वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 41
From जैनकोष
आभिणसुदोधिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि।
कुमदि सुदविभंगाणि य तिण्णिवि णाणेहिं संजुत्तो ।।41।।
ज्ञानोपयोग के भेद―ज्ञान 5 प्रकार के होते हैं―आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इन 5 प्रकार के ज्ञानों में से आदि के तीन ज्ञान मिथ्यात्व के संपर्क से विपरीत भी होते हैं―अर्थात् कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और कुअवधिज्ञान । यों ज्ञानमार्गणा के भेद 8 होते हैं । जैसे अन्य मार्गणावों में एक भेद रहित का रहता है ऐसा ज्ञान में नहीं है । जैसे अन्य मार्गणावों में गतिरहित है ऐसे ही ज्ञानमार्गणा में ज्ञानरहित है क्या? नहीं है । ज्ञानरहित कोई जीव ही नहीं होता है । यों 8 प्रकार के ज्ञानोपयोग कहे हैं ।
आभिनिबोधिक ज्ञान―ज्ञान के इन भेदों में प्रथम नाम है आभिनिबोधिक ज्ञान । जिसे लोग मतिज्ञान कह देते हैं । इसका बहुत स्पष्ट और सही नाम है आभिनिबोधिक ज्ञान । इस आभिनिबोधिक ज्ञान के अनेक भेद हैं । मतिज्ञान, स्मृतिज्ञान, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान । यदि इस प्रथम ज्ञान का नाम मतिज्ञान रखते हैं तो यों कहना पड़ेगा कि इस मतिज्ञान के मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान ये उसके प्रभेद हैं, अनर्थांतर हैं । आभिनिबोधिक का अर्थ है अभिमुख और नियत पदार्थ को जाने सो आभिनिबोधिक है । शुरू में जो दो उपसर्ग लगे हैं अभि और नि, उसका अर्थ है अभिमुख और नियत अर्थ को जाने सो आभिनिबोधिक है । यह लक्षण मति, स्मृति, तर्क, अनुमान, चिंता इन सबमें घटित हो जाता है । मतिज्ञान तो नाम है सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष का । ऐसे स्पष्ट वर्तमान के बोध को मतिज्ञान कहते हैं जो प्रत्यक्ष के रूप में प्रसिद्ध है । वाह हमने प्रत्यक्ष सुना, हमने प्रत्यक्ष देखा, हमने खाकर प्रत्यक्ष जान लिया, पर इंद्रियों से जानने को कहीं प्रत्यक्ष भी कहा करते हैं । प्रत्यक्ष नाम तो है इंद्रियों की सहायता के बिना, केवल आत्मा के ही सहारे ज्ञान करने का ।
श्रुतज्ञान―श्रुतज्ञान का सीधा अर्थ तो सुना हुआ है, पर सुना हुआ तो आभिनिबोधक ज्ञान है । आभिनिबोधक ज्ञान से जानते हुए पदार्थ में कुछ और विशेष जानना सो श्रुतज्ञान है । यहाँ श्रुत उपलक्षण है, दृष्ट स्पृष्ट आदि सब मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है । यह अपने ही ज्ञान करने की प्रणाली की बातचीत चल रही है । हमने आँखों से जाना, और जिस समय हमने यह सोचा कि यह नीला है, बस यह श्रुतज्ञान हो गया । तो मतिज्ञान कहां, तक रहा? इसे हम नहीं बता सकते, क्योंकि मतिज्ञान निर्विकल्प ज्ञान है । इन 5 ज्ञानों में से मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान ये चार ज्ञान निर्विकल्प हैं और श्रुतज्ञान सविकल्प है । ग्रंथ में आता है कि साधु महाराज ने अवधिज्ञान से जानकर बताया, पर अवधिज्ञान से जानना तो होता है, बताने का काम नहीं हो सकता । जैसे मतिज्ञान से जानकर फिर श्रुतज्ञान से व्यवस्थायें बताते हैं यह नीला है, यह खट्टा है, ऐसे ही अवधिज्ञान से जानकर फिर श्रुतज्ञान से व्यवस्था बनायी जाती है ।
ज्ञानस्वरूप की भावना―हम यों इंद्रिय के सहारे वर्तमान में ज्ञान किया करते हैं, किंतु स्वभाव ऐसा नहीं है । मैं केवलज्ञान पिंड हूँ । जैसे मिश्री का डला सर्वत्र मीठे रस से भरा हुआ है आगे, पीछे, भीतर, ऐसे ही मेरा आत्मा सर्वत्र ज्ञानरस से ही भरा हुआ है । इसमें अंतर किसी प्रदेश में भी नहीं है। अपने आपको मैं केवल ज्ञानमात्र हूं, ज्ञानस्वरूप हूं, ज्ञानस्वरूप की ही बारंबार भावना करें, इसमें ही कल्याण है । जहाँ यह प्रतीति लिए बैठे हैं कि मैं अमुक प्रसाद, अमुक चंद, अमुक लाल हूँ, इतने बच्चों का पिता हूँ, मैं अमुक व्यापारी हूँ, अमुक काम करने वाला हूँ, ऐसी प्रतीतियां तो केवल क्लेश ही पैदा करने वाली हैं । ये जब होती हैं, इन्हें जानो, पर प्रतीति मूल में यह रखिये कि मैं तो सबसे न्यारा केवल ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ । ऐसी ही प्रतीति हमारी शांति के मोक्ष के मार्ग में प्रधान शरण है, अन्य कुछ हमारे लिए शरण नहीं है । यों यथार्थ जानकर अपने को अपने ज्ञानस्वरूप की ओर ही उन्मुख कीजिए ।
अखंड ज्ञानात्मकता―यह आत्मा अनंत सर्व आत्मप्रदेशों में व्यापक विशुद्ध ज्ञान सामान्यात्मक है, अर्थात् अपने प्रदेशों में सर्व में व्यापने वाला विशुद्ध ज्ञानस्वभावरूप है । यद्यपि जीव का विस्तार प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात प्रदेशों में है । जैसे मनुष्य शरीर पाया तो जितना मनुष्य शरीर का विस्तार है उतने में इस जीव का विस्तार है । किंतु इतने बड़े विस्तार में ज्ञान सर्वत्र वही का वही एक है । जिस एक प्रदेश में जो ज्ञानस्वभाव और ज्ञानपरिणति है वही स्वभाव वही परिणति अन्य सब प्रदेशों में है । यहाँ सदृशता की भी बात नहीं है कि जैसा ज्ञान पहिले प्रदेश में है वैसा ही ज्ञान अन्य प्रदेश में है, किंतु वही ज्ञान अन्य प्रदेश में है । यह आत्मा ज्ञानपुंज है। वह ज्ञान अखंड है, तदात्मक यह आत्मा उतने विस्तार को लिए हुए है जितने विस्तार से आधार रूप से ज्ञानपुंज को लिए रहा है।
ज्ञान का आवरण―वह आत्मा अनादिकाल से ज्ञानावरण कर्मों से ढका हुआ है और इस आवरण के कारण आत्मा की महती ज्ञानशक्ति अवकुन्ठित है । कहीं जैसे मेघ से सूर्य ढक गया है इस तरह केवलज्ञानावरण से केवलज्ञान ढक गया है, ऐसा नहीं है । वहाँ तो सूर्य पूरा का पूरा व्यक्त मौजूद है । और उस व्यक्त सूर्य पर यह मेघपटल पड़ा हुआ है । ऐसा यहाँ नहीं है कि केवलज्ञान व्यक्त पूर्ण प्रकट बना हुआ है और उसको केवलज्ञानावरण कर्म ने ढक दिया है । यदि केवलज्ञान व्यक्त प्रकट पड़ा है तो उसको ढकने की सामर्थ्य किसी भी द्रव्य में नहीं है । किंतु होता क्या है? ऐसा निमित्तनैमित्तिक योग है कि केवलज्ञानावरण के उदय का निमित्त पाकर यह आत्मशक्ति व्यक्त प्रकट नहीं हो पाती है । प्रकाश की अवरुद्धता के लिये सूर्य मेघ का दृष्टांत है । जिसके उदय से केवलज्ञान प्रकट न हो सके उसका ही नाम केवलज्ञानावरण हैं ।
आभिनिबोधिक ज्ञान की उद्भूति―केवल ज्ञानावरण के उदय होते हुए भी उस-उस ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और इंद्रिय मन के आलंबन से यह जीव मूर्तिक द्रव्य को और अमूर्तिक द्रव्य को एकदेश विशेष रूप से जानता है, यही आभिनिबोधिक ज्ञान है । इंद्रिय का विषय मूर्त पदार्थ ही है और मन का विषय मूर्त पदार्थ भी है और अमूर्त पदार्थ भी है, किंतु ये सब एकदेश जान पाते हैं, सर्वदेश नहीं जान पाते हैं । जो अभिमुख पड़ा हो उसे ही जान पाते हैं और उसे भी नियत । स्पर्शन इंद्रिय से स्पर्श ही जान पायगा, रसना इंद्रिय से रस जानेगा । इंद्रिय का जो-जो विषय है उन इंद्रियों से वह-वह जाना जाता है । इस प्रकार का एक संकुचित आभिनिबोधिक ज्ञान हम आप सभी जीवों के है । मिथ्यादृष्टि जीवों के यह कुमतिज्ञान कहलाता है और सम्यग्दृष्टि जीवों के यह सुमतिज्ञान कहलाता है ।
श्रुतज्ञान की परिस्थिति―अब श्रुतज्ञान को सुनिये―श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । मतिज्ञान से जो जाना मूर्त अथवा अमूर्त पदार्थ को उसको एकदेश विशेषरूप से जाना जाय तो उसका नाम श्रुतज्ञान है । हमने जो शब्द बोले वे शब्द आपके कर्णइंद्रिय से ज्ञात हुए । वह तो मतिज्ञान है, पर जहाँ आपने यह समझा कि यह कहा है वह श्रुतज्ञान हो गया । शब्द का वाच्य आपकी दृष्टि में आ जाय तो वह श्रुतज्ञान हो गया । मतिज्ञान तब तक रहता है, कब तक? जब तक कि निर्विकल्पता रहती है । आपने कुछ विकल्प न किया, क्या कहा और सुनने में आ गया, मतिज्ञान से विकल्प कोई रहता नहीं है वह कर्णेंद्रियज मतिज्ञान है । यदि मतिज्ञान का ही अनुभव रह जाय तो वह भी बड़े भले की चीज रहे । उसका अनुभव न करके झट यह जीव श्रुतज्ञान पर पहुंच जाता है । आत्मानुभव की स्थिति में ज्ञान का भी प्रसार समझिये । श्रुतज्ञान तो विकल्पात्मक है और ज्ञानानुभूति एक निर्विकल्प स्थिति है । हाँ यह बात अवश्य है कि उपकार श्रुतज्ञान का है । ज्ञानानुभूति पाने के लिए श्रुतज्ञान का पहिले बड़ा भारी सहारा उसे मिला था, और अब यह निर्विकल्प स्थिति में है ।
आत्मानुभूति की आत्माश्रयता―भैया ! वास्तविकता तो यह है कि अनुभूति की दशा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदिक किसी रूप में नहीं है । लेकिन इन 5 ज्ञानों को छोड़कर छठी स्थिति और क्या होती है? अत: इस ज्ञानानुभूति से पहिले जैसा ज्ञान का दौड़ दौड़ा था, पुरुषार्थ था, वही ज्ञान ज्ञानानुभूति में कहा जाता है । मतिज्ञान तो वह है जो इंद्रिय और मन से उत्पन्न हो, पर ज्ञानानुभूति, आत्मानुभव क्या इंद्रिय से उत्पन्न होता है ? नहीं । क्या मन से उत्पन्न होता है? नहीं । वहीं अनुभव का और मानसिक ज्ञान का कितना विलक्षण मिलाप हो रहा है, संधि हो रही है, जुहार भेंट हो रही है कि यह मन उस आत्मानुभव वाले ज्ञान के निकट पहुंचकर, उस ज्ञान में लीन होकर अपने आपके महत्त्व को खो देता है, वह भी उसमें विलीन हो जाता है । श्रुतज्ञान तो सविकल्प है और जिस जिसकी आपको खबर है, कल्पना है, विचार है वह सब श्रुतज्ञान है । भोजन किया, जीभ पर भोजन रखा, इसका ज्ञान हुआ, पर जैसे ही आपने यह मन में बात बनायी कि यह खट्टा है, वह श्रुतज्ञान हो गया, मतिज्ञान नहीं रहा । जितने
विकल्प हैं, विचार हैं वे सब श्रुतज्ञानरूप हैं ।
अवधिज्ञान व अवधिज्ञान नाम होने का कारण―अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से विकल रूप से थोड़ा-थोड़ा मूर्त द्रव्य को विशेषरूप से जो जाना उसे अवधिज्ञान कहते हैं । इसका नाम अवधिज्ञान क्यों रक्खा, इसके कई कारण हैं । अवधिज्ञान ने तो स्वरूप जाना ना? इंद्रिय और मन की सत्ता के बिना रूपी पदार्थ एकदेश स्पष्ट जाना जाय आत्मशक्ति से उसे अवधिज्ञान कहते हैं । अवधिज्ञान नाम रखने का एक कारण तो यह है कि इस ज्ञान का प्रसार नीची दिशा में अधिक होता है और ऊर्ध्वदशा में कम होता है अर्थात् अवधिज्ञानी जीव जानते हैं ना सब जगह की बात, पर नीचे की बात अधिक दूर तक की जानते हैं । उतनी दूर तक ऊपर की बात नहीं जानते । देवतावों को अवधिज्ञान होता है तो वे नीचे की बात तो नरकों तक की जानेंगे और ऊपर की बात अपनी-अपनी सीमावों तक जानेंगे । उसका नाम अवधिज्ञान है ।
अवधिज्ञान नाम होने का द्वितीय कारण―अवधिज्ञान नाम पड़ने का दूसरा कारण यह है कि अवधिज्ञानी जीव अवधि सहित जानते हैं, इसमें मर्यादा लगी हुई है, और यह अवधिज्ञान पाँच ज्ञानों के क्रम में जहाँ रखा हुआ है यह सूचित करता है कि इसमें पहिले के ज्ञान और यह ज्ञान सब मर्यादा सहित हैं और इसके बाद का जो ज्ञान है वह असीम है । एक शंका यहाँ यह की जा सकती है कि अवधिज्ञान के बाद तो मन:पर्ययज्ञान लिखा है, और मन:पर्ययज्ञान की सीमा है, वह असीम नहीं जानता । तो इसके समाधान से यह जानो कि इस पद्धति से तो ज्ञानों का क्रम यही है―मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, अवधिज्ञान और केवलज्ञान । यदि इस नंबर से आप बोले, सोचें और न्याय प्राप्त नंबर यही ठीक है भी और सिद्धांत में इस प्रकार की शंका करके यह दृष्टि भी बतायी गयी है । अब तो ठीक बैठा ना कि अवधिज्ञान और इससे पहिले के ज्ञान सब मर्यादा सहित हैं, लेकिन इसके बाद का ज्ञान मर्यादारहित है । ठीक है ना? सुधार लिया, समझ लिया? लेकिन चूंकि मनःपर्ययज्ञान संयमी जीवों के ही होता है, असंयमियों के नहीं, साधु पुरुषों के ही होता है, इस कारण मन:पर्ययज्ञान की पूज्यता के कारण इसे केवलज्ञान के निकट अब रख दीजिए । तब यह नंबर बन गया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ।
अवधिज्ञान से ज्ञात पदार्थ का श्रुतज्ञान से व्याख्यान―यह जीव अवधिज्ञान से तो रूपीद्रव्यों को प्रतिभास लेता है कि क्या है और उसका जब वर्णन करते हैं तब चूंकि इस ही आत्मा ने अवधिज्ञान को जाना ना, तो उस जाने हुए का यह मन स्मरण रखता है और श्रुतज्ञान के उपयोग से फिर दूसरे लोगों को इसका व्याख्यान करते हैं । जैसे थोड़ा बहुत ऐसा अंदाज कर लीजिए, स्वप्न में आप जो कुछ देखते हैं वह दुनिया तो आपकी निराली है ना और जगने के बाद जैसी स्थिति आपकी बनती है वह दुनिया स्वप्न से निराली है, लेकिन स्वप्न में देखी हुई
चीज जगने के बाद भी स्मरण में रहती है और आप उसका व्याख्यान करते हैं, दूसरों को बतलाते हैं । यह एक थोड़ा अंदाज के लिए दृष्टांत कहा है । कोई पूर्णरूप में कुछ बात नहीं घटती, केवल इतनी बात इस दृष्टांत में समझ लीजिए कि जैसे किसी अन्य ढंग से स्वप्न में जानी हुई बात को जगने के बाद जहाँ हम मन चाहा विकल्प बताते हैं उस स्थिति में स्मरण करके उस बात को प्रकट करते हैं, ऐसे ही अवधिज्ञान से जो जाना वह इसकी निराली दुनिया है, निर्विकल्प स्थिति थी । अब उस जानन के बाद जब मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान का उपयोग हो तो इस सविकल्प अवस्था में स्मरण कर उसका व्याख्यान किया करते हैं ।
मन:पर्यय ज्ञानावरण―मन:पर्यय ज्ञानावरण के क्षयोपशम से दूसरे के मन में ठहरी हुई कोई मूर्तिक पदार्थ की बात एकदेश विशेष रूप से जान जाय, उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । दूसरे के मन में क्या पड़ा हुआ है उस मन के विकल्प को और मन में ठहरे हुए पदार्थ को जान जाय, यह विशेष निर्मलता से साध्य बात है । यह मन:पर्ययज्ञान संयमी साधुवों के होता है, उसमें भी सबके नहीं । एक इस प्रकार की विशिष्ट ऋद्धि महिमा अतिशय तपश्चरण हो उनके होता है । इस मन:पर्ययज्ञान के दो भेद हैं―ऋजुमति और विपुलमति । ऋजुमतिज्ञान के धारी तो उस भव से मोक्ष जाये या न जाये, कोई नियम नहीं है । वह मन:पर्ययज्ञान छूट जाय अन्य ज्ञान बन जाय, केवलज्ञान न हो यह हो सकता है । किंतु विपुलमति मन:पर्ययज्ञान हो तो अब इसके बाद नियम से केवलज्ञान होगा और मुक्ति पायगा । ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान तो दूसरे के सरल मन की बात जानता है । सीधा-सादा विचार हो उसे जानता है, किंतु विपुलमति मनःपर्ययज्ञान कितने ही मायाचार से कोई चिंतन करे, उनमें आधा चिंतन करे, आधा न करे अथवा सोचा था या आगे सोचेंगे, इन सब बातों को जान जाता है ।
आत्मनिधि की वार्ता―यहाँ आत्मा के ज्ञाननिधि का कुछ विस्तार बताया जा रहा है कि इस आत्मा में कितने चमत्कार हैं, कितनी इसकी महिमा है, जिस महिमा को न जानकर जो कुछ विषयसाधन मिला उसमें ही ऐसा विकल्प बनाया कि यह ही सब कुछ है और इन साधनों से ही हमारा बड़प्पन है, हित है, सुख है, ऐसा दुर्विकल्प बसाया, यह ज्ञान निधि दृष्टि में रहे तो ये दुर्विकल्प ठहर नहीं सकते । कुछ लोग इस बात के लिए हैरान रहते हैं कि हमारे विकल्प बड़े उठते हैं, धर्म में मन नहीं लगता, चित्त अस्थिर रहता है, ठीक है, ऐसा होगा ही । जब तक अपनी आत्मनिधि की रुचि नहीं होती है तब तक वास्तव में धीरता नहीं प्रकट हो सकती । वास्तविक धीरता और गंभीरता इस महती आत्मनिधि के स्पर्श में ही है ।
दृष्टांतपूर्वक धीरता व गंभीरता का एक कारण―जैसे लोक में दिखता हैं―जो कोई विशेष बड़ा धनिक होता है उसकी चाल-ढाल कुछ गंभीर-सी नजर आती है । चाहे उसके हृदय में गंभीरता न हो, मगर कुछ ऐसा ही वातावरण है और वह वातावरण भी किसका? बड़प्पन की कल्पना का । अपने आप में जो यह कल्पना आ गयी है कि मैं सबसे बड़ा हूँ और साथ ही धन भी है, जिसके लौकिक वैभव न हो विशेष और अपने को बड़ा-बड़ा मानता रहे तो उसमें बाह्य में भी धीरता और गंभीरता नजर नहीं आती । लौकिक वैभव भी हो, चाहे धन का वैभव हो, चाहे ज्ञान का वैभव हो, उस वैभव के मिलने पर जो कुछ यह प्रतीति बन गयी कि मैं महान् हूँ तो उसकी धीरता और गंभीरता दिखने लगती है । यह एक लौकिक बात कही जा रही है, किंतु जिस आत्मा के वास्तविक आत्मनिधि प्रकट हुई उसकी दृष्टि जगी हो, रुचि बढ़ी हो तो वह तो परमार्थ से महान है । ऐसा महत्त्व आने पर अधीरता नहीं रह सकती ।
रुचिपरिवर्तन―भैया ! कुशलक्षेम चाहता हो तो अब रुचि बदलनी होगी । क्रोधकषाय जगती है तो उसका विषय बदल दो । अब तक क्रोध दूसरे जीवों पर आया है, अब क्रोध अपनी त्रुटियों पर कर लो । मान जगता है, कषाय नहीं मिटती है तो अब इसका भान बदल दो दूसरे जीवों को निरखकर मान करने लगो । अपने चमत्कार, गुण, वास्तविक स्वरूप महत्त्व को निरखकर तो यह गौरव में शामिल हो जायगा । मायाचार करते-करते बहुत क्षण गुजर गये, आदत बन गयी । नहीं छूटती है तो इस मायाचार की प्रक्रिया बदल दो । जिन लोगों के बीच रहना पड़ता है, जिनसे बोलना पड़ता है उनसे प्रेमपूर्वक बोलकर आफत से निपट लो और भीतर में प्रेमरहित, रागद्वेष रहित इस ज्ञायकस्वभाव की उपासना में लगो । तृष्णा करते-करते जीवन गुजर गया, उसका रंग गहरा चढ़ गया । अब एकदम त्याग करते नहीं बनता तो थोड़ी उसकी दिशा मोड़ लो । आत्मविशुद्धि की तृष्णा करो, मेरी अब निर्विकारता और एक शुद्ध ज्ञानप्रकाश बढ़ता रहे । जैसे दूकान में सोचते हो कि अब 10 हजार हुए, अब 11 हजार हुए, ऐसे ही अब अपने घर की बात सोच लो―जीव गृह की बात सोच लो । इसमें अब इतना लाभ हुआ, इतनी शुद्ध दृष्टि हुई, अब इतनी निर्मलता बनी, अब इतनी विशुद्धि बढ़ गयी है इस ओर अपनी तृष्णा लाइये। कुछ ही समय बाद ये सब कषाय के रूप भी हट जायेंगे और एक शुद्ध ज्ञानस्वभाव का अनुभव रहेगा । यह उपाय केवलज्ञान प्रकट करने का है ।
स्वाभाविक विकास―केवल ज्ञानावरण के अत्यंत क्षय होने पर यह आत्मा केवल ही अर्थात् इंद्रिय मन का सहारा लिए बिना मूर्त और अमूर्त समस्त पदार्थों को जो जानता है वह केवलज्ञान है । यह ज्ञान स्वाभाविक है । इसमें परापेक्षता नहीं है । यह जीव की प्रकृति है, स्वभाव है, यह आश्चर्य की बात नहीं है । वह तो स्वरूप ही है । आश्चर्य की बात तो अज्ञानदशा की है । केवलज्ञानी हो जाय, प्रभु हो जाय, शुद्ध विकास बने, लोक अलोक ज्ञान में रहे, यह कोई आश्चर्य की बात है क्या? यह तो स्वरूप ही है, स्वभाव ही है । आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिए कि हम अज्ञान अवस्था में पड़े हैं, केवलज्ञान तो जीव का स्वाभाविक विकास है ।
मिथ्यात्व के साहचर्य से ज्ञान में विपरीतता का आख्यान―भैया ! जो ये 5 ज्ञान बताये गये हैं, मिथ्यादर्शन के उदय का संबंध हो तो यही आभिनिबोधिक ज्ञान कुमतिज्ञान कहलाने लगता है । मिथ्यादर्शन के उदय के साहचर्य से श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान कहलाता है और मिथ्यादर्शन के उदय के संबंध से यह अवधिज्ञान ही विभंगज्ञान कहलाता है । इस प्रकार इस उपयोग के प्रकरण में पाँच तो सम्यग्ज्ञान और तीन मिथ्याज्ञान, यों ज्ञानोपयोग के 8 भेदों का वर्णन किया है ।