वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 172
From जैनकोष
तम्हा णिव्वुदिकामो रागं सव्बत्थ कुणदि मा किंचि ।
सो तेण वीदरागो भवियोभवसायरं तरदि ।।172।।
वीतरागता से भवसागर का तरण―पूर्व गाथावों में वीतरागता ग्रहण करने का उपदेश किया गया है । रागभाव से क्या-क्या अनर्थ होते हैं और राग के अभाव से क्या कल्याण होता है? इस संबंध में बहुत कुछ वर्णन करने के पश्चात् अब आचार्यदेव उस वर्णन से शिक्षा लेने की बात और उस शिक्षा पर अमल करने का फल इस गाथा में दिखा रहे हैं । इस ग्रंथ में मोक्षमार्ग के विषय में वीतरागता का उपदेश दिया है । वीतरागता ही मोक्षमार्ग है, इस कारण से जिसको मुक्ति की कामना है वह पुरुष समस्त पदार्थों में किंचिन्मात्र भी राग को न करे । जो किसी भी पदार्थ में राग नहीं करता, वह पुरुष वीतराग होता हुआ संसारसमुद्र को तिरता है ।
वीतरागता में रत्नत्रयसमृद्धि―साक्षात् मोक्षमार्ग का कारण तो वीतराग भाव है, बंधन का कारण रागभाव है । बंधन के कारण का अभाव होने से मोक्ष होता है । बंध के हेतुवों के अभाव से और बंध हेतुवों के अभाव होने से, स्पष्टरूप से होने वाली विशद निर्जरा से कभी कर्मों का अत्यंत वियोग हो जाता है इस ही का नाम मोक्ष है । वीतरागता ही मोक्षमार्ग है । वह वीतरागता यथार्थ ज्ञान और यथार्थ श्रद्धान बिना नहीं बनती । अतएव वीतरागता कहने में रत्नत्रय पूर्ण आ जाता है ।
वीतरागता का महत्त्व―भगवान प्रभु के वीतरागता और सर्वज्ञता दोनों बातें प्रकट हैं अर्थात् प्रभु पूर्ण ज्ञानसंपन्न हैं और समस्त दोषों से रहित हैं, फिर भी कुछ दृष्टियों से परखा जाय तो इस वीतरागता का बहुत महत्त्व है । सर्वज्ञता भी वीतरागता के कारण प्रकट हुई है । सर्वज्ञता का कारण वीतराग भाव है । समस्त रागादिक दोषों का अभाव होने पर ही सर्वज्ञता प्रकट होती है । दूसरी बात यह है कि कदाचित् मान लो सर्वज्ञता तो न हो और वीतरागता रहे तो इसमें आत्मा का क्या टोटा पड़ा? क्योंकि समस्त क्लेशों का कारण राग है । राग का सर्वथा अभाव हो गया तो वहाँ आनंद तो प्रकट हो ही गया, और आनंद ही इस जीव का सर्वोपरि लक्ष्य है । यों भी वीतरागता का बड़ा महत्त्व है ।
वीतरागता से ज्ञान का भी महत्त्व―वीतरागता होने पर सर्वज्ञता होती है, इसलिए कोई जीव वीतराग ही बना रहे, सर्वज्ञ न हो, ऐसा नहीं होता है, किंतु एक हित अहित की दृष्टि से विचार किया जाय तो यों सोच लीजिए कि वीतरागता है तो आनंद है । कदाचित् मान लो कोई पुरुष सर्वज्ञ तो हो और वीतराग न हो, यद्यपि वीतराग हुए बिना सर्वज्ञता नहीं होती, पर एक स्वरूप की विशेषता समझने के लिए कल्पना में यह लाइए, जैसे कि कोई मनुष्य बहुज्ञानी होता है, समस्त श्रुत का ज्ञानी है, अवधिज्ञान भी बहुत है, मनःपर्ययज्ञान से भी सूक्ष्म मनोविकल्प जान लिए जाते हैं, थोड़ा और बढ़ाकर कल्पनाएँ कर लो कि सबको भी जान लिया जाय, वीतराग न हो तो कुछ यहाँ थोड़ा जानते हैं, उस थोड़े जानने में इतना दुःखी है, क्योंकि राग मोह साथ लगा है ना । तो जिसके साथ राग लगा हो और सब कुछ वह जान जाय तो वहाँ दुःख का क्या ठिकाना रहेगा? एक यह कल्पना करके भी वीतरागता का प्रभाव समझ लीजिए । वीतरागता का कितना बड़ा महत्त्व है?
वीतरागता की शिवसाधनता―वीतरागता बिना चूँकि मुक्ति नहीं हो सकती, संसार के संकट समाप्त नहीं हो सकते, इस कारण जिन्हें मुक्ति की कामना है उन पुरुषों का कर्तव्य है कि सर्वविषयों में सर्वपदार्थों में किंचिन्मात्र भी राग न करें । इसमें बहुत-बहुत विस्तारपूर्वक यह बात दिखाई गयी थी कि विषयकषायों का लगाव, खोटे परिणाम, मन, वचन, काय का खोटी जगह प्रयोग करना ये सब पापों का आस्रव कराते हैं । यह राग तो त्याज्य होना ही चाहिए सभी सुखार्थियों को, किंतु अरहंत सिद्ध चैत्य प्रवचन साधु आदि शुद्ध पदार्थों के संबंध में भी जो अनुराग होता है वह अनुराग यद्यपि कषायों से हटाने वाला रहने के कारण परंपरया मोक्ष का कारण है, किंतु साक्षात् तो वह राग भी मोक्ष में अंतराय बन रहा है । इस कारण यहाँ कह रहे हैं कि अरहंत आदि के विषय में भी पहुँचा हुआ राग स्वर्गलोक आदि के क्लेशों की प्राप्ति के द्वारा मन में अंतर्दाह के लिए कारण बनता है अर्थात् पुण्य कार्यों के करने से पुण्यबंध हुआ, स्वर्गलोक में उत्पन्न हुए, वहाँ विषयों का अनुराग होने के कारण अंतर में दाह बन रहा है । तब यह राग भी एक दाह का कारण बन गया, मुक्ति का कारण नहीं बन सका ।
दृष्टांतपूर्वक शुभोपयोग की विरुद्धकार्यकारिता का समर्थन―जैसे चंदन का वृक्ष शीतल होता है, ठंडक पैदा करता है, किंतु जिस चंदन के वृक्ष में आग लग रही है ऐसा आग लगा चंदन भी क्या ठंडक पैदा कर देगा? वह तो दाह ही करेगा । इसी प्रकार यह शुद्धोपयोगरूप धर्म और शुद्धोपयोग जिसके प्रकट हुआ है वह आत्मा विशुद्ध है, निर्दोष है, और उस शुद्धोपयोग का फल शांति और निराकुलता है, किंतु उस शुद्धोपयोगरूप धर्म के साथ-साथ कर्मविपाकवश अरहंत आदिक संबंधी राग लगा है तो राग लगा हुआ धर्म अर्थात् सराग चरित्र सरागधर्म यह भी अंतर्दाह के लिए कारण बनता है । ऐसा मान करके हे साक्षात् मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्यजनो ! समस्त कषाय संबंधी राग को छोड़कर अत्यंत वीतराग होओ ।
धर्मपालन का मौलिक उद्यम―सभी का यह कर्तव्य है कि आत्मकल्याण के प्रसंग में श्रद्धान पूर्ण निर्मल और निर्णायक बनाएँ । हम कितना चल सकते हैं यह बात हमारी शक्ति विकास पर निर्भर है, लेकिन श्रद्धान तो हमारा उतना ही निर्मल होना चाहिए जितना निर्मल साक्षात् मोक्षमार्ग पर चलने वाले साधु संतों का हुआ करता है । फिर उस श्रद्धान के अनुसार हम अपने को निर्मल बनाने का यत्न रखें, वह यत्न केवलज्ञानरूप है । उस विशुद्ध ज्ञान के जगने पर ये काम की क्रियायें सब रुक जाती हैं, अथवा अशुभ राग नहीं प्रवर्ताती हैं, यह तो एक फलीभूत बात है, किंतु किया, क्या आत्मा ने जिसके प्रसाद से ये सारे संकट दूर होते हैं? वह किया केवल विशुद्ध जाननहार बनना । केवल विशुद्ध जाननहार रहने में सभी गुण उदारता, त्याग, क्षमा, निराकुलता सबके सब उसमें आ जाते हैं । धर्मपालन तो यही है कि केवल जो जैसा पदार्थ है उसका वैसा मात्र जाननहार बना रहे, यही है साक्षात् धर्मपालन, और इसही धर्मपालन के लिए अन्य सर्व कार्य जो व्यवहारधर्म में किए जाते हैं, इसीलिए किए जाते हैं ।
संसारसमुद्र―हे भव्य जनों ! यदि मुक्ति चाहते हो तो समस्त पदार्थों में राग को छोड़कर इस संसार से तिरकर संसार से पार चले जावो । यह संसार एक भयंकर समुद्र की तरह है । जैसे समुद्र में बड़ी भयंकर कल्लोलें उठा करती हैं, एक-एक लहर एक-एक भींत बराबर भी उठ खड़ी हो जाती है । बड़ी भयंकर लहरें होती हैं । समुद्र के किनारे बहुत दूर भी खड़ा हुआ पुरुष भयभीत हो जाता है, और कितने ही लोग समुद्र के किनारे अथवा दूर चलते हुए भी समुद्र की ऐसी लहरों के लपेट में आकर अपने प्राण विसर्जन कर देते हैं । बड़ी भयंकर लहरें होती हैं । इस संसार की दुःख और सुख की भयंकर लहरें, इंद्रियजंय सुख और इंद्रियजंय दुःख, मानसिक सुख और मानसिक दुःख―ये 6 प्रकार के सुख और 6 प्रकार के दु:ख की एक दर्जन कल्लोल लहरें इस आत्मा में हो रही हैं । ये तो एक मोटी कल्लोलें हैं । इनके भीतर भी कितनी ही और कल्लोलें पड़ी हुई हैं । ऐसी सुख दुःख की लहरों का भयंकर यह संसार-समुद्र है । दुःख को तो सभी लोग भयंकर समझ लेते हैं, सहा नहीं जाता, किंतु सुख की भी लहरें कितनी भयंकर और क्षोभ उत्पन्न करने वाली हैं, इसे सर्वसाधारण नहीं जान सकते। किंतु विवेकी पुरुष ही इसकी माप समझ सकते हैं ।
इंद्रियसुख में क्षोभ की व्यापकता―ये संसार के सुख, इंद्रियजंय सुख काहे के सुख हैं जिन सुखों के संकल्प करने में भी क्लेश होता है, जिन सुखों का प्रोग्राम बनाने में भी क्लेश होता है जिन सुखों के साधनों का संचय करने में भी बड़ा क्लेश होता है और सुखों के साधन मिल गए तो उन सुखों के भोगते समय भी इस जीव में बड़े क्षोभ मचा करते हैं । इंद्रियसुख शांतिपूर्वक भोगने में नहीं आते, किंतु कोई क्षोभ है, वेदना है तब वे भोगने में आते हैं । चाहे उन सुखों के भोगने के फल में बीमार हो जायें अथवा अन्य-अन्य प्रकार की मानसिक बाधाएँ आ जायें, अपना धर्म और कर्म सब कुछ भी त्यागना पड़े, पर इन विषयभोगों को मोही जन छोड़ नहीं सकते । क्योंकि क्षोभ पूर्वक ही ये भोग भोगे गए हैं । भोगने के बाद भी अत्यंत क्लेश रहता है, और सारी बात तो यह है कि इस सुख के प्रसंग में आदि से लेकर अंत तक सब अज्ञानरूप ही परिणाम रहा । अज्ञान अंधकार एक बहुत बुरी परिस्थिति है ।
संसारसागर में अवगाह की विपदा―दुःख और सुख दोनों प्रकार की अनेक लहरों से व्याप्त यह संसारसमुद्र है, और फिर कोई शीतल जल भी नहीं है यहाँ । कर्मरूपी अग्नि से तप्तायमान और कलकल करता हुआ जल भार करके भरा हुआ यह संसारसागर है । एक तो भयंकर लहरें हैं और फिर तपा हुआ जल है तो उस समुद्र से कितना अहित है, उस समुद्र में अवगाह करने का कितना कुफल है, ऐसे ही यह संसार एक तो सुख दुःख की लहरों से भरा हुआ है और फिर कर्म अग्नि से यह संतप्त है । हे भव्य जीवो ! ऐसे संसारसागर को तिर करके इस संसार से पार होओ ।
संसार की अरम्यता―इस संसार में मत रमो । इस भव से पार होने का उपाय एक वीतरागता है । हे आत्मन् ! तू अपने आप पर कुछ दया करना चाहता है या नहीं? अपने आपकी जिम्मेदारी महसूस कर । इस संसार में तू अकेला ही है । अनादिकाल से अकेला ही रहा आया है, अनंत काल तक अकेला ही रहेगा । सुख में, दुःख में, जीवन में, मरण में सर्वप्रसंगों में तू अकेला ही है । जो पदार्थ समागम में मिले हैं ये पदार्थ तुझे भूल-भुलैया में पटकने के कारण बन रहे हैं । कितने दिनों का समागम है? यह तो थोड़े दिनों का समागम है, लेकिन ये समागम जगह-जगह फिर नवीन-नवीन मिलेंगे और तू वहाँ मोह करेगा तो वर्तमान स्थिति में तो ऐसा लगा है कि ये समागम बड़े सुखदाई मिले हैं, सो इनकी व्यवस्था और इनका मोह करके, राग करके सुख लूट लो, लेकिन ऐसे समागम बार-बार मिलते हैं, बिछुड़ते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार की स्थितियों को उत्पन्न करते हैं । इनमें कुछ सार नहीं है । मोह मत करो।
निर्मोहभाव की साध्यता―भैया ! यथार्थ ही सब निर्णय करो । यह सोचना भी एक भ्रम की बात होगी कि हम लोग गृहस्थ हैं, गृहस्थी से मोह कैसे छूट सकता है? मोह छुटाना तो उनका ही काम है जो घर त्यागकर साधु हुए हैं, अकेले रह गए हैं, उन्हें मोह छोड़ना चाहिए । भैया ! ऐसा भ्रम न करो जैनशासन की प्राप्ति अति दुर्लभ है, जैन शासन को पाया है तो उससे अपनी बुद्धि व्यवस्थित बनाये । कोई गृहस्थ भी हो तो भी वह मोह को पूर्णरूप से दूर कर सकता है । गृहस्थ राग और द्वेष की बात कर रहे हैं । राग और द्वेष गृहस्थी में रहकर दूर नहीं किए जा सकते, यह बात तो ठीक है । अथवा यों कह लीजिए कि जब तक रागद्वेष दूर नहीं किए जा सकते तब तक उसकी गृहस्थ जैसी स्थिति रहती है । करना पड़ता है, चारा क्या है, लेकिन मोह का हटा लेना तो सुगम है और सर्व साध्य है । मोह नाम किसका है? मोह के पर्यायवाची शब्द हैं अज्ञान, मिथ्यात्व । जो वस्तु अपने से अत्यंत भिन्न है उसे अपनी मानना यही तो मिथ्यात्व हुआ । यह मेरा है, इससे मुझे सुख मिलता है, ऐसी कल्पनाएँ बनाना यही तो मोह है । यह ज्ञान क्या किया नहीं जा सकता है गृहस्थी में भी रहकर कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है, अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अस्तित्व लिए हुए है, तब मेरा किसी अन्य द्रव्य से क्या संबंध है? आज जो निकट है, वह कल न रहेगा, और जो एक क्षेत्रावगाह भी हो रहा है, ऐसा यह शरीर भी न रहेगा । ये द्रव्यकर्म भी न रहेंगे, और की बात तो क्या कहें, एक क्षेत्र में और उसके ही परिणमनरूप उत्पन्न हुए ये रागादिक भी मेरे साथ नहीं रह सकते हैं, ये भी होकर नष्ट हो जाते है । क्या हम आप यह ज्ञान नहीं कर सकते ।
ज्ञान की अप्रतिघातता―आपके घर के भीतरी कमरे में तिजोरी में संदूक रखी हो, उसमें भी पोटरी में कोई गहना रखा हो तो आप यहाँ बैठे ही बैठे उसका ज्ञान कर लेते हैं कि नहीं? क्या घर के फाटक या संदूक आपके ज्ञान करने में कोई बाधा डालते हैं? आप यहाँ बैठे हैं और ख्याल आ जाय उस गहने का तो आप तुरंत उसका ज्ञान कर लेते हैं । ज्ञान को कहीं अटम होती है क्या? हाँ ज्ञान को अटका देने वाली कोई वस्तु है तो वह रागद्वेष की परिणति है । हम इस पिंड में भव में ठहरे हुए भी यदि सही-सही ज्ञान करना चाहें, प्रत्येक पदार्थ का जुदा-जुदा अस्तित्व निरखना चाहें तो झट निरख लेते हैं । कोई अटकाव करने वाली चीज है क्या? हम जो कुछ भी ज्ञान करना चाहें करते हैं, उसमें हम स्वतंत्र हैं । घर का कोई भी पुरुष कितनी भी मिन्नत करे, कितनी भी बाधा डाले और कुछ भी बात कहे तो वह एक विशुद्ध ज्ञान करने के कार्य में कुछ भी अटक नहीं डाल सकता है ।
मात्र ज्ञानभाव से मोह का प्रक्षय―प्रत्येक पदार्थ अत्यंत जुदे-जुदे हैं, अपने-अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अस्तित्त्व रखते हैं, किसी भी पदार्थ से रंच भी संबंध नहीं है । एक संघातरूप में वस्तु स्कंधरूप, चौकी, तख्त, भीत, खंभा आदिक किसी भी पदार्थ में अनंत परमाणुवों का समूह है ना, वहाँ भी प्रत्येक पदार्थ अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को लिए हुए हैं । कहीं दो परमाणु मिलकर एक सत् नहीं बन जाते हैं । इतनी तो वस्तुवों में परस्पर भिन्नता है, ऐसी भिन्नता गृहस्थ समझना चाहें तो क्या समझ नहीं सकते हैं? बस इसी के मायने है मोह का क्षय होना । निर्मोह गृहस्थ अभी चूँकि गृहस्थ जैसी परिस्थिति में वह है, रागद्वेष का त्याग नहीं कर सकता लेकिन मोह तो पूर्णरूप से छोड़ सकता है । क्या सम्यग्दृष्टि गृहस्थ हुआ नहीं करते? होते हैं ।
अचलित स्वरूपश्रद्धान का कर्तव्य―अपना निर्णय ती निर्मोह परिणाम रखने का होना ही चाहिए । मुझे तो सही ज्ञान बनाये रहना है, ऐसे निर्णय से रंच भी विचलित न हों । कभी ऐसे भी वज्रपात हों कि जिनके भय से ये तीन लोक के जीव भी अपना मार्ग छोड़ दें, पर इस निर्णय को रखने में हम कोई कमी न रखें । मैं सबसे न्यारा एक अमूर्त ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व हूँ, इसका कोई क्या बिगाड़ करेगा? डर लग रहा है जो कुछ यह स्वरूप की संभाल न होने से और परवस्तुवों में राग अथवा मोह होने से यह सब डर लग रहा है । जहाँ परपदार्थों में मोह नहीं रहा, राग नहीं रहा वहाँ डर किस बात का? लो बाबा यह मैं इतना ही ज्ञानानंदमात्र हूँ, लो तुम को हम नहीं सुहाते, चले यहाँ से । जहाँ जायेंगे वहाँ ही हम ज्ञानानंदस्वरूप रहेंगे, अर्थात् मरण प्रसंग भी हो तो लो क्या हर्ज हुआ? लो चले यहाँ से । हम-हम ही हैं, मैं मुझमें ही हूँ । मैं अपना ही अपने लिए सर्वस्व हूँ । ऐसे अपने एकत्व की ओर जिसका दृढ़ झुकाव है ऐसे पुरुष को कहाँ भय है?
अमृतस्नान―जो पुरुष निर्मोह होकर, वीतराग होकर संसारसागर को पार करता है वह स्वरूप रूप जो परम अमृत समुद्र है उसमें अवगाह करके शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है । आत्मा तो ज्ञानानंदस्वरूप है ही । इस ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा पर जो और लेप चढ़ गया है, जो इसमें विकार आया है उस विकार धूल से उस लेप से विमुक्त होने में जैसा यह स्वच्छ ज्ञानानंद मात्र है बस वही प्रकट रह गया, इस ही अवस्था का नाम है मोक्ष । तो हे भव्य जीव ! यदि निर्वाण चाहते हो तो एक ही निर्णय रखो, निर्मोह बनो और सर्वपदार्थों में राग मत करो याने किसी में भी राग मत करो । वीतराग बनकर संसारसागर से तिरकर एक मोक्षरूपी अमृत समुद्र में अवगाह कर परमशांति प्राप्त करो । ऐसा इस गाथा में वीतरागता का उत्साह देने के लिए अंतिम उपदेश है ।
स्नेह का बंधन―संसार में अनुभव में आने योग्य जितने भी बंधन हैं वे सब बंधन मोह और स्नेह भाव से हैं, यह बात कुछ विवेक करने पर अनुभव में आ जाती है । बंधन तो मोह और स्नेह के पीछे लगा हुआ है । किसी विषयसाधन में स्नेह है और उसमें कोई बाधक बन रहा है तो उससे द्वेष होता है । द्वेष होने के मूल में भी कोई न कोई राग कारण है । यों एक स्नेह को ही कह लो कि यही बंधन है । जिसे बंधन से छूटना हो, मुक्ति का आनंद लूटना हो उसका कर्तव्य है कि जिस किसी भी प्रकार यह स्नेहभाव दूर हो सके, ऐसा यत्न करे । जो निकटभव्य जीव है वह स्नेहभाव को दूर करने के लिए बड़ी विभूतियों का भी क्षणमात्र में परित्याग कर देता है । सर्वोपरि करुणा आत्मकल्याण है । अन्य स्नेहों की तो चर्चा दूर ही रहो । परमात्मप्रभु में भी पहुँचा हुआ अनुराग, यद्यपि वह धर्मानुराग है, पर उस अनुराग में भी पद्धति तो राग वाली ही है । अतएव इतना भी राग का लेश स्वर्गलोक के बंधन और क्लेश का कारण होता है । तब जिन्हें साक्षात् मोक्ष की इच्छा है वे किसी भी पदार्थ में राग न करके वीतराग होकर संसारसमुद्र से तिरकर केवल शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप निज अमूर्त सुधा समुद्र में अवगाह करके शीघ्र निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं । इस संबंध में बहुत विस्तार करने से क्या लाभ है? अब जरा सारभूत तत्त्व पर एक बार फिर आइये ।
शास्त्रतात्पर्य―इस शास्त्र का तात्पर्य है वीतरागता । इस वीतरागता के लिए स्वस्ति हो, नमस्कार हो और यही उपादेय है, इस प्रकार की बुद्धिपूर्वक इसकी ओर आकर्षण हो । स्वस्ति शब्द में दो शब्द मिले हुए हैं―सु और अस्ति । सु का अर्थ है भली प्रकार अस्ति मायने होना, भला होना । स्वस्ति में नमस्कार और आशीर्वाद एवं जयवाद तीनों में समन्वय होकर जो कुछ एक भव बनता है उस भाव से प्रयोजन है स्वस्ति का । मोक्षमार्ग का सारभूत यह वीतराग भाव ही है । वीतरागता ही मोक्ष का मार्ग है । इस समस्त शास्त्र का तात्पर्य भी वीतरागता है, वह वीतरागता जयवंत हो । कुछ भी व्यक्त किया जाय उसमें दो तात्पर्य होते हैं―एक तो शब्द तात्पर्य और एक आशय तात्पर्य, जिन्हें प्रसंग में यों कह लीजिए―एक सूत्र―तात्पर्य और एक शास्त्रतात्पर्य । सूत्रतात्पर्य तो प्रत्येक सूत्र में बता ही दिया गया है । प्रत्येक गाथा में गाथा के समय गाथा का क्या अर्थ है, क्या भाव है, यह बता दिया गया । अब एक बार उन समस्त सूत्रों में जैसे समुच्चय रूप से तात्पर्य जानना है उसका नाम है शास्त्रतात्पर्य । एक वाक्य का भाव और एक समग्र वक्तव्य का भाव । वाक्य के भाव तो प्रति वाक्य की सीमा तक रहते हैं, उसका आगे के वक्तव्य से और पीछे के वक्तव्य से संबंध नहीं है, परंतु समस्त वक्तव्य का भाव, उसमें समग्र वाक्य भी सम्मिलित हें और जो कुछ न कहा गया हो, अब कहा हो वे सब चूलिका के विषय भी सम्मिलित हैं । इस शास्त्र का तात्पर्य परमार्थ से वीतराग भाव ही हे ।
शास्त्र की परमेश्वरता―यह शास्त्र परमेश्वर है, परमेश्वर से आया हुआ है । प्राय: सभी धर्म वाले अपने-अपने शास्त्रों को ईश्वर के बनाये अथवा ईश्वर के भेजे आदिक रूप से मानते हैं । ये जैनशासन के आगम ये परमेश्वर के बनाये नहीं हैं, परमेश्वर के भेजे नहीं हैं, फिर भी इन समस्त आगमों का परमेश्वर से मौलिक संबंध है । परमेश्वर अरहंत भगवान जो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं उनकी दिव्यध्वनि की परंपरा से यह समस्त आगम आया हुआ है । भगवान के समवशरण में बहुत बड़ी विशाल रचना होती है, वहाँ दर्शनीय 12 सभायें होती हैं, उन सभावों में किसी में मुनिराज बैठे हैं, किसी में श्रावक अर्जिकाएँ हैं, किसी में श्रावक हैं, किसी में भवनवासी आदिक देव हैं, किसी में उनकी देवांगनाएँ हैं, किसी में तिर्यंच बैठे हैं, इस प्रकार उन 12 सभावों में सभी प्रकार के श्रोतागण होते हैं । समस्त श्रोताओं में मुख्य और धर्म संचालक गणधरदेव होते हें ।
आगम की निर्दोष परंपरा―मुनिराजों मे जो मुख्य हैं, गणों को धारण करने वाले हैं वे गणधर और उन गणधरों में भी प्रमुख गणधर जिनको गणेश भी कह सकते हैं वे नरलोक के समूह में सरस्वती के प्रधान अधिपति हैं, विद्यावों के प्रधान अधिपति हैं और इसी कारण विद्यारंभ के समय में गणेश का स्मरण किया जाता । गणेश अर्थात् दिग्गज आचार्य, मुनिजन आचार्य, उपाध्याय जन समस्त गणों के स्वामी प्रधान हैं । जैसे महावीर स्वामी के समय में गौतम गणेश हुए हैं, इसी तरह चौबीसों तीर्थंकर के समय में प्रमुख एक गणेश हुए हैं । दिव्यध्वनि को सुनकर इन गणधर देवों ने द्वादशांग की रचना की और गणधरों से अन्य आचार्यों ने अध्ययन किया । आचार्यों से बड़े मुनियों ने अध्ययन किया, और यह परंपरा निर्दोष अब तक चली आ रही है कि इस परंपरा में श्रद्धा से सहित होकर जो कोई भी साधारण भी गृहस्थ कवि लेखक अपनी लेखनी चलाता है तो उस ही आगम के अनुसार अर्थ विस्तार करके लेखनी चलाता है । यों यह आगम परमेश्वर से प्रणीत है, परमेश्वर से लाया हुआ है, परमेश्वर के द्वारा प्रज्ञप्त है अर्थात् जताया हुआ है, ऐसा यह परमेश्वर शास्त्र है ।
शास्त्र का तात्पर्य वीतरागभाव―इस परमेश्वर शास्त्र का तात्पर्य एक वीतराग भाव है । शास्त्रों का हितकर और सारभूत एक ही उपदेश है जो राग करता है वह कर्मो से बँधता है, जो राग नहीं करता वह कर्मों से छूटता है, इस कारण मुक्ति का आनंद चाहने वाले संत जनों को समग्र पदार्थों से रागभाव का परित्याग करना चाहिए । यहाँ इस शास्त्र का तात्पर्य बता रहे हैं । पहिले तो शास्त्र की विशेषता ही समझ लीजिए । कितना विशिष्ट यह ग्रंथ है?
शास्त्र में मोक्षतत्त्व की प्रतिपत्ति के कारण की विशेषता―इस ग्रंथ में समस्त पुरुषार्थों में सार अथवा समस्त पुरुषार्थों का सारभूत जो मोक्षतत्त्व है उस मोक्षतत्त्व की प्रतिपत्ति का कारण है । इसमें मोक्षतत्त्व के स्वरूप का प्रकाश मिला है । इस ग्रंथ में समग्र वस्तुवों का स्वभाव दिखाया गया है । वस्तुवों का स्वभाव एकदम सीधा कैसे दिखाया जाय जब तक उस वस्तु का व्यवहारकथन से उसकी विशेषताएँ न बतायी जायें? अत: पदार्थ की विशेषताओं का प्रतिपादन भेद प्रभेद करके किया है ।
विशेषता के प्रकार―विशेषताएँ दो प्रकार की होती हैं―एक तिर्यक् विशेष, एक ऊर्द्ध विशेष । जैसे किसी चौकी की विशेषता जाननी है तो चौकी की विशेषता जानने की दो पद्धतियाँ हैं, एक तो विस्तार रूप में समझे यह इतनों लंबी-चौड़ी है, इसमें ऐसी-ऐसी रचनाएँ हैं―एक तो यों फैलाव में दिख सकने वाली विशेषतावों का जानना और एक कल क्या था, आज क्या है, इस प्रकार कामभाव से इसकी अवस्थाओं का परिज्ञान करना । इस ही प्रकार समग्र वस्तुवों के जानने के दो ही तरीके हैं―एक किसी भी एक वस्तु में एक साथ फैलावरूप क्या-क्या विशेषताएँ हैं इसे समझना, इन विशेषताओं का नाम है गुण । प्रत्येक पदार्थ में एक साथ रहनेवाला विस्तार क्या है? जैसे आत्मा में ज्ञान, दर्शन, आनंद, शक्ति, सूक्ष्मत्व, अमूर्तत्व कहा जाय ये एक साथ ही अनेक हैं, इसलिए समझ में इसका तिर्यक् फैलाव बन जाता है । दूसरी विशेषता है ऊर्द्ध विशेषता । इस आत्मा का पूर्वकाल किस परिणति में व्यतीत हो, इस समय किस प्रकार व्यतीत हो रहा, इन विशेषताओं का नाम है पर्याय । तो इन गुण और पर्याय तिर्यक् विशेष और ऊर्द्ध विशेष को समझाने के ढंग में बताये गए 5 अस्तिकाय और 6 द्रव्यों का जो स्वरूप है उस स्वरूप से फिर वस्तु के स्वभाव का दर्शन कराया गया है ।
अस्तिकाय व द्रव्य शब्द से तिर्यग्विशेष व ऊर्द्ध्वताविशेष का संकेत―अस्तिकाय व द्रव्य―इन दो शब्दों में ही देख लीजिए कि उन वस्तुवों का प्रतिनिधित्व आ गया है । अस्तिकाय शब्द तिर्यक् विशेष की ओर संकेत करता है प्रमुखता से और द्रव्य शब्द पर्यायों की ओर संकेत करता है प्रमुखता से, अस्तिकाय कहने से किसी परवस्तु का जितना फैलाव है, जितना प्रदेशों में विस्तार रहता है उतने प्रदेशों में दृष्टि गयी है तब यह तिर्यक् परिज्ञान हुआ । उस तिर्यक् परिज्ञान में गुणो का परिज्ञान है । द्रव्य किसे कहते हैं ? द्रव्य का भी अर्थ यही है कि जिसने पर्यायों को प्राप्त किया था, जो पर्यायों को प्राप्त कर रहा है, जो पर्यायों को प्राप्त करता रहेगा उसे द्रव्य कहते हैं । इस द्रव्य शब्द की विशेषता ने पर्याय की ओर दृष्टि दिलायी । यों गुणपर्यायों के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए इस ग्रंथ में वस्तुस्वभाव को दिखाया गया है ।
ज्ञान में भेद से अभेद की ओर व अभेद से भेद की ओर ले जाने की पद्धति―कल्याणार्थी पुरुष पहिले भेद से अभेद की ओर आता है और फिर यह भी हो सकता है कि यह अभेद से भेद की ओर जाय । पर अंत में पुरुष के लक्ष्य की पूर्ति इस मोक्षमार्ग के प्रसंग में जो उद्देश्य बनता है उसकी पूर्ति भेद से अभेद की ओर आने में होती है । संसार के जीव शुभ भावों से ही परिचित हैं । अभेदस्वरूप, एकत्वस्वरूप अद्वैतभाव इनसे परिचित नहीं हैं । तब इस भेददृष्टि वाले का क्या कर्तव्य है कि वह इस प्रकार का यथार्थ परिज्ञान करे कि भेद से उठकर ऊपर चलकर यह अभेदस्वरूप में जाय । अभेदस्वरूप में जाने के बाद पूर्व संस्कार के कारण किसी भी जीव में यह सामर्थ्य नहीं हुई कि यह प्रथम ही भेद से अभेद में पहुँच गया तो उस अभेद में ही रम जाय, अतएव उन्हें हजारों बार अभेद से भेद में जाना होता है, भेद से अभेद में जाना होता है यों हजारों बार परिवर्तन करने के पश्चात् जीव का कल्याण तब ही होता है जब भेद से अभेद में पहुँच कर स्थिर हो जाय तो पहिले गुणपर्यायों के कथन से भेद का निर्णय किया ।
भेद के यथार्थ निर्णय का विवेक―ये संसारी जीव भेद का भी तो सही निर्णय किए हुए नहीं हैं । भेद का सही निर्णय ही तो व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान है । भेद से निर्णय यों हुआ कि यह वस्तु है, इतना प्रदेशवान है, इसमें अमुक-अमुक गुण हैं, इसकी इसही प्रकार की पर्यायें हैं । भेदज्ञान करने के बाद फिर समेट होता है । इन सब गुणपर्यायों का जो समूहरूप एकत्व है वह है पदार्थ । अच्छा, तब इसका स्वभाव क्या है? तो स्वभाव छिन्न-भिन्न नाना नहीं है, किंतु वह एक रूप है । इस तरह भेद के द्वार से यह अभेद धाम में पहुँचा । वहाँ पहुँचने के बाद फिर अभेद से भेद की ओर भी चल देता है । यों फिर भेद से अभेद की ओर आता है । इस प्रकार के तत्त्व कौतूहली बनकर भव्य जीवों ने वस्तु के स्वभाव का दर्शन किया है, यह सब इन ही शास्त्रों से जाना गया है।
समस्त वर्णनों का तात्पर्य वीतरागभाव की उपादेयता―यह शास्त्र निश्चय और व्यवहाररूप मोक्षमार्ग का भली प्रकार वर्णन करता है । इस मोक्षमार्ग की चूलिका में व्यवहारमोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग का विश्लेषण करते हुए व्याख्यान किया है । इस ग्रंथ में बंध और मोक्ष के भेद पर भी प्रकाश डाला है । जो बंध और मोक्ष के आयतन हैं अर्थात् उस बंध विधि के भाव से चले तो बंधन होता है और उस मोक्षविधि के भाव से चले तो मोक्षमार्ग मिलता है । यह सब भी, नौ पदार्थों का वर्णन करने वाले अधिकार में बंध और मोक्ष का भी स्पष्ट वर्णन किया है । सब कुछ वर्णन करने के अनंतर बात यही मिलेगी कि इन शास्त्रों के हृदय में वीतरागता का ही स्थान है । साक्षात् मोक्ष का कारणभूत यह वीतराग भाव है ।
वीतरागभाव से समस्त सुलझेरा―उस वीतराग भाव में शास्त्र का समस्त हृदय विश्रांत हो गया है । शास्त्र में भी जितना कथन है उस समस्त कथन का हृदय भी वीतरागभाव है जिस भाव में सब कथन विश्रांत है । बहुत-बहुत वर्णन करने के बाद अंत में जब पूछा जाता है कि इसका सार तो बतावो, इसका तात्पर्य तो बतावो? तो उसका यही उत्तर है कि वीतरागता ही इस शास्त्र का तात्पर्य है । शास्त्र के अध्ययन का फल लेना हो तो अपने जीवन में योग्य ज्ञान बनाकर यही उद्यम करना चाहिए कि हम में वीतरागता का आधिक्य प्रकट हो ।यद्यपि बहुत-बहुत प्रकार के साधन ऐसे लगे हुए रहते हैं कि जो विभिन्न हैं और जिनका मुकाबला और निपटारा का सुल्झेरा करना भी कठिन होता है, फिर भी सम्यक्त्व के माहात्म्य से यथासमय सुलझेरा हो ही जाता है ।
राग का विषय परपदार्थ―भैया ! सच बात तो यही है कि इस जीव को जितने भी राग लगते हैं वे सब परपदार्थों में ही तो लगते हैं । निज पदार्थ में कहाँ राग है? कदाचित् कोई जीव निज पदार्थ में भी राग करे तो जब तक वह निज पदार्थ की पर जैसी शकल बनाये रहता है तब तक राग रहता है । जैसे मैं अपनी करुणा करूँ, अपना काम साधु, अपने आप में ही रूप बनाता है तो जिस समय यह रूप बनाता है उस समय इस जीव को जो सहज ज्ञायकस्वरूप है, अपने वह लक्ष्य में नहीं है और इस निज को अन्य-अन्यरूप में लक्ष्य में लिए है तब इसकी ओर राग है । शुद्ध परमार्थ निजस्वरूप ज्ञात हो तो वहाँ राग नहीं रहता, किंतु रागरहित अवस्था होती है । समता और स्वास्थ्य भाव वहाँ प्रकट होता है ।
खुद की बेसुधी में बाह्यविडंबना―बाह्यपदार्थों का समागम, ये कहीं मुझ में राग अथवा उपद्रव उत्पन्न नहीं कर रहे हैं, यह मैं ही खुद अपने स्वरूप की संभाल में न रहकर रागवश अन्य पदार्थों को अपने सुख का साधन समझकर हम उनमें राग किया करते हैं । सच पूछो तो जिस शरीर से हम आप राग रख रहे हैं यह शरीर क्या है? इंद्रियों का समूह ही तो है । यह सारा शरीर जो कुछ दिख रहा है, जो कुछ भी छूने में आता है यह सब स्पर्शनइंद्रिय ही तो है । यह ऊपर की त्वचा स्पर्शनइंद्रिय है और यदि यह त्वचा अलग हो जाय और यह मांस का खंड ही ऊपर रहे तो क्या यह मांस खंड स्पर्शन ज्ञान का काम नहीं करता? वह भी स्पर्शन इंद्रिय है । इस मांस को भी थोड़ा काटकर निकाल ले तो अंदर जो कुछ है, क्या वहाँ स्पर्शन का बोध नहीं होता? क्या है यह शरीर? स्पर्शनइंद्रिय का कितना बड़ा विस्तार है इस देह में? शेष चार इंद्रियों का तो बहुत-सी छोटी जगह में स्थान है और इस स्थान में भी स्पर्शनइंद्रिय तो बनी हुई ही है, उसके भीतर किस प्रकार की ये गुप्त अन्य इंद्रियाँ पड़ी हुई हैं?
इंद्रियों में ज्ञानानंदस्वरूप की बाधकता―ये इंद्रियाँ हमारे सुख की और ज्ञान की साधन बन रही हैं, पर वस्तुत: ये हमारे सुख और ज्ञान की बाधक हैं, हमारी सहज निधि का विघ्न करने वाली हैं, किंतु ऐसे बंधन की स्थिति में जो कुछ ज्ञान और सुख पाने के लिए निमित्तरूप सुविधा मिली है यह मोही जीव इसी कारण इन इंद्रियों में आसक्त हो जाता है । इन इंद्रियों को आचार्यदेव ने हतक शब्द से प्रयोग किया है । हतक एक अपशब्द है । हतक मायने हैं हत्यारा अथवा नाश का मिटा । ये हत्यारी इंद्रियाँ नाश की मिटी, इन इंद्रियों में इस मोहीजीव का अनुराग पहुँच रहा है और इस कारण हमारे साधनभूत बाह्य अर्थों में भी अनुराग पहुँचता हे । तब हमारा कर्तव्य यह है कि इन इंद्रियों से भिन्न ज्ञायकस्वरूप निज अंतस्तत्त्व का अनुभव करें । यों भेदविज्ञान करके निज अभेद ज्ञान द्वारा इन समस्त संकटों को दूर करें और वीतरागता का आदर करें । इन समस्त शास्त्रों का तात्पर्य वीतराग भाव ही है । ऐसा जानकर वैराग्य की ओर अपना उद्यम होना चाहिए ।
वीतरागभाव की अनुगम्यमानता―मोक्षमार्ग का प्रधान साधनरूप यह वीतरागभाव व्यवहार और निश्चय के अविरोध पूर्वक ही जो अनुगम्यमान होता है, विज्ञात होता है, वर्तना में आता है वह वीतरागभाव इष्टसिद्धि के लिए होता है । इस मोक्षमार्गी जीव का इष्ट है मोक्ष की प्राप्ति । मोक्ष की प्राप्ति का कारण है वीतरागभाव । वीतरागभाव उनके ही प्रकट होता है जो निश्चय अथवा व्यवहारनय में किसी का एकांत पक्ष नहीं रखते, और दोनों नयों का विरोध न करके जो परख में आता है, जो परिणति में आता है ऐसा वीतरागभाव मोक्षमार्ग का कारण है । अब इस व्यवहारनय का और निश्चयनय का अविरोध कह रहे हैं और किस ढंग से इस मार्ग में चलना चाहिए, इसका वर्णन कर रहे हैं ।
भिन्न साध्यसाधनभाव के प्रदर्शन की आवश्यकता―सब से प्रथम जो प्राथमिक जन हैं, जो इस कल्याणमार्ग में प्रवेश करने वाले हैं वे पुरुष व्यवहारनय के बल से भिन्न साध्यसाधन का आलंबन लेकर सुखपूर्वक इस तीर्थ में प्रवेश कर सकते हैं । जिन जीवों को अनादिकाल से अब तक भेद की ही बुद्धि लग रही है, भेद में ही वासना बनी रही है और अनुकूल भेद में भी नहीं, किंतु अनाप-सनाप जैसा चाहे भेद में जिनकी बुद्धि लग रही है ऐसे जनों को यदि प्रथम ही अद्वैत अखंड चैतन्यस्वभाव का उपदेश दे और उसके ही आलंबन के लिए अनुरोध करें तो उनसें क्या बनेगा? जो अब तक पंचेंद्रिय के विषयों की ओर रत रहे आये, इतना विपरीत भेद में बढ़ गये, अपने से अत्यंत भिन्न देह विभाव आदि को अपनाते रहे, उतना अत्यंत अभेद वाले पदार्थों में जो जुड़ते रहे, ऐसे लोगों को प्रथम तो भिन्न साध्य और भिन्न साधन का उपदेश दिया जाता है ।
भिन्न साध्यसाधनभाव का समवलोकन―देखिये मुक्ति चाहिए हो तो जो मुक्त हुए हैं ऐसे देवों की श्रद्धा रक्खो । उस मुक्ति का उपाय जिन ग्रंथों में बताया है उन ग्रंथों में कोई शंका न करो । विनयपूर्वक उन ग्रंथों का अध्ययन करो, और जो मुक्ति के मार्ग में लग रहे हैं ऐसे साधु संतों की सेवा करो । यों भिन्न साधनों का अवलंबन कराया जाता है और हुआ भी सभी को ऐसा । जो पुरुष आज निश्चयनय की कथनी में अनुरंजित हैं अथवा निश्चयनय की ओर झुकाव जिनका आ गया है उन पुरुषों ने क्या जन्म लेने के बाद ही यही रुख एकदम पा लिया था? कैसी प्रवृत्ति, कैसा व्यवहार रहा, उससे यह स्पष्ट है कि इन प्राथमिक पुरुषों को सर्वप्रथम इस भिन्न साध्यसाधन का आलंबन लेना पड़ता है तब वे सुगमता से सुखपूर्वक तीर्थ में अवगाह लेते हैं अर्थात् इस धर्म को धारण करने के पात्र बनते हुए ।
व्यवहारावलंबन―अब धर्मविधि की इस बात को स्पष्ट करते हैं । यह तत्त्व श्रद्धा करने योग्य है और यह तत्त्व श्रद्धा के योग्य नहीं है । यह श्रद्धान करने वाला है और यह श्रद्धान है, यह अश्रद्धान है, यह ज्ञेयपदार्थ है, यह ज्ञाता है, यह ज्ञान है, यह अज्ञान है, यह आचरण के योग्य नहीं है, यह आचरण किया गया है, यह कर्तव्य है, यह अकर्तव्य है, यह करने वाला है, यह किया जा रहा है आदिक विभावों का जब अवलोकन होता है तो उससे इसमें एक उत्साह जगता है । प्राथमिक पुरुष कब से मोक्षमार्ग का उत्साह प्राप्त करता है? जब से वह इस ज्ञानमार्ग में चला और भिन्न-भिन्न रूप से तत्त्व का निर्णय करने लगा तब से इसे मोक्षमार्ग में उत्साह बढ़ता है, यही हुआ ना भिन्न साध्यसाधनभाव, व्यवहारनय का आलंबन । यह तो प्राथमिक पुरुष की प्रारंभ की कहानी है, लेकिन क्या इतने तक ही वह फंसा रहे? यदि यह साथ ही रहता है तो उसे सफलता न मिलेगी तब धीरे-धीरे कह मोहमल्ल का उन्मूलन करता है ।
आत्मानुभूति और मोहमल्लमर्दन―भैया ! अपने ही अनुभव से ऐसा निर्णय करो कि जिस देह में यह मैं प्रतीति कर रहा हूँ, यही मैं हूँ, ऐसा मिथ्या श्रद्धान करने वाले पुरुष को जब कभी भी सम्यक्त्व प्राप्त करने का आरंभ होगा यह मैं नहीं हू―इस देह से यों हटेगा तो सर्वप्रथम तो यह जानकारी आयगी ही कि इस शरीर का ध्यान ही न करके जो शुद्ध सहज आत्मतत्त्व है उस आत्मा में रति बन जाय, अनुभूति हो जाय । आत्मोन्नति का, मोहमर्दन का यह काम धीरे-धीरे होने का है । जैसे किसी मल्लों की लड़ाई में जहाँ मल्लयुद्ध हो रहा हो तो कोई भी मल्ल दूसरे को गिराकर उसे धीरे-धीरे उन्मूलन करता है । जैसे कुश्ती वाले लोग जानते ही हैं, इसी तरह इस ज्ञान का और इस मोह का आज यह कलह हुआ है अर्थात् मोह ज्ञान पर हामी जो बना हुआ था आज ज्ञान को सुध जगने लगी है, और यह ज्ञान मोहमल्ल को हटाना चाहता है तो वह ऐसी ही भेदभावना से हटाकर इस मोहमल्ल का उन्मूलन करता है । किसी कारण से और प्रमाद के अधीन होकर अपने आत्मा को शिथलित भी कर देता है । जैसे गृहस्थों में यह अवस्था गुजरती है, कभी धर्म की सुध हुई, कभी फिर ममता में रम जाता है, कभी खेद करते, धर्म के लिए उत्साह जगता, फिर अधिक देर तक धर्म नहीं टिक पाता है । उसी ममता में फिर पग जाते हैं । ऐसे ही प्राथमिक जनों में भी हो क्या रहा है कि मद और प्रमाद के अधीन हो जाते हैं । मद मायने अहंकार ।
गतियों में कषायों की मुख्यता का विश्लेषण―चारों गतियों के कषायों की पृथक्-पृथक् मुख्यता है । नरकगति में क्रोध कषाय प्रधान है, तिर्यंचगति में मान कषाय प्रधान है । तभी देखा होगा कि बिल्ली कैसा मायाचार से चूहे पर झपटती है और अन्य-अन्य भी पशु अपना-अपना योग्य मायाचार रखते हैं? हम आप नहीं समझ पाते उनकी बात । लेकिन प्रकृति ऐसी है तिर्यंचगति के जीवों की कि उनमें मायाचार की प्रधानता है । देवगति में लोभ कषाय की प्रधानता है और मनुष्यगति में मान कषाय की प्रधानता है । देख लो इस मान कषाय के पीछे अपना तन, मन, धन सर्वस्व होम सकते हैं । मनुष्यों में मान कषाय की प्रधानता है, यह बात आँखों दिख भी रही है लोकव्यवहार में । तो यह मनुष्य कभी मद के अधीन हो जाता है और कभी प्रमाद के अधीन हो जाता है, तब आत्मा का अधिकार इसके शिथिल होने लगता है ।
ज्ञानी की प्रचंड दंडनीति―आत्माधिकार जिसका शिथिल होने लगता है ऐसे आत्मा को न्यायपथ में लगाने के लिए प्रचंड दंडनीति का प्रयोग भी बताया गया है उसे वह करता है । खाना छोड़ दिया । आज भाव आया कि अमुक चीज खानी है तो क्यों आया ऐसा भाव? लो आज यह चीज ही छोड़ दिया । यह क्या है? आत्माधिकार जिसका शिथिल होने लगता है उसके लिए यह दंड है और जितने भी व्रत हैं, नियम हैं ये सब क्या हैं? ये सब दंड स्वरूप हैं, इतना ही तो फर्क है । अज्ञानी जन तो ऐसा समझकर कि मैं व्रती हूँ, मेरा यह करने का काम है ऐसा उत्साह रखकर किया करते हैं, किंतु ज्ञानी जन ऐसा सोचते हैं कि मैं तो ज्ञानस्वरूप हूँ, उसे नहीं पा रहा हूँ अतएव उसमें विरोध डालने वाले विषयकषायों को हटाने के लिए मैं यह प्रयत्न कर रहा हूँ और इसे मैं एक दंड समझता हूँ । तो जब आत्माधिकार शिथिल होता है तब दंड नीति का यह जीव प्रयोग करता है । फिर बार-बार दोषों के अनुसार प्रायश्चित्त लेता है ।
स्वरूपच्युति के अपराध का प्रायश्चित्त―देखो भैया ! अपने आपको जिसने प्रायश्चित्त दिया है ऐसा इस ज्ञानी पुरुष में व्यवहारनय और निश्चयनय इन दोनों का कैसा अविरोध चल रहा है? दोष तो इस जीव के लगते रहते हैं और ज्ञानी पुरुष उन दोषों का दंड भी लेता रहता है । संयममार्गणा में प्रथम दो संयम कहे गए हैं―सामायिक और छेदोपस्थापना । छठे गुणस्थान में तो ये दोनों खूब समझ में आते हैं कि वहाँ समतापरिणाम भी करता है और बराबर विचलित भी होता जाता है । लोगों को देखकर उनको शिक्षा दीक्षा देकर किसी भी प्रकार जब फलित हो जाता है अपने उत्कृष्ट मन से तो छेदोपस्थापना कर लेता है । उनमें कोई दोष ही बन गया, अपने नियम के विरुद्ध कार्य भी बन गया तो उसकी संभाल करता है ।
छेदोपस्थापना का अंतर्मर्म―देखो भैया ! छठे गुणस्थान में तो सर्वविदित है कि छेदोपस्थापना हो गई, किंतु 7वे, 8वें और 9वें गुणस्थान तक जहाँ अनिवृत्तिकरण परिणाम हो गया, एकसा ही जहाँ सबका परिणाम रहता है वहाँ भी छेदोपस्थापना बताया है । इसका मतलब क्या है? इसका तात्पर्य यह है कि यह साधु रागद्वेष को त्यागकर समतापरिणाम में लगा है, शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहे इस प्रयत्न में लगा है । इस प्रयत्न में लगने के मायने ही यह हैं कि लगते हुए के बीच-बीच कुछ-कुछ शिथिलता आती है और फिर उसको ज्यों का त्यों उपस्थित करता है । कोशिश में लगना इसका अर्थ क्या है? उसके साथ-साथ शिथिलता भी चलती रहती है और उस शिथिलता का परिहार भी चल रहा है उसे कहते हैं कि कोशिश में लगा है । शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहना यह बहुत उच्च कार्य है ।
समता में लगने का पुरुषार्थ―पदार्थों के केवल जाननहार रहें, वहाँ इष्ट अनिष्ट की कल्पनाएँ न जगें, किसी भी प्रकार का सूक्ष्मरूप से भी सुहावना और असुहावना का भाव न बने, लो अभी कुछ श्रम सा हो रहा था, अब विश्राम सा मालुम पड़ने लगा । इतना भी भेद जहाँ न जगे ऐसी केवल जाननहार की स्थिति कितने उत्कृष्ट पुरुषार्थ की परिस्थिति है? इस काम को करते हुए अबुद्धिपूर्वक जो समझ में नहीं आता ऐसी उस समता की गली से कुछ-कुछ शिथिलताएँ होती हैं, त्रुटियाँ होती हैं तो पुन: फिर उस ही साम्यभाव में लगने का जो प्रवर्तन है वह है छेदोपस्थापना । यों कह लीजिए कि बराबर वह समता में लग रहा है तो समता में लगने का जो प्रतिपक्ष यत्न है वह छेदोपस्थापना है, और जो समता में लगा रहे वह सामायिक है ।
आत्मसंस्कार का अधिरोपण―शिवमार्ग में चलते हुए साधु के शेष राग के कारण दोष लगते रहते हैं, उन दोषों का वह प्रायश्चित देता है और सदैव उस समतापरिणाम में ठहरने के लिए उद्यमी होता है । ऐसे इस आत्मा के हुआ क्या कि भिन्न विषयक श्रद्धान ज्ञान और आचरण के द्वारा इसने एक संस्कार प्राप्त किया । जैसे एक मोटे रूप में ही देखिये―हम आप लोग बचपन से ही किस-किस प्रकार से अपने संस्कारों को बनाते चले आये हैं । आज इतनी धर्मरुचि हुई है, भक्ति है, तन, मन, धन, वचन सब कुछ धर्म के लिए न्यौछावर कर सकते हैं, इस तरह की जो आज तैयारी है उस तैयारी से पहिले जो-जो संस्कार बने हैं, कब से बने हैं, किस प्रकार बने हैं उन पर दृष्टि डालें तो वे विभिन्न प्रकार की स्थितियों से बने हैं । 8-10 वर्ष की उम्र में किस प्रकार से संस्कार जमते थे, अब बड़ा होने पर किस प्रकार के संस्कार जमने लगे? कुछ ज्ञान विशेष जगने पर इस आगम के बल से किस प्रकार संस्कार अधिरोपित करने लगे ।इन सब भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों में इसने संस्कारों को ही दृढ़ किया है तो यह मोक्षमार्गी जीव भिन्न विषयक श्रद्धा याने भेदरूप सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्दर्शन, व्यवहार सम्यग्ज्ञान और व्यवहार सम्यक्चारित्र से अपने संस्कार दृढ़ करता है ।
भिन्न साध्यसाधनभाव का उपयोग―अब जैसे धोबी मलिन वस्त्र को सोडा, खार, साबुन इत्यादि भिन्न साधनों के द्वारा स्वच्छ करता है ऐसे ही यह प्राथमिक मोक्षमार्गी जीव भिन्न साध्य साधनों का व्यवहारनय का आलंबन करता है और उस भिन्न साध्यसाधनभाव के द्वारा गुणस्थानों पर चढ़ने की परिपाटी बनाता है, विशुद्ध होने का यत्न करता है । फिर उन ही मोक्ष-मार्ग के साधक जीवों के निश्चयनय की मुख्यता से फिर भेद स्वरूप परावलंबन व्यवहारनय भिन्न साध्यसाधन का अभाव हो जाता है । जैसे धोबी सर्वप्रथम तो साबुन, सिला, पानी ऐसी भिन्न-भिन्न चीजों का आलंबन लेकर वस्त्र को धीरे-धीरे उज्ज्वल करने का उद्यम करता है और इस भिन्न साध्यसाधन द्वारा इस वस्त्र में कुछ स्वच्छता आयी तो उसके प्रकट होने के बाद फिर उसकी ही स्वच्छता बढ़ाता है ऐसे ही उपायों से ऐसे ही व्यवहारनय का आलंबन लेकर देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति नाना प्रकार के तपश्चरण इन भिन्न साधनों के द्वारा आत्मा में एक विशुद्धि और स्वच्छता को प्रकट करता है और जब स्वच्छता जगने लगी तब फिर भी यह यहीं अपने आत्मा में ही अपने आपको साधन बनाकर अपने आपके ही उपयोग द्वारा अपने आप में ही उस साध्य का विकास करने का यत्न करता है ।
व्यवहार के अविरोधपूर्वक निश्चय में प्रगति―भैया ! आत्मशुद्धि में अंतिम प्रयोग, तो उपांतिम प्रयोग तो यह निश्चयनय का किया इसने, किंतु प्रथम अवस्था में व्यवहारनय का आलंबन लेकर यह जीव बढ़ा था तब यह उसी रजक की नाई धीरे-धीरे विशुद्धि को प्राप्त करके निश्चयनय का यह मोक्षमार्गी आलंबन लेता है । जैसे उस रजक को वस्त्र में सफेदी लाने के लिए बाह्य साधनों का आलंबन लेना पड़ता है ऐसे ही यह मोक्षमार्गी निश्चयनय का आलंबन लेता है । इन भिन्न साध्य साधनों के उपाय से जाना किसको था? इस तत्त्व स्वरूप आत्मा को । अब उन समस्त क्रियाकांडों से छूटा भी है तो वहाँ विश्रांति लेता है और उस स्थिति में निस्तरंग परम चैतन्यस्वभावी इस भगवान आत्मा में विश्राम लेता है ।
दृष्टांतपूर्वक निश्चय की व्यवहारपूर्वता का प्रतिपादन―जैसे आप लोग सभी जन जो मंदिर में ऊपर आते हैं, सीढ़ियों से चढ़कर आते हैं, सीढ़ियों पर चढ़ने का काम कितना पड़ा हुआ है यह क्षणभर में वह जान लेता है और उन सीढ़ियों पर चढ़ने का उद्यम करता है, पर उस सीढ़ी से आने पर उसे अंतरंग में कुछ विश्राम मिलता है या नहीं? सब पर यह बात गुजरती है । पहिली सीढ़ी पर पैर रखते समय जो मनःस्थिति है और अंतिम सीढ़ी पर आने पर जो मनःस्थिति है उसमें विश्राम का कितना अंतर है? ऐसे ही व्यवहारनय के बल से भिन्न साध्यसाधन भाव द्वारा जो उद्यम किया उस परिस्थिति में और उस उद्यम के फल में जो एक अद्वैत अखंड है, शाश्वत चैतन्यस्वभाव की दृष्टि की पदवी में आया, आखिरी मंजिल की सीढ़ी के पास आया उस समय इसको एक परमविश्राम उत्पन्न होता है।
यथार्थ ज्ञान के बिना धर्म का अनाश्रय―यहाँ यह चर्चा चल रही है कि यह बहिरंग भाव निश्चय और व्यवहारनय के अविरोधपूर्वक जो प्राप्त किया गया है, अनुगम्यमान है वह वीतराग भाव मोक्ष का मार्ग है । वीतराग भाव यथार्थज्ञान के बिना हो नहीं सकता । वीतरागता का और तात्पर्य ही क्या है? ज्ञान ज्ञानमात्र रह जाय, उसके साथ रागादि विकल्पों का कलंक नहीं हो, यही तो वीतरागभाव है । जिस पुरुष के यथार्थ ज्ञान नहीं हुआ अर्थात् वस्तु के स्वतंत्रस्वरूप का परिचय नहीं हुआ, अपने सहजज्ञानानंदस्वरूप का भान नहीं हुआ वह अपने उपयोग को शुद्ध तत्त्व पर कैसे टिका सकता है? जब शुद्ध तत्त्व पर उपयोग नहीं टिक सकता तो यह उपयोग कभी धर्म के नाम पर घर परिवार को भी बाहर से छोड़ दे तो भी अंतरंग में उस स्थिति में हो रहे विकल्प की अपनायत न छोड़ सकने के कारण धर्म का पालन नहीं कर रहा है, वह तो अब भी अज्ञानी है । आजकल जो जहाँ कहीं भी त्यागवेशियों की विडंबना हो रही है उसका कारण यही है कि ज्ञानस्वरूप का आत्मतत्त्व का परिचय तो हुआ नहीं और किसी विवशता के कारण या अपने धर्मात्मापन के विकल्प की अपनायत के कारण घर परिजन आदि छोड़ तो दिये हैं, किंतु समता के साधनभूत अंतस्तत्त्व की ओर झुकाव हो नहीं पाता तब विविध बाह्य दृष्टियों में फंसकर पूर्ववत् बेचैन ही रहता है, भले ही बेचैनी की पद्धति भिन्न हो गई, ऐसी बेचैनी में विडंबना बनती ही है।
यथार्थ ज्ञान के बिना कषायों की अभिवृद्धि―यथार्थ ज्ञान के बिना वीतरागता आ ही नहीं सकती । यथार्थज्ञान से शून्य पुरुषों का व्यवहारधर्मपालन कषायों का कारण बन जाता है । धर्मपालन तो कषायों के अभाव के लिये होता है । कोई पुरुष धर्मक्रियायें करके अपने को सबसे महान् समझ ले और ऐसी महत्ता का आदर पर से न मिले तो क्रोध में जल भुन जायगा । तो लो यथार्थज्ञान बिना यह होती है हालत, देख लो । यथार्थ ज्ञानशून्य विद्यावों के अधिकारियों का भी यही हाल है । धर्मपालन, विद्यार्जन भी मद के लिये बन जाय, अन्य पुरुषों को तुच्छ दृष्टि से देखने का हेतु बन जाय तो वह धर्म कहाँ रहा? यथार्थ ज्ञानशून्य पुरुष धर्मपालन में मायाचार भी करेंगे । अकेले बैठे जाप दे रहे तो शिथिल मुद्रा में, और कोई दो-एक आदमी वहाँ से गुजरें तो अकड़ कर बैठ जायें । अकेले स्तवन पूजन कर रहे हैं जल्दी-जल्दी की भाषा में और कोई दो-एक आदमी वहाँ दर्शनार्थी आ जायें तो मधुर स्वर से गाने लगे । यह सब मायाचार है तो धर्मपालन कहाँ रहा? धनलाभ, विजय लाभ, संतानलाभ आदि के ख्याल से पूजा भक्ति यात्रा आदि किये जा रहे हों तो बतलाइये हृदय देखकर कि धर्मपालन कहाँ हुआ? वास्तविकता तो यह है निरपेक्ष निजस्वभाव का परिचय न हुआ हो तो उपयोग अंतस्तत्त्व में कैसे टिके? यथार्थज्ञान बिना वीतराग भाव नहीं हो सकता ।
यथार्थ ज्ञान―ज्ञानों में ज्ञान वही यथार्थ है जो ज्ञान ज्ञानस्वरूप का जानन रखे । जाननस्वरूप का जानन वही ज्ञान रख सकता है जो ज्ञान समग्र वस्तुओं के स्वतंत्र स्वरूप का जानकार हो चुका हो । ये दिखने में आने वाले सब पदार्थ व समझ में आने वाले ये सब चेतन पुरुष व सभी पदार्थ अपने-अपने प्रदेशों में ही परिणमते हैं । किसी भी पदार्थ का गुण परिणमन, क्रिया, प्रभाव कुछ भी तो अन्य पदार्थ में नहीं जाता है । किसी अन्य से मेरे में क्या आ सकता है? न किसी अन्य पदार्थ से मेरा सुधार है, न किसी अन्य पदार्थ से मेरा बिगाड़ है । प्रत्येकपदार्थ अपने में अपनी परिणति से परिणमता रहता है, जिसका फल अस्तित्व का बना रहता है । इसके अतिरिक्त अन्य कुछ किसी पदार्थ से आशा रखना अज्ञान का प्रभाव है । यह तो स्थूल बात कही गई है । दिखने वाले पिंडों में भी जो एक-एक परमाणु हैं वे भी प्रत्येक स्वतंत्र पदार्थ हैं । वस्तुवों को देखते ही वहाँ स्वतंत्रता का दर्शन हो जाय, ऐसी उपयोग की शुद्ध वृत्ति बने यह ज्ञान ही परमार्थत: ज्ञान है ।
क्लेश और क्लेश से छूटने का उपाय―इस संसार में समस्त स्थानों में समस्त दशाओं में सर्वकालों में, संसार के सब जीवों में क्लेश ही क्लेश नजर आता है । उस क्लेश से छुटकारा होने का नाम निर्वाण है । जीव की दो ही प्रकार की स्थितियाँ हैं । कोई जीव संसारी हैं, कोई जीव मुक्त हैं । संसारी सभी खेदमय हैं और मुक्त जीव सभी आनंदमय हैं । जिनको निवृत्ति का आनंद पाने की अभिलाषा है उनको केवल यही करना है―समस्त परपदार्थों के संबंध में मोहराग और द्वेष इनका त्याग करना, आनंद पाने का ओर अन्य कुछ उपाय ही नहीं है सिवाय इसके । प्रथम मोह छोड़ पश्चात् रागद्वेष का त्याग करें तो निर्वाण मिलेगा । वह मोह रागद्वेष कैसे मिटे, इसका जो उपाय है उस ही का नाम धर्म है । धर्म का पालन करने से मोह रागद्वेष दूर होते हैं और आत्मा की सहज सत्य अवस्था प्रकट होती है ।
धर्मपालन की पद्धति―इस ही धर्म के प्रयत्न को कुछ लोग तो आत्मा के परिचय से शुरू और कुछ लोग बाहरी क्रियाकांडों से शुरू करते हैं । दो पद्धतियों से प्रयत्न करने वाले लोग धर्म का पालन करने वाले हैं । आचार्यदेव यह कह रहे हैं कि न तो केवल व्यावहारिक क्रियाकांडों से शांति का पथ मिलेगा और न केवल ऊपरी ढंग से आत्मा में निश्चय की बात कर-करके शांति का पथ मिलेगा । रही यह बात कि कोई श्रद्धापूर्वक, अपने आपके झुकाव सहित यदि आत्मा का परिचय पाये तो क्या उसे भी शांतिपथ न मिलेगा? मिलेगा। किंतु उसकी परिणति किस प्रकार बन जायगी अथवा बनना ही पड़ती है, इस पर भी तो दृष्टिपात करें । जो अपने शुद्ध अंतस्तत्त्व का प्रेमी है, जैसे वह शुद्ध अंतस्तत्त्व प्रकट हो उस प्रकार से उसके मन, वचन, काय की प्रवृत्ति होगी । संसारी जीवों में मन, वचन और काय तो लगा ही है । अज्ञानी मनुष्य हों उनके भी मन, वचन काय है और ज्ञानी हों उनके भी मन, वचन, काय है । अब जैसी भीतरी भूमि का है, जैसा प्रकाश है, जैसी योग्यता है उसके माफिक ही तो मन, वचन, काय चलेगा । तो ऐसे ज्ञानी संत पुरुष के मन, वचन, काय असंयम का प्रश्रय न देने वाले ढंग से चलता है तब निश्चय और व्यवहार दोनों की संगति वहाँ हो जाती है?
व्यवहारावलंबियों की परिस्थिति―जो केवल व्यवहारनय का ही आलंबन करके धर्मपालन की दिशा में बढ़ते हैं उनकी दृष्टि किस तरह होती है? वे भिन्न साध्यसाधन भाव को देखते हें और उस ही प्रकार से आचरण करते है, । बस केवल व्यवहारनय के आलंबन करनेवाले का यह दोष है । भले ही उनके चित्त में यह बात रहती है कि मुझे निर्वाण पाना हैं और उस निर्वाण पाने के लिए हम तपश्चरण कर रहे हैं, भक्ति कर रहे हैं अथवा ज्ञान बढ़ा रहे हैं, लेकिन इस बोध में भी उनके चित्त में साध्य भिन्न है और साधन भिन्न है । उन्हें यह पता नहीं कि हमें निर्वाण पाना है तो निर्वाण हमारा ही स्वरूप है, ऐसा पता नहीं है, किंतु जैसे व्यवहारी जन कहते हैं कि हमें शिखरजी जाना है, दिल्ली जाना है ऐसा कुछ भिन्न स्थान है जिस स्थान के प्राप्त होने पर सुख मिलता है । केवल व्यवहारी जनों को अपने हृदय में यह स्पष्ट नहीं है कि वह निर्वाण मेरा ही स्वरूप है, और निर्वाण क्या पाना अथवा आगे पाने को क्या करना, यह स्वयं निर्वाणस्वरूप है । निर्वाण अवस्था में जो प्रकट होता है वह कुछ नई बात नहीं होती है । जो स्वरूप है, जो स्वभाव है बस वही प्रकट हो गया, कोई नई बात नहीं बनायी जाती । इस प्रकार का अभिन्न साध्य का भी निर्णय नहीं है व्यवहारावलंबियों के और अभिन्न साधन का भी निर्णय नहीं है । अगर निर्वाण पाना है तो उस देह को तपस्या में लगाओ । अधिक उपवास हो जाय, अधिक कायक्लेश हो जाय इसी विधि से तो निर्वाण पा लिया जायगा । भगवान का यही तो आदेश है कि तपश्चरण करो और मुक्ति पावो ।
विद्वत्ता होने पर भी अंतर्ज्ञान के अभाव की संभावना―कोई पुरुष ज्ञान में विशेष बड़ा हो, किंतु व्यवहारावलंबी हो तो वह चर्चा में अभिन्न साध्यसाधन का वर्णन भी करेगा । जो लिखा है उसे पढ़ेगा नहीं क्या? उसे जब विवरण सहित समझाने को उद्यत होगा तो क्या उसको समझायेगा नहीं? फिर भी भिन्न साध्यसाधन भाव का उसे परिचय नहीं हो पाता है । जैसे जिसने जिस स्थान को नहीं देखा है, मान लो अमरीका या अन्य देश । यद्यपि नक्शा के आलंबन से उसे ज्ञान है, वह दिशा बताता है, अनेक स्थल बताता है, लेकिन उतना स्पष्ट अवगम वह नहीं कर सकता है जितना कि वह कर सकता है जो देख आया है । यों ही समझिये कि जो व्यवहार का ही मात्र आलंबन करता है वह भिन्न साध्य और भिन्न साधन को निरखने का ही एक खेद मचाये रहता है । इस संसारी जीवको, जो ज्ञानी भी है, किंतु मिथ्यादृष्टि है उसको निरंतर खेद बना रहता है । इंद्रिय विषयों का सुख भोग रहा हो वहाँ पर भी लगातार निरंतर खेद है और इंद्रिय को न सुहाये ऐसे दुःख को भोगता हुआ भी वह निरंतर खेद किए रहता है । अज्ञान अवस्था में निरंतर खेद रहता है । कोई साता का खेद है, कोई असाता का खेद है, कोई ऐसा खेद है कि खुद समझ में ही नहीं आ रहा और कल्पना में मौज मान रहा । कोईसा खेद है कि वह खेद भी समझ में आ जाता है ।
बहिर्दृष्टि में खेद की प्राकृतिकता―जिसने अपने आत्मा के अंत:स्वरूप का स्पर्श नहीं किया उसकी दृष्टि बाह्यपदार्थों की ओर रहती है और चूंकि जानने वाला है यह और इसके उपयोग में जानने में आ रहे हैं परपदार्थ, तो भला बतलावो जिसकी एक टांग तो घर में हो और एक टांग कोई बाहर खींच रहा हो तो उसकी क्या हालत होती हे? उपयोग चूँकि स्वयं का स्वरूप है, इसलिए इसका एक पद तो यहाँ बना ही हुआ है, किंतु उपयोग की क्रिया के समय में जो इसका उपयोग बड़ा खिंचा जा रहा है तो ऐसा बाह्य की ओर खिंचे जा रहे उपयोग वाले को चैन कहाँ है, निरंतर खेद रहता है । तो जो अपने आनंदप्राप्ति के लिए भिन्न साध्य और भिन्न साधन को देखा करते हैं वे पुरुष निरंतर खेद पाते रहते हैं ।
व्यवहारवलंबी की सम्यग्दर्शन के लिये प्रवृत्ति―व्यवहारावलंबियों की क्या स्थिति बनती है इसको देखिये― आगम में बताया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यह मोक्ष का मार्ग है तो इस व्यवहारावलंबी को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के नाम पर इसमें प्रीति हुई है तब उसकी भी यह आकांक्षा रहती है कि हमारा रत्नत्रय निर्मल रहे और अपनी बुद्धि माफिक इस रत्नत्रय को निर्दोष करने के लिए बड़ा प्रयत्न भी करता है, बार-बार धर्मादिक तत्त्वों के श्रद्धान का अध्यवसाय बनाये रहता है । जैसे किसी बाई का यह नियम हो कि सूत्रजी भक्तामर जी सुनकर ही हम खाना खाये । उसके अर्थ पर उसके तत्त्व पर कभी भी दृष्टि न जगे तो वहाँ यह काम पूरा करना है, कोई मिला बांचने वाला उससे सुन लिया, पढ़ना नहीं जानती, सो चौथे क्लास के लड़के को ही बैठा लिया, उस लड़के ने कुछ बांच दिया । गलत-सलत बांच दिया तो भी सुन लिया, पर इस महिला को तो पूरा संतोष है कि हमने अपना नियम पाल लिया । किसी कार्यव्यासंग से समय कम रह गया तो जाप भी दिया, सूत्रजी भी सुना । किसी को सूत्रजी पढ़ने को बैठा दिया तो, जाप भी वह महिला देती जा रही और सुनती भी जा रही । किसी भी प्रकार यह चित्त में आना चाहिए कि हमने अपने संयम को निर्दोष रूप में पाला । 7 तत्त्वों की कथनी सुनना, सप्त तत्त्वों के चिंतन में अपना परिणाम लगाना और उससे ऐसा अनुभव करते रहना कि हम अपने मोक्षमार्ग को भली प्रकार निभाये रहें । जो करने योग्य काम है वह तो कर लिया, जब कि एक तत्त्वज्ञ पुरुष को मूल में यह श्रद्धा रहती है कि मेरे करने योग्य तो यह भी काम नहीं है । दर्शन, ज्ञान, चारित्र की जो प्रवृत्तियाँ हैं वे भी मेरे करने के काम नहीं हैं । तो फिर क्या हैं? कुछ न करें कुछ तरंग न उठे, कुच कल्पनाएँ न चलें, मन, वचन, काय ये तीनों विश्रांत हो जाये, ऐसी एक सहज स्थिति बने, वह है आत्मा की वृत्ति । तत्त्वज्ञानी को इस ओर प्रेम है तो व्यवहारावलंबी को इन बाहरी दर्शन, ज्ञान, चारित्र की क्रियावों के पालने में प्रेम है । फल यह होता है कि आनंद तो आनंद की पद्धति से ही मिलेगा ना, किंतु इन मुग्ध जीवों की दृष्टि है बाहर, इस कारण इन बाहरी प्रयत्नों में वे निरंतर खेद-खिन्न रहते हैं । सम्यग्दर्शन के प्रसंग में, तत्त्व की चर्चा सुनने में, जानने में, चर्चा करने में अपना परिणाम लगाये रहते हैं जिससे हमारा सम्यग्दर्शन पुष्ट हो ।
व्यवहारावलंबी की सम्यग्ज्ञान के लिये प्रवृत्ति―सम्यग्ज्ञान के प्रसंग में चूँकि यह भाव होता है कि हमारा सम्यग्ज्ञान भी सही बने तो बहुत शास्त्रों का अध्ययन करता है । न्यायशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र, करणानुयोग, ऊँची-ऊँची कथनियों को लाँघ जाता है । हमारा ज्ञान बने ।जैसे एक कथानक है कि रावण के युद्ध के समय राम की ओर से जो वानर सेना थी उसने समुद्र को लांघ दिया । तो समुद्र को लांघने वाले बंदरों से यदि यह पूछा जाता कि बतलावो तो वानरो ! इस समुद्र में कितने रत्न हैं और कैसे-कैसे रत्न पड़े हैं? तो उन वानरों को क्या पता? वे तो लांघ गए । उन्होंने भीतर घुसकर खोजा कुछ नहीं । ऐसे ही श्रुतज्ञान के नाम पर, सम्यग्ज्ञान के नाम पर अनेक प्रकार के शास्त्रों का व्याख्यान खूब रटा, खूब सुना, अध्ययन किया और कुछ भी प्रसंग आये पन्ने भी याद हैं, इस पेज पर यह लिखा है । इतना बड़ा ज्ञान पैदा कर के भी नाना प्रकार के विकल्पजालों में इसकी चैतन्य वृत्ति अब भी कलुषित चलती रहती है ।
दृष्टिविकास―तत्व तो एक खोज की चीज है । जैसे किसी कार्ड में जंगल के वृक्ष बने हैं और इस ढंग से बने हैं कि जहाँ जगह खाली है उस खाली जगह में गधा, शेर, पक्षी ये दिखने लगते हैं, लेकिन ऐसी किसी ने दृष्टि न बनायी हो और ऐसा न परिचय कर पाया हो तो वह कार्ड को देखकर यही कहेगा कि इसमें तीन पेड़ खड़े हुए हैं, उन्हें शेर पक्षी वगैरह कुछ नहीं दिखा । किंतु एक बार बता दिया जाय कि देखो यह है शेर, फिर तो कार्ड हाथ में लेकर देखे तो तुरंत शेर दिखेगा, ऐसे ही जिसने अपने उस सहज चैतन्यप्रकाश का अनुभव नहीं किया वह तो समस्त योग प्रवृत्तियों में बाहरी-बाहरी बातें ही निरखेगा और जिसने अपने अंतस्तत्व का परिचय पाया है वह प्रत्येक प्रसंगों में उस अंतस्तत्व की बात सामने रखेगा ।
प्रत्यय के भेद से बहिरंग में भेद―यह व्यवहारावलंबी पुरुष सम्यग्ज्ञान के नाम पर बहुत-बहुत ज्ञानार्जन भी करता है और सम्यक्चारित्र के नाम पर मुनियों को जो चारित्र तपस्या बतायी हैं उनमें प्रवृत्ति करके, अनेक क्रियायें कर के अपने को मोक्षमार्गी समझता है ।हमने निर्वाण का मार्ग पाया है, हम ठीक कर रहे हैं । अंतरंग में कैसा खेद चल रहा है वह खेद तो और खतरनाक है कि जिस खेद का पता भी न पड़े और खुद सुखरूप में संतोषरूप में समझ लिया जाय तो उस खेद का तो संसारपरिभ्रमन ही फल है । वह कभी किसी में रुचि करता है, कभी किसी में रुचि करता है । कैसे चलना, कैसे बैठना, कैसे खाना, कहीं कुछ गलती न हो जाय, देखिये ये सब बातें ज्ञानी पुरुष के भी चलती हैं और इन्हीं को अज्ञानी भी करता है, किंतु ज्ञानी पुरुष अपने लक्ष्य से परिचित है तो उसका यह विशुद्ध शुभोपयोग कहलाता है और इस शुभोपयोग के प्रसाद से वह परंपरया मोक्ष प्राप्त कर लेता है । ज्ञानी का व्यवहारावलंबन परंपरया मोक्ष को देने वाला है और अज्ञानी जीव का व्यवहारावलंबन संसार में परिभ्रमण कराने वाला है । भले ही देव बन गया तो वहाँ पर भी क्लेश सहेगा और वहाँ से च्युत होकर मनुष्य पशु आदि बनकर वहाँ पर भी क्लेश सहेगा ।
अज्ञानी की विभिन्न रुचियों का कारण―जिसको अपने आत्मस्वरूप का परिचय नहीं है वह बाहर में ही तो रुचि करेगा । बाहर में हैं अनेक पदार्थ, अनेक तत्व, सो कभी किसी की रुचि कभी किसी की रुचि, यों उसका रुचि भेद चलता रहेगा । अज्ञानी जीव ने अपना प्रोग्राम बनाया है बाहरी क्रियाकलापों का और ज्ञानी जीव ने प्रोग्राम बनाया है मूल में अपने शुद्ध अंतस्तत्त्व में झुकने का । तब ज्ञानी की रुचि एक प्रकार की ही रहेगी और अज्ञानी की रुचि अंतरंग से अनेक प्रकार की चलेगी । अब सुबह हुआ है, भगवान की पूजा भक्ति करना है, अब आहार का समय हुआ है, शुद्ध विधि से आहार लेना है । अब सामायिक का समय है । सामायिक में जो बताया है चारों दिशाओं का वंदन स्तोत्र पाठ का आचरण उनमें रुचि जगे । अपने दिन रात में जो-जो भी प्रोग्राम हैं व्यवहारधर्म की भिन्न-भिन्न रुचि जगती रहती है । अपने निजस्वरूप में लीन न होने का यह फल मिला ।
ज्ञानी की अभिन्न रुचि का कारण―जैसे किसी के घर इष्ट का वियोग हो जाय जो बहुत अभीष्ट था तो उसकी दृष्टि केवल उस इष्ट की ओर ही है । भोजन करे तो भोजन ठीक किया, कहीं कान में उसने ग्रास नहीं रखा, मुख में ही रखकर खाया । जैसे और लोग चबाते हैं वैसे ही चबाया लेकिन उसकी रुचि और दृष्टि तो उस इष्ट पुरुष में है । भोजन में तो है ही नहीं ।उसे कहीं घूमने ले जाइए, घूमता है बाग में और-और भी वचनव्यवहार करता है किंतु रुचि और दृष्टि तो उस इष्ट की ओर है । ऐसे ही समझिये कि इस ज्ञानी जीव को अपने इष्ट का परिचय हुआ है, इसका इष्ट है सहज ज्ञानस्वभाव, चैतन्यस्वभाव, शुद्धस्वरूप । और साथ ही उसे यह भी समझ में आया है कि मेरी ही चीज और मुझ से अलग सी बनी हुई है, प्रकट नहीं हो रही है, इसका वियोग है तो ऐसा वह ज्ञानी पुरुष इस व्यवहारधर्म को करता हुआ भी क्योंकि जिसे इस इष्ट का परिचय हुआ है उसकी प्रवृत्ति पापरूप नहीं हो सकती । उसका मन, वचन, काय गंदा नहीं हो सकता । सो व्यवहारधर्म में लग रहा है फिर भी रुचि है चैतन्यस्वरूप की ओर । अंतस्तत्व की रुचि जिसने नहीं पायी है वह केवल व्यवहार का ही आलंबन करता है और कभी वह किसी में रुचि रखता है, कभी कुछ विकल्प बनाता है, कभी कुछ आचरण करता है । यह उनकी स्थिति है दर्शन ज्ञान और चारित्र के पालने के प्रसंग में जब कि ज्ञानी जीव की रुचि एक स्वभाव की ही है ।
एकत्व की रुचि में कर्तव्यपरायणता―ज्ञानी जीव का विकल्प एक स्वभावज्ञान के लिए ही है । ज्ञानी जीव का आचरण एक स्वभावविकास के लिए ही है । ज्ञानी जीव के दर्शन, ज्ञान और चारित्र का प्रयोग केवल एक के लिए हो रहा है और अज्ञानी जीव का श्रद्धान ज्ञान और आचरण का प्रयोग भिन्न-भिन्न जुदे-जुदे विषयों पर चल रहा है । इससे भिन्न साध्य और साधन समझने वाले व्यबहारावलंबी पुरुष को निरंतर खेद रहता है वह निर्वाण नहीं पा सकता है । हम आप इस कथन से यह शिक्षा लें, एक ही निर्णय बनायें कि शांति का उपाय अपने सहज ज्ञानस्वभाव की रुचि करना है, इसमें ही मग्न होना, यह ही शांति का उपाय है ।इसके सिवाय अन्य कोई भी प्रयत्न शांति का उपाय नहीं है ।
व्यवहारावलंबन में दर्शनाचार का प्रवर्तन―जो केवल व्यवहारावलंबी हैं उन्हें यह विदित हुआ है कि संसार के संकटों से दूर होने के लिए मोक्ष ही एक अद्वितीय स्थान है और उस मोक्ष में पहुंचने के लिए 5 प्रकार के आचरण करने होते है―दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार । अत: दर्शनाचार का आचरण करने के लिए वह प्रशम सम्वेग अनुकंपा और आस्तिक्य गुणों को धारण करते हैं, कभी समता रखते हैं, किसी घटनाओं में किसी पक्ष में न जाने की एक प्रवृत्ति बनाते है । कभी वैराग्य दर्शक प्रवृत्ति को करते हैं । सबसे अलग रहना, किसी से राग न बढ़ाना, यों वह सम्वेग गुण को बढ़ाते हैं, कभी अनुकंपा का भाव लाते हैं । दुःखी जीवों को देखकर दया की प्रवृत्ति करते हैं, कभी आस्तिक्य का बोझ ढोते हैं । देव, शास्त्र, गुरु हैं, 7 तत्व हैं, धर्म के पर्व हैं, धर्म की क्रियायें हैं इन सबका जैसा आस्तिक्य बने उस प्रकार प्रवृत्ति करते हैं ।
व्यवहारावलंबन में सम्यग्दर्शन की दोषनिवृत्ति का यत्न―केवल व्यवहारावलंबी सम्यग्दर्शन के जो दोष हैं उन दोषों के टालने का यत्न रखते हैं । जिनेंद्र भगवान के वचनों में शंका न करना इस ख्याल को रखते हुए जो आगम में बातें आयी हैं, शास्त्रों में जो कथन निकलता है उस पर श्रद्धान रखते हैं । उसके खिलाफ कुछ बात सुनना नहीं चाहते हैं । चाहे कुछ तत्त्व के विरुद्ध है या अविरुद्ध, इस ओर का कुछ निर्णय नहीं लिया । शास्त्र में जो लिखा है वह ठीक है, जो शास्त्र में नहीं लिखा है वह ठीक नहीं है । यों शंका दोषों से भी बचने का वे यत्न रखते हैं, विषय भोगों की चाह नहीं रखते, नीरस भी भोजन करते हैं, किसी भी इंद्रिय के विषयों में प्रेम नहीं रखते । गुणी जनों की सेवा में, पूज्य पुरुषों की सेवा में निरंतर सावधान भी रहते हैं । उनकी सेवा करते हुए ग्लानि नहीं करते । अमूढ़ दृष्टिपना होने के लिए भी अपनी कमर बराबर कसे रहते हैं । कोई बात ऐसी न बन जाय, कहीं कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु को हाथ न जुड़ जायें, यह मस्तक देव, शास्त्र, गुरु के चरणों में ही लगे ऐसा सावधान भी रहते हैं । दूसरों के दोष को ढांकना, गुणियों के गुणों को प्रकट करना, धर्म से च्युत होने वाले को फिर से धर्म में स्थिर करना, धर्मात्माओं से वात्सल्य रखना और अपने आचरणों से धर्म की प्रभावना करना―इन सब बातों में बारंबार उत्साह भी बढ़ाते रहते हैं । ये सब बातें भली हैं, लेकिन अंतस्तत्त्व के परिचय बिना शांतिलाभ नहीं होता है ।
मौलिक तत्त्व के अपरिचय में वृष्टि का बहिर्भ्रमण―आत्मा का शुद्धस्वरूप क्या है और इसकी शुद्ध क्रिया क्या है और सहजवृत्ति कैसी है? इसका स्पर्श नहीं हुआ तब दृष्टि केवल इस सम्यग्दर्शन के आचरण के प्रसंग में बाह्य बनी रहा करती है । यों केवल व्यवहार का आलंबन रखने वाले सम्यग्दर्शन के आचरण में बहुत-बहुत यत्न श्रम रखते हैं, फिर भी एक मोक्ष-मार्ग का मौलिक नुक्सा न मिल पाने से वे बाहर ही बाहर डोलते रहते हैं । इस लोक में सर्वोत्कृष्ट अबाध, हितकर तत्व क्या है, इसकी पहिचान हुए बिना हम कभी विश्राम नहीं पा सकते ।हम अपने आपके स्वरूप से विमुख होकर कहीं भी बाहर किसी प्रकार लगें, किंतु वहाँ लगने का विषय परपदार्थ होने से वह स्थानपर जम नहीं सकता ।
व्यवहारज्ञानाचार में कालिक स्वाध्याय का आचरण―केवल व्यवहारावलंबी पुरुष ज्ञानाचार में भी बड़ी सावधानी सहित प्रवृत्ति भी रखते हैं । देखो स्वाध्याय के समय में ही स्वाध्याय करना ऐसा ही वे यत्न रखते हैं । जिन कालों का निषेध किया गया है―सामायिक के काल में स्वाध्याय न करना, कोई नगर में बड़ा उपद्रव हो रहा हो उस काल में स्वाध्याय न करना, चंद्रग्रहण सूर्यग्रहण के समय जो लोगों में एक क्षोभ मची हुई सी वृत्ति रहती है उस काल में स्वाध्यान न करना, जब अपने संग से कोई इष्ट गुरु पुरुष जा रहा हो, विहार कर रहा हो उस काल में स्वाध्याय न करना, अपने संघ के निकट कोई महापुरुष गुरु आ रहे हों उस काल में स्वाध्याय न करना । बहुत-बहुत स्वाध्याय के योग्य कालों की निगरानी है और योग्य कालों में ही स्वाध्याय करते हैं । बात ठीक है सो प्रवृत्ति सहज बन जाना चाहिए । जैसे मान लो नगर में तो कोलाहल मचा है किसी उपद्रव के कारण और यह सिद्धांत ग्रंथों को लेकर बैठ गये हैं तो इसे लोग एक कठोर दिल वाला बतावेंगे, और किसी गुरुजनों का आना अथवा जाना हो रहा हो और यह धर्म के नाम पर एक कोने में बैठकर सिद्धांत ग्रंथ पढ़ने लगे तो इस प्रवृत्ति को तो लोग न जाने क्या कहेंगे? ये ज्ञानाचार की बातें होनी तो चाहिएँ, पर ये बातें व्यवहारावलंबी के सहज नहीं बनती हैं, ख्याल कर-करके बनती हैं ।
व्यवहारज्ञानाचार के अन्य अंगों का पालन―ज्ञानाचार में बताया है कि बहुत-बहुत प्रकार से अपनी विनयप्रवृत्ति रखें, विनय बिना धर्म नहीं होता । जैसे लोक के अनेक काम घमंड कर के भी किए जा सकते हैं, क्या आत्मानुभव का काम, प्रभुभक्ति का काम घमंड कर के किया जा सकता है? यह भक्ति जल, यह आत्मानुभवामृत नम्र मार्ग पाये तो ढल सकता है । इस ज्ञानसमुद्र में तो नम्रता और विनय की ज्ञानाचार में प्रवृत्ति बतायी है, इस अंग को भी बहुत अच्छी तरह से निभा रहे हैं । केवल व्यवहारावलंबी साधु कठिन-कठिन उपधानों को भी कर रहे हैं । ज्ञानाचार की सेवा में ऐसा उपधान ठान लिया जाता है कि जब तक इस ग्रंथ का स्वाध्याय न कर लिया जाय तब तक अमुक आहार आदि का त्याग रहेगा या सिद्धांत कार्य के पूर्ण हो चुकने पर कुछ उपधान, विशिष्ट संयम ग्रहण किया जाता है । उसमें भी इसकी प्रवृत्ति सही चल रही है । अपने ज्ञानी जनों का बहुत-बहुत मान भी करता है । ज्ञानाचार में बताया है कि अपने गुरु का नाम न छिपाना सो इस ज्ञानाचार के अंग की पूर्ति के लिए समय-समय पर गुरु नाम को भी प्रकाशित करते रहते हैं । यह भी सोचकर कि मैं बहुत समय तक गुरु नाम न बताऊँ तो ज्ञानाचार में दोष लगेगा । इसलिए जरूरत भी न हो बताने की तो भी ख्याल कर-करके गुरु नाम को भी प्रकाशित करते हैं । शब्द शुद्ध पढ़ना, अर्थ शुद्ध समझना इन ज्ञानाचार के अंगों में भी निरंतर सावधान रहते हैं । ये बातें ज्ञानाचार के अंग हैं, इन्हें करना चाहिए । किंतु व्यवहारावलंबी पुरुष को अपने उपयोग को टिकाने का निज में स्थान नहीं मिला है और धर्म की उसे आकांक्षा है तब इन बाह्य अंगों में प्रवृत्ति बनाये रहता है ।
स्वविधि से ही शांतिलाभ की सुगमता―जैसे कोई छोटी गोली का एक खेल आता है ना, उसको हिलाते रहें, एक निशान है कहीं बीच में, जितनी बड़ी गोली है उतना ही बड़ा छिद्र है । ढुलकते-डुलकते गोली उस छिद्र में पहुंच जाय ऐसा कोई प्लास्टिक का खेल है । बहुत-बहुत हिलाते हैं, पर वह गोली कहीं की कहीं चली जाती है । यत्र-तत्र भ्रमण कर रही है ।उसमें बड़ा बल लगाया, बहुत-बहुत हिलाया, उससे कुछ सिद्धि नहीं होती । गोली यदि आसानी से कभी ठीक विधि बैठ जाय तो धीरे से ही वह अपनी गल्ल में प्रवेश करती है । ऐसे ही यह उपयोग अपने आपके स्वरूप में प्रवेश करता है । इसके लिए बड़े श्रम और बड़े उद्योग भरे प्रयत्न क्रियाकांड ये भी उस कार्य में, समर्थ नहीं हो पाते हैं । यह उपयोग जब कभी ठीक विधि बन जाय शांति की योग की, यहाँ श्रम की भी आवश्यकता नहीं, किंतु श्रम दूर करके योग दूर करके, कषाय दूर करके, जब कभी विधि बने तो धीरे से शांतिपूर्वक यह उपयोग अपने स्वरूप में क्षण एक को प्रवेश कर लेता है । ऐसी शांत वृत्ति की विधि जिसने नहीं पायी वह धर्म के अंग के लिए ऐसे बड़े-बड़े यत्न करता है, तब भी मोक्ष में जिस प्रकार आनंद है उस आनंद की जाति का आनंद यहाँ नहीं पा सकता है । भैया ! आत्मा ज्ञानस्वरूप है । इस ज्ञानस्वरूप आत्मा का जो भी यत्न होगा वह यत्न यदि ज्ञानमय होगा तो ज्ञानस्वरूप से मिल सकता है, मिलता रहेगा, और यदि बाह्यदृष्टि करके अज्ञानमय यत्न होगा तो अंतस्तत्व का मिलन नहीं हो सकता है ।
व्यवहारचारित्राचार में व्रत समिति का पालन―केवल व्यवहारावलंबी पुरुष चारित्र आचरण करने के लिए बहुत सावधान बने रहते हैं । चारित्र के अंग 13 हैं । 5 महाव्रत, 5 समिति और तीन गुप्ति--इन 13 अंगों में ये व्यवहारावलंबी पुरुष बड़ी निष्ठा रखते हुए प्रवृत्ति करते हैं । हिंसा का त्याग, झूठ का त्याग, कहीं कुछ झूठ न बोला जाय, कभी किसी जीव की हिंसा न हो सके, कदाचित् देख-भालकर चलने पर भी किसी जीव की हिंसा हुई हो ऐसा ख्याल आ जाय या मालूम पड़े तो वे उसका बड़ा प्रायश्चित लेकर अपने को शांत बनाना चाहते हैं । चोरी का त्याग, कुशील का त्याग, परिग्रह का त्याग । इन 5 पापों से बहुत-बहुत बचकर रहना, इस व्रत को रक्षा के लिए जो बातें बतायी गई हैं उनका पालन करना इससे बहुत सावधानी रहती है । 5 प्रकार की समिति ईर्यासमिति, भाषासमिति, देखभाल कर चलना, हितमित प्रिय वचन बोलना एषणासमिति आहारचर्या निर्दोष विधि से हो, गृहस्थों की एक-एक वृत्ति बड़े निर्दोष ढंग से देख-भालकर आहार लेना, सामान को देख-भालकर धरना उठाना, पिच्छिका से कमंडल पोंछकर उसे साफ स्थानपर धरना, बड़ी सावधानी से आदान-निक्षेपण सहित चीजों का धरना उठाना, प्रतिष्ठाना समिति में भी बड़ी सावधानी है । कभी खकार थूक, नासिका से मल आ जाय तो पहिले जमीन को पिछी से शुद्ध करना या देखभाल लेना तब मल डालना, ऐसे ही हर दशाओं में बड़ी सावधानी रहा करती है ।
व्यवहारचारित्राचार में गुप्तियों का पालन―गुप्तियों के पालन करने का ये व्यवहारावलंबी पुरुष साधुजन बड़ा यत्न रखते हैं । मन में कोई दूसरी बात सोचने में न आये, मौन रहें, चित्त में भी शब्दजाल न उठने पायें, शरीर रंच भी हिले डुले नहीं, बोलें नहीं, लक्कड़ की तरह ज्यों का त्यों पड़े रहें, बैठे रहे―यों कायगुप्ति में भी बड़े सावधान हैं । ऐसे 13 प्रकार के चारित्र के अंगों का सावधानी से पालन करते रहते हैं । यदि वे केवल व्यवहारावलंबी साधु हैं अर्थात् उन्हें अपने स्वरूप का परिचय नहीं है, स्वरूप में विश्रांति पाने की विधि नहीं आती है, आपके इस निराले अमूर्त चैतन्यस्वरूप में वे एकत्व को प्राप्त नहीं कर पाते, निराकुल स्थिति का अनुभवन नहीं कर पाते तो यों बाह्य में बहुत-बहुत सावधानी रखने पर भी वे बाह्य में डोलते ही तो रहते हैं । बात इतनी ही तो अंतर में है कि अशुभोपयोगी पुरुष अशुभ विषयों में डोलते हैं, किंतु ये साधुजन केवल व्यवहारावलंबी संत एक शुभ विषयों में डोल रहे हैं, लेकिन बाहर में किसी भी जगह डोला जाय अंतस्तत्व से तो वह अत्यंत वंचित है ना, तो यों केवल व्यवहारावलंबी पुरुष चारित्राचार में भी बड़ी प्रवृत्ति रखते हैं, फिर भी मोक्षमार्ग का लाभ नहीं पा रहे हैं ।
व्यवहारतपाचार का अवलंबन―तपाचार के नाम पर चूँकि तपाचार से मुक्ति मिलती है इसलिए इसमें बहुत विशेषरूप से उद्यमी रहना चाहिए । इस भावना से अनशन-उपवास करना, भूख से कम खाना, व्रतपरिसंख्यान-चर्या के लिए उठते हुए अनेक प्रकार के अटपट आखड़ी लिए रहना जिससे अपने कर्मो का परीक्षण भी होता रहे कि अब कैसे-कैसे पापकर्म मेरे हें या कम अधिक हैं, अथवा भोजन करने के लिए विशेष इच्छा नहीं रखते हैं, इस कारण अटपट आखड़ी ले लेते हैं । मिल जाय तो मिले नहीं तो नहीं । यों व्रत परिसंख्यान तप से निपटते हैं, रसों का परित्याग करते हैं । एकांत स्थान में सोये, बैठे, उठें, गर्मी में पर्वतों पर तपस्या करें, सर्दियों में नदी के किनारे तपस्या करें, बरसात में पेड़ों के नीचे तपस्या करें, औरभी अनेक प्रकार के कायक्लेश करते हैं । इन तपश्चरणों को करते हैं और इनकी वृद्धि में उत्साह भी रखते हैं । ये सब काम करने के हैं, किया जाना चाहिए, परंतु केवल व्यवहारावलंबी पुरुषों को अपने उस चैतन्यस्वरूप का अनुभव नहीं होता जिसमें तपा जाना चाहिए । अपने उपयोग को उस शुद्ध ज्योतिस्वरूप में रमाना चाहिए, इस तपस्या की विधि नहीं विदित हुई, अनुभूति नहीं हुई, अतएव इन बाह्य तपश्चरणों में बहुत-बहुत यत्न रखकर भी ये साधु पुरुष अपने आप में शांतिलाभ नहीं ले पाते हैं । इसी प्रकार अंतरंग तपश्चरण प्रायश्चित करना, विनय करना, साधुजनों की सेवा करना, स्वाध्याय करना, ध्यान करना, इनमें भी अपने मन को लगाया करते हैं, अंकुश की तरह संयमन यह मन यहाँ से हटे नहीं बड़ा उद्यम रखते हैं । इतने विविध तपश्चरण करने पर भी एक अपने अंतरंग का नुक्ता परिचय में न आये तो ये शांतिलाभ के पात्र नहीं हो पाते ।
व्यवहारावलंबन में वीर्याचार का आचरण―पंच आचारों में अंतिम आचार है वीर्याचार । सर्व प्रकार के आचरणों में अपनी शक्ति न छुपाना, अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उन व्रत और तपश्चरणों में लगना इसका नाम है वीर्याचार । ये साधुजन अपनी शक्ति नहीं छिपाते हैं । और उन समस्त आचरणों में अपनी पूरी शक्ति के साथ व्यापार रखते हैं । यों वे वीर्याचार का भी निष्कपट व्यापार करते हैं, किंतु केवल व्यवहार का आलंबन जिनके है वे कर्मचेतनाप्रधानी हैं । धर्म करो, धर्म करो, धर्म करना चाहिए, धर्म करने का बहुत बड़ा उत्साह जगे । करना क्या? धर्म किया जाता है कि हुआ करता है? इस नुक्ते का परिचय नहीं है । वे क्रिया के करने में अपने उपयोग को फंसाये रहते हैं ।
व्यवहारपालन करते हुए भी परमार्थपरिचय से शांतिपथ गमन―यद्यपि इन क्रियाकांडों का एक लाभ तो यह है कि इससे अशुभ कर्मों की प्रवृत्ति बहुत दूर चली गई है, अशुभ कर्मों की प्रवृत्ति का निवारण हो गया । लौकिक जनों की नाईं विषय कषायों में ये नहीं लग रहे, शुभ कर्मों की प्रवृत्ति नहीं बन रही हे, किंतु जिन्हें उस ज्ञानतत्त्व की तो जरा भी संभावना नहीं हो रही है जो ज्ञानचेतना समस्त क्रिया समूहों के आडंबर से परे है, दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता की परिणतिरूप है, जो केवल ज्ञान-ज्ञान को ही चेते, अंत: ही कुछ किया जाने को पड़ा है इसका समाधान उनके नहीं हो पा रहा है, सो बहुत पुण्य मिला ना उन्हें । उस पुण्य के भार से उनका चित्त मंद हो गया है, अलसिया गया है । मोक्षमार्ग जैसे मिलता है उस विधि से चित्त को ज्ञान को न प्रवर्ताने का नाम प्रमाद है, आलस्य है । उस प्रमाद से उनका चित्त मथरित हो गया है, सो उस पुण्य के फल में सुरलोक मिल जायगा, देवगति प्राप्त हो जायगी, कोई बड़ा धनिक राजपुरुष हो जायगा, किंतु वहाँ रहकर भी क्लेश को पा-पाकर उस परंपरा में वह अपने संसारसागर में ही भ्रमण करेगा, संसार ही बढ़ायेगा । इस प्रकरण से हमें यह शिक्षा लेनी हे कि हम भी अपन पद में पद के योग्य व्यवहार धर्म को करते हुए भी कुछ अंत चिंतन करते रहें, यह मैं क्या हूँ और कैसा यह सहज रहा करता है, इसका चिंतन और अभ्यास करना है । इस अंतस्तत्त्व के परिचय से हमें शांति का मार्ग मिलेगा।
कर्मकांडप्रधानियों के चरणकरण के सार की अनभिज्ञता―जो पुरुष व्यावहारिक सत् आचरण के करने में ही सावधान रहा करते हैं, आचरण के करने को ही जिन्होंने प्रधान कर्तव्य मान लिया है वे पुरुष चूंकि स्वसमय और परमार्थ के स्वरूप के न जानने के कारण निज में अंतरंग कुछ व्यापार नहीं रखते हैं, अपने आत्मा के स्वरूप की सुध नहीं लेते हैं । अत: संसारसागर में भ्रमण करते हैं । वे पुरुष संसारसागर में क्यों भ्रमण करते हैं? इसका कारण यह है कि वे इस बात को नहीं जानते हैं कि समस्त आचरणों के करने का सार है आत्मानुभव । निश्चय शुद्ध जो वृत्ति है केवल ज्ञाताद्रष्टा रहना, निज ज्ञायकस्वभाव का अनुभव कर के परम आनंदरस में तृप्त रहना, यही है आचरण के करने का सार । तो व्रत, तप, समिति आदि आचरणों का जो सार है, लक्ष्य है, उस शुद्ध स्वरूप को न जानने के कारण इतना बड़ा व्रत तपश्चरण करके भी वे संसारसागर में भ्रमण करते हैं ।
केवल निश्चयावलंबी की परिस्थिति―जिस प्रकार व्यवहार का आलंबन करने वाले निश्चय तत्त्व से विमुख रहकर मोक्षमार्ग से भ्रष्ट रहते हैं इस ही प्रकार केवल निश्चयनय का आलंबन रखने वाले व्यवहार आचरण से तो छूटे हुए रहते ही हैं और निश्चय मर्म की बात से भी अनभिज्ञ हैं, सो वे भी मोक्षमार्ग से भ्रष्ट रहा करते हैं । केवल निश्चयनय का ही उन्होंने आलंबन लिया है । आलंबन क्या लिया है केवल शुद्धता के नाम पर बात, गप्प, बकवाद करते हें । यदि कोई निश्चयनय का वास्तविक मायने में आलंबन ले तो जब तक उसकी निम्न दशा है अर्थात् वह वीतराग नहीं हुआ है, विकल्प चलते हैं तब तक उसकी प्रवृत्ति व्रत संयम के पालन में ही तो रहेगी, असंयम का आदर तो न होगा । जो लोग निश्चयनय की बात तो करते हैं, किंतु उसका भान नहीं है, परिचय नहीं है, अनुभव नहीं जगा, ऐसे केवल निश्चयनय के अवलंबी अर्थात् निश्चयाभासी पुरुष समस्त क्रियाकांडों के आडंबर से विरक्त बुद्धि वाले हैं, वे व्रत तपश्चरण को आदर नहीं देते हैं बल्कि उन व्रत तपश्चरणों को हेय बताकर स्वयं उससे दूर रहा करते हैं और निश्चयनय के शुद्ध बुद्ध की कथनी करते हुए ऐसी मुद्रा बताते हैं, आधे नेत्र बंद हैं आधे खुले नेत्रों से चर्चा करें । दूसरों की द्दष्टि में यह बड़ा शांत प्रतीत हो, बड़ी शुद्धतत्त्व की चर्चा करने वाला है, बड़े शुद्ध मिजाज का है, ऐसा प्रदर्शन करते हैं और अपनी कल्पना के अनुसार अपनी बुद्धि से जिस किसी भी तत्त्व को निरखकर बड़े सुखपूर्वक अपना जीवन बिताते हैं, ठहरते हैं, उनकी क्या स्थिति है? सीधे शब्दों में यों कह लीजिए कि भिन्न साध्यसाधन भाव का तो उन्होंने तिरस्कार ही किया था, व्रत तपस्या संयम नियम इनका तो उन्होंने तिरस्कार ही कर दिया और अभिन्न साध्यसाधन भाव अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व का अनुभवन उन्होंने पाया नहीं तो यों स्थिति ही होती है उनकी जिसे कहते हैं व्यवहारिक आचरण से भी भ्रष्ट होता है और आंतरिक आचरण से भी भ्रष्ट होता है ।
निश्चयाभासी की एक घटना―एक घटना महाराज जी सुनाते थे कि एक निश्चय एकांत के वेदांत के अभ्यासी कथन करने वाले पढ़ाने वाले गुरुजी किसी शिष्य को पढ़ाते थे । तो उस कथन में तो यही सिखाया जाता कि आत्मा नित्य शुद्ध है, मलिनता से रहित, है, उसमें रागद्वेष नहीं है, रागद्वेष प्रकृति में होते हैं अथवा कुछ जैनसिद्धांत के निमित्त प्रकरण का आड़ लेने वाले यों कह सकते कि रागद्वेष तो कर्म में होते है, आत्मा में नहीं होते, आत्मा तो सदाकाल शुद्ध है, यही निश्चय एकांत की शिक्षा है । इस दृष्टि में इसका बहिरंगरूप लोग नहीं निरखते हैं कि आखिर वर्तमान परिणमन कैसा है ? तो उन गुरुजी की व्यावहारिक स्थिति बड़ी विचित्र थी ।जहाँ चाहे खायें, पियें, जैसा चाहे खायें, अनाप-सनाप व्यवहार था । शिष्य था समझदार ।उसने कई बार निवेदन किया, गुरुजी आप यह क्या करते हैं, जिस चाहे की दूकानदार म्लेच्छ की मांसाहारी की दूकान पर.... । गुरु कहता है क्या है, आत्मा तो शुद्ध है । एक बार मांसाहारी म्लेच्छ की दूकान पर गुरुजी रसगुल्ले खा रहे थे । निश्चय एकांती गुरु की बात सुना रहे हैं । शिष्य को उस समय और कुछ न सूझा, गुरुजी के दो तमाचे जड़ दिए । गुरुजी बोले―अरे यह क्या कर रहे हो? शिष्य बोला―आप एक मांसाहारी की दूकान में रसगुल्ले क्यों खा रहे हैं? गुरुजी कहने लगे कि ये रसगुल्ले तो शरीर में गए, आत्मा तो शुद्ध है । तो शिष्य कहता हैं―महाराज ये तमाचे भी शरीर में लगे, आत्मा तो आपका शुद्ध है । कुछ भला होने पर था कि बात समझ में आई । ओह ! तुम ठीक कहते हो बीतती तो सारी बात इस आत्मा पर ही है।
निश्चयाभास में उभयभ्रष्टता―जो निश्चय एकांत की बात करता है, व्यवहार आचरण को अत्यंत हेय कहता है, उसकी प्रवृत्ति से दूर रहता है और सुखपूर्वक जिसमें लौकिक बड़प्पन मिले, जिसमें आराम में भी दखल न आये, इसी प्रकार से रहता है उसकी यह स्थिति है कि इतो भ्रष्ट: ततो भ्रष्ट: । ये व्रत तपस्या आत्मा से भिन्न स्थितियाँ हैं, आत्मा तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है, ये हेय हैं, यह तो माना और जिसकी चर्चा कर रहे हैं उस अभिन्न ज्ञानतत्त्व का आत्मस्वरूप का उसके अनुभव नहीं जगा, तब वे बीच में ही इतो भ्रष्ट: ततो भ्रष्ट: बन गए, वे प्रमाद की मदिरा के मद से आलसी चित्त वाले बन गए । पागल पुरुषों की भाँति यथातथा आचरण कर रहे अथवा मूर्छित पुरुषों की भाँति बेसुध हैं, अपने आपके भीतर का भी प्रकाश नहीं मिला और बाह्य आचरण को तो हेय बता ही रहे हैं । यों वे मूर्छित हुए की तरह अथवा सोये हुए की तरह हैं । जैसे सोया हुआ पुरुष बेकार पड़ा हुआ है, उसे कुछ अपना भान नही है, ऐसे ही केवल निश्चयाभासी पुरुष को अपने कर्तव्य का भान नहीं है किंतु जैसे लोक में धन की तृष्णा वाले धन पाने के लिए ही उत्सुक रहा करते हैं अथवा नेतागिरी अर्थात् सरकारी ओहदों के पाने को तृष्णा में ही चित्त फंसाये रहते हैं, ऐसे ही शुद्ध बुद्ध आत्मा की चर्चा करके लोगों में अपना आत्म सौंदर्य समझने वाले सुखपूर्वक इस ही भ्रम में बने रहा करते हैं । जैसे कोई बहुत घी मिश्री गरिष्ठ भोजन गरिष्ठ खीर पायस गरिष्ठ भोजन को खाकर जैसे आलसी हो जाते हैं, चित्त पड़े रहते हैं, बेकाबू हो जाते हैं इसी प्रकार ये निश्चयाभासी पुरुष भी प्रमाद के भार से यों बेहोश हो गए हैं ।
भ्रष्टाचरणी का व्यामोह―भ्रष्टाचरणी का मन भयानक होता है । मुद्रा तो शांति की है पर चित्त में करुणा नहीं है । करुणा रहित पुरुष संयम नहीं पाल सकता है । संयम का मूल ही दया है । जिन्हें अपने आपकी भी अनुकंपा नहीं, परजीवों की भी अनुकंपा नहीं, केवल एक चर्चा का व्यसन लगा है ऐसे उस भयानक मन के कारण उनका तो मोह दृढ़ हो रहा है । जैसे कोई पुरुष शारीरिक वेदना न सही जाने के कारण मरण पसंद करे, उसको आप मोही कहेंगे या नहीं? मोही है और कोई पुरुष धन का टोटा पड़ने के कारण मरण पसंद करे तो उसे आप मोही कहेंगे कि नहीं? शायद उससे भी ज्यादा मोही कहेंगे जो शारीरिक रोग की वेदना न सह सकने से मर रहा हो । उससे भी आप अधिक मोही उसे कहेंगे जो धन के नुकसान के कारण मर रहा है और कोई पुरुष लौकिक यश न बढ़ने से दुःखी होकर या किसी प्रकार लौकिक यश में घात हो जाने से दुःखी होकर मरे तो उसे मोही कहेंगे या नहीं? संभव है कि आप धन के पीछे मरने वाले से भी अधिक मोही यश घात से मरने वाले को कहेंगे और कोई पुरुष कुछ बात चर्चा करता हो और लोग उसकी बात को न माने तो मेरी बात नहीं मानी गई, मेरी बात टाल दी गई, इतनी बातपर कोई मरे तो उसे मोही कहोगे या नहीं? उसे भी मोही कहोगे और कोई पुरुष धर्म की चर्चा करके, आत्मा के स्वरूप की शुद्धता की कथनी करके, उस कथनी के विकल्पों से अपने को महत्वशाली समझकर उस चर्चा से इतनी प्रीति रखे कि लोगों के बड़प्पन का कारण, सुख का कारण एक उस कथनी को ही मान लिया ऐसी कथनी में आत्मत्व की बुद्धि रखने वाला, कथनी के विकल्प में आत्मत्व की बुद्धि रखने वाला पुरुष मोही कहलायेगा अथवा नहीं? मोही है ।
आत्मभ्रष्ट की जड़ता―जैसे कोई पुरुष बहुत गरिष्ठ भोजन करके बेकाबू बनकर लेटा रहे, आलसी रहे, इसी प्रकार गरिष्ठ मलाई आदिक भोजन करके, रस रसायन खा-खाकर जो बड़े पहलवान बनकर शरीर के अभिमान से जड़ से बन रहे हैं दिखने में वे बड़े काम कर रहे हैं, वे भी मूढ़ हैं, जड़ हैं, ऐसे ही जो केवल एक शुष्क केवल शुद्धस्वरूप की चर्चा मात्र से ही अपना कर्तव्यपालन पूर्ण समझते हैं वे तो उस आलसी की तरह हैं और जो इस कथनी का प्रसार करके, प्रसार जानकर अपने को बड़ा पुरुषार्थी समझकर उस वातावरण से अपने को महान मान रहे हैं वे इस देहबल वाले पहलवान की तरह जड़ हैं । बड़े भयानक भाव से वे अपने आपके साथ छल कर रहे हैं, उनकी बुद्धि भ्रष्ट होने से विक्षिप्त हो गयी और जैसे चेतना से रहित वनस्पति पेड़ जैसे खड़े बेकार हैं इसी प्रकार व्रत तपस्या संयम नियम यम इन सभी को हेय मानकर केवल एक अपने शरीर को ही सुखपूर्वक रखकर चर्चा से एक अपनी प्रशंसा लूट कर जी रहे हैं वे वनस्पतियों की तरह एक भाररूप खड़े हुए हैं । अपने लिए तो भार है ही । ऐसे निश्चयाभासी पुरुष मुनींद्रों के द्वारा आचरण किए जाने वाले व्यवहारधर्म कर्म चेतन से अत्यंत दूर रहते हैं ।
देखिये जैसे निश्चय शुद्ध आत्मा के ज्ञान से रहित होकर कोई केवल क्रियाकांड करे तो वे भी सुधबुध से रहित हैं, इसी ही प्रकार व्रत तपस्याओं से रहित होकर और रहित ही नहीं किंतु उनको हेय कहकर ग्लानि से देखकर केवल एक चर्चा मात्र से ही अपने को सुखपूर्वक रखे हैं वे भी शुद्ध शिवपथ से भ्रष्ट हैं और कोई व्रत तपश्चरण न करे उससे पुण्य बंध जायगा । पुण्यबंध बुरा है, ऐसी बात मन में रखकर उससे दूर ही रहा करते हें और भीतर में ज्ञानतत्त्व का कुछ अनुभव है नहीं तो उनकी दशा भी वही है जैसी केवल व्यवहारावलंबी पुरुष की है । ये भी संसारसागर में भ्रमण करते हैं ।
कर्मयोग और नैष्कर्म्य का स्थान―किसी प्रकार का कर्म न करें, कर्मों के मायने यम, व्रत, नियम, प्रतिज्ञा कुछ न करें । हाँ कुछ न करें, बिल्कुल ठीक है, पर यह इनके लिए ठीक है जहाँ कोई किया कर्म नहीं हैं, ऐसे नैष्कर्म्य ज्ञानस्वरूप में जो मग्न हो गए हैं, यह स्थिति तो पायी नहीं और व्यवहारिक सत् आचरणों को हेय मानकर पुण्यबंध के भय से उनसे दूर रहा करते हैं । सीधी भाषा में यों कह लो कि पुण्यबंध के काम को बुरा समझकर उससे तो अलग रहते है और यह साहस उनके नहीं है कि पाप कर्मों का त्याग कर दें । तब यही निर्णय समझिये उनमें प्रकट और अप्रकट सर्वप्रकार के प्रमाद कषायें भरी हुई हैं । वे वर्तमान में भी कर्मफलचेतना को भोग रहे हैं और भावी काल में ऐसी स्थिति भी पा लेंगे कि जहाँ केवल कर्मचेतना भोगने की ही प्रधानता हो । ऐसे स्थावरों तक में जन्म ले लें । इस प्रकार के अलसियायें हुए ये निश्चयावादी पुरुष केवल पापों का ही बंध करते हैं । इस प्रकरण में बात यह दिखाई गई है कि करने योग्य बात यह है कि लक्ष्य बनाये अपना शुद्धस्वभाव में मग्न होने का और इसी के लिए प्रयत्न करें । इसके अपात्र बन जाये, ऐसी कोई परिणति न करें । पापों में लगने की परिणति आत्मानुभव की अपात्रता का निर्माण करती है । पापों से दूर रहे वही हो गया संयम, वही हो गया नियम, वही हो गया व्रत।
निश्चय व व्यवहार के विरोध में अलाभ―निश्चय और व्यवहार, दोनों का विरोध न रखकर जब-जब जिस पद में जितना व्यवहार रहता है उस व्यवहार में रहते हुए निश्चय शुद्धतत्त्व को मुख्यता और लक्ष्य रखते हुए धर्म का आचरण करें, किंतु जो इन दी बातों में से केवल व्यवहार का ही एकांत रखते हैं, न उनको शांतिलाभ है और जो व्यवहार आचरण का विरोध करके केवल एक चर्चा कथनी का ही अनुराग रखते हैं, न उन्हें शांतिलाभ है । निश्चय का आलंबन करने वाला अगर निश्चय से निश्चय को जान रहे हैं तब तो उनसे महान और कौन है, पर निश्चय से निश्चय को जान तो नहीं रहे हैं, उस तत्त्व का अनुभव तो नहीं किया है, किंतु एकांत निश्चय का आलंबन बना ले, वे उन आचरणों के करने का तो नाम भी नहीं लेते, बाह्य आचरणों में आलसी बने रहते हैं तो वे वास्तविक जो आध्यात्मिक आचरण है उसका भी विनाश कर डालते हैं ।
आत्मतत्त्व के अपरिचयी का कथनप्रसंग―जैसे किसी पुरुष ने मिश्री नहीं खायी है, उसके स्वाद का परिचय नहीं है, किंतु साहित्यिक कला उसकी ऐसी है कि उस मिश्री के स्वाद का बहुत-बहुत वह वर्णन कर सकता है । देखो भाई मिश्री बहुत मीठी होती है, कैसी मीठी होती है? देखो―तुमने गन्ना तो चूसा ही होगा ना? हाँ-हाँ । गन्ने के चूसने में जो स्वाद आता है उससे अधिक स्वाद रस पीने में आता है और रस को गाढ़ा कर लिया जाय तो उसमें अधिक मिठास है, और रस का मैल हटाकर गुड़ बनाया जाय तो देखो उस मीठेपन का बाधक मैल था, वह मैल निकाल दिया तो उसमें मीठापन बढ़ा ना? हाँ बढ़ा । उस गुड़ के मैल को भी निकालकर शक्कर बना ली जाय तो उसमें और ज्यादा मीठापन है, और उस शक्कर का भी मैल निकालकर मिश्री बना ली जाय तो वह तो सबसे अधिक मीठी है । सुन-सुनकर इतनी बातें कर लेने पर भी जिसने मिश्री का स्वाद आज तक भी नहीं लिया तो कथनी के करने से मिश्री के स्वाद का अनुभव तो न हो जायगा । ऐसे ही जिसकी अनंतानुबंधी कषायें शिथिल नही हुई हैं, उपशांत नहीं हुई हैं, अतएव पर्याय की पकड़ जिनकी नहीं गई है, जिस किसी भी अनात्मतत्त्व में यह मैं हूँ, मैं अमुक ही नाम वाला तो हूँ, इतने ही बच्चों का बाप तो हूँ, अमुक नगरी का रहने वाला ही तो हूँ, और मैं कौन हूं? जिस किसी भी पर्याय में आत्मबुद्धि जिसकी बनी हुई है, आत्मतत्त्व का कभी अनुभव नहीं किया वह अपनी साहित्यिक कला के बल से उस आत्मतत्त्व का कितना ही वर्णन कर ले युक्ति से, अनुमान से, फिर भी आध्यात्मिक आचरण, स्वरूपाचरण आत्मानुभूति तो उनके नहीं जगती ।
आवश्यक ज्ञान और आचरण―भैया ! जिसे छूटना है संकटों से उसका छूटा हुआ ही स्वभाव है ऐसा जब तक अनुभव में न आये तब तक छूटने का उपाय कैसे बनेगा? तब जैसे केवल व्यवहार के आलंबन में शांतिलाभ नहीं है ऐसे ही केवल निश्चयनय के आलंबन में भी शांतिलाभ नहीं है । अत: निश्चय और व्यवहार का विरोध न करके धर्म के आचरण में चले तो उस प्रवृत्ति में वीतरागता बनेगी और वीतरागता होने से ही ये संसार के समस्त संकट दूर होंगे । एतदर्थ अविरोधपूर्वक अपना ज्ञानार्जन और आचरण दोनों में बराबर यत्न होना चाहिए । गृहीतमिथ्यात्व, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ व इंद्रियों के विषयों की वांछा व अन्य अभिलाषाओं से विरक्त होना―यह तो सदाचरण करना ही चाहिये । इसमें तो व्यवहार व्यवस्था भी है और आत्मविशुद्धि भी है । इन आचरणों के करने पर भी अपने आपके सहजस्वरूप की रुचि व आचरण करना मौलिक कर्तव्य है ।
निश्चयमोक्षमार्ग व व्यवहारमोक्षमार्ग की एकाधिकरणता―मोक्षमार्ग में चलने वाले पुरुषों की पद्धति दो तरह की होती है―एक निश्चयमोक्षमार्ग और दूसरी व्यवहारमोक्षमार्ग । कहीं इसका मतलब यह नहीं है कि निश्चयमोक्षमार्ग भी मोक्ष को देता है और व्यवहारमोक्षमार्ग भी मोक्ष को देता है । यह भी अर्थ नहीं है कि कोई पुरुष व्यवहारमोक्षमार्ग से गुजर बिना केवल निश्चयमोक्षमार्ग से चलकर मोक्ष पहुंचे या केवल व्यवहारमोक्षमार्ग से चलकर मोक्ष पहुंचे, पुरुष वह एक ही है और उसका अंतरंग में निश्चयसम्यग्दर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान व निश्चयसम्यक्चारित्र का आविर्भाव होने से वह मोक्षमार्गी है, किंतु साथ ही ऐसे उस निश्चयमोक्षमार्ग का आरंभ करने वाले पुरुष के पूर्वबद्ध राग का अवशेष है, अत: उस राग के उदय में रागमयी प्रवृत्ति होती है । वह प्रवृत्ति किस तरह होती है? उस राग के समय में यह ज्ञानी पुरुष श्रद्धान का किस प्रकार प्रयोग करता, ज्ञान का किस प्रकार प्रयोग करता और चारित्र का किस प्रकार प्रयोग करता है, बस इस विशेषता का नाम है व्यवहारमोक्षमार्ग । इसी कारण इन दोनों का परस्पर अविरोध रखकर जो ज्ञानी मोक्षमार्ग में चलता है वह अपने उद्देश्य में सफल होता है ।
पक्षाग्रह व निष्पक्षता का अधिकारी―जो कोई केवल व्यवहार एकांत मानकर चलते हैं उनकी क्या परिस्थिति होती है, यह दिखा दी गई और जो केवल निश्चय एकांत पर चलते हैं उनकी क्या परिस्थिति होती है, वह भी बतायी गयी है । ये दोनों ही एकांती संसारसागर में भ्रमण करते हैं, परंतु जो पुरुष अपुनर्भव के लिए अर्थात् फिर भव धारण न करना पड़े ऐसी परिस्थिति पाने के लिए नित्य उद्योगशील हैं अतएव महाभाग हैं, पुण्य पुरुष हैं वे निश्चय और व्यवहार इन दोनों में से किसी एक का आलंबन न लेने से अर्थात् किसी को प्रधान न बनाने से अत्यंत मध्यस्थीभूत हैं, और वे ज्ञानी पुरुष निश्चय व्यवहार के अविरोधपूर्वक आचरण करके मुक्ति को प्राप्त कर भी लेते हैं और जो किसी एकांत में अपना उपयोग फंसाये हैं जैसे मान लो कोई व्यवहार एकांतवादी है तो उसके समक्ष निश्चयतत्त्व की चर्चा रखें तो उसे बड़ी कठिन लगती है, सुनना नहीं चाहता है, क्रोध करने लगता है । हालांकि जो बात निश्चयनय से रखी जायगी वह गलत नहीं है, किंतु व्यवहारएकांत का परिणाम होने से उसे सही बात सुहाती नहीं है, और कभी-कभी तो यह जानकर भी कि ये सब बातें सत्य हैं, तत्त्व यही है जानते हुए भी उसके विष्ट बोलना पड़ता है और उसका निराकरण करता है । इतने विकट पक्ष की स्थिति बन जाती है । व्यवहारैकांतपक्ष की तरह जो निश्चयएकांत को पसंद करते हैं, निश्चयएकांती हैं वे व्यवहार के व्रत तप की क्रियाएँ सुनकर या व्रत तप का कोई आचरण करता हो तो उससे घृणा करते हैं, ऐसे विकट पक्ष की स्थिति निश्चयएकांत वादियों के भी हो जाती है, मध्यस्थता नहीं आ पाती है । व्यवहारवादी को भी देख सके, सुन सके, निश्चयवादी को भी देख सके, सुन सके, ऐसी मध्यस्थ स्थिति नहीं हो पाती है ।
अपुनर्भव के उद्यमी की भावना―जो वास्तव में अपुनर्भव के लिए उद्यमी हुए हैं, ईमानदारी से अपने अंतःकरण से जो अपने आत्मकल्याण के लिए उद्यमी हुए हैं उन्हें किसी का पक्ष नहीं सुहाता है । उन्हें आत्मकल्याण ही चाहिए । वे जानते हैं कि यह पुरुष मायारूप है, कुछ क्षण को इसका समागम है, अंत में यह भी विघट जायगा, हम भी विघट जायेंगे । इस समुदाय में हमें क्या सुनना, क्या पक्ष रखना? इनमें अपनी बात मनाने का क्या हठ करना? जब यह मैं मनुष्य स्वयं न रहूंगा तब इतने दुर्लभ अवसर को कहाँ एकांत के विष में ढालकर बरबाद करना? उसके आत्मकल्याण की भावना रहती है । वह हम सब पुरुषों में मध्यस्थ रहता है । यह आत्मकल्याणार्थी पुरुष शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व में स्थिर रहने के लिए सावधान रहा करता है ।
अपुनर्भवार्थी की अंतर्बाह्यवृत्ति―एकांतियो की दृष्टि बाहर ही रहा करती है, वे अंतस्तत्त्व का स्पर्श नहीं करते, किंतु यह मध्यस्थ पुरुष, यह आत्मकल्याणार्थी पुरुष चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व में स्थिर रहने के लिए लालायित रहता है और इसी कारण जब कभी प्रमाद की परिणति जगती है तो उस प्रमाद भाव को दूर करने के लिए शास्त्र की आज्ञानुसार क्रियाकांडों को भी करता है । किसी भी प्रकार मेरा आत्मा पवित्र लक्ष्य की ओर बना रहे, इसकी सिद्धि के लिए व्यवहारिक क्रियाकांडों को भी ग्रहण करता है । कहीं यह प्रमाद और रागभाव हमें उल्टे मार्ग में न ले जाय उन सब उपद्रवों से बचने के लिए यह ज्ञानी व्यवहारचारित्र का भी पालन करता है और इन क्रियाकांडों के पालन के माहात्म्य से उन प्रमाद भरी वृत्तियों को दूर करता है ।
आत्महितार्थी की धुन―इस आत्महितार्थी के तो केवल यही धुन समायी है कि मेरा यह ज्ञानस्वरूप यथार्थरूप में रहा करे, मुझे और कुछ न चाहिए, मुझे लोगों में कुछ नहीं जंचाना है ऐसे विशुद्ध भावों से निश्चय और व्यवहार इन दोनों के अविरोध के कारण यह ज्ञानी जीव, कल्याणार्थी जीव मध्यस्थ बना हुआ है । उसका निरंतर उद्योग यही रहता है कि समस्त योग्यता समस्त शक्ति को लेकर निज आत्मा को आत्मा के द्वारा आत्मा से ही संचेतन करने का उद्यमी रहा करे । विकल्प टलें, निर्विकल्प स्थिति बने, इसके लिए यह अंतरंग में देखता भी रहता है । यह ज्ञान अपनी ओर में आये । अपने मूल में कितना आ रहा है, आने दो और यह ज्ञान इस ज्ञानस्वरूप में मग्न हो जाय, इस तरह की वृत्तियों को वह तकता रहता है और यत्न करता रहता है कि यह ज्ञान अब अपने आप में मग्न होने वाला है, उसका ही एक मौन यत्न करना है । यह उसके भीतर में स्थिति रहती है ।
अपुनर्भव के उद्यमी के पुरुषार्थ का आरंभ―अपुनर्भव का उद्यमी पुरुष अपने अंत: प्रयत्न के द्वारा स्वतत्त्व में विश्राम करता है । जैसे-जैसे उसका निज ज्ञानस्वरूप में विश्राम होता है, पक्ष मिटता है, रागद्वेष की वृत्तियां समाप्त होती है, अपने आप में ज्ञानानुभव करता है, विशुद्ध स्वाधीन आनंद जगता है वैसे-वैसे ही ढंग से कर्मों का भी वह निर्जरण करता रहता है । 14 गुणस्थान जो बताये गये हैं वे सम्यक्त्व और चारित्र गुण की विशेषता की स्थिति बताया करते हैं । संसार के प्राय: सभी जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में पड़े हुए हैं । मिथ्यादृष्टि जीव के किसी भी प्रकार के कर्मों का सम्वर नहीं होता और मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत निर्जरा भी नहीं होती । हाँ यह मिथ्यादृष्टि जीव जब सम्यक्त्व के सम्मुख होता है तो अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामों में लगने पर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणाम के समय इसके बहुत से कर्मबंध रुक जाते हैं । यद्यपि इस बंधन के रुकने का नाम सम्वर नहीं है, लेकिन यह सम्वर की तरह है । सम्यक्त्व की सन्मुखता का भी इतना बड़ा माहात्म्य है जिस प्रकृति का सम्वर छठे गुणस्थान तक में हुआ करता है, 7वें गुणस्थान तक में हुआ करता है । प्राय: कई उन प्रकृतियों का सम्वर नहीं, किंतु बंध निरोध यह मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व के सन्मुख होने पर कर डालता है ।
मोक्षमार्गी आत्मा के संवर की विशेषता―दूसरा गुणस्थान मिथ्यात्व के बाद नहीं आया करता, किंतु उपशम सम्यक्त्व से गिरने पर आया करता है । किंतु उपशम सम्यक्त्व के समय जीव के सम्वर निर्जरा चल रही थी, सो गिरने के बाद दूसरे गुणस्थान तक भी कुछ प्रकृतियों का संबर चलता रहता है । जो सम्वर दूसरे में है वह तथा और भी विशेष सम्वर तीसरे में है, फिर ज्यों-ज्यों गुणस्थान बढ़ते हैं त्यों-त्यों संवर भाव बढता है और निर्जरा बढ़ती है । वह क्या है? जैसे-जैसे यह आत्मा निज ज्ञानस्वरूप में विश्राम लेता रहता है वैसे ही वैसे कर्मों का झड़ना बढ़ता जाता है । सब माहात्म्य अपने आपका अपने आपके स्वरूप में मग्न करने का है । मोक्षमार्गी पुरुष की ऐसी आंतरिक वृत्ति होती है ।
अंतर्दृष्टि व बाह्यदृष्टि के रुचिया―मिथ्यादृष्टि जन बाहर ही बाहर अपनी दृष्टि लगाये रहते हैं । किसी भी क्षण ये अपने आपको छूते भी नहीं । कभी धर्म करने की धुन जगे तो भी बाहर-बाहर की दृष्टि लगाये रहते हैं । धर्मपालन के नाम पर देव, शास्त्र, गुरु की सेवा भी बहुत करते हैं, भक्ति और पूजा भी बहुत करते हैं, पर किसी क्षण ऐसा ही स्वरूप तो मेरा है, ऐसा अनुभव नहीं कर पाते । बाहरी क्रियाकलापों से हमारा उत्थान होगा―यह ही दृष्टि रहा करती है, किंतु ज्ञानी जीव व्यवहारभक्ति करते हुए भी लक्ष्य में यही बनाये हुए हैं कि इन ही की तरह मेरा स्वरूप कब विकसित हो जाय ऐसी उनकी दृष्टि होती है ।
चैत्यवंदन―प्रभुमूर्ति के दर्शन के प्रसंग में भी ज्ञानी और अज्ञानी की वृत्ति का अंतर देखिये―ज्ञानी पुरुष मूर्ति के समक्ष दर्शन करते हुए भी जिनकी यह मूर्ति बनायी है, स्थापना की है ऐसे वे प्रभु तीर्थंकर समवशरण में विराजमान हैं, उनकी उस-उस प्रकार की घटनाओं को व गुणों को स्मरण करते हुए वंदन करते हैं, नमन करते हैं तब अंतस्तत्व का अपरिचयी केवल मूर्ति के नाक, आँख को ही निरख-निरखकर ये ही प्रभु हैं, ये ही भगवान हैं, ऐसा देख-देखकर उस ही पर रुचि करते हैं और खुश होते हैं । वह एक मुद्रा है और जिस मुद्रा की स्थापना की है इस स्थापित मुद्रा को देखने से उस मुद्रा का भान होता है तो जिनकी स्थापना है उनके गुणों के स्मरण सहित वंदन नमन हो वह तो ज्ञानी की वृत्ति होती है और अज्ञानी की वृत्ति मूर्ति के नाप-तौल में अटक जाती है । जैसे बालक भी जानते हैं ये बड़े भगवान हैं, ये छोटे भगवान हैं । छोटी मूर्ति को बच्चे छोटे भगवान कहते हैं बड़ी मूर्ति को बच्चे बड़े भगवान कहते हैं । अरे मूर्ति तो एक मुद्रा है, भगवान न छोटे हैं, न बड़े हैं, सब एक समान हैं । भगवत्स्वरूप का परिचय हुए बिना कितनी ही विडंबनाएँ बन जाती हैं ।
परमस्वार्थ―एक ज्ञानी पुरुष जिसे यदि वह कहा जाय कि यह परमस्वार्थी है तो इसमें कुछ अत्युक्ति नहीं है । यह परम जो स्व में स्वरूप है उसकी ही निरंतर चाह करता है । जिसे कहते हैं खुदगर्जी वह खुदगर्जी परमस्वार्थियो के पास फटक नहीं पाती है । जो स्वरूपार्थी अपने देह इंद्रिय विषयों के लिए भी रुचि नहीं रखते वे किसी प्रकार की आशा खुदगर्ज क्या कर सकेंगे, जिसमें दूसरे पुरुषों को हानि हो, कष्ट हो । ऐसा यह परमस्वार्थी परम विवेकी परमतत्त्वज्ञानी पुरुष अपने स्वरूप में विश्राम करता है और उस विश्राम के अनुसार क्रम से कर्मों का परित्याग करता है ।
निष्प्रमादता व निर्भया मुद्रा―अब ये ज्ञानी पुरुष अपने आत्मा में मग्न होनेरूप परमपुरुषार्थ में परम क्रिया में निष्प्रमाद हो गए हैं । विषयों में रुचि जगना, विषयसाधन कमाने के लिए भाग-दौड़ करना, ये सब प्रमाद हैं और मन, वचन, काय की क्रियावों को रोककर ज्ञान को अपने ज्ञानस्वरूप में समा देना, यही निष्प्रमाद अवस्था है । यह पुरुष पूर्ण रूप से निष्कंप मूर्ति बन जाता है । इसको अगर वनस्पतियों से उपमा दें तो कदाचित् किसी मूड में दे सकते हैं । वृक्ष भी कहीं भागते नहीं हैं, ये ज्ञानी पुरुष भी दौड़-धूप नहीं मचाते हैं, लेकिन वनस्पति तो कर्मफल का अनुभव करते हैं, किंतु यह ज्ञानी कर्मफलों का अनुभव नहीं करता है । और वनस्पतियों में सचेतन वनस्पतियों को उपमा न दे, किंतु कोरे खड़े हुए ठूठों से उपमा दें । ये ऐसे निष्कंप रहते हैं तो यह उपमा और चोखी रहेगी । देखो ना भैया ! तभी तो बनों में ध्यानस्थ मुनि के शरीर को हिरण पत्थर समझकर उनसे ही खाज खुजाने लगते हैं । किसी साधु पुरुष से न कोई पशु डरे, न पक्षी डरे, न अबोध बालक डरे ।
ज्ञानी की बाह्यनिरुत्सुकता―ये ज्ञानी पुरुष कर्मों के अनुभव करने में निरुत्सुक रहते हैं । इनकी दृष्टि केवल स्वयं की ओर है, सुख दुःख इष्ट अनिष्ट मन, वचन, काय की चेष्टाएँ इनकी और रुचि नहीं है । ज्ञानियों की रुचि है अपने आपको अपने आप में मग्न करने की । ये ज्ञानीपुरुष जो अपुनर्भव की प्राप्ति के लिए उत्सुकता रखते हैं वे केवलज्ञान की अनुभूति से उत्पन्न हुए तात्विक आनंद से भरे-पूरे रहा करते हैं । सभी जीव कुछ न कुछ अनुभव किया करते हैं, लेकिन कोई तो इंद्रियज सुख का अनुभव करते हैं और कोई इंद्रियज दु:ख का अनुभव करते हैं, किंतु यह मोक्षगामी पुरुष, पूज्य पुरुष मात्र ज्ञानस्वरूप का अनुभव करता है । अनुभवन करने का तात्पर्य है प्रकर्ष रूप से किसी को जानते रहना । इसका जब जानन का काम है तो न जाना बाह्यपदार्थों को, अपने आत्मस्वरूप को ही जानने लगे तो क्या ऐसा नहीं जानेगा? जान लेगा । न जाने बाह्य अर्थों को, मैं किस रूप हूँ, इस स्वरूप को ही जानने लगे वहाँ ज्ञान की अनुभूति होती है । किसी बाह्य को जानने से मेरा कुछ प्रयोजन सिद्ध न होगा, मुझे शांति न मिलेगी, ऐसा निश्चय होने के कारण ये ज्ञानी पुरुष बाह्य को जानने में निरुत्सुक हैं।
शाश्वत शब्दब्रह्मफल का भोक्तृत्व―ज्ञानी पुरुष बहिस्तत्त्व को जानने में नितांत निरुत्सुक है अत: अपने आपके जानने के लिए ही वे उद्यमी रहा करते हैं । अतएव वे शुद्ध आनंदरस से परिपूर्ण रहा करते है । ऐसे ही ज्ञानी पुरुष बहुत ही जल्दी इस संसारसमुद्र से तिरकर इस शब्दब्रह्म का फल जो ज्ञानब्रह्म है, शाश्वत है उस ज्ञान ब्रह्मस्वरूप के भोक्ता हो जाया करते हैं । सभी चीजें 3 रूपों में बाटी जा सकती हैं―शब्द अर्थ और ज्ञान । जैसे पुत्र को तीन रूपों में बाँटे―शब्दपुत्र, अर्थपुत्र और ज्ञानपुत्र । आप पुत्र से प्रेम करते हैं तो यह बताओ कि शब्दपुत्र से प्रीति कर सकते हैं या अर्थपुत्र से प्रीति कर सकते हैं या ज्ञानपुत्र से प्रीति कर सकते हैं? पु और त्र ऐसे दो अक्षर लिख दिये जायें उन अक्षरों का नाम है शब्दपुत्र । कोई इन दो अक्षरों से प्रेम करता है क्या? जो दो हाथ पैर वाला घर में पुत्र है उसे अर्थपुत्र कहते हैं । क्या आप अर्थपुत्र से प्रीति निभा सकते हैं? वह जुदा पदार्थ है, आप जुदे पदार्थ हैं, आपकी कुछ भी परिणति अन्य पदार्थों में नहीं पहुंचती, किंतु उस अर्थपुत्र को विषय करके जो कल्पना में समाया हुआ है वह है ज्ञानपुत्र । कल्पना में परिणत आप उस कल्पना से प्रीति करते हैं । ब्रह्म को भी तीन रूपों में बाँटों―शब्दब्रह्म, अर्थब्रह्म और ज्ञानब्रह्म । आत्मा के स्वरूप का नाम है―ब्रह्म । ब्रह् और म―ये अक्षर लिख दिये जायें इसका नाम है शब्दब्रह्म अथवा इस शब्दब्रह्म को बताने के लिए जितने भी ये आगम बने हुए हैं ये सब हैं शब्दब्रह्म । और जो आत्मा है वह अर्थब्रह्म है और उस आत्मा के संबंध में जो ज्ञान चलता है वह ज्ञानब्रह्म है । शब्दब्रह्म का तो यह भोक्ता होता नहीं और अर्थब्रह्म यह स्वयं है । तब ज्ञानब्रह्म द्वारा इस अर्थब्रह्म को विषय कर-करके ज्ञानी पुरुष अर्थब्रह्म को भी भोगता है, ज्ञानब्रह्म को भी भोगता है, क्योंकि ये दोनों अभिन्न हैं और निज की चीज हैं अर्थात् इस तरह ज्ञानमार्ग द्वारा बढ़-बढ़कर यह जीव मोक्ष के आनंद को प्राप्त करता है ।
अंतिम शिक्षण―जिन्हें निर्वृत्ति चाहिए उनका कर्तव्य है कि वे वीतराग बने, और वीतरागता पाने के लिए निश्चय और व्यवहार का विरोध न करके मोक्षमार्ग में बढ़ते रहें, इससे हम आप सब संसार के संकटों से छूट सकते हैं । यह गाथा पंचास्तिकाय की उपांत्य गाथा है । निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग का विवरण करके श्री कुंदकुंद देव ने कर्तव्यपालन की प्रेरणा देते हुए यह कहा है कि जो निर्वृत्ति की, निर्वाण की, अपुनर्भव की इच्छा करते हैं अर्थात् जो संसार के बंधनों से छुटकारा चाहते हैं वे समस्त पदार्थों में मोह, राग व द्वेष न करें, क्योंकि वीतराग आत्मा ही भवसागर से तिरता है । वीतरागता का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र का पुरुषार्थ है । अत: सर्व प्रयत्नपूर्वक रत्नत्रय की, अंतस्तत्त्व की आराधना करो ।