वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 143
From जैनकोष
जस्स जदा खलु पुण्णं जोगे पावं च णत्थि विरदस्स।
संवरणं तस्स तदा सुहासुहक दस्स कम्मस्स।।143।।
शुभाशुभ कर्मों का संवरण―जिस विरत पुरुष के मन, वचन, काय में अशुभ परिणाम और शुभ परिणाम नहीं है उस मुनि के शुभ अशुभ भावों से उत्पन्न होने वाले कर्मों का संवर हो जाता है। संवर नाम है आस्रव के रुकने का। आस्रव का द्वार है मन, वचन, काय―इन तीन योगों की प्रवृत्ति। आना और बँधना―दो काम हुआ करते हैं। आने में कारण है योग और बँधने में कारण है कषाय। तो योगी पुरुष की कषाय मंद रहती है और गुप्ति का यत्न रहता है। मन का वश में करना मनोगुप्ति, वचन का वश में करना वचनगुप्ति और काय का वश में करना कायगुप्ति। इन युक्तियों के बल से आस्रव का निरोध होता है।
योग का परिणाम―व्यवहार में भी हम देखते हैं। चुपचाप बैठे रहें, मत बोलें तो वहाँ आपत्ति का जाल नहीं होता और कुछ बोलें तो उन वचनों से आपत्ति का जाल आने लगता है। भले ही कोई आपत्ति रागरूप हो, कोई आपत्ति द्वेषरूप हो, पर बोलने के बाद क्षोभ तो होता ही है। यों ही रहो, कुछ मत सोचो कोई विपदा नहीं है। जहाँ मन में सोच विचार हुआ, कल्पना जगी वहाँ ये सब विपदायें आने लगती हैं। ऐसे ही शरीर से कोई प्रवृत्ति नहीं कर रहे, सम्यग्ज्ञान पूर्वक काय का निरोध किया जा रहा है वहाँ विपदा काहे की। जहाँ इस देह से कोई प्रवृत्ति की, कुछ कार्य किया, इष्ट अथवा अनिष्ट कल्पनाएं जगी, लो इससे उसके अंत: क्षोभ रहता है और बाहर में किसी पुरुष को अपनी काय चेष्टा पसंद आये, किसी को न पसंद आये तो पर की ओर से भी विपदा हो जाया करती है। यह तो व्यावहारिक बात है।
मानसिक योग का फल―अब जरा अंत: निरखिये―यहाँ मन में कुछ भी हलन-डुलन हो वहाँ कम्र आ जाते हैं। वचन से कुछ भी परिस्पंद हुआ वहाँ कर्म आ धमकते हैं। ऐसे ही शरीर की प्रवृत्ति से योग हुआ वहाँ कर्म आ धमकते हैं। यहाँ तथ्यभूत बात यह जानना कि मन, वचन, काय की हलन से कर्म नहीं आते, किंतु मन, वचन, काय की हलन से उसका निमित्त पाकर आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंद होता है और आत्मप्रदेशों के परिस्पंद के निमित्त से कर्म आते हैं । कर्म आने का कारण है योग और योग होने का कारण है मन, वचन, काय की प्रवृत्ति । जो योगी मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से निवृत्त है, कषायों से दूर है, शुभ परिणाम रूप पुण्यभाव को अथवा अशुभ परिणामरूप पापभाव को नहीं करता है उस जीव के उस समय शुभ अशुभ कर्म द्रव्यकर्म का संवर स्वयं हो जाता है ।
परिणामों की संभाल का कर्तव्य―भैया ! अपने को करने का काम अपने परिणामों की सम्हाल है और वास्तविक ढंग से यदि अपने परिणामों की सम्हाल हो सकी तो वहाँ फिर संकट माने जाते हैं । वे सब संकट तभी तक हैं जब तक अपने परिणामों की सम्हाल नहीं है । एक अध्यात्मक्षेत्र की बात कही जा रही है । घर का क्या होगा, बच्चे कैसे रहेंगे, गांव में पोजीशन क्या रहेगी, क्या स्थिति बनेगी, ये सारे विचार जब चलते हैं तो उपयोग में संकट हैं । लगता भी ऐसा कि बात सच है । घर के बच्चे हमारे ही तो अधीन हैं, लेकिन अध्यात्मक्षेत्र की ओर से इसका समाधान ले तो अपने परिणामों की सम्हाल कर लें तो वे कोई संकट रह सकेंगे क्या? जब अध्यात्म की अनुभूति चल रही है तो पहिली बात तो यही है कि परिजन का विकल्प भी वहाँ नहीं ठहरता, संकट काहे का, और मानो अध्यात्म की अनुभूति हो तो चुकी, पर इस समय नहीं है, इस समय परिजनों के प्रति ध्यान ही हो रहा है तो वहाँ भी संकट कम हैं, क्योंकि अंत: यह प्रतीति पड़ी हुई है कि प्रत्येक जीव स्वयं अपने-अपने स्वरूप से सत् है और उन जीवों के साथ उनके कर्म लगे हुए हैं, वे सुरक्षित रहते हैं, अपने-अपने कर्मों के कारण संसार में सुरक्षित रहते हैं।
पुण्यवंतों की चिंता का नाटक―भला छोटे-छोटे बालक, बच्चे जो न आपको कमाकर खिला सकें, न किसी काम आ रहे हैं, दो-दो, चार-चार, छ:-छ: वर्ष के बच्चे कुछ आपकी सेवा भी नहीं कर रहे हैं, पर आप उन बच्चों की कितनी प्रीतिपूर्वक सेवा करते हैं? गोद में ले, खिलायें, उनका मन रखें, उन्हें प्रसन्न देखना चाहें, क्या इच्छा है उसकी पूर्ति का बड़ा यत्न करें तो हमें आप यह बतलावो कि पुण्य किसका विशेष है? सेवा करने वाले जो आप हैं, आपका पुण्य बड़ा है या उन छोटे बच्चों का पुण्य बड़ा है? छोटे बच्चों का पुण्य विशेष है । जिससे आप भी उनकी उतनी सेवा करते हैं । और फिर दूसरे ये बालक पूर्वभव के पुण्य के प्रसाद से यहाँ मनुष्यभव में आये हैं, इन्होंने अभी बड़ी उम्र नहीं पायी, इनमें विकार उद्दंड नहीं हुए, कषायें अभी इनमें विशेष जागृत नहीं हुईं, रागद्वेष मोह की प्रबलता, कषायों की प्रबलता इनमें अभी नहीं हुई तो इनका पुण्य आप से विशेष है । बड़ों ने बड़ी उम्र पाकर बहुत-बहुत से विकल्प बना डाले, उससे कुछ आज हीनता है तो बतलावो ये पुण्यवान बालक जो तुम से अधिक सुरक्षित हैं उनका भाग्य अच्छा है या आपका? भाग्य तो उन बालकों का ही अच्छा है । देखो तो गजब, समर्थों की चिंता की जा रही है । तीसरी बात यह है कि जिस जीव के जिस समय जिस विधि से जो होने को है उसमें हम आप क्या फर्क डाल सकेंगे? तब अन्य चिंताओं से सिद्धि क्या है?
भावसंवर के अधिकार का प्रयोग―यह ज्ञानी सत्पुरुष अपने स्वरूप की सम्हाल के कारण निराकुल रहा करता है । तब प्रधान बात क्या हुई? कर्मों में जो होना है वह कर्मों के कारण होगा, निमित्तनैमित्तिक भावों में हो जायगा, पर प्रधान बात है आप, अपने शुभाशुभ परिणामों का निरोध करें । भावसम्वर और द्रव्यसम्वर इन दोनों सम्वरों में आपका अधिकार भावसम्वर पर है । अपने परिणामों की सम्हाल करने से ही सब काम अपने आप आटोमैटिक स्वयं हो जाते हैं―कल्याण के लिए जो कुछ चाहिए । तब द्रव्यपुण्य और द्रव्यपाप के सम्वर का कारणभूत यह भावपुण्य सम्वर और भावपाप सम्वर प्रधान है । हम अधिकाधिक अपने आपको इस प्रकार से निहारने का यत्न करें कि यह मैं आत्मा केवल चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ, अमूर्त हूँ, देहादिक से भी जुदा हूँ, इन समस्त बाह्य परिग्रहों से भी जुदा हूँ । केवल अपने स्वरूपमात्र हूँ ।जब कभी व्यवहार के विकल्प उठें, हाय यह घर छूटा जा रहा है, अरे तो क्या हुआ, दूसरे घर पर पहुंचेंगे । परिणामों की सम्हाल है तो इससे बढ़िया स्थानपर पहुंचेंगे । यह वैभव छूटा जा रहा है । अरे अपने आपके परिणामों की सम्हाल करो, यही है वैभव पाने की कुंजी । वह अपने हाथ है तो उससे भी कई गुना वैभव भागे मिलेगा । एक अपने आपके एकत्वस्वरूप को यह जीव देखे तो इसके व्याकुलता नहीं रह सकती है । मोह क्षोभ से रहित आत्मा के शुद्ध परिणामों का नाम है सम्वर तत्व ।