वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 42
From जैनकोष
दंसणमवि चक्खुजुदं अचक्खुजुदमवि य ओहिणा सहियं ।
अणिधणमणंतविसयं केवलियं चावि पण्णत्तं ।।42।।
दर्शनोपयोग के भेद व चक्षुर्दर्शन―दर्शनोपयोग 4 प्रकार के होते हैं―चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । आत्मा तो अनंत सर्व आत्मप्रदेशों में व्यापी विशुद्ध दर्शन सामान्यात्मक है । अर्थात् इन 4 प्रकार के दर्शन पर्यायों की आधारभूत जो दर्शनशक्ति चैतन्यमात्र यह आत्मा है, किंतु यह आत्मा अनादिकाल से दर्शनावरण कर्मों के उदय के निमित्त से दर्शन के विकास से अवकुन्ठित है, आत्मविकास स्वाभाविक प्रकट नहीं हो रहा है, फिर भी जैसे चक्षुर्दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से और चक्षुरिंद्रिय के आलंबन से मूर्त द्रव्य विकल सामान्यरूप से प्रतिभास में आये वह चक्षुर्दर्शन है । यहाँ चक्षुइंद्रिय के आलंबन की बात कही है । दर्शनोपयोग इंद्रिय का आलंबन लेकर नहीं होता, किंतु यह दर्शनोपयोग छद्मस्थ जीव के किसी ज्ञान के प्रकट करने के लिए हुआ करता है । तो चक्षुइंद्रिय का आलंबन लेकर जो ज्ञान बनेगा उसके लिए जो दर्शन होता है उसका नाम है चक्षुर्दर्शन।
अचक्षुर्दर्शन―ऐसे ही अचक्षुर्दर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से चक्षु के सिवाय शेष चार इंद्रियाँ अर्थात् स्पर्शनइंद्रिय, रसनाइंद्रिय, घ्राणइंद्रिय और कर्णइंद्रिय, इनके आलंबन से व मन के आलंबन से मूर्त और अमूर्त द्रव्य को सामान्य रूप से प्रतिभास ले उसे अचक्षुर्दर्शन कहते हैं । यहाँ यह बात विशेष जानने की है कि ज्ञान 5 प्रकार के नहीं होते, अनंत प्रकार के होते हैं । जितने पदार्थ हैं उतने ही प्रकार के ज्ञान हैं । ऐसे ही दर्शन भी ये चक्षु और अचक्षु ऐसे दो प्रकार के नहीं हैं इस परोक्षज्ञानी के, किंतु जितने प्रकार के ये परोक्षज्ञान हैं उतने ही प्रकार के दर्शन हैं । जैसे प्रकरण में दो भेद किए हैं―चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन । इनका विस्तार बताना है तो यों करिये―स्पर्शनदर्शन, रसनादर्शन, घ्राणदर्शन, चक्षुर्दर्शन, कर्णदर्शन और अनिंद्रियदर्शन । 6 प्रकार के ज्ञानों के उत्पन्न होने के पहिले जो दर्शन होते हैं वे भी उपचार से उतने ही प्रकार के हो गए ।
दर्शन की निर्विकल्पता―दर्शन में विकल्प नहीं होता और जो-जो विचारात्मक, विकल्पात्मक प्रतिभास जंचता है, जिसकी हम सुधबुध रखा करते हैं वह सब ज्ञान है । दर्शन के लक्षण यद्यपि कुछ विभिन्न प्रकार के भी पाये जाते हैं, किंतु उनका लक्ष्य एक ही है । कहीं यह लक्षण कहा गया है कि पदार्थ का आकार न करके जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं । कहीं लक्षण कहा है―अंतर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन कहते हैं । कहीं लक्षण कहा है―आत्मा के प्रतिभास को दर्शन कहते हैं । इन तीन ही लक्षणों में दर्शन का लक्ष्य देखिये । यह तो तीनों में ही सम्मत हो गया कि दर्शन निर्विकल्प होता है । जैसे इन शब्दों में कह लीजिए कि सामान्य प्रतिभास होता है।
दर्शन के लक्षणों में निर्विकल्पता का प्रकाश―सामान्य का अर्थ आत्मा है, यों रख लीजिए इस प्रकरण में, क्योंकि जब कभी भी हम सामान्य का प्रतिभास करेंगे तब हमें परपदार्थों का आकार और विकल्प ग्रहण में न आयगा । यदि आता है तो वह विशेष है । यह तो दृष्टांत की बात है । जैसे कहते हैं मनुष्य सामान्य और ब्राह्मण आदिक मनुष्य विशेष । अरे मनुष्य सामान्य ही खुद विशेष है । वह तो दृष्टांत में अपेक्षाकृत सामान्य की बात कही गयी है । सामान्य तो वस्तुत: वह है जहाँ भावों का आकार, पदार्थों की विशेषताएँ जहाँ न प्रतिभासित हों, केवल एक सामान्य प्रतिभास मात्र हो वह है दर्शन । तो ऐसा सामान्यप्रतिभास जब होगा तो उनका आश्रय परपदार्थ तो रहा नहीं और निराश्रय कुछ है नहीं प्रतिभास का तो उसका आश्रय पारिशेष न्याय में आत्मा ही रहा । यों सामान्य का अर्थ आत्मा है, सामान्य का प्रतिभास दर्शन है । इसका अर्थ निकला कि आत्मा का प्रतिभास दर्शन है । और अंतर्मुखी चित्प्रकाश का नाम दर्शन है । इसका ही अर्थ यह निकला कि आत्म प्रतिभास का नाम दर्शन है । अपने आपके आत्मा की ओर अभिमुख होकर जो चेतना का प्रकाश व्यक्त होता है वह दर्शन है । तो यों दर्शन के सभी लक्षणों से यह तो ज्ञात होता ही है कि इसमें आकार विकल्प विशेषताएँ प्रतिभास नहीं होती हैं, तब दर्शन-दर्शन सब एक स्वरूप जानो ।
ज्ञान और दर्शन की समानता―भैया ! यद्यपि ज्ञान की तरह विविधता दर्शन में नहीं होती, लेकिन छद्मस्थ अवस्था में जैसा ज्ञान चला वैसा दर्शन हुआ है, क्योंकि यहाँ दर्शनपूर्वक ज्ञान हुआ करता है । तो उपचार से उतने ही प्रकार के दर्शन हैं और परमात्मा के जितने पदार्थ का ज्ञान हो रहा है उस समस्त ज्ञान करने वाले आत्मा को प्रतिभास में ले तो ज्ञान में जितना आनंत्य हैं उतना ही आनंत्य दर्शन में है । ज्ञान जितने विस्तार में है, जितनी अनंतता को लिए हुए है उतना ही दर्शन का हुआ ।
दर्शन के उपादान की दुर्लभता―इस दर्शन को पकड़ना बहुत दुर्लभ है । दर्शन होकर भी दर्शन मुझे हुआ, इतना तक भी ख्याल नहीं आ सकता । जैसे ज्ञान होकर यह तो ख्याल आ जाया करता है कि मुझे ज्ञान हुआ, पर दर्शन होकर यह ख्याल नहीं आ पाता कि मुझे दर्शन हुआ । और दर्शन का ख्याल न आ पाने का कारण यह है कि हमारी धुन बाह्यपदार्थों की ओर लगी हुई है । इन बाह्यपदार्थों की धुन में यद्यपि एक पदार्थ के ज्ञान के बाद दूसरे पदार्थ का ज्ञान करने के बीच दर्शन होता रहता है, लेकिन बाह्यपदार्थों में धुन इतनी तीव्र हो गयी है कि बीच में होने वाले अपने दर्शन की धुन नहीं रहती है ।
दृष्टांतपूर्वक दर्शन के अवग्रहण की दुर्लभता का समर्थन―जैसे एक पुरुष को यह इच्छा हुई कि मुझे बहुत बड़ा धनी बनना चाहिए । एक बार किसी ने उपाय बताया कि अमुक पहाड़ में कोई पारस पत्थर भी है, वह मिल जाय तो उससे लोहे का स्पर्श होने से ही उतना स्वर्ण बन जायगा । उसने वहाँ पर बीसों गाड़ी पत्थर समुद्र के किनारे एक जगह पर इकट्ठा करवा दिया और एक लोहे का मोटा डंडा गड़ाकर एक हाथ में पत्थर उठाकर उस लोहे पर मारने लगा और देखता जाय कि यह लोहा सोना हुआ कि नहीं । यदि सोना हो जाय तो समझेंगे कि वही पारस पत्थर है । उन हजारों पत्थरों में से कोई पारस पत्थर भी था । तो वह पत्थर मारे, देखे कि अभी लोहा सोना नहीं हुआ, वह झट समुद्र में वह पत्थर फेंक दे । ऐसा ही काम बराबर जारी रक्खा । तेज धुन बन गयी । इसी क्रिया के बीच में एक बार पारस पत्थर आ गया, उसे भी उठाया, लोहे पर मारा और फेंका । जब लोहे को देखा तो वह सोना बन गया । सोचा―ओह ! वह तो पारस पत्थर था । तो जैसे एक अन्य धुन बन जाने पर धीरता नहीं रही और उस पारस पत्थर से भी हाथ धो बैठा, ऐसे ही बाह्य पदार्थों की ज्ञान की हम आप धुन बनाये रहते हैं जिस धुन में हम अपने आप में प्रकट हुए दर्शन की सुध नहीं ले पाते हैं ।
अवधिदर्शन और केवलदर्शन―सामान्य प्रतिभासरूप दर्शन यहाँ उपचार से अनेक भेदरूप बताया जा रहा है । अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से मूर्तद्रव्य विकल्परूप से सामान्यतया प्रतिभास में आये उसे अवधिदर्शन कहते हैं । ये तीन दर्शन ज्ञान के साथ-साथ नहीं होते । यद्यपि ज्ञान और दर्शन ये दो गुण हैं और इनका प्रति समय परिणमन होता रहता है लेकिन उपयोग की बात कह रहे हैं । जिस समय उपयोग ज्ञान का है उस समय दर्शन का उपयोग नहीं होता, यह बात छद्मस्थ जीवों में है । केवलदर्शनावरण के अत्यंत क्षय हो जाने पर केवल ही यह स्वयं मूर्तिक और अमूर्तिक समस्त पदार्थों को सामान्य रूप से जो-जो प्रतिभासता है वह केवलदर्शन है । यह केवलदर्शन नाम का विकास स्वाभाविक विकास है । इस प्रकार दर्शनोपयोग के भेद में ये चार प्रकार के दर्शन बताये हैं ।
दर्शनों में उपादेय तत्त्व ―इन दर्शनों में उपादेय दर्शन केवलदर्शन है, पर केवलदर्शन के उपाय में केवलदर्शन का अविनाभूत अनंतगुणों का आधार जो शुद्ध जीवास्तिकाय है वह ही उपादेय है । इस शुद्ध जीवस्वरूप को शुद्ध जीवस्वरूप के अनुभवरूप निर्विकल्प ध्यान से पायें । जो बाह्य में किन्हीं पदार्थों के संचय के लिए विकल्प करता है उसे न बाहर कुछ मिलता है, न अंत: संतोष निराकुलता होती है, न अंतरंग समृद्धि प्रकट होती है । और जो अपने अंतरंग स्वरूप का दर्शन करता है उसे बाह्य समृद्धि से प्रयोजन क्या रहा? अंतरंग समृद्धि उसके अनंत प्रकट होती ही है । हम अपनी प्रतीति इस प्रकार रक्खा करें कि मैं केवलज्ञानदर्शन स्वरूप, अपने आपके सत्त्व के कारण केवल प्रतिभासात्मक एक पदार्थ हूँ । जो स्वयं में परिपूर्ण है, सुरक्षित है, अन्य समस्त पदार्थों से न्यारा है, ऐसा एकत्व विभक्त निज अंतस्तत्त्व का आलंबन केवलज्ञान और केवलदर्शन के प्रकट होने का कारण बनता है ।