वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 158
From जैनकोष
जो सव्बसंगमुक्को णण्णमओ अप्पणं सहावेण ।
जाणदि पस्सदि णियदं सो सगचरियं चरदि जीवो ।।158।।
स्वकचरित्र का अधिकारी―जो जीव अपने शुद्ध स्वभाव से आत्मा को निश्चय करके जानता है और देखता है वह जीव अंतरंग और बहिरंग परिग्रहों से रहित होता हुआ एकाग्रचित्त होकर स्वसमय आचरण का पालन करता है । जीव को वास्तविक शांति मिले, इसके उपाय में केवल एक यह निज कला ही समर्थ है कि वह बाह्य पदार्थों से, परभावों से अपनी दृष्टि मोड़कर केवल अपने आपके सहजस्वरूप को ही देखे । और ऐसी प्रतीति बनाए रहे कि यह मैं आत्मा समस्त पर और परभावों से रहित केवल शुद्ध चैतन्य शक्तिमात्र हूँ, ऐसा अपना अंत:निर्णय रहे । इस अंत: पुरुषार्थ से शांति प्राप्त हो सकती है ।
स्वसमयता―स्वसमय क्या चीज है? इसके संबंध में सुनिये―निज शुद्ध आत्मा का स्वसम्वेदन और ऐसा ही परिणमन होना स्वसमय है । शुद्ध आत्मा से मतलब यहाँ केवलज्ञान, केवल दर्शनमय आत्मा से नहीं है, किंतु समस्त पर से रहित केवल यही जैसा कुछ हो उस ही का नाम शुद्ध आत्मा है । शुद्ध शब्द का अर्थ पर से रहित अपने स्वरूपमात्र होना है । शुद्ध विकास स्वाभाविक विकास से मतलब यहाँ शुद्ध का नहीं है । अरहंत प्रभु सिद्ध प्रभु की जो वर्तमान शुद्ध स्थिति है उसकी बात नहीं कही जा रही है, किंतु अपने आपमें यह स्वयं पर से रहित और अपने स्वरूप में स्वयं कैसा है उस सत्त्व को शुद्ध शब्द से पुकारा गया है । जो आत्मा अपने को शुद्ध अनुभव करता है अर्थात् एकाकी अपने ही सत्त्व के कारण अपने आप में जो सहज है उस रूप जो अपने को मानता है उसका बेड़ा पार है । और जो अपने इस परमार्थ सहजस्वरूप से चिगकर बाहर में किसी परिजन से, घर से, वैभव से, देह से, यश से जो अपनायत करता है बस वही संसार में गिरता है ।
संसारभ्रमण व संसरणमुक्ति के उपाय―संसार में रुलने और संसार से छूटने के बस ये ही दो उपाय हैं। जो जीव अपने आपके इस शुद्ध आत्मस्वरूप का सम्वेदन करता है, वीतराग परमसामायिक रूप स्वचारित्र का अनुभव करता है, वह सर्व संग से मुक्त होकर प्रकट स्वसमय बन जायगा और संसार से छूट जायगा तथा जो पर में अपनायत करेगा वह संसार में रुलेगा । परमार्थत: देखो तो हम आप सभी जीव बाह्यपरिग्रहों से रहित ही हैं । न आज तक हम आपमें बाह्यपरिग्रह आये हैं और न कभी आ सकेंगे । केवल इन बाह्यपदार्थों के संबंध में अंतरंग में जो कल्पनाएँ बनायी हैं, बना रहे हैं वे बस रही हैं हम आपमें । बाह्य परिग्रह तो अब अंतर में भी नहीं है, और जब यह जीव निज शुद्ध आत्मा का अनुभवन करता है वहाँ तो अंतरंग परिग्रह भी नहीं हैं । तो एक डस कला में अपने आपके सहजस्वरूप का दर्शन करें, एक इस कला में परिग्रह रहितपना तो स्वयमेव ही पड़ा हुआ है । केवल एक मानने की आवश्यकता है ।बात जहाँ जैसी है वह तो है ही । यह स्वयं सबसे न्यारा केवल अपने स्वरूपमात्र है ऐसा मान लें बस इसमें कल्याण है ।
ज्ञानी का भाव―तीन लोक तीन काल में भी मन, वचन, काय से कृतकारित अनुमोदना में समस्त बाह्य और आभ्यंतर परिग्रहों से शून्य हो जाता है यह ज्ञानी जीव । न उसके व्यतीत हुए अनंत काल में कोई परिग्रह था, न उसके भविष्य में भी कोई परिग्रह होगा और न वर्तमान में भी उसके साथ कोई पदार्थ लिपटा है । ज्ञानी पुरुष तो जानता है कि यह मैं आत्मा अपने स्वरूप सत्त्वमात्र अब भी हूँ, पहिले था, आगे भी होऊँगा । ऐसा शुद्ध निर्लेप अपने आपकी कोई सुध करे तो उसे क्या कष्ट है? कह हम आपने बनाया, कल्पनाएँ कर-करके हमने ही अपने कष्ट में बढ़ाया । उन कल्पनाओं पर नियंत्रण करने की आवश्यकता है ।
स्वरूपनिबंधन―स्वरूप की दृष्टि से दो बातें तय की जाती हैं, एक तो यह पर से रहित है और दूसरे अपने ही स्वरस से परिपूर्ण है । अपने स्वरूप से किस प्रकार परिपूर्ण है यह? यह आत्मा समस्त आत्मप्रदेशों में सहज परम आनंदरस से भरपूर है । यह आनंदरस अपने आपमें ही झरता हुआ प्रकट होता है । जब यह जीव परिग्रहरहित परम आत्मतत्त्व की भावना करता है तो उस भावना के द्वारा अपने आपके प्रदेशों में ही निरंतर आनंद ही आनंद झारता है, उस आनंदरस से परिपूर्ण यह आत्मा स्वयं है । तात्पर्य यह है कि यह आत्मा आनंद का भंडार हे । जैसे यह आत्मा परिपूर्ण ज्ञान का भंडार है, ऐसे ही यह आत्मा अनंत आनंद का भंडार है, पर कोई धैर्य रखे, साहस करे, इस ओर झुके, ऐसी ही दृढ़ता से मान ले तो उसका कल्याण है । और जो ऐसा आनंद भंडार होकर भी अपने आपको यों नहीं मान सकता है वह जरा-जरासी बातों में कल्पनाएँ बना-बनाकर बढ़ा-बढ़ाकर दुःखी होता रहता है ।
एकाग्रचित्तता―यह साधु पुरुष, यह योगी पुरुष जो आत्मयोग की साधना कर रहा है वह एकाग्र मन होकर सहजस्वरूप का ध्यान करता है । वहाँ उस योगी के अंदर कोई विकल्पजाल नहीं है । जैसे संसारी पुरुष, मोही पुरुष कभी-कभी एक चित्त होकर किसी की ममता में मग्न होते हैं, ऐसे ही ये योगी पुरुष निर्विकल्प, अखंड शुद्ध चैतन्यस्वभाव की रुचि से और इसही के आलंबन से जो उन्हें आनंद प्राप्त होता है उस आनंदरस से तृप्त होकर एक उस सहजस्वभाव की ओर ही झुके रहते हैं, उस ही में उनका एकाग्र मन रहता है । जैसे किसी पुरुष के इष्ट का वियोग हो जाय तो चलते, उठते, सोते आधी नींद में कभी जागते में ही उसके इष्ट का ख्याल बना रहता है, उसकी ही मूर्ति सामने बनी रहती है, ऐसे ही जिसको इस आत्मस्वभाव की रुचि जगी है और आत्मस्वभाव का इस समय में उपयोग हो रहा है, उस ही उपयोग में रुचि है उस ही का तो वह ज्ञानी योगी पुरुष ध्यान किया करते हैं । यों निर्विकल्प परमात्मतत्त्व की भावना में एकाग्रचित्त हुए पुरुष स्वसमय बनते हैं अर्थात् आनंदमग्न रहते हैं ।
धर्माचरण―भैया ! जब कोई कहे कि धर्म करो तो उसका सीधा अर्थ यह लगा लेना कि वास्तविक आनंद में लीन रहो । धर्म करना और वास्तविक आनंद में लीन रहना इन दोनों का एक ही अर्थ है । धर्म कष्ट से नहीं होता, क्लेश कर-करके धर्म नहीं होता । जो साधु जन बड़े-बड़े तपश्चरण करते हैं, सर्दी गर्मी के दुःख सहते हैं, क्षुधा तृषा के क्लेश सहते हैं उन्हें देखकर अज्ञानी जीवों को ऐसा लगता है कि ये योगी पुरुष बड़े क्लेश सहते हैं, लेकिन वे योगी पुरुष अंतरंग में क्या कर रहे हैं? वे आनंदरस से तृप्त हो रहे हैं । बड़ी कड़ी धूप में पर्वतों पर तपस्या कर रहे हैं, सारा शरीर पसीने से लथपथ है । योगियों की इस प्रकार की दशा को देखकर अज्ञानी जन आश्चर्य करते हैं, अहो कैसा ये क्लेश सह रहे हैं, पर वे योगी क्लेश नहीं सह रहे हैं, किंतु अपने आत्मस्वरूप की भावना के प्रसाद से अंतरंग में प्रसन्न हैं । उनकी प्रसन्नता को दूसरे क्या जानें? वे इतने आनंदमग्न हैं कि यों दिन रात महीने भी बीत जाते और उन्हें ऐसे ही कुछ महसूस भी नहीं होता कि कितना समय व्यतीत हो गया? वे योगीपुरुष ऐसे आनंदमग्न रहते हैं कि स्यालिनी पैर का भक्षण भी कर रही है, मांस भी अलग हो गया है, लेकिन उनके वेदना का नाम ही नहीं है, आनंद की मग्नता है । भला कष्ट होता तो क्या कष्ट के बाद मोक्ष जैसी अवस्था हो सकती है? मोक्ष की अवस्था शुद्ध आनंद के अनुभव के प्रसाद से ही हो सकती है ।
व्यर्थ विकल्पभार―हम आप सभी जीव बिल्कुल व्यर्थ ही दुःखी हो रहे हैं, कष्ट सह रहे हैं और वह भी कष्ट है कल्पनाओं का, मानसिक कष्टों का । अरे सबसे विभिन्न एक इस निज शुद्ध स्वरूप पर दृष्टि करें तो सारे संकट समाप्त हो जाते हैं । रही यह बात कि मित्रों का, परिजनों का क्या होगा? हम यह पूछते हैं कि मित्र और परिजनों की रक्षा क्या आप ही कर रहे हैं? उनके पुण्य का उदय न हो और उन्हें सुख प्राप्त हो जाय, क्या ऐसा कभी हो सकता हैं? अरे जैसे हम आप जीव हैं ऐसे ही वे सब जीव हैं । जैसे कर्म हम आपके साथ हैं वैसे ही कर्म उनके साथ हैं । हम उनका क्या करते हैं? और दूसरी बात यह मान लो कि कुछ हम पर निर्भर है तो आप उनकी जिम्मेदारी कब तक निभा सकते' हैं? आप बतलावो तो सही । अपनी ही जिम्मेदारी जब निभा नहीं सक रहे तो दूसरे की जिम्मेदारी क्या निभाई जा सकेगी? और सब कुछ है, सब परिणमन है, जिसका जैसा भाग्य है वह अपने भाग्य से सब कुछ प्राप्त कर रहा है, उसमें आप भी निमित्त हो रहे हैं, दूसरे भी निमित्त हो सकते हैं।
अवसर के सदुपयोग की प्रेरणा―भैया ! आत्महित के संबंध में इतना तो विचारिये कि यह मनुष्यजीवन कितनी कठिनता से प्राप्त हुआ है? संसार के अन्य जीवों पर दृष्टि दो तो वे भी जीव हैं, कीड़ा-मकोड़ा पेड़ आदिक, क्या ऐसे हम न थे, नहीं हो सकते थे? कल्पना करो यदि आज हम आप लोग कोई भी ऐसे कीड़ा मकोड़ा, पतिंगे होते तो किस स्थिति में होते? आज कुछ यह विकास हुआ । क्या उन निकृष्ट परिस्थितियों में इतना जानना, समझना, बड़ी-बड़ी बातों का निर्णय करना ये सब बातें हो सकती थीं? यदि आज शुभ अवसर पाया है, इस अवसर को यदि ममता में ही खो दे, विकल्पजालों में ही गंवा दें तो बतलावो इन सब समागमों का लाभ क्या पाया? जो पुरुष इस निज शुद्ध आत्मा को जानता है, किस रूप से? यह जैसा स्वयं अपने सत्त्व के कारण है निर्विकार, क्या केवल जीवों में रागादिक भाव हो सकते हैं? न इनके साथ उपाधि हो, न कर्मबंधन हो तो क्या जीवों में कोई रागादिक बन सकते हैं? कभी नहीं बन सकते, यद्यपि बन रहे हैं ये रागादिक, पर बनते हुए की हालत में भी हम अपने उस सहजस्वरूप को संभालें जो केवल है, अपने सत्त्व में अकेला है उसके स्वरूप को तो देखो ।
स्वभावावलोकन का उपक्रम―इस समय भी आत्मा का सहजस्वरूप देखा जा सकता है संभावना के बल पर । यदि ये कर्म न होते, शरीर न होता तो मैं किस प्रकार की स्थिति में होता, ऐसी तर्कणा बनाने के बाद अपने आपके एकत्व का विशद अवगम हो सकता है कि मेरा स्वरूप क्या है? तो जीव उपरागरहित कलुषता रहित उपयोगमयी होने से सर्व संक्लेशों से मुक्त हो गए हैं, निशंक रहने में कैसी निरुपरागता रहती है, कैसी आनंद की स्थिति रहती है, यह बात तो हम आप सभी इस क्षण भी समझ सकते हैं । जरा यह मानकर अपनी ओर तो आयें कि यह मैं तो अपने स्वरूप में उतना ही मात्र हूँ जो एक चित्प्रकाश है । उस केवल परदृष्टि रखें तो स्वयं ही अपने आप में से उस आनंद की अनुभूति हो लेगी, जिसके बाद हम यह स्पष्ट समझ सकेंगे कि ओह ! मैं तो ऐसा ज्ञानानंदस्वरूप हूँ ।
स्वचारित्रारंभ―जब यह जीव सर्व संग से मुक्त होकर आत्मभावना में सम्मुख होकर एक चित्त होकर मैं शुद्ध ज्ञानदर्शनमात्र हूँ इस रूप से परखता है तब विशुद्ध आनंद का अनुभव करता है यह । आत्मरूप परखने की कसौटी यह निरपेक्ष उपयोग है । हम केवल अपने हित की ही दृष्टि बनायें और बाह्य पक्ष छोड़े तो ऐसे आशय को आप कसौटी ही समझिये । जब तक हमारा, आत्महित के लिए ही विशुद्ध आशय नही बनता तब तक हमारी वास्तविक परख नहीं बन सकती । यों विशुद्ध आशय बनाकर जो ज्ञान दर्शनस्वरूप अपने को जानता है वह जीव अपने आत्मा का आचरण करने वाला है । शुद्ध ज्ञानमय आत्मतत्त्व में इतना, ही मात्र अपना अनुभवन करना, यही है स्वचारित्र, यही, है स्वसमय, यही है मोक्ष का मार्ग । नो पदार्थाधिकार के बाद मोक्षमार्ग का विस्तार बताने वाला यह चूलिका का प्रकरण है । इसमें निश्चय से मोक्षमार्ग क्या, व्यवहार से मोक्षमार्ग क्या, इन सब बातों का स्पष्ट वर्णन किया गया है । निश्चयमोक्षमार्ग के प्रकरण में यह कहा गया है कि अपनी ओर झुकना, लीन होना, समाना, यही वास्तव में मोक्ष का मार्ग है ।