वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 173
From जैनकोष
मग्गप्पभावणट्ठं पवयणभत्तिप्पचोदिदेण मया ।
भणियं पवयणसारं पंचत्थियसंगह सुत्तं ।। 173 ।।
ग्रंथनसमाप्ति सूचना―यह गाथा पंचास्तिकाय की अंतिम है । इसमें ग्रंथकार की क्रिया समाप्ति की सूचना है और साथ ही ग्रंथ समाप्त कर देने के कारण जो एक विश्रांति और शांति प्राप्त होती है उसका भी इसमें दिग्दर्शन है । ग्रंथकार श्री कुंदकुंद देवाचार्य कहते हैं―प्रवचन की भक्ति से प्रेरित होकर मेरे द्वारा मार्ग की प्रभावना के लिए पंचास्तिसंग्रह नाम का प्रवचनसार सूत्र कहा गया है ।
कर्तृवाच्य और कर्मवाच्य के प्रयोग का अंतर―बोलने के वाक्य दो प्रकार के होते हैं―एक कर्तृवाच्य और एक कर्मवाच्य । जैसे मैं पुस्तक को लिखता हूँ यह कर्तृवाच्य है । मेरे द्वारा पुस्तक लिखी जा रही है यह कर्मवाच्य है । दोनों प्रकार के कथन में भावों का अंतर है । कर्तृवाच्य तो कुछ गर्व और अहंकार की ध्वनि को बताता है और कर्मवाच्य अहंकार की शिथिलता को बताता है । जैसे कहा जाय कि मैंने यह काम बनाया है और इसही को यों कहा जाय कि मेरे द्वारा यह काम बन गया है । अंतर हुआ भावों में और यह कहा जाय कि मेरे निमित्त से काम बन गया और अधिक अंतर आ गया । इस गाथा में ग्रंथकार कर्मवाच्य का प्रयोग करके कह रहे हैं―मेरे द्वारा यह पंचास्तिकायसंग्रह कहा गया है ।
ग्रंथयोजना का कारण परमागमभक्ति की प्रेरणा―क्यों कहा इस सूत्र को ग्रंथकर्ता ने? तो ग्रंथकर्ता अपना एक विशेषण यों कह रहे हैं कि जिससे निरहंकारता की और सिद्धि हो जाय । परमागम की भक्ति से प्रेरित होकर यह सूत्र मेरे द्वारा कहा गया है । इसमें कितनी हि ध्वनियां लगाते जाये । मैं एक शुद्ध ज्ञायकस्वरूपकर्ता भोक्ता के विकल्पों से परे यह मैं ज्ञाताद्रष्टा आत्मतत्त्व क्या करूँगा, इसका कुछ भी करने का बोलने का स्वभाव नहीं है, किंतु इस आत्मा में लगे हुए रागद्वेष विकारों से प्रेरित होकर इस जीव की चेष्टाएँ चलती रहती हैं । किसी का राग शुभ विषय संबंधी होता है, किसी का राग अशुभ विषय संबंधी होता है, पर प्रेरणा दोनों में बसी हुई है । शुभ राग से भी प्रेरणा चलती है और अशुभ राग से भी प्रेरणा चलती है । प्रवचन की भक्ति से यह मैं प्रेरित हूँ।
प्रवचन और प्रवचनभक्ति―प्रवचन कहते हैं प्रमाणिक वचनों को । प्रवचन कहो या परमागम कहो दोनों एक ही बात हैं । मैं क्यों प्रेरित हुआ प्रवचन परमागम से, इसे सुनिये―संसार में अनादिकाल से भटकते हुए मुझ आत्मा को अब तक अनंतकाल जो व्यतीत हुआ है, अब तक शांति के मार्ग का पता नहीं पा सका था और अनादि मलिनता वश विषयों में सुख है, हित है, ऐसी बुद्धि कर-करके इन विषयों में ही लगा रहा था कि जिन विषयों की प्रीति अत्यंत असार है, विषय भी पानी के बबूले की तरह अथवा स्वप्न की तरह एक दिखावट मायारूप हैं, और विषयों की चाह भी मायारूप स्वप्नवत् एक विकार आया हे । न विषय रहेंगे, न यह इच्छा रहेगी, किंतु विषयों की इच्छा कर जो भोग प्रसंग में विकार लगाया है उससे जो वासना बनी, पापबंध हुआ, वह भविष्य में बहुत काल तक चलेगा । इन विषयों के प्रसंग में जीव को लाभ नहीं हुआ, न होता, हानि ही हानि सदा रही आयी । अब सौभाग्यवश उत्तम कुल पाया, उत्तम धर्म की संगति मिली, ऐसे प्रकृष्ट वचन पढ़ने और सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उससे ज्ञाननेत्र खुले और जिस विपदा विडंबना में बहे जा रहे थे, हम को इस आगम का सहारा मिला, इस कारण प्रवचन की प्रकृष्ट भक्ति उत्पन्न हुई है ।
परमागम से आत्महित की प्रेरणा―इस परमागम में यथार्थ वस्तुस्वरूप का निरूपण है । कोई भी वैज्ञानिक, कोई भी अन्वेषक खूब युक्तिपूर्वक खोजकर निरख ले प्रत्येक पदार्थ अपने ही सत्त्व से सहित है, अतएव अपने ही स्वरूप से है, अपने ही परिणमन से परिणमता है । किसी एक पदार्थ का किसी दूसरे पदार्थ के साथ रंच संबंध नहीं है । इस मोही अथवा मोहभाव से तो यह जड़ ही अच्छा है जिसको किसी प्रकार का आकुलता का विकार तो नहीं उत्पन्न होता । इस मोही ने अब तक वस्तु के स्वरूप के विमुख बन-बनकर कष्ट ही कष्ट सहा । इन अनंतानंत प्राणियों में से जब कभी किसी भी भव में जिस किसी भी दो-एक जीवों को अपना सब कुछ मानकर चला, फल क्या निकला? कोई कभी होता तो है नहीं अपना । किसी परवस्तु को अपना मान लें तो भले मान लो, किंतु परवस्तु अपनी बनकर रहती नहीं, अपनी इच्छा से परिणमती नहीं तब केवल क्लेश ही क्लेश का अनुभव होगा । जैसे आप किसी पुरुष को अपना मित्र समझ लें और उस पर प्रीति बढ़ा लें, विश्वास कर ले और कभी भी अपने प्रतिकूल बन जाय तो खेद होता है । क्यों खेद हो? यों तो प्रतिकूल सारा जगत है । खेद यों हुआ कि हमने उसे अपना माना और अपने विरुद्ध वह रहा तो यही बात सर्वत्र घटा लीजिए । कुटुंब को हम अपना मानते हैं पर कुटुंब अपना होकर रहता नहीं । उसका जैसा परिणमन है उस अनुरूप होता है तब यह कष्ट सहता है कल्पनाओं का।
परमागम के प्रसाद से ज्ञाननेत्र का उन्मीलन―इस परमागम के प्रमाणिक वचनों ने हमारे ज्ञाननेत्र खोल दिये । मेरा तो देह तक भी नहीं है । कोई क्षण जल्दी ही आने को तो है ना कि इस देह से भी न्यारा होकर हम चले जायेंगे । जब देह तक भी मेरा नहीं है तो देह में उत्पन्न हुए इंद्रियों के विकार में हम क्यों उपयोग फंसाये? और देह तो यहीं रहेगा, हम पापी बनकर आगे अपनी कुयात्रा करेंगे । तत्त्व की कौनसी बात है? इस प्रवचन के प्रसाद से मेरे ज्ञाननेत्र खुले अतएव इसमें तीव्र भक्ति होती है । उस भक्ति से प्रेरित होकर मेरे द्वारा यह पंचास्तिसंग्रह सूत्र कहा गया है ।
मार्गप्रभावना―इस ग्रंथ को कहने का प्रयोजन भी केवल मार्ग की प्रभावना है । मार्ग मायने है परमेश्वर की परम आज्ञा । भगवान अरहंत परमेश्वर उनकी जो परम आज्ञा हुई है, दिव्यध्वनि में जो शासन प्रकट हुआ है उसे कहते हैं मार्ग । यह मार्ग उत्कृष्ट वैराग्य कराने में समर्थ है । जिनआगम की सारभूत बात यह है कि जो राग करेगा सो कर्मों से बंधेगा और दुःखी होगा । जो राग न करेगा वह कर्मो से छूटेगा और सुखी होगा । गृहस्थों में सद्गृहस्थ वह है जो गृहस्थी के प्रसंग में मध्य में रहकर भी सदा अपना यह ज्ञान जागरूक बनाये रहते हैं कि मेरा तो जब यह देह भी नहीं है तो ये मिले हुए समागम मेरे क्या होंगे? घर में रहना तो जैसे अज्ञानी का बना रहता है, ऐसे ही ज्ञानी का बना रहता है, किंतु भावों की दृष्टि के भेद से ज्ञानी और अज्ञानी गृहस्थ में बड़ा अंतर है । जिसका ज्ञान विशुद्ध है उसे आकुलता नहीं हो सकती, जिसका ज्ञान अपने इस विविक्त ज्ञानस्वरूप की जानकारी से दूर है वह सदा आकुलित रहता है । तो प्रभु की परम आज्ञा यही है कि निर्मोह बनो, वीतराग बनो और अपने आपके स्वरूप में बसे हुए परम आनंद का भोग करो, आनंदमय बनो ।
परमेश्वर की परम आज्ञा―भैया ! क्यों व्यर्थ में कष्ट सहा जा रहा है । कुछ मिलता भी नहीं, कुछ साथ भी नहीं, सब न्यारे-न्यारे काम हैं, फिर क्यों परवस्तुवों से अनुराग किया जा रहा है, मोह किया जा रहा है? सबसे विविक्त केवल एक निज चैतन्यस्वरूप की दृष्टि करें और प्रसन्न हों । परमेश्वर की यह परम आज्ञा है । उसकी प्रभावना करने के लिए यह पंचास्तिसंग्रह सूत्र बताया गया है । मार्ग की प्रभावना अर्थात् जिनेंद्रदेव ने ऐसा हुक्म दिया है, उनका शासन घोषित क्या है उसकी प्रभावना करना हो तो उसका यह ही तरीका है कि खुद ज्ञानी बनकर अपनी ही प्रमाणिक विशुद्ध परिणति बनाकर ख्यापन करें कि भगवान की जिन-आज्ञा यह है अथवा यथाशक्ति जिन-आज्ञा का पालन करते हुए वस्तु के स्वरूप को बताते रहना यह भी मार्ग की प्रभावना है । सन्मार्ग की प्रभावना के लिए ही यह पंचास्तिसंग्रह सूत्र बनाया गया है । इस ग्रंथ का नाम तो पंचास्तिकाय संग्रह है, पर विश्लेषण दिया गया प्रवचनसार अर्थात् समस्त वस्तु के तत्त्वों का सूचक होने से प्रवचन तो बहुत विस्तृत होता है, पर समागम द्वादशांगरूप है, किंतु उसका यह सारभूत है ।
प्रवचन के सार की आवश्यकता का कारण―जैसे बहुत-बहुत बातें होने के बाद सुननेवाला कहता है कि अब समय थोड़ा है, इसके निचोड़ की बात बताइए । तत्त्व क्या है, क्या करना है? अब, हमें इस प्रकार परमागम तो बहुत विस्मृत है, पर हे प्रभो! जीवन थोड़ा है हमें तो सार की बात बताओ कि तत्त्व क्या है और हमें करना क्या है? जीवन की बात देखो तो मानो 80 वर्ष की उम्र हो तो बहुतसा हिस्सा. तो बचपन में निकल जाता है और आधा हिस्सा तो वैसे ही सोने में यों निकल जाता है । अंत का बुढ़ापे का हिस्सा व जवानी में बनाये गए संस्कारों के अनुसार चलता है । यदि जवानी में धर्मसाधन न किया, अज्ञानभाव से रहे तो बुढ़ापे में भी वह अज्ञान वासना और बढ़कर चलेगी । जवानी में धन की तृष्णा में समय बिताया तो बुढ़ापे में यह तृष्णा कई गुनी बढ़ जाती है । जिसने अपनी यौवन अवस्था को ज्ञान और धर्म की साधना के लिये, संतोष के लिये महत्त्व दिया उसके बुढ़ापे में ज्ञान और धर्म की साधना भी बढ़ जाती है । तो बुढ़ापे में स्वतंत्रतया कुछ बात नहीं बनती । जो इसने जवानी में भाव बनाया बस उसका फल बुढ़ापे में मिलता है । अब सोच लीजिए हमें धर्म कर्म करने का एक कितना-सा मौका मिलता है?
कर्तव्य के शीघ्र कर्तव्य को प्रेरणा के लिये एक किंबदंती का दृष्टांत―एक किंबदंती है कि ब्रह्मा ने 4 जीव बनाए―मनुष्य, गधा, कुत्ता और उल्लू और सबको जिंदगी मिली 40-40 वर्ष की । सबसे पहिले उल्लू से कहा―जावो तुम्हें पैदा किया ।....महाराज हमारा काम क्या होगा?....अंधे बने बैठे रहना, कुछ मिल जाय तो खा लेना ।....महाराज उम्र कितनी? ....4॰ वर्ष । ....महाराज उम्र कम कर दीजिए । अच्छा बीस वर्ष की उम्र कर दी । सो 20 वर्ष काटकर तिजोरी में रख लिया और 20 वर्ष दें दिया । कुत्ते से कहा―जावो तुम्हें पैदा किया ।....महाराज काम?....जो तुम्हें टुकड़े दे उसकी भक्ति करना, पूंछ हिलाना । ...महाराज उस 40 वर्ष ।....उम्र कम कर दीजिए ।. .अच्छा 20 वर्ष काटकर 20 वर्ष की रक्खी । गधे से कहा―जावो तुम्हें पैदा किया । ....महाराज काम ?....दूसरों का बोझ ढोना और जो सूखा-रूखा भुस मिल जाय उसे खा लेना....महाराज उम्र ? 40 वर्ष । ....उम्र कम कर दीजिए । ....अच्छा 2॰ वर्ष काटकर 2॰ वर्ष रख दिये । मनुष्य से कहा―जावो तुम्हें पैदा किया ।.. .महाराज मेरा काम ?....खूब खेलना, खाना, सब पर हुक्म चलाना और परिवार का सुख लूटना । ....महाराज उम्र ? 40 वर्ष ।....उम्र कम है महाराज, उम्र और दीजिए ।. .बस, 40 वर्ष ही रहने दीजिए ।.. .नहीं महाराज, और बढ़ा दीजिए ।.. .अच्छा देखता हूँ, यदि तिजोरी में बची रखी होगी तो और बढ़ा देंगे । देखा तो वह तीनों की कटी हुई 60 वर्ष की उम्र बनी रखी थी । सो वह 60 वर्ष की उम्र भी मनुष्य को दे दी । अब हो गयी 100 वर्ष की उम्र । सो देखो―जब मनुष्य पैदा होता है तो 40 वर्ष तो उसके ईमानदारी के होते हैं, सो 40 वर्ष तो बड़े अच्छे कटे । चिंता करे तो पिता । नया संबंध हो, नये पुत्र पैदा हो, बहुत मौज माना । इसके बाद लगी फिर वह गधा की 20 वर्ष की उम्र । इसमें केवल एक रहस्य लेना है । वहाँ गधे कुत्ते से और कुछ मतलब नहीं है । जब गृहस्थी का बहुत बोझ हो गया तो लादना पड़ा, कमाना पड़ा, अब चैन नहीं मिलती । जब जहाँ भोजन मिला, खा लिया, भाग-दौड़ मच रही । 60 वर्ष के बाद फिर हुई कुत्ते की कटी हुई 20 वर्ष की बाकी उस । 60 वर्ष के बाद चार-छ: लड़के हो गए । जिस लड़के ने ज्यादा प्रेम से रक्खा उसके गीत गाने लगा, उसकी प्रीति बनने लगी । फिर 80 वर्ष के बाद उल्लू की कटी हुई उम्र मिली । तो आँखों नहीं दिखता, चलते नहीं बनता, जिसने जैसा खिला दिया, खा लिया । यह स्थिति बनती है । इसमें सार की बात कहने की यह है कि जब तक बल है, जब तक बुढ़ापा नहीं आया, जब तक आसक्ति नहीं आयी तब तक ज्ञान और धर्म के लिए जितना भी यत्न बन सके कर लेना चाहिए ।
वर्णनसमाप्ति और विश्रांति―इस ग्रंथ में प्रवचन का सारभूत वर्णन चल रहा है । प्रवचन तो अतिविस्तार में है वह है द्वादशांगमय परमागम । उसके सार में 7 तत्त्व और 9पदार्थों का निश्चय और व्यवहार की पद्धति से यहाँ वर्णन किया, जिससे इस आत्मा को यह प्रेरणा मिली कि समग्र वस्तुएँ अत्यंत भिन्न हैं, मेरा समग्र परवस्तुवों में अत्यंताभाव है ।किसी से मुझ में कोई परिणति नहीं आती । किसी अन्य समागम से कोई हित अथवा सुख नहीं है । मेरा सब कुछ मैं हूँ । मेरा स्वरूप ही स्वयं सहज ज्ञान और आनंदमय है । अपने इस स्वरूप को देखते रहने की दृष्टि मिले, यह प्रकाश इसके इस परमागम से पाया तो परमागम में विशेष भक्ति उत्पन्न हुई । जो हित की बात बनाये, जो हित में लगाये उसमें भक्ति विशेष जगती है तो उस प्रवचन भक्ति से प्रेरित होकर यह पंचास्तिकायसंग्रह ग्रंथ बनाया गया है । लो मेरे द्वारा यह कहा गया । ऐसी समाप्ति की बात यहाँ कही है । जैसे कोई बड़ा काम कर चुकने पर एक विश्रांति मिलती है । शास्त्रकार ने यह भी सूचित कर दिया कि जो इस तरह किया हुआ काम है उसकी जब पूर्ति हो जाती है, अंत हो जाता है तो कृतकृत्य होकर परमनैष्कर्षरूप जो आत्मा का शुद्ध स्वरूप है उसमें विश्रांति होती है, यों ये शास्त्रकार भी विश्रांत हो गए ।
महापुरुषों की निरहंककारता―इस ग्रंथ की आत्मख्याति टीका पूज्य श्री अमृतचंद्रसूरि ने की है । वे टीका की समाप्ति करने पर अपने भाव प्रदर्शित यों कर रहे हैं कि मैंने क्या किया? यह व्याख्या जो की गई है वह मेरे द्वारा नहीं की गई है । जो शब्द अपनी ही शक्ति से वस्तु के तत्त्व की सूचना करते हैं उन शब्दों के द्वारा यह ग्रंथ बना, यह व्याख्या बनी । यह मैं तो स्वयं गुप्त एक परमार्थदृष्टि से देखा गया ज्ञानस्वरूप आत्मा स्वयं गुप्त हूँ । इस स्वरूप गुप्त मुझ आत्मा का क्या कर्तव्य है? बाहर में कुछ भी नही है । इस प्रकार अपने निरहंकारता का प्रदर्शन करते हुए ग्रंथकार ने ग्रंथ की समाप्ति की सूचना दी है ।
ग्रंथ से सारभूत शिक्षण―हम इस ग्रंथ के अध्ययन से यह शिक्षा लें कि हम अंतर्वृत्ति ऐसी बनाये कि हम जिस किसी भी वस्तु को निरखें तो उसका स्वरूप स्वातंत्र्य हमारी निरख में रहे । प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से सत् है । मेरे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में ही मेरा सत्त्व है, अन्यत्र मेरा कहीं कुछ नहीं है । न कोई मित्र, न कोई शत्रु, न कोई वैभव, न यह देह और की बात तो जाने दो, मेरे में जो कल्पनाएँ उठती हैं, रागवृत्तियाँ जगती हैं, विकारभाव बनता हुँ ये भी मेरे नहीं हैं । मैं तो शाश्वत एक चैतन्यस्वरूपमात्र हूँ । उस शाश्वत परमार्थ निज तत्त्व की हमारी दृष्टि अधिकाधिक रहे । बाह्यपदार्थों में दृष्टि न फंसे, इसका महत्व हम समझे, ऐसी श्रद्धा, ऐसी वृत्ति हमारी बने तो हम प्रभु के वास्तव में भक्त हैं । भगवान की पूजा, भक्ति, उनके उपदेश को सुनकर क्या करना है? सही मायने में भक्ति तभी कह सकते हैं जब संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य प्रकट हो और हमें निज शाश्वत स्वरूप की दृष्टि की उमंग जगे ।
मोक्षमार्गी शिष्य का निरूपण―यह पंचास्तिकाय संग्रह नाम का ग्रंथ है । इसकी समाप्ति पर कुछ थोड़ा इस विषय पर ध्यान देना है कि कुंदकुंददेव ने यह ग्रंथ शिष्यों के संबोधन के लिए बनाया है । शिष्य किसे कहते हैं? जो शिक्षा ग्रहण करे उसे शिष्य कहते हैं । शिक्षा योग्य पुरुष कौन होता है? उस शिष्य की कब-कब क्या स्थिति बनती है? उस शिष्य के स्वरूप विवरण के लिए जो परमतत्त्व के आराधक पुरुष हैं उनकी अब परिस्थितियां बतायी जा रही हैं । पुरुष कैसे दीक्षा लेते हैं, कैसे शिक्षा ग्रहण करते हैं और कैसी व्यवस्था से रहते है―ये सब बातें काल भेद कर के समझनी चाहिएँ । शिष्य के 6 काल होते हैं । काल कहो, परिस्थिति कहो, जिस समय में जो परिस्थिति हो उस परिस्थिति को यहाँ काल कहा गया है । एक दीक्षा का काल, दूसरा शिक्षा काल, तीसरा गणपोषणकाल, चौथा―आत्मसंस्कार, 5वां सल्लेखना और छठा उत्तमार्थकाल । एक उन्नति का चाहने वाला पुरुष कैसे-कैसे भावों से बढ़ते हुए उन्नति की चरम सीमा प्राप्त कर लेता है? यह वर्णन इन छहों कालों में है ।
दीक्षाकाल―प्रथम तो कोई आसन्नभव्य जिसका होनहार निकट काल में ही भला होने को है भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय से युक्त किसी आचार्य के समीप जाता है अर्थात् जो यथार्थ तत्त्व का श्रद्धानी है, यथार्थ तत्त्व का ज्ञानी है और यथार्थ आत्मा का जिसके आचरण है, जो संसार, शरीर, भोगों से विरक्त है, जिसे किसी परवस्तु से कुछ प्रयोजन नहीं रहा, ऐसे आचार्य के समीप जाता है । वहां जाकर अपने आत्मतत्त्व की आराधना के लिए समस्त बाह्य आभ्यंतर परिग्रहों को त्याग देता है, जिनदीक्षा ग्रहण करता है वह तो है इसका दीक्षाकाल । जिस समय से मोक्षमार्ग में इसका प्रयत्न विशेष चलने लगे वह प्रारंभिक काल है और वह दीक्षा से पहिले शुरू नहीं होता । आत्मतत्त्व की आराधना करने वाले शिष्य कैसे हुआ करते हैं, इस संबंध में इस काल में वर्णन है ।
शिक्षा काल―इसके पश्चात् आता है शिक्षा काल । बहुत से लोग यों सोच सकते हैं कि ठीक तो यह जंचता है किं पहिले शिक्षा ग्रहण की जाय, फिर दीक्षा ली जाय । यहाँ क्रम में बता रहे हें कि पहिले दीक्षा होती है, फिर दीक्षा चलती है । यह कैसा श्रम है? इसके समाधान में इतना ही समझिये कि किसी भी प्रकार की शिक्षा का आरंभ होने से पहिले दीक्षा नियम से सबकी हो ही जाती है । उस दीक्षा से जो कि इसमें बताया है मुनि दीक्षा ले उससे पहले जिस शिक्षा की जरूरत है उस शिक्षा की बात नहीं कह रहे हैं । उस शिक्षा के लिए उस योग्य दीक्षा ली जाती है । बच्चों को देखा होगा जब उन्हें अ इ उ शुरू करते हैं तो विद्या आरंभ की दीक्षा दिलाई जाती है । दीक्षा का अर्थ इस समय साधुपने से न लें, किंतु जिस विषय का कार्यं कराना है उस विषय का संकल्प कराना, लोगों को हो जाता है―यह दीक्षा है । किसी भी प्रकार की शिक्षा हो वह दीक्षा पूर्वक हुआ करती है । पहिले समय में यह विशेष परिपाटी थी और कुछ-कुछ आज भी होगी, शुरू-शुरू के दिन प्रारंभिक दिनों में जब बच्चों को अ इ उ सिखाने में लिए पाठशाला में भेजते हैं तो साथ ही कुछ मिठाई बताशे आदि चीजें साथ ले जायीं जाती हैं कुछ बच्चों को बाँटने के लिए । वह अ इ उ की शिक्षा की दीक्षा है और उस दिन से यह प्रकट हो गया कि अब यह बालक रोज-रोज पढ़ने लगेगा । इस तरह सभी प्रकार को शिक्षाओं में किसी न किसी रूप में आप दीक्षा पायेंगे।
दीक्षापूर्वक शिक्षा―जिस शिष्य को एक ऐसी शिक्षा दिलाते हैं जो मोक्षमार्ग में ही बढ़ाये और ज्ञान की बात सिखाये ऐसी उत्कृष्ट शिक्षा के लिए क्या तैयारी करनी चाहिए शिष्य को, उस तैयारी का नाम यह मुनिदीक्षा है । दीक्षा के बाद निश्चयरत्नत्रय, व्यवहाररत्नत्रय और परमात्मतत्त्व के परिज्ञान के लिए विशुद्ध तत्त्व का प्रतिपादन करने वाले अध्यात्मशास्त्र में जब यह शिक्षा को ग्रहण करता है तो वह है शिक्षा काल । इस में मोक्षमार्ग की विद्या बताते हैं तो उसके अनुरूप ही ये 6 काल कहे जाते हैं ।
गणपोषणकाल―शिक्षा के बाद गणपोषणकाल होता है, केवल दीक्षा और शिक्षा से काम नहीं चला । अपने साथ में रहने वाले मित्रजन, इस ही मोक्षमार्ग की शिक्षा दीक्षा में लगे हुए सधर्मीजन, उनमें चर्चा करना, परमात्मतत्त्व के बताने की बात करना यही हुआ गणपोषणकाल । जैसे थोड़ी देर को इस ओर ध्यान दें जब यहाँ लोगों ने जीवस्थान चर्चा पढ़ी थी, कोई दिन मुकर्रर किया था ना कि इस दिन से यह प्रारंभ होगा और उस दिन लोग संकल्प लेकर के आये अब से यह कक्षा चलेगी लघुजीवस्थानचर्चा की और उस तैयारी के साथ बैठे हुए थे कि नाम लिखाये, संकल्प हुआ, अध्ययन करेंगे, यह अध्ययन करेंगे, यह हुई उस कक्षा की दीक्षा और उसके बाद फिर शिक्षा चली, लोगों ने पढ़ा, पर केवल इतना पढ़ने मात्र से काम नहीं निकला तो किसी समय या अन्य समय या रात्रि के समय थोड़ा उसे दुहराने लगे, बताने लगे, वह हुआ गणपोषणकाल । दृष्टांत में जिन्हें शिक्षा द्वारा मोक्षमार्ग में स्थित कराया अथवा उसकी चाह करने वाले भव्य पुरुषों को उस परमतत्त्व के बताने से उनके आत्मा का पोषण करना है वह है यही गणपोषणकाल । लौकिक विद्या में और मोक्षमार्ग की विद्या में कुछ अंतर है लौकिक विद्या पढ़ने के बाद दृष्टि बाहर रहने का ही काम है करीब-करीब । पर मोक्षमार्ग की विद्या को पढ़ें और उसे अपने ऊपर घटायें तो उसका विशद ज्ञान होता है ।
आत्मसंस्कारकाल―गणपोषण तो हुआ अर्थात् ज्ञानवृद्धि का आदान-प्रदान, पर इतने से काम नहीं निकला मोक्षमार्ग में, तो उसके बाद जो निज परमात्मतत्त्व है उसमें शुद्ध संस्कार बनाने का यत्न होता है । गण को छोड़कर अर्थात् फिर अपने सधर्मीजनों पर भी दृष्टि न रखकर केवल निज शुद्ध आत्मस्वरूप में संस्कार बनाना वह है आत्मसंस्कारकाल । अब यहाँ कुछ ऐसी दृष्टि से सुनते जाइये कि दीक्षा बिना काम नहीं चला, शिक्षा बिना भी नहीं चला, गणपोषण भी आवश्यक हुआ और अब गण को त्यागकर, अपने उन सहयोगी संतजनों के ख्याल को छोड़कर एक निज परमात्मतत्त्व में, निजस्वरूप में मग्न होने का यत्न करना, उसकी द्दष्टि का अभ्यास बनाना यह हुआ आत्मसंस्कारकाल । यहाँ तक बात बनी ।
सल्लेखनाकाल―आत्मसंस्कार काल के बाद उस आत्मसंस्कार को स्थिर बनाने के लिए जो क्षण-क्षण में उठ रहे रागादिक विकल्प हैं उनका सल्लेखन करना होगा । एक बार ज्ञान प्राप्त होने पर भी और आत्मसंस्कार में लग जाने पर भी काम अभी राग के खतम करने का पड़ा हुआ ही है । तो रागादिक भावों से रहित अनंत ज्ञानादिक गुणसंपन्न परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादिक विकल्पों का सल्लेखन करना इसका नाम है सल्लेखना काल । कषायों की सल्लेखना की, इस तरह शिष्य की ये 5 परिस्थिति बताई ।
उत्तमार्थ काल―सल्लेखनाकाल के बाद शुद्ध ज्ञान चारित्र और तप की प्रयोगात्मक उत्कृष्ट आराधना होनी चाहिए, क्योंकि सब कुछ करने का प्रयोजन यही था । दीक्षा लेने का क्या प्रयोजन था? यह कोई सिद्धि का रूप है? शिक्षा लेना, अभ्यास लेना, प्रयत्न करना यह कोई सिद्धि का रूप है? सिद्धि का रूप तो आराधना है और ऐसी आराधना, जिस आराधना के फल में मुक्ति अवश्यंभावी है ऐसी विशुद्ध पद्धति से दर्शन, ज्ञान और चारित्र की उपासना करना यही है उत्तमार्थकाल । जो उत्तम अर्थ है, आत्मा का जो उत्कृष्ट प्रयोजन है उस प्रयोजन की सिद्धि करना । यह आत्मा शुद्ध ज्ञान दर्शनस्वभावी है । जैसे किसी चीज की परीक्षा करना है तो उसमें यह निर्णय करना कि यह बना कैसे? इसका स्वरूप क्या है? इसमें चीज क्या-क्या है? ऐसा आत्मा में सोचिये―प्रत्येक प्राणी मैं-मैं का प्रत्यय कर रहा है । मैं हूँ, मैं हूँ जिसमें अहं भावना उठ रही है वह मैं किमात्मक हूं? अपने-अपने अंतरंग में उसकी खोज कीजियेगा । मैं आत्मा क्या हूँ, कैसा हूं? अत: झुकाव करने से ही इसका समाधान मिलता है । बाहरी समस्त वस्तुवों को भूल जाने पर जो एक सहज विश्राम मिलता है, उसमें इसका समाधान मिलेगा । वह समाधान मिलेगा मैं एक ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव वाला हूँ । इस मुझ आत्मा का काम है और क्या? मात्र जानन देखन । तो विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभाव वाले अपने आत्मद्रव्य का सही श्रद्धान होना, ज्ञान होना और इस ही स्वरूप में रम जाना, समस्त बाह्यद्रव्यों की इच्छा का विघात कर जाना, यही है दर्शन आराधन, ज्ञान आराधन, चारित्र आराधन और तप आराधन । ऐसी उत्कृष्ट आराधना होना याने अपने स्वरूप के कुछ सन्निकट होना जिस परिस्थिति के बाद में भव से मोक्ष हो जाय वह है उत्तमार्थ काल ।
षट्कालों का योग्यतानुसार नियमन―जो परम शिष्य है, निकटभव्य है, तद्भव मोक्षगामी है, उसके जीवन में ये 6 परिस्थितियाँ आती हैं, किंतु केवल यह पूर्ण नियम नहीं बनाना कि क्रम से ये 6 काल सबके आते ही हैं तब मोक्ष होता है यह भी प्राय: नियम है । जैसे प्राय, यह नियम है कि कोई मुनि बने और फिर इस तरह आहार को निकले, इस तरह चले उठे, आदान निक्षेपण समिति, प्रतिष्ठापनासमिति, इस प्रकार बोलें, इस प्रकार आहार ग्रहण करें, 5 समितियों का यों पालन करें, तपश्चरण करें, ध्यान करें, उसके कर्मों की निर्जरा होती है और उसका मोक्ष होगा । कोई यों पूछे―क्योंजी बाहुबलि स्वामी का फिर क्यों मोक्ष हो गया? उन्होंने न एषणासमिति पाली, न आदाननिक्षेपणसमिति पाली । उन्होंने दीक्षा ली वहीं खड़े रहे एक वर्ष तक । पश्चात् उन्हें मोक्ष हो गया । तो ये सब क्रियायें एक मार्ग की हैं । कितनी अनेक बातों से धर्म का प्रयोग करें और मोक्ष हो जाय, पर यह न होगा कि बहुत काल रहें और बिना व्यवहार प्रयोग के वह अपनी साधना बना सके । ये 6 प्रकार के काल कहे गये हैं । इनमें कोई दीक्षा लेने के बाद ही उत्तमार्थकाल प्राप्त कर ले, न शिक्षा ले, न गणपोषण करे, जैसे भरत चक्रवर्ती दीक्षा लेने के बाद ही उन्हें केवलज्ञान हो गया, पर यह एक प्राय: करके जैसा नियम न होना चाहिए वह बताया गया है । किसी का भाग्य प्रबल हो, आंखों से न दिखता हो और उसे ठोकर लग आय और ठोकर लगने से, पत्थर निकालने से धन मिल जाय तो ऐसा सब व्यापारी तो न करने लगेंगे कि अंधे बन जायें, आंखों में पट्टी बाँध ले और लाठी लेकर अंधे की तरह चले, कोई पत्थर पहिले से देख ले, इसमें हम अपने पैर की ठोकर मारेंगे और फिर खोदेंगे और धन निकलेगा, तो यों तो धन नहीं निकलता । ऐसा हो गया किसी को । तो ऐसे ही जिसकी योग्यता विशेष है वह दीक्षाकाल के बाद ही उत्तमार्थकाल प्राप्त कर सकेगा । कोई शिक्षा गणपोषण के बाद कर ले पर नियम ऐसा ही है, किंतु जो अपनी साधना लंबी बनाये तो उसके जीवन में ये 6 प्रकार की परिस्थितियां आती हैं ।
प्रारब्धयोगी और निष्पन्नयोगी की योग्यता―इससे तात्पर्य यह समझना कि ध्याता 2 प्रकार के होते हैं―एक प्रारब्धयोगी, एक निष्पन्नयोगी । जो शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना प्रारंभ करते हैं उनके सूक्ष्म विकल्प चलते रहते हैं और वे अपनी ध्यानसाधना से उन विकल्पों से निवृत्त होने का यत्न कर रहें हैं वे सब प्रारब्धयोगी हैं । और जब ही वे निर्विकल्प शुद्धआत्मतत्त्व की अवस्था में पहुंचते हैं, निर्विकल्प समाधिभाव में आते हैं तो वे निष्पन्नयोगी कहलाते हैं । तो जो आरब्ध योगी हैं उनकी इस प्रकार 6 परिस्थितियां होती हैं और फिर वे निष्पन्न योगी बनकर उत्कृष्ट सम्वर और निर्जरा करते हैं । जब आत्महित में लगने से आत्महित में ये शिष्यजन जुटते हैं तो पहिली स्थिति उत्कृष्ट स्वाधीन आत्मीय आनंद के अनुभव की स्थिति बनती है । मोक्षमार्ग आनंद से तो प्रारंभ होता है और आनंद में ही समाप्त होता है । मोक्षमार्ग न कष्ट से प्रारंभ होता है और न कष्ट से समाप्त होता है । जिसे मोक्षमार्ग मोक्ष की योग्यता, मोक्ष का पात्र यह सब कुछ यथार्थ ध्यान में जंचा है वही पुरुष अपने उपयोग का प्रयोग अपने शुद्ध स्वरूप पर करता है और आनंद का अनुभव किया करता है । उस आनंद में जैसे-जैसे वृद्धि होती है वैसे ही वैसे ध्यान की साधना बढ़ती है । फिर निर्विकल्प स्वसम्वेदन ज्ञान की प्राप्ति होती है और उसकी वृद्धि होती है । फिर उसके जीवन में ऋद्धियाँ उत्पन्न होती हैं, ऋद्धियों की वृद्धि होती है । उन्हें स्वयं यह विदित नहीं रहता कि मुझे अमुक सिद्धि हुई है, पर आत्मविकास की पद्धति ही ऐसी है कि वे सब समृद्धियाँ होती रहती हैं।
आनंद में धर्म का प्रारंभ व धर्म की परिपूर्णता―यह शिवार्थी अंत में इस विशुद्ध ध्यान के फल में शाश्वत असीम आनंद की प्राप्ति कर लेता है । यह मोक्षमार्ग का कदम आनंद से ही तो शुरू होता और आनंद में ही समास होता है । जो मनुष्य ऐसा सोचते हैं कि मुझे धर्म करते हुए बहुत दिन हो गए, कोई आनंद नहीं मिला, दरिद्रता ज्यों की त्यों रही और विपदायें भी आती रहीं, यह क्या मामला है? मामला क्या है? मामला यही है कि उसने धर्म किया नहीं । धर्म आनंद से शुरू होता है और धर्म की परिपूर्णता आनंद में हुआ करती है । अपने निर्विकल्प ज्ञान दर्शनस्वभावी आत्मा का स्पर्श करना, यही है धर्म । यह धर्म आनंदभाव को लिए हुए ही रहता है ।
षट्कालों का व्यावहारिक निरूपण―ये 6 काल आते हैं, उनसे यह हमें ज्ञान होता हे कि जो मोक्षमार्ग में उत्कृष्ट शिष्य है उसको किस-किस प्रकार से चलना चाहिए? मोटे रूप में व्यवहार चरण के रूप में, आगम की भाषा में उन्हें यों समझ लीजिये कि कोई भी पुरुष निर्दोष पंचाचार का आचरण करने वाले आचार्य के पास पहुंचकर परिग्रहरहित होता है वह तो दीक्षा हे । दीक्षा के बाद में जो प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग―चार प्रकार के ग्रंथों का अध्ययन करता है वह है शिक्षा काल और शिक्षा काल के बाद इन अनुयोगों के व्याख्यान से जो शिष्य समूह का पोषण करते हैं उनके आत्मा में उत्साह और मोक्षमार्ग की दिशा दिखती है । इस स्थिति का नाम है गणपोषणकाल । गणपोषण होता है भावना से । तपश्चरण की भावना होना, विषयकषायों के विजय की भावना होना, आगम के अभ्यास की भावना होना, इन सब भावनाओं से आत्मा का संस्कार बनाया जाता है । उस आत्मसंस्कार के पश्चात् अर्थात् ऐसी जिंदगी भर साधना की, उसके बाद अंत में जब मरण निकट होता है, शरीर शिथिल हो जाता है तो वे शरीर को बलिष्ट बनाने का यत्न नहीं रखते, किंतु आहार आदिक का त्याग रखते हैं । वह सल्लेखना है और पश्चात् समाधिभाव से देह का विसर्जन करना सो उत्तमार्थकाल है । इस तरह अपने को यों ज्ञान के पोषण में लगाने वाले शिष्य निर्वाण के निकट पहुंचते हैं ।
आत्मकर्तव्य―इस समग्र परिभाषण में हम आपको यह ध्यान में लाना है कि ये समागम ही सब कुछ नहीं हैं, ये तो भिन्न ही हैं । हमें अपने आत्मा में ज्ञानसंस्कार बनाना है कि अधिक समय दृष्टि हमारी ज्ञानस्वभाव पर रहे और उस द्दष्टि के प्रसाद से हम आकुलतावों से दूर रहें और अपने आनंदस्वरूप का अनुभवन करते रहें । भैया! यह अतीव दुर्लभ धर्मसमागम पाया है, ज्ञानावरण का भी विशेष क्षयोपशम पाया है । इस समस्त धर्म सामग्री का सदुपयोग कीजिये । श्रद्धावान होकर ज्ञान का अर्जन करके निज ज्ञानस्वरूप में मग्न होने का यत्न कीजिये । इस ही पुरुषार्थ से अपना यह समय सफल होगा ।
।। इति पंचास्तिकाय प्रवचन षष्ठ भाग समाप्त ।।
पूज्य श्री गुरुवर्य्य मनोहर जी वर्णी '‘सहजानंद महाराज द्वारा रचित पंचास्तिकाय प्रवचन का यह षष्ठ भाग संपन्न हुआ ।