वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 40
From जैनकोष
उवओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो ।
जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ।।40।।
उपयोग का वर्णन―आत्मा के चैतन्यस्वभाव का अनुविधान करने वाले अर्थात् अन्वयरूप से परिणमने वाले जो व्यक्तरूप हैं उनका नाम उपयोग है । ज्ञान और दर्शनशक्ति का उपयोग क्या है? जैसे लोकव्यवहार में भी कहते हैं―अमुक बात का उपयोग क्या है, अमुक चीज का उपयोग क्या है? चैतन्यशक्ति का उपयोग है जानन और देखन । हम कानों से जानते हैं और आंखों से जानते हैं । सभी इंद्रियों से हम जानते हैं । ये निमित्त हैं, जाननहार आत्मा इनसे जुदा है, पर ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है ।
हम आँखों से देखा नहीं करते, लेकिन ऐसा बोलने लगे हैं, क्योंकि जरा स्पष्ट जानन हो रहा है ना, इसलिए आंखों से देखना कह देते हैं, और यह शब्द भी प्रचलित हो गया है । यदि यह बताया जाय कि भाई आंखों से हम जाना करते हैं, देखा नहीं करते । आंखों से कभी देख ही नहीं सकते तो गलत-सा लगता है कि क्या कहा जा रहा है? हम आँखों से ही तो सब कुछ देख रहे हैं । जानना होता है सविकल्प और देखना होता है निर्विकल्प । आँखों से आपने क्या देखा? उसका आप आकार बता दें, रंग बता दें, तो इतने विकल्पों का जहाँ प्रतिभास होता है वह तो जानना है । देखने में यह नहीं कह सकते कि मैंने किसको देखा? देखना होता है निर्विकल्प, जानना होता है सविकल्प ।
इंद्रियज ज्ञानों से पहले दर्शन की उद्भूति―भैया ! आँखों से जानने से पहिले देखना होता है, और ऐसा देखना सभी इंद्रियों के जानन से पहिले होता है । कानों से कुछ जाना, उससे पहिले देखना होता है । आँखों से देखने की बात नहीं कह रहे हैं, कानों के जानने से भी पहिले दर्शन हुआ, सभी इंद्रियों से जानने से पहिले दर्शन हुआ । हमारा ज्ञान कमजोर है और उस ज्ञान का काम करने के लिए दर्शन से बल लेते हैं । ज्ञान बाह्य पदार्थों को जान रहा है । तो एक पदार्थ को जानने के बाद उसका जानना छोड़कर जब हम किसी दूसरे पदार्थ को जानने के लिए उद्यम करते हैं तो इस बीच में हमें अपने अंतरंग में दर्शन होते हैं । और उस दर्शन से बल ग्रहण करके हम फिर दूसरी चीज को जानने में सफल हो जाते हैं । तब ज्ञान हुआ सब जगह यों बाहर, और दर्शन हुआ अपने आपके अंतरंग में । अपने भीतर झुककर प्रतिभास का बल लेकर फिर बाहर में हम जाना करते हैं।
दृष्टांतपूर्वक मतिज्ञान दर्शनपूर्वत्व का समर्थन―जैसे कोई कूदने वाला लड़का, जंप का जैसे खेल होता है―एक रस्सी तीन चार फिट ऊँची दो बांसों में बाँध दी जाती है, अब जब वह लड़का उस रस्सी को लांघने के लिए तैयार होता है तो वह जितना जमीन की ओर झुकेगा उतनी ही वह ऊँची कूद कर सकता हैं । और इसी काम में देख लेना कि जिस जगह से उचककर उसने रस्सी कूदी है उस जगह गड्ढा सा बन जाता है । तो उसमें ऊँची कूद करने की शक्ति तब बढ़ी जब कि वह नीचे को झुका । ऐसे ही जब हम अपनी ओर झुक लेते हैं तब हम बाहर की चीजों को जानने में सफल होते हैं । ऐसा काम हम रात-दिन कर रहे हैं । और घंटे भर में हजारों बार काम कर डालते हैं । क्या? कि अपनी ओर झुकना, फिर बाहरी चीजों को जानना । लेकिन इसका भान नहीं कर पाते कि लो हम झुक गए अपनी ओर । इतना भान कर ले तो उसे सम्यक्त्व हो जाय । काम बराबर कर रहे हैं, पर भान नहीं कर पाते । हम जो हैं सो ही तो हैं । हम भूल भटक गए, पर हम तो वही हैं । इस जीव ने अपनी भूल से उपयोग में रमकर उपयोग में ही हित मानकर अपनी बरबादी कर डाली है, निर्विकार हुए हैं तो निर्विकार स्वरूप का आदर भी तो करें । आदर तो किया जा रहा है विकारों का । वहाँ निर्विकारता अर्थात् आत्मविकास कैसे प्रकट हो?
हमारा शरण―हमारा सहाय हम ही में बसा हुआ सहज ज्ञानस्वभाव का आलंबन है । बाहर में सब जगह धोखा है । पराधीनता, दु:खरूपता, भटकन सभी विपत्तियाँ बाहरी हैं । जो हम चाहते हैं, जो हमें अत्यंत अभीष्ट हैं, जिनमें हमारा पूर्णतया कल्याण है, पूर्ण निराकुलता है वे सब बातें मेरे में बसी हुई हैं । किसी की पगड़ी में लाल बंधा और उसे भूल गया तो वह घास बेचकर लकड़ी बेचकर अपना जीवन गुजारता है । जिसे अपने घर में गड़ी हुई निधि का पता नहीं है वह गरीबी के दिन गुजारता है, ऐसे ही अपने आप में जो परमस्वभाव है, चित्स्वभाव ज्ञानमात्र सर्वोत्कृष्ट वैभव है उसका पता नहीं है तो बाहर में यत्र तत्र भटक-भटककर अपने आपको बरबाद किए जा रहे हैं । अपनी सुध लेना, अपना उपयोग करनी यह ही मात्र एक अपना कर्तव्य है ।
सविकल्प निर्विकल्प उपयोग का उपसंहार―उपयोग दो प्रकार के होते है―ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ये ज्ञान और दर्शन सदाकाल जीव से अभिन्न हैं । जो विशेष को ग्रहण करे वह ज्ञान है और जो सामान्य को ग्रहण करे वह दर्शन है । ये जुदी चीज नहीं हैं । जीव और उपयोग ये एक ही अस्तित्त्व में हैं, भिन्न-भिन्न द्रव्य नहीं हैं । अब इन ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में से ज्ञानोपयोग के विशेष को बतला रहे हैं ।