वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 144
From जैनकोष
संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे वहुविहेहि ।
कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं ।।144।।
कर्मनिर्जरण―संवर और शुद्धोपयोग से सहित जो पुरुष नाना प्रकार की तपस्यावों से अपने आप में चैतन्य प्रतपन करते हैं वे पुरुष निश्चय से बहुत से कर्मों की निर्जरा करते है । इस गाथा में निर्जरा पदार्थ का व्याख्यान किया गया है । संवर नाम है शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के परिणामों के निरोध हो जाने का । परिणामों का निरोध टक्कर से नहीं हुआ करता । जैसे अशुभ परिणाम का निरोध शुभपरिणाम से किया गया तो अशुभ परिणाम और शुभ परिणाम इन दोनों में भिड़ंत हुई हो और फिर शुभोपयोग से अशुभोपयोग को हटाया हो, ऐसी बात नहीं है, किंतु जीव के एक समय में एक उपयोग होता है । जिस काल में इस जीव के शुभोपयोग परिणाम हो रहा है उस काल में अशुभोपयोग का अभाव है और यों सत्त्व में आकर शुभोपयोग ने अशुभोपयोग का निरोध किया―यों कहा जाता है । जैसे अंगुली सीधी है अब इसे टेढ़ी करें तो इस टेढ़ी पर्याय ने सीधी पर्याय का निरोध कर दिया । पर सीधी पर्याय और टेढ़ी पर्याय में भिड़ंत नही, हुई और इस टेढ़ी पर्याय ने सीधी पर्याय हटायी हो ऐसी भी बात नहीं है, किंतु एक समय में कोई एक परिणमन होता है । जब इस अंगुली की टेढ़ी परिणति हुई तो सीधी परिणति अपने आप रुक गई । यों इस जीव के जब शुभोपयोग हुआ तो अशुभोपयोग रुका हुआ है, शुद्धोपयोग ढका हुआ है । जब जीव के शुद्धोपयोग प्रकट हुआ तो शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों का अभाव हुए । यह तो है संवर और यह संवर ही है शुद्धोपयोग ।अथवा संवर में नास्तिरूप से वर्णन है और शुद्धोपयोग में अस्तिरूप से वर्णन है ।
तपश्चरणों में अनशनतप का प्रयोजन―शुद्धोपयोग से युक्त साधु के जब 6 प्रकार के बहिरंग तपों से और 6 प्रकार के अंतरंग तपो से जो कि अपने अंतर्गत अनेक रूप है, जब तपश्चरण रूप प्रवर्तन होता है तो बहुत से कर्मों का निर्जरण हो जाता है, कर्म अकर्मरूप हो जाते हैं, कर्मों की स्थितियां घट जाती हैं । वे 12 प्रकार के तप क्या हैं? एक चैतन्य में प्रतपन करने के साधन हैं । जिस साधु ने अनशन व्रत लिया है उस साधु का यह ध्यान है कि मेरे आत्मा का स्वभाव ही अनशन है अर्थात् भोजन न ग्रहण करना है और यह आत्मा जब अनशन स्वभाव में रहता है अर्थात् अनशन दोषों से बरी हो जाता है, अरहंत अथवा सिद्ध अवस्था प्रकट हो जाती है तो यही है उसकी व्यक्त कल्याणरूप अवस्था । इस अनशन स्वभावी आत्मा की सिद्धि के लिए कुछ दिन के लिए या यावज्जीव अनशन के विकल्पों का त्याग हो, ऐसी भावना के साथ जिसने आहार का परित्याग किया है उसके अनशन तप हुआ है ।
अवमौदर्य तप का भाव―इस ही प्रकार अनोदर तप भी निष्कलंक अंतस्तत्त्व की सिद्धि के प्रसंग में होता है । अनशन स्वभावी इस आत्मा की सिद्धि का जिसे ध्यान है वह कदाचित् क्षुधा की वेदना, असाता की उदीरणा के कारण विधिपूर्वक आहार में प्रवृत्त होता है, लेकिन वहाँ थोड़े आहार मात्र से संतोष करके भोजन समाप्त कर बहुत खाली पेट आकर अपनी धर्मसाधना में जुट जाते हैं और कभी जान समझकर भी अवमौदर्य तप यों करते हैं यह भी आत्मकौतूहल देखूँ । भोजन करते हुए में लो बस हो गया, अब नहीं करना, आज इतने ग्रास ही भोजन करूँगा । अवमौदर्य तप भी एक विशिष्ट तप है । अधपेट चले आना, यह भी एक तपस्या है ।
वृत्तिपरिसंख्यानादि तप का प्रयोजन―ये साधु जन अपनी दृढ़ता की परीक्षा के लिए, कर्मनिर्जरण की परीक्षा के लिए कभी-कभी अटपट प्रतिज्ञाएँ ले लेते हैं । ये प्रतिज्ञाएँ दूसरे को मालूम नहीं हो पाती है । जैसे कहीं कथावों में वर्णन आया है कि एक साधु ने यह नियम लिया कि चर्या के समय मुझे सामने से एक बैल ऐसा आता हुआ दिखे जिसकी सींग में गुड़ की भेली भिदी हुई हो तब आहार लेंगे । बतावो यह कैसे बने? किसी को क्या पता? कई दिन के बाद उनकी यह विधि बन गई । किसी बैल ने दूकानदार की दूकान में रखे हुए गुड़ में मुंह लगाया तो जल्दी-जल्दी में उस बैल की सींग में एक गुड़ की भेली बिंध गई । देख लिया साधु ने ऐसा दृश्य । लो उस साधु की प्रतिज्ञा पूर्ण हो गयी । तो ऐसा तप भी कर्मनिर्जरा के अर्थ होता है । इस तप से कर्मों की निर्जरा होती है स्वभाव की उपासना के कारण । यों ही सर्व तपों का प्रयोजन चैतन्यप्रतपन की सिद्धि है ।