वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 136
From जैनकोष
अरहंतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा ।
अणुगमणंवि गुरूणं पसत्थ रागोत्ति बुच्चंति ।।136।।
प्रशस्त राग में अर्हद्भक्ति―अरहंत सिद्ध साधुवों में भक्ति परिणाम का होना और व्यवहारचारित्र में धर्म में, उस धर्म के अनुष्ठान में वासना का होना और गुरुवों के रसिक रूप से गुरुवों के भाव के अनुरूप अपना प्रवर्तन बनाना यह सब प्रशस्त राग कहलाता है, क्योंकि इस राग का विषय प्रशस्त है, शुभ है । अरहंत भगवान का कैसा शुद्ध विकास है, निर्लेप, निर्दोष, कैसा उनका शुद्धस्वरूप है, परम आनंदमय सर्व का ज्ञाता, सबमें उत्कृष्ट यह परमात्मतत्त्व है । भव्य जीवों का एकमात्र आधार यह अरहंतस्वरूप है । उसका स्मरण कर करके अपने चित्त में प्रासाद होना यही है अर्हद्भक्ति ।
प्रशस्तराग में सिद्धभक्ति―ऐसे ही सिद्धप्रभु का स्वरूप स्मरण करना सिद्धभक्ति है । सिद्धभगवान सर्वथा निर्लेप हैं । किसी भी पदार्थ का संबंध नहीं रहा । जैसे लोक में धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य रहते हैं, मगर किसी से छुवे हुए नहीं हैं । आकाश में कुछ भी होता रहे, आकाश का क्या बिगाड़ होता है? आग जला दिया। तो क्या आकाश जल जायगा? तो जैसे आकाश-आकाश में है और वह सबसे निर्लेप है ऐसे ही सिद्धभगवान अत्यंत निर्लेप हैं । यद्यपि जहाँ सिद्धप्रभु रहते हैं वहाँ निगोद जीव भी रह रहे हैं, कर्मवर्गणायें भी भरी हैं लेकिन सिद्ध का परिणमन सिद्ध में है, यह सिद्ध अपने एकत्व को लिए हुए हैं, अत्यंत निर्लेप हैं । अनंतचतुष्टयसंपंन और शरीरादिक के लेप से अत्यंत रहित सिद्धप्रभु का स्मरण करके यह ही सर्वोत्कृष्ट सार है ऐसा ध्यान बनाकर जो भक्ति उमड़ती है वह है सिद्धभक्ति ।
प्रशस्तराग में साधुभक्ति―साधु परमेष्ठी ज्ञान वैराग्य व आनंद की मूर्ति हैं । इनका परिकर से कुछ संबंध नहीं रहा, वे किसी भी जीव से अपने किसी इंद्रियविषय की साधना नहीं चाहते, विषयों से भी विरक्त हैं । केवल जिनकी यही अभिलाषा है कि मैं अपने आपको शुद्ध सहज चैतन्यस्वरूप के रूप में मानता रहूं, इसही को देखता रहूं, इसही में मग्न होऊं, ऐसी जिसकी भावना रहा करती है और जो कुछ परिणति करते हैं तो अन्य जीवों के हित के लिए परिणति करते हैं । जिनका नेत्र चाल दूसरे जीवों के कल्याण का कारण होता है, जिनका गमन स्वपर के कल्याण के हेतु होता है, जिनका आहार तक भी स्वपर जीवों के कल्याण के लिए होता है ऐसे परोपकार शील स्वहित का निर्भर ध्यान रखने वाले साधु पुरुष कैसे विशुद्ध हैं, कैसी निर्मलता इनमें है, उनके गुणों का स्मरण कर करके चित्त में निर्मलता प्रकट करना और ऐसे साधुवों के चरणों में अपने आपका समर्पण करने जैसी वृत्ति जगाना, यह सब साधुभक्ति है । इन परिणामों से पुण्यकर्म का आस्रव होता है । यह सब प्रशस्त राग कहलाता है ।
प्रशस्तराग में भक्ति का प्राधान्य―यह प्रशस्त राग एक स्थूल लक्ष्य होने से केवल भक्ति-भक्ति की ही प्रधानता हो, ऐसी स्थिति व्यवहार से कदाचित् अज्ञानी जन की भी हो सकती है अर्थात् मिथ्यात्व की स्थिति होते हुए भी प्रशस्तराग संभव है तो वहाँ भी पुण्य का आस्रव हो जाता है, पर वास्तविक मायने में जहां लक्ष्य का परिचय हुआ हो फिर अरहंतसिद्ध साधुवों में भक्ति जगती है वह अति विशुद्ध परिणाम है और सातिशय पुण्य के आस्रव का कारण है । जब ज्ञानी जीव होता है और वह भी भक्ति प्रधान की पदवी तक रहता है तो उसका यह मोक्षमार्गविषयक प्रशस्त राग होता है और यह ज्ञानी जब और ऊपर भूमिका में बढ़ता है और शुद्ध वीतराग दशा को प्राप्त होता है तब इसके यह प्रशस्त राग उस समाधान और समाधि के अभिमुख लगता हुआ होता है ।
ज्ञानी के प्रशस्त राग का प्रयोजन―ज्ञानी जीवों के यह प्रशस्तराग इन-इन प्रयोजनों से होता है कि मेरा कहीं अनायतन में राग न पहुंच जाय । जो कुदेव है, कुशास्त्र है, कुगुरु है अथवा विषयों के साधन हैं, इनके राग का खंडन करने वाला यह प्रशस्त राग है । यद्यपि प्रभुभक्ति में गुरुभक्ति में भी राग मौजूद है, पर यह राग तीव्र राग के ज्वर का विनाश करने वाला है । इस प्रशस्तराग से अप्रशस्त राग का खंडन हो जाता है । ऐसा यह प्रशस्त राग ज्ञानी जीवों के भी हुआ करता है ।
अपना लक्ष्य―हम आपको क्या करना है और क्या बनना है? इसका ठीक निर्णय न हो तो हम धर्मपालन क्या करेंगे? और इस निर्णय के लिए इसका कोई आदर्श सामने रहना चाहिए । उन आदर्शों में परम आदर्श हैं अरहंत प्रभु । यह केवलज्ञान, केवलदर्शन अनंतआनंद और अनंत शक्ति से सहित है । क्षुधा, तुषा, जन्ममरण, शोक चिंता आदिक 18 दोष जिनके नहीं पाये जाते हैं, जिन्होंने धर्मध्यान और शुक्लध्यान के बल से अर्थात् रागरहित, विकल्परहित विशुद्ध ध्यान के बल से ज्ञानावरणादिक प्रकृतियों का विनाश किया है, ऐसे अरहंत देव का स्वरूप कितना आदर्श है? हम ऐसे स्वरूप का स्मरण करके अपना यह भाव बनायें कि मुझे तो यह बनना है, मुझे धनिक नहीं बनना, है, इस असार संसार में यशस्वी नहीं बनना है । लोग भी कुछ समझें कि यह भी कोई है, मुझे इसकी चाह नहीं है । मैं तो यह अर्हत्यस्वरूप चाहता हूँ, ऐसा हमारे चित्त में आदर्श हो और ऐसा ही बनने का हमारा एक लक्ष्य हो।
अपना कर्तव्य―भैया ! निर्दोष परमात्मस्वरूप की उपासना कर के उस निर्दोष परमात्मतत्त्व में उपयोग को रमाओ । निज में विराजमान अंतस्तत्त्व का इस जीव ने उपयोग नहीं किया और इसी कारण आर्तध्यान और रौद्रध्यान में ही यह उलझा रहा, इससे नाना कर्मों का बंधन हुआ है । यह बंधन स्वरूपदृष्टि से समतापरिणाम से टूट जाता है और वहाँ यह परमात्मस्वरूप प्रकट होता है । हमें बनना है ऐसा परमात्मतत्त्व जिसकी अंतिम परिस्थिति सिद्धत्व की है, ऐसा अरहंत और सिद्धस्वरूप का आदर्श मानकर उनके बताये हुए मार्ग पर चलना यही काम हमारे करने को पड़ा है । शेष काम यथायोग्य जैसा सहज बने, पर पुरुषार्थ करके, यत्न करके तो हमें आत्मा का शुद्ध विकास करना है, इसके सिवाय हमारा कोई दूसरा लक्ष्य नहीं है, यह भावना होनी चाहिए ।
साधु आचार―साधु तीन प्रकार के होते हैं―आचार्य, उपाध्याय और मुनि । जो निश्चय पंचाचार का आचरण करते हैं अर्थात् विशुद्ध अपने स्वलक्षण मात्र ज्ञानदर्शनस्वभावी अंतस्तत्त्व के संबंध में निश्चला रुचि रखते हैं, जैसा स्वयं सहज अपने आपके सत्त्व के कारणस्वरूप है, प्रकाश है उस रूप ही जो ज्ञान किया करते हैं और ऐसे ही ज्ञान में स्थिरता से जो रहते हैं अर्थात् तद्रूप परिणमन करते हैं ऐसा तो हुआ निश्चयदर्शनाचार, निश्चयज्ञानाचार और निश्चयचारित्राचार―इन तीन प्रकार के निश्चय रत्नत्रयों के आचरण का वे आचार्य पालन करते हें ।
निश्चय पंचाचार―निश्चय रत्नत्रय के आचार के अतिरिक्त निश्चय तपश्चरण का भी वे साधु आचरण करते हैं । निश्चय तपश्चरण नाम है इस प्रकार से निज आत्मद्रव्य में प्रतपन करना, जिस प्रकार से परद्रव्यों की इच्छा का परिहार हो, निरीहता पूर्वक अपने आपके अंतस्तत्त्व में तपना इसका नाम है निश्चय तपश्चरण । जैसे कोई पुरुष किसी छोटीसी गुफा में जहाँ चारों ओर से कोई रास्ता न हो बाहर ढूँढने को, ऐसी गुफा में ठहर जाय तो उसका वह एक प्रकार का तपन है । यह तो एक कष्टरूप तपन है, किंतु यहाँ अंतस्तत्त्व में जो ठहर जाता है, ऐसा ठहर जाना कि बाहर कहीं ढूके भी नहीं, यह है चैतन्यप्रतपन । जहाँ अपने आपके प्रदेशों में ही इतना संकुचित रूप से ठहर जाय वहाँ होता है सहज विशुद्ध आनंद । ऐसे आनंद को भोगता हुआ अपने चैतन्यस्वरूप में ठहरना इसे प्रतपन यों कहा है कि व्यवहारदृष्टि से तो जैसे लोक में संकुचित जगह में ठहर जाय, अधिक हिलने-डुलने को स्थान न मिले तो उसे तपन कहा करते हैं, पर यहाँ तो प्रदेशों से बाहर एक अणु मात्र भी यह हिलता नहीं है, अपने आपके प्रदेशों में ही चैतन्यस्वरूप की दृष्टि रखकर तप करता है, एक तो यों यह तपन कहलाया । दूसरी बात यह है कि जो पुरुष निज चैतन्यस्वरूप में ही मग्न हुए तो उनमें से प्रताप प्रकट होता है, जिस प्रताप के कारण रागद्वेष बैरी ठहर नहीं सकते । जिस प्रताप के कारण यह प्रकाश लोकालोक में व्यापक हो जाता है, ऐसा जो चैतन्य का प्रताप फैलता है उसका नाम है निश्चय तपश्चरण । आचार्यदेव इस प्रकार निश्चय तपश्चरण का आचरण करते हैं तथा अपनी शक्ति को न छिपाकर अपनी शक्ति प्रमाण समस्त आचारों में सकुशल पूर्णरूप से अनुष्ठान करना, आत्म कार्यों को संपन्न करना, यही है निश्चयवीर्याचार ।
निश्चय पंचाचार का पालन―इस प्रकार जो निश्चय पंचाचार का आचरण करता है और साथ ही जैसा आचार आदिक सूत्रों में कहा गया है उसी प्रकार इस निश्चय के आचारों की साधना वाले व्यवहार पंचाचार का भी आचरण करते हैं तथा दूसरों को भी उपदेश देते हैं । उनके त्रुटियाँ न रहें, वे निर्वाध इस मोक्षमार्ग में ठहरते रहें, इस प्रकार का मार्ग दिखाने का आदेश करते हैं, प्रायश्चित देते हैं, वे प्रभु आचार्यपरमेष्ठी कहलाते हैं ! मुनिजन आचार्यों से प्रायश्चित्त लेने के भूखे रहा करते हैं जब कि लोक की यह प्रथा है कि या लोगों की यह इच्छा रहती है कि मेरे अपराध का मुझे दंड न मिले और मिले तो थोड़े में निपट जाये, किंतु मुनि-राज अपनी प्रसन्नता से यह चाहते हैं कि मेरे दोषों का मुझे पूरा प्रायश्चित्त मिले । ऐसी इच्छा होने का कारण क्या है? मुक्ति की लगन । वे इस बात में अपना अकल्याण समझते कि मैं अपराध करूँ और थोड़े से प्रायश्चित्त में निपट लूँ । अरे घर द्वार किसलिए छोड़ा था? एक निर्दोष मोक्षमार्ग में चलने के लिए । अपराध के शेष रहने से तो मोक्षमार्ग सारा हो रुक गया । मैं तो बड़े टोटे में रहूंगा, ऐसी उत्कृष्ट लाभ की वांछा होने के कारण वे प्रायश्चित्त को पूर्णरूप से ग्रहण करना चाहते हैं । जब कोई एक विशुद्ध संकल्प होता है और सब समूह का भी वही विशुद्ध संकल्प होता है तब वहाँ न तो आचार्यदेव को व्यग्रता होती है और न मुनिजनों को व्यग्रता होती है । जैसे भी मोक्षमार्ग का काम बने उस प्रकार ही सबका व्यवहार होता है ।
उपाध्याय परमेष्ठी का प्रकाश―उपाध्याय परमेष्ठी वे कहलाते हैं जो मोक्षमार्ग का दूसरों को प्रतिपादन करते हैं और उस मोक्षमार्ग की स्वयं भी भावना करते हैं, उस मोक्षमार्ग का परिणमन करते हैं ऐसे साधुवों को उपाध्याय कहा गया है । ये उपाध्याय परमेष्ठी ज्ञान के पुंज हैं, इन्हें अंगों का पूर्वों का भी विशद बोध रहता है, समस्त शास्त्रों का स्पष्ट अवगम रहता है और यह भी निर्णय है कि सर्व उपदेशों में सारभूत यह शुद्ध जीवास्तिकाय है । 5 अस्तिकाय और 6 द्रव्य, 7 तत्त्व, 9 पदार्थों के बीच में यह जीवास्तिकाय, यह जीवद्रव्य जीवतत्त्व जीव पदार्थ निश्चय से उपादेय है ।
जीवास्तिकाय और जीवद्रव्य―जब हम वस्तु को फैलाव के रूप में देखते हैं तो फैलाव केवल 5 वस्तुओं में पाया जाता है―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । इन पाँचों का नाम पंचास्तिकाय है । क्षेत्र की दृष्टि से इन सबका नाम पंच अस्तिकाय है और इन 5 अस्तिकायों में उपादेयभूत है जीवास्तिकाय । यहाँ भी क्षेत्र की प्रधानता से अपने जीव को देखा गया है ।जब हम वस्तुओं को परिणमनों की दृष्टि से निरखते हैं तो परिणमन करने वाले का नाम पड़ता है द्रव्य । द्रव्य 6 होते हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल । ये सभी अनादि से परिणमते चले आ रहे हैं, वर्तमान में परिणम रहे हैं और सदैव परिणमते रहेंगे । इन 6 द्रव्यों में उपादेयभूत है यह शुद्ध जीवद्रव्य । जैसे धर्मद्रव्य को, अधर्म, आकाशद्रव्य को जब हम इनके परिणमन को देखते हैं तो वहाँ परिणमन और मूलभूत द्रव्य ये दोनों एक रूप से ही जंचते हैं, वहाँ विषमता नहीं प्रकट होती है । अगुरुलघुत्व गुण के कारण जो वृद्धि हानियां होती हैं वे स्वरूप की सत्ता बनाने के लिए है । यों ही हम बहुत अंतर में चलकर इस शुद्ध जीवद्रव्य को देखें तो अगुरुलघुत्व गुण के द्वारा जो हानि वृद्धि होती है उससे यह जीव विस्तार और यह परिणमन वे सब एकमेक रहते हैं । इस प्रकार के शुद्ध परिणमन की दृष्टि से निरखने में आया हुआ जो जीवद्रव्य है वह शुद्ध, जीवद्रव्य उपादेयभूत है ।
जीव तत्त्व और जीव पदार्थ―जब हम भावदृष्टि से वस्तु को देखते हैं तो इसका नाम तत्त्व पड़ता है । तस्य भाव: तत्व । भावदृष्टि से ये 6 तत्त्व हैं । उन्हीं छहों तत्त्वों को भावदृष्टि से देखो तो उन 6 तत्त्वों में से उपादेयभूत यह शुद्ध जीवतत्त्व है । और जब हम एक पिंडरूप से निहारते हैं तो ये सब 9 पदार्थ होते हैं अथवा छहों के छहों पदार्थ पिंडरूप निरखे जायें तो उन सबमें विषयभूत सार जीवपदार्थ मिलता है । इस प्रकार उपादेय का जो कथन किया करते हैं और भेदरूप रत्नत्रय, अभेदरूप रत्नत्रय मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हैं और स्वयं भी उस रूप अपने को भाते रहते हैं ऐसे साधुवों को उपाध्याय कहा है ।
साधुभक्ति―आचार्य और उपाध्याय के अतिरिक्त शेष जितने भी साधु हैं उनको मुनि कहते हैं । निश्चय आराधना के द्वारा जो शुद्ध आत्मस्वरूप का साधन करें उनका नाम साधु है । साधुत्व का लक्षण, मुनिपने का लक्षण आचार्य और उपाध्याय में भी है, किंतु उपाध्याय और आचार्य में मोक्षमार्ग की विशिष्ट व्यवस्था के निर्देशन के कारण उपाध्याय परमेष्ठी विशेष रूप से और आचार्य परमेष्ठी विशेष रूप से कहे गए हैं । यों जो पुरुष अरहंत भगवान में और सिद्धभगवान में बाह्य और आभ्यंतर भक्ति करते हैं और आचार्य, उपाध्याय, साधु, जनों में भक्ति और उनकी सेवा करते हैं वे प्रशस्त रागी हैं । जिस प्रकार ये गुरुराज हम पर करुणा करें, इनका चित्त कैसे प्रसन्न हो उस प्रकार से उनका अनुगमन करें, उनके अभिप्राय के अनुकूल अपनी प्रवृत्ति बनायें, यही है वास्तविक साधुजनों की सेवा । साधुजन किस बात से प्रसन्न रहा करते हैं? धर्मप्रभावना में । अपने आपके आत्मा में जो धर्म अवस्थित है उस धर्म की प्रभावना खुद करें, और दूसरे जीवों में भी उनके धर्म की प्रभावना निरखें तो इसमें साधुजन प्रसन्न रहा करते हैं अर्थात् ज्ञानी बनें, श्रद्धानी बनें और उस श्रद्धान के अनुसार अपने आपको अंत: प्रसन्न बनाये, ऐसी धर्मप्रभावना जब यह गुरुराज निरखते हैं तो इनका चित्त प्रसन्न रहता है । तो जिस प्रकार उनकी कृपा बने उस प्रकार अनुगमन करना सो साधु धर्मभक्ति है ।
ज्ञानी का प्रशस्त राग―मोक्षमार्ग की पद्धति से जो पंचपरमेष्ठियों की भक्ति में रहता है उसका नाम प्रशस्त राग है । ज्ञानी जन जितना भी कर सकते हैं पंचपरमेष्ठी में राग उनका यह शुभ राग है । शुभ राग यों कहलाता कि इस राग का विषय शुभ है । लोग भोगा की आकांक्षा से सेवा किया करते हैं, किंतु ज्ञानी पुरुष इन विषयकषाय के आयतनों में राग न पहुंचे अथवा तीव्र राग ज्वर न रहे, अशुभ राग का निषेध करने के लिए वे प्रशस्त राग किया करते हैं । इस प्रशस्त राग से पुण्य का आस्रव होता है । इस प्रकार आस्रव तत्त्व के प्रकरण में पुण्यास्रव को व्याख्या करते हुए प्रशस्त राग का स्वरूप बताया है । अब अनुकंपा का स्वरूप बतलाते हैं ।