वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 78
From जैनकोष
आदेसमेत्तमुत्तो धादुचदुक्कस्स कारणं जो दु ।
सो णेओ परमाणु परिणामगुणो सयमसद्दो ।।78।।
परमाणु की मूर्तता, एकप्रदेशिता व स्कंधकारणता―परमाणु आदेश मात्र से मूर्तिक है, अर्थात् वह आँखों नहीं दिखता, किंतु आगम और युक्तियों से परमाणु में मूर्तिकता सिद्ध होती है । यदि परमाणु में मूर्तिकता न होती तो अनंत परमाणु मिलकर भी जो स्कंध होते हैं उनका मूर्तरूप नहीं बन सकता था । परमाणु में मूर्त गुण है ऐसा कहने से कहीं यह अर्थ न लेना कि परमाणु एक पदार्थ है और उसमें मूर्त गुण रहा करते हैं । मूर्त गुण याने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये वास्तव में परमाणु से पृथक् नहीं हैं । केवल संज्ञा आदिक के निमित्त से इसमें भेद किया जाता है । यह परमाणु एकप्रदेशी है । एकप्रदेशी का अर्थ यह है कि वही तो परमाणु की आदि है और वही परमाणु का अंत है और वही परमाणु का मध्य है, याने परमाणु आदि मध्य अंत से रहित है, वही एकप्रदेशी कहलाता है । यदि किसी का आदि है और अंत है चाहे वह निकट ही निकट हो तो वह एकप्रदेशी न होगा । कम से कम द्विप्रदेशी हो तो आदि और अंत सिद्ध होगा और तीन प्रदेशी हो सूची रूप में तो उसमें मध्य सिद्ध होगा, किंतु यह परमाणु तो एकप्रदेशी है । इसका वही आदि है, वही मध्य है और वही अंत है । इस ही तरह द्रव्य और गुण में प्रदेश की पृथक्ता न होने से जो ही परमाणु का प्रदेश है वही रूप, रस, गंध और स्पर्श का प्रदेश है । यह परमाणु पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि कार्यों का मूलभूत कारण है । परमाणु पृथक् हो और पृथ्वी, जल आदिक तत्त्व पृथक् हों ऐसा नहीं है ।
भौतिकवाद में मूर्त गुणों का विच्छिन्न कथन―परमाणु में 4 गुण हैं―रूप, रस, गंध, स्पर्श । इन चार गुण वाले परमाणुवों से जिन पिंडों की निष्पत्ति होती है उनमें भी ये सब चारों गुण हैं । यदि ऐसा माना जाये कि पृथ्वी धातु के कारणभूत परमाणु में केवल गंध गुण है, किसी परमाणु में गंध, रस दो गुण हैं, किसी परमाणु में गंध, रस, रूप―3 गुण हैं अथवा एक-एक गुण वाला परमाणु है । पृथ्वी धातु के कारणभूत परमाणु में केवल गंध है तो उसमें से तीन गुण खोज लेने पर, अलग हटा देने पर उन गुणों का अविभागी प्रदेश वाला परमाणु ही नष्ट हो जायेगा अथवा कितना विलक्षण प्रतिपादन है कुछ दार्शनिकों का जो केवल पृथ्वी में गंध गुण ही माना, जल में रस गुण ही माना, अग्नि में रूप गुण ही माना, वायु में स्पर्श गुण ही माना, उनका कारणभूत परमाणु जब चार गुण वाला है तो उनका मूर्तरूप बनने पर पृथ्वी बनी तो तीन गुण खतम हो गए । यदि वे तीन गुण समाप्त हो गये तो उन गुणों का आधार परमाणु ही खतम हो गया, फिर तो यह जगत ही सूना हो जाना चाहिए । इस कारण शेष गुणों का अपकर्ष बताना युक्त नहीं है।
धातुचतुष्क का कारणभूत द्रव्य―पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चार धातुवों का कारण यह एक ही प्रकार का परमाणु है । परिणमन की विचित्रता से किसी पिंड में गंधगुण व्यक्त है, किसी में रस गुण व्यक्त है, किसी में स्पर्शगुण व्यक्त है, और किसी में रूपगुण व्यक्त है ।यह परमाणुओं के संघात से उत्पन्न हुए स्कंधों में परिणमन की विचित्रता है । उन गुणों में व्यक्त और अव्युक्तपने का तो अंतर है, पर ऐसा नहीं है कि कोई परमाणु या कोई धातु, कोई गंध-गुण वाली हो, कोई रसगुण वाली हो, ऐसी एक-एक गुण वाली कोई धातु नहीं है । ये पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु जिन्हें चारुवाक लोग अजीव कहते हैं, अचेतन कहते हैं ।
दृश्यमान सकल स्कंधों की जीवकायरूपता―चार्वाक दर्शन में पृथिवी आदि अचेतन ही तत्त्व हैं, चेतन का तो अभाव ही है । वे अचेतन क्या हैं? वे एकेंद्रिय जीव के शरीर हैं । वे भी मात्र अचेतन नहीं हैं, और जितने भी जो कुछ दृश्यमान हैं वे सब जीव के शरीर हैं । दरी, कंबल, चौकी, ईंट, पत्थर जो कुछ भी नजर आ रहा हो धूल, पानी, मिट्टी ये सब जीव के शरीर हैं । कोई सजीव शरीर है और कोई जीवरहित हो गए ऐसा शरीर है । कोई चीज उठाकर आप ऐसा बता सकते हैं क्या कि जो जीव का शरीर न हो, ऐसी कोई भी बात आपन बता सकेंगे । चौकी है, यह वनस्पतिकायिक जीव का शरीर है । यह दरी है, यह वनस्पतिकायिक जीव का शरीर है । ये पत्थर, पृथ्वीकायिक जीव के शरीर हैं । ये रंगरोगन ये पृथ्वीकायिक जीव के शरीर हैं । कौनसा दृश्यमान पदार्थ ऐसा है जो जीव का काय न हो? इसी प्रकार कुछ लोगों ने सबको एक ब्रह्मरूप माना है । जीव का संबंध हुए बिना इन दृश्यमानों का यह आकार ही नहीं बन सकता था । देखो इन दृश्यमान कायों के कारण जीव का आकार बना है और जीव के संबंध के कारण इनका आकार बना है । किसी अंकुर में जीव न होता, वह वृक्ष का रूप न बनता तो ये चौकी आदिक आकार कहाँ से बनते? अब यह दूसरी बात है कि जीवरहित हो जाने पर इन कार्यों की कुछ भी शकल बने, पर इसमें जो मूल आकार बना है वह जीव के संबंध बिना नहीं बन सकता था । तो यह सच कुछ जो दृष्टि है वह जीवसंबंधित है ।
पुद्गलवर्गणायें―समस्त पुद्गल वर्गणायें 23 प्रकार की होती हैं । उन 23 प्रकार की वर्गणावों में से जीव के द्वारा ग्रहण में आने वाली वर्गणायें 5 प्रकार की है―आहारवर्गणा भाषा-वर्गणा, मनोवर्गणा, तैजस वर्गणा और कार्माणवर्गणा । बाकी उन 23 भेदों में एक तो अणु वर्गणा है और शेष बची 17 अन्य वर्गणायें हैं । वह सब मूलस्वरूप एक ही प्रकार के परमाणुवों का पुंज है । जैसे पृथ्वी―पृथ्वी एक होनेपर भी धूल, संगमरमर का पाषाण, अन्य पाषाण हीरा, जवाहरात, सोना, चांदी ये भिन्न-भिन्न रूप में हैं और इनमें यह भी देखा जाता है कि यह सोना संगमरमर रूप नहीं बन सकता और धूल हीरा रूप नहीं बन सकती, लेकिन क्या यह नियम सदाकाल के लिए रहेगा कि सोना कभी पत्थर रूप नहीं बन सकता और पत्थर कभी सोना रूप नहीं बन सकता? लेकिन प्राय: चिरकाल तक उनमें ऐसा है, इस कारण वे पृथक्-पृथक् देखे जा रहे हैं । ऐसे ही ये वर्गणायें अति चिरकाल तक इस ही प्रकार रहती हैं, अतएव ये इतने प्रकारों में पायी जाती हैं । मन की रचना आहारवर्गणावों से नहीं हो सकती, मन की रचना मनोवर्गणावों से ही होगी, शरीर की रचना कार्माणवर्गणावों से न होगी, वह आहारवर्गणावों से होगी । जैसे आहार से आहार पयपि्त होती है, आहारक बनता है तो 5 प्रकार की वर्गणावों से 5 प्रकार के कार्य होते हैं, फिर भी मूल में सभी वर्गणावों का कारणभूत परमाणु एक रूप है । उस एक रूप परमाणु से यह सारा ठाट बना हुआ है ।
ठाठ की अहितरूपता―यह समस्त ठाठ असार है और इस जीव में दुर्भाव विषयकषाय इन सबकी उत्पत्ति करने का कारणभूत है । एक कथानक है कि दो भाई धनोपार्जन के लिए परदेश गये । वहाँ खूब धनोपार्जन किया । जब घर आने को हुए तो अपनी सारी संपत्ति बेचकर दो मणि खरीद लिए । मानो वे दोनों मणि दो लाख के थे । उनको लेकर दोनों भाई चले । बड़े भाई के हाथ में दोनों मणि थे । समुद्र में से रास्ता था सो जहाज में बैठकर चले । समुद्र के बीच बड़ा भाई सोचता है कि रत्न तो हमारे पास हैं । हमारे ही परिश्रम से ये आये हैं, घर जाकर बट जायेंगे, सो ऐसा करें कि इस छोटे भाई को इसी समुद्र में धकेल दें, फिर तो हमें दोनों मणि मिल जायेंगे । फिर थोड़ी देर बाद सद्बुद्धि जगी―अहो मैंने कितना खोटा विचार बनाया? इस जड़ वैभव के पीछे मैंने अपने भाई का घात करने का विचार किया । छोटे भाई से बोला कि ये रत्न तुम अपने पास रक्खो, हम तो अपने पास न रक्खेंगे । छोटे भाई को वे रत्न दे दिये । कुछ देर बाद उसके मन में आया कि ये रत्न हमारी ही बुद्धि से कमाये गये हैं, बड़े भाई ने तो सिर्फ शारीरिक श्रम किया था । ये घर जाकर बट जायेंगे । सो ऐसा करें कि इस बड़े भाई को इसी समुद्र में ढकेल दे, सो ये रत्न हमें मिल जायेंगे । कुछ देर बाद वह भी संभाला, सोचा अहो इस जड़ संपदा के पीछे मैंने कितना खोटा विचार बनाया? सो भाई से कहा―हम ये रत्न अपने पास नहीं रखना चाहते, आप ही अपने पास रक्खो । बड़े भाई ने कहा नहीं तुम्हीं रक्खो अपने पास । दोनों में सलाह हुई कि इन्हें किसी तरह घर तक ले चलो फिर मां के पास रख देंगे । जब घर पहुंचे तो माँ को वे रत्न दे दिये । कुछ दिन बाद माँ सोचती है कि ये रत्न तो लाखों रुपये के हैं । ये तो लड़के छीन लेंगे सो ऐसा करें कि कुछ खिलाकर किसी तरह से इन लड़कों को मार डालें तो ये रत्न हमें मिल जायेंगे । वह भी संभली, सोचा ओह ! जिन लड़कों से हमें बड़ा प्यार है उन्हीं लड़कों को इस जड़ संपदा के कारण मार डालने का विचार बनाया । सो लड़कों से कहा कि हम ये रत्न अपने पास न रक्खेंगे । माँ ने उन रत्नों को फेंक दिया । किसीने न उठाया तो लड़कों ने कहा कि ये रत्न बहिन के पास रख दो । बहिन ने अपने पास वे रत्न रख लिए । कुछ दिन बाद बहिन सोचती है कि ये रत्न तो कुछ दिन बाद में इससे ले लिए जायेंगे । ये तो लाखों रुपये के हैं, सो उस बहिन के मन में उन तीनों को साफ करने का मन में विचार आया । फिर वह कुछ सम्हली ।सोचा ओह! इन रत्नों के पीछे मैंने अपनी माँ तथा भाइयों को मार डालने का विचार बनाया, यह कितना खोटा विचार है, सो उस बहिन ने भी उन रत्नों को अपने पास रखना स्वीकार नहीं किया । अंत में यह तय हुआ कि इन्हें समुद्र में फेंक दिया जाये । ऐसा ही किया गया तब शांति मिली । तो समझ लो अब इस जड़ संपदा के कारण कितनी ही हानियाँ उठानी पड़ती हैं?
परिग्रहप्रीति की क्लेशरूपता―भैया! जिसे कहते हैं धीरे-धीरे घाव करना और उस पर नमक छिड़ना, ऐसा ही क्लेश परिग्रह की प्रीति में होता है, बल्कि इससे भी अधिक पीड़ा जड़ वैभव के प्यार में होती है । इसके मूल में देखो है क्या? बिल्कुल व्यर्थ चीज है, जिससे हमारा कोई व्यवहार ही नहीं है । और जो भी व्यवहार किया जा रहा है उसके प्रयोजन का विश्लेषण किया जाये तो प्रयोजन क्या निकलेगा? न कुछ । सारी जिंदगी नाना विकल्पों में गंवा दी । परिजन वैभव सबमें ममता बनायी, आखिर हुआ क्या अंत में? सब कुछ छोड़कर चले गए । यह जीव न जाने मरकर कहाँ से कहाँ पैदा हो जाये? यहाँ से मरकर वनस्पतिकायिक जीव बन गया तो फिर यहाँ के समागम क्या काम आयेंगे? मरकर पेड़-पौधे बन गए तो खड़े हुए हैं जंगल में । इस जड़ विभूति में कुछ सार मत समझो, अपना एक निर्णय शुद्ध बनावो, बुद्धि में दोषों को न आने दो । अपनी बुद्धि को निर्मल रक्खो, इस आत्मप्रभु का घात न हो सके ऐसा उद्यम करो । ये सब ठाट तो मिट जायेंगे, पर यह आत्मा तो रहेगा । इस आत्मा पर क्या गुजरेगी? यहाँ के ठाट यहाँ के समागम मदद देने न पहुंचेंगे । अपने किए हुए कार्यों का फल इस जीव को अकेले ही भोगना पड़ता है ।
उपदेश में पुद्गलप्रीतिपरिहार का प्रयोजन―यह पुद्गल द्रव्यों का प्रकरण परमाणू पुद्गल द्रव्यों की असारता समझने के लिए पढ़िये, बांचिये, समझिये । इन पौद्गलिक ठाठों से हटे और अपने शुद्ध सहज ज्ञानानंदस्वरूप इस प्रभु की भक्ति में लगेंगे । इसमें तो कुछ हाथ लगेगा और इन ठाठ-बाटों में लगने से जैसे कहा करते हैं, कोयले की दलाली में काले हाथ, लेकिन वहाँ भी कुछ मिलता है,पर यहाँ तो कुछ भी इस जीव को नहीं मिलता है । केवल कल्पनाएँ बनाता है । एक बार भी समस्त पर से न्यारे ज्ञानस्वरूप इस निज आत्मा का अनुभवन जायेगा तो यह जीव सदा के लिए संकटों से छूटने का मार्ग पा लेगा ।
अकिंचन आत्मतत्त्व की अनुभूति का अनुरोध―भैया ! आपके पास 24 घंटे में दो मिनट भी ऐसे फाल्तू नहीं हैं क्या कि परपरिग्रहों की कल्पना में अपना मन न लगाये रहें । विषय और कषायों में ही अपना चित्त न लगाये रहें और निज अंतस्तत्त्व की उपासना में लगें । अरे 24 घंटे में कुछ समय तो अपने आत्मानुभव में लगावो, उससे ही हित होगा । यहाँ के बाह्य प्रसंगों में लगकर तो किसी ने भी हित नहीं पाया । न वे बड़े बलवान पांडव रहे, न रावण रहा, जो अच्छी करनी कर गए वे भी नहीं रहे और जो बुरी करनी कर गए वे भी नहीं रहे । हाँ अंतर इतना है कि जो अच्छी करनी कर गए वे अब भी वहाँ हैं तहाँ सुखी हैं, आनंदित हैं और जो बुरी करनी कर गए वे अब भी जहाँ होगे दुखी होंगे, क्लिष होंगे । हे आत्मप्रभु ! तुझमें कहीं कुछ कमी है क्या, अधूरापन है क्या? अरे तू तो स्वयं अपने आप में परम आनंद को लिए हुए है । तू अपनी दृष्टि को एकदम खोकर बाहर में इन झूठे असार स्कंधों में इतनी तेजी से लग रहा है । जो हाड़ मांस, मज्जा, लहू इत्यादि से भरा हुआ यह शरीर है इसमें रति कर रहा है । अरे इन बाह्य प्रसंगों में लगकर तो तू अपना घात किये जा रहा है ।
देहविरक्ति की आवश्यकता―भैया! ध्यान देकर देखो तो सही कि इस पिंड में है क्या? इसमें जो एक आधारभूत जीवतत्त्व है वहाँ तक भीतर निरखकर देखो तो सही, यह ऊपर तो चिकना चाम है, ठीक है, यह चिकना चाम भी इस पसीने के कारण है । कोई सारभूत बात नहीं है । इस चाम के अंदर माँस, मज्जा, लहू, हड्डी आदि सभी अपवित्र चीजें हैं । यह जीव इन माँस मज्जावों में एकक्षेत्रावगाहरूप बंधन से बंधा हुआ ठहर रहा है । कितने कष्ट में है हम आपका परमात्मतत्त्व? जो एक विशुद्ध पावन ज्ञानमूर्ति है, ज्ञान और आनंद ही जिसका स्वरूप है, ऐसा यह शुद्ध आत्मतत्त्व इन हड्डियों में फंसा हुआ है, उसकी सुध लो । उसकी सुध तब तक नहीं पायी जा सकती जब तक चेतन-अचेतन परिग्रहों को तू अपने से न्यारा न समझ लेगा । इन चेतन-अचेतन परिग्रहों के लगाव को तू अपना विध्वंसक जब तक न समझ लेगा तब तक तू इन असार स्कंधों से हटकर अपनी ओर न आ सकेगा।
मायाजाल की नि:सारता―ये समस्त दृश्यमान स्कंध सब मायाजाल हैं । इनका विश्लेषण करें तो अंत में मूल तत्व कुछ न निकलेगा और निकलेगा तो वह परमाणु, जिससे न व्यवहार चलता है, न जिसका ग्रहण होता है । जैसे कोई किसी आशा से सारा पहाड़ खोद डाले और सारा पहाड़ खोद चुकने पर अंत में उसमें से निकले एक चूहा और कुछ न तो वह सारा श्रम व्यर्थ ही तो रहा । ऐसे ही इन दृश्यमान स्कंधों का कुछ विश्लेषण करें तो इसमें सार चीज क्या निकली? वही परमाणु, जिससे किसी का रामजुहार भी नहीं होता ।तो यहाँ न इन दृश्यमान स्कंधों में कुछ सार है और न चेतना के पथ में हमारे व्यवहार के लिए अन्य जगह कुछ सार है । इन परमाणुवों की विचित्रता देखो―कोई व्यक्त है, कोई अव्यक्त है ।
माया से निवृत्ति और कल्याण में वृत्ति―कोई शंका करे या प्रस्ताव रक्खे कि ऐसा अव्यक्त शब्द गुण भी मान ले, सो ऐसा नहीं है, परमाणु में शब्द अव्यक्त रूप से भी नहीं है, क्योंकि शब्द एक प्रदेश से उत्पन्न नहीं होता है, वह अनंतप्रदेश अनंत परमाणु वाले स्कंधों से उत्पन्न हुआ करता है । परमाणु एकप्रदेशी है, शब्द अनेक प्रदेशात्मक हैं । एक प्रदेश का अनेक प्रदेशात्मकता के साथ एकता नहीं हो सकती । यों मूर्त गुण वाले परमाणुवों के कारण यह सारा मायामय जाल रचा खड़ा हुआ है । इनसे निवृत्त होने में और अपने सहज चैतन्यस्वरूप में उपयुक्त होने में ही अपना कल्याण है ।