वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 159
From जैनकोष
चरियं चरदि सगं सो जो परदव्बप्पभावरहिदप्पा ।
दंसणणाणवियप्पं अवियप्पं चरदि अप्पादो ।।159।।
स्वकाचरण―वह पुरुष अपने आप के स्वरूप का अनुचरण करता है जो निर्विकल्प आत्मस्वरूप का उपयोग करता है । कैसा है यह आत्मा? रागद्वेष मोह से रहित सदा आनंदस्वरूप, जहाँ जीवनमरण का भी पक्ष नहीं है, लाभ अलाभ में भी राग पक्ष नहीं है, सुख दुःख का भी पक्ष नहीं है, निंदा प्रशंसा का भी पक्ष नहीं है, सर्व स्थितियों में इसके समता, जगी है, ऐसा यह प्राणी अपने आपके स्वरूप का अनुचरण करता है ।
जीवनमरण में समता―जैसे किसी पुरुष को महत्वपूर्ण कार्य सामने लगा हो तो, वह छोटी-छोटी बातों में रागद्वेष में नहीं फंसता, उसका तो कोई महत्वपूर्ण कदम सामने पड़ा हुआ है । ऐसे ही जिस ज्ञानी योगी पुरुष का लक्ष्य महत्वपूर्ण है, मोक्ष का लक्ष्य है, शुद्ध स्वभाव को प्रतीति में लेने का जिसका निरंतर प्रवर्तन चल रहा है, ऐसे पुरुष का जीवन और मरण भी कोई अंतर वाली बात नहीं रहती । जीवित रहे तो क्या, मरण हो तो क्या? आत्मस्वभाव की दृष्टि से रहित रहकर जीवन रहा तो उससे लाभ क्या, और आत्मस्वभाव की दृष्टि सहित होकर मरण हो गया तो उससे नुक्सान क्या? अथवा यह जीवन किसलिए है, क्या करना है, इस ज्ञानी पुरुष का जीवन और मरण दोनों एक समान जंच रहे हैं । दोनों में उसके समताभाव है । उसका झुकाव तो एक निज अंतस्तत्त्व की ओर है ।
लाभ अलाभ में समता―ज्ञानी के यहाँ लाभ अलाभ क्या? ये बाहरी पदार्थ अत्यंत प्रकट भिन्न हैं, वे निकट आ गये तो क्या, दूर चले गये तो क्या, और मेरा इस आत्मस्वरूप का पहिचाननहारा भी इस लोक में कोई नहीं है । जो लोक व्यवहारी जीव मुझ से बात करते हैं वे मेरे आत्मस्वरूप को लक्ष्य में रखकर नहीं करते, किंतु पौद्गलिक मूर्तरूप से जो कुछ सामने है, जो दूसरों की इंद्रियों के द्वारा ज्ञात होता है उस मुद्रा को लक्ष्य में रखकर बात करते हैं । लाभ अलाभ भी इस ज्ञानी योगी पुरुष के लिए एक समान बात है । वह प्रसन्न होता है तो आत्मानुभव से प्रसन्न होता है, खेद तब होता है जब आत्मानुभव नहीं हो पाता है। इसके सिवाय अन्य परिणमन कैसे ही होते हों, उनका तो मात्र यह ज्ञाताद्रष्टा रहता है। यह है ज्ञानी जीव की अंतरंग परिस्थिति।
सुख दु:ख में समता―यह ज्ञानी पुरुष सुख और दु:ख दोनों में समान रहता है। दु:ख हो तो क्या? यही तो बात है कि कुछ इंद्रियों को न सुहाये ऐसी परिस्थिति हो गयी सुख हो तो क्या? यही तो बात है कि इंद्रियों को सुहा जाय ऐसी परिस्थिति हो गयी। न ये इंद्रियाँ रहेगी, न ये सुख दु:ख रहेंगे, न ये बाह्य साधन रहेंगे और न ऐसी मन की कल्पनाएँ रहेंगी। यह सब मायाजाल है। सुख दु:ख में ज्ञानी जीव की समान बुद्धि रहती है।
निंदा प्रशंसा में समता―निंदा और प्रशंसा में भी ज्ञानी के समता रहती है। निंदा के वचन अथवा प्रशंसा के वचन क्या है? वे तो भाषावर्गणा के परिणमन हैं, अचेतन है और उन वचनों का प्रयोग जो आत्मा के निमित्त से होता है। उस आत्मा ने तो केवल अपने आपकी खुद में अपनी कल्पना बनाई थी, उसने मुझमें कुछ उत्पन्न नहीं किया। यह ज्ञानी योगी पुरुष वस्तुस्वरूप को अभेद निरखकर इस मुझ आत्मतत्त्व में पर का प्रवेश हो जाय ऐसा नहीं हैं, यह पर से अप्रविष्ट है। ऐसे आत्मतत्त्व को निरखकर यह ज्ञानी निंदा में और प्रशंसा में दोनों में समान रहता है। यों जो समता के अनुकूल अपने आत्मस्वरूप का आचरण करता है वह परद्रव्यों में आत्मीयता का भाव कैसे कर सकेगा? ये परद्रव्य ममत्व के कारणभूत हैं, उन्हें अज्ञानी ही अपना सकेगा, ज्ञानी नहीं अपना सकता।
ज्ञानप्रकाश―भला एक बार शुद्ध ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर फिर क्या वह असत्य बात आ सकती है? जैसे किसी ने स्वप्न में बड़ी निधि पायी हो और वह जग जाय तो जग जाने पर उसे सही पता हो गया कि वह सब केवल स्वप्न था, लेकिन जग जाने के बाद भी यह जीव स्वप्न में जैसा मौज लूट रहा था उस वैभव को पाकर मौज लूटने के लिए जबरदस्ती आंखें मींचकर पड़ जाय तो क्या वे बातें आ सकती हैं? नहीं आ सकती हैं? इसी प्रकार मोह की निद्रा में जो कुछ निरखा था। और उससे सुख दु:ख भोगा गया था, एक बार सत्य तत्त्व का प्रकाश हो जाने पर फिर क्या वे व्यामोह के समय की व्यवहार की बातें जबरदस्ती करने पर भी आ सकती हैं? नहीं आ सकती है। तो ज्ञानी जीव को परद्रव्यों में अपनाने का विकल्प नहीं रहता है। यों यह वीतराग स्वसम्वेदन ज्ञानी समस्त मोह वासनाओं से रहित है परभावों का त्यागी है, आत्मभावों के सम्मुख हुआ हे। यह आत्मस्वभावरूप दर्शन ज्ञान को अभेद रूप से निरखता है। वह तो मैं ज्ञान, दर्शन मात्र हूँ, ऐसे अनुभव पद से शुद्ध समय के, स्वसमय के पथ पर चल रहा है।
अविकल्पतता का प्रभाव―ज्ञानी पुरुष ज्ञान होने के बाद प्रथम तो सविकल्प अवस्था में मैं ज्ञाता हूँ, मैं द्रष्टा हूँ यों विकल्प करता है, पर वही ज्ञानी पुरुष इस ज्ञातृत्व की, इस दृष्टत्व की स्थिति में अपने को अभेदोपयोगी बनाकर जब निर्विकल्प समाधि प्राप्त करता है उस समय इन समस्त शुद्ध ज्ञान दर्शनों से भिन्न केवल आत्मा का ही सम्वेदन करता है । यह बात तो अध्यात्मयोग की है और लोकपद्धति में भी देखो―जिस समय आप बढ़िया लड्डू, हलुवा कुछ भी खा रहे हों, जब तक आप उसके संबंध में यों सोचते रहेंगे कि इसमें घी ठीक पड़ा, इसमें बूरा अच्छा पड़ा, यह सिका भी अधिक है उस समय आप एकाग्र मन होकर स्वाद नहीं भोग सकते हैं, आप उस समय विकल्पों में पड़ जाते हैं । जब यह अनन्य स्वभाव का ध्यान करता है तो इस आत्मा को ज्ञाताद्रष्टा रहने का भी विकल्प नही रहता । यों शुद्ध द्रव्य के आश्रित अभिन्न अर्थात् जहाँ वही साध्य है, वही साधन है, ऐसा निश्चयनय का आश्रय करके मोक्षमार्ग को तके तो वह अपने आपकी रुचि, अपने स्वभाव का ज्ञान और अपने स्वभाव में मग्न होना इस रत्नत्रयरूप ही मोक्षमार्ग को पाकर सिद्ध होता है ।