्य―शांति के लिए अपना कर्तव्य यह हे कि अपने आपको सबसे न्यारा केवल चैतन्यस्वरूपमात्र अनुभव में लीजिए । परिस्थितिवश बाह्य कर्तव्य भी करने पड़ रहे हैं, पर वे कर्तव्य ढाल की तरह समझो । जैसे ढाल शत्रु के आक्रमण का निरोधक है ऐसे ही हम आपकी जो बाह्य परिस्थिति बनती है इस स्थिति में अनेक संकटों से बचने के लिए ये सब ढाल हैं । प्रज्ञारूपी शस्त्र से हम इन विभाव बैरियों का, विध्वंस करें और अपने आपके आनंदधाम सहज चैतन्यस्वभाव के रूप में अनुभव किया करें । काम करने को यही है । लेकिन इस कार्य के लिए प्रगति हमारी तभी संभव है जब हम वस्तुवों के स्वरूप को यथार्थ समझ लेंगे । जब चित्त में समा जाय कि प्रत्येक पदार्थ अपने हो अपने स्वरूप में तन्मय है । एक पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ के साथ कुछ भी संबंध नहीं है, यह बात चित्त में जम जायतो ज्ञानप्रकाश और परम सहजआनंद इस जीव के प्रकट हो सकता है । हमने जैनशासन पाया है तो इससे सम्यक् श्रद्धान का लाभ उठा सकें, इसमें ही अपनी भलाई है ।