वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 79
From जैनकोष
सद्दोखंधप्पभवो खंधो परमाणुसंगसंघादो ।
पुट्ठेसु तेसु जायेदि सद्दो उप्पादगो णियदो ।।79।।
शब्दों की स्कंधपर्यायरूपता का वर्णन―पुद्गल द्रव्य के इस प्रकरण में पुद्गल के परमाणु और स्कंध ये प्रकार बताकर और स्कंधों के पिंडरूप अथवा प्रदेशाकार रूप भेद बताकर, अब शब्द को ये पुद्गल स्कंध की पर्याय हैं इस प्रकार प्रसिद्ध कर रहे हैं । पुद्गलद्रव्य में रूप, रस, गंध आदि ये चार तो गुण हुआ करते हैं । जिन गुणों का कुछ न कुछ परिणमन सदैव रहा करता है । उन गुणों की भाँति पुद्गल में शब्द नाम का गुण नहीं है, किंतु शब्द एक स्कंधपर्याय है । शब्द रूप से इन स्कंधों की परिणति हुआ करती है । शब्दों की उत्पत्ति स्कंध से है ।जब उन स्कंधों में परस्पर संघट्टन होता है वह रगड़ने की तरह से संघट्टन हुआ या रगड़ने की तरह से वियोग हुआ तो स्कंधों के उन संयोग और वियोग के कारण इन शब्दों की उत्पत्ति होती है ।
ध्वनि की इंद्रियग्राह्यता―ध्वनि का नाम शब्द है । ये शब्द भावेंद्रिय के द्वारा ज्ञान में आते हैं, और कर्ण नाम की बाह्य इंद्रिय का आलंबन पाकर ज्ञान में आते हैं । 5वीं इंद्रिय है कर्णइंद्रिय । इसका दूसरा नाम है श्रोत्रइंद्रिय । श्रोत्र का अर्थ है जिससे सुना जाये । श्रूयतेअनेन इति श्रोत्रं । और कर्ण का भी यही अर्थ है जिससे सुना जाये । कर्ण्यते अनेन इति कर्णं । तो एक टेढ़े-मेढ़े यंत्र की तरह इन कानों के भीतर जो एक पिंड है, जहाँ एक अत्यंत कोमल पर्दा है, जिससे शब्द स्पष्ट होते हैं, जो पर्दें इतना कोमल है कि वह कुछ सुनने के संबंध में मामूली ढंग से हिलता भी रहता है । जिसकी नकल टेपरिकार्डर में की गई है । जब उसमें ध्वनि भरते हैं तो जो हरे रंग को थोड़ा प्रकाश रहता है वह प्रकाश हिलता रहता है तब उस टेप में ध्वनि आती है । ऐसे ही इन कानों के पर्दें में साधारणतया परिस्पंद होता रहता है । तो यह बाह्य श्रवणइंद्रिय तो आलंबन हुई और कर्ण नामक भावेंद्रिय के द्वारा ज्ञान हुआ ।
इंद्रिय के भेदों में भावेंद्रिय का वर्णन―इंद्रियां दो प्रकार की होती हैं―एक भावेंद्रिय और एक द्रव्येंद्रिय । मरने के बाद दूसरे जन्मस्थान पर यह जीव जाता है तो रास्ते में विग्रहगति में इस जीव के भावेंद्रिय तो है, पर द्रव्येंद्रिय नहीं है । और सयोगकेवली अवस्था में भगवान के द्रव्येंद्रिय तो है, किंतु भावेंद्रिय नहीं है । भावेंद्रिय नाम है लब्धि और उपयोग का । जैसे इस प्रकरण में कर्ण भावेंद्रिय की बात चल रही है तो कर्णइंद्रियावरण का क्षयोपशम हो इसका नाम लब्धि है अर्थात् कर्णेंद्रिय के निमित्त से जो ज्ञान होता है उस ज्ञान को ढांकने वाला जो मतिज्ञानावरण है उसका क्षयोपशम होनेपर यह कर्णभावेंद्रिय प्रकट होती है । भावेंद्रिय लब्धिरूप और उपयोगरूप हुआ करती है । लब्धि का तो तात्पर्य यह है कि कर्णइंद्रिय से जो हम ज्ञान कर सकते हैं उस ज्ञान को ढांकने वाले कर्म का क्षयोपशम होना और उपयोग का अर्थ है उस शब्द ज्ञान के संबंध में हमारा उपयोग लगा होना । जैसे कर्णेंद्रिय के द्वारा जानने की योग्यता सदा रहती है, परंतु उपयोग हो देखने में, उपयोग हो अन्य बात में तो शब्द सुनने में तो न आयेंगे । और शब्द सुनने लगे, तो उपयोग भी हुआ । लब्धि और उपयोग का नाम है भावेंद्रिय ।
द्रव्येंद्रिय का वर्णन―द्रव्येंद्रिय नाम है शरीर की रचना विशेष का जिसमें आत्मप्रदेशों की रचना भी गर्भित है । द्रव्येंद्रिय में दो बातें होती हैं―निर्वृत्ति और उपकरण । जहाँ ज्ञान का सिलसिला चलता है वह तो है निर्वृत्ति, उसमें भी दो बातें हैं―आत्मप्रदेशों की तदाकाररचना और पुद्गल की तदाकार रचना । उपकरण में उस निर्वृत्ति की रक्षा करने के लिए, उपकार करने के लिए जो उसके आस-पास अगल-बगल चीज होती है वह उपकरण है । जैसे कान कितने हैं? किसी ने असली कान देखा है क्या, जहाँ से शब्द सुनाई देते हैं । जो खास कर्णइंद्रिय है वह कर्णइंद्रिय नहीं देखा होगा । जो ये कान दिखते हैं ये कर्णइंद्रिय नहीं हैं । ये उस कर्णइंद्रिय के उपकार करने वाले उपकरण हैं । तो इस द्रव्येंद्रिय का निमित्त पाकर भावेंद्रिय के द्वारा शब्द का ज्ञान होता है । भावेंद्रिय नाम ज्ञान का है और द्रव्येंद्रिय नाम पुद्गल रचना का है । जो ध्वनि ज्ञात होती है उसका नाम शब्द है ।
शब्द की मायारूपता―इस प्रकरण से हमें यह शिक्षा मिलती है कि आखिर जिस शब्द पर लोग इतना लट्टू होते हैं, खाना भी छोड़ दें, भूखे भी रहें, पर संगीत राग ध्वनि सुनने को मिलना चाहिए। सिनेमाघर कितने भरे हुए मिलते हैं? चाहे रिक्शा चलाने वाले, मजदूरी करने वाले भरपेट भी न खाये, लेकिन सिनेमा के संगीत सुनने को मिलना चाहिए । आखिर वह संगीत क्या है, ये शब्द क्या हैं? इनकी असलियत मालूम हो और इनका मूलकारण कुछ विदित हो, यह मायाजाल है, ऐसी जानकारी होने पर शब्दों में अनुराग हटने का एक साहस और उत्साह मिलता है ।
शब्दविधि―शब्द का यह जिक्र चल रहा है कि शब्द चीज क्या है? यह शब्द स्वरूप से तो अनंत परमाणुवों का एक स्कंध है, कोई जोर से कानों में बोल दे तो ठोकर लगती है और बाद में कानों को दबाना चाहते हैं, तो शब्द एक स्कंधरूप में हैं । कभी इन काले पीले रूपों को देखकर आँखों में ठोकर लगी क्या? नही लगती है । गंध सूँघकर कभी नाक में ठोकर लगी क्या? नहीं लगी, पर शब्द जरा जोर से बोले जायें तो कानों में आघात होता है ना, इससे ही यह बात सिद्ध होती है कि रूप, रस आदिक तो गुणपर्यायें हैं और शब्द स्कंधपर्याय हैं । जैसे ये डाली, पत्थर इनका आघात हो तो चोट लगती है ना, ऐसे ही शब्दों की भी चोट लग जाती है । यह शब्द द्रव्यपर्याय हैं और बहिरंग साधनभूत जो महास्कंध हैं उनके संघट्टन का निमित्त पाकर भाषावर्गणा योग्य स्कंधों का शब्दरूप परिणमन होता है, और इस तरह ये स्कंध से उत्पन्न हुए हैं, तालू, ओंठ वगैरा, ये भाषावर्गणा के स्कंध नहीं हैं, ये महास्कंध हैं । भाषावर्गणा के स्कंध जिनसे शब्दपरिणमन होता है वे आँखों नहीं दिखते ।
महास्कंध व भाषावर्गणास्कंध―यहाँ प्रसंग में ये दो तरह के स्कंध कहे गये हैं । जो मैटर स्कंध शब्दरूप परिणम जाता है उसका नाम तो है भाषावर्गणास्कंध, और जिन चीजों की टक्कर लगने से तालू, घंटा, झालर, बाजे जिनकी टक्कर लगने से ये भाषावर्गणावों के स्कंध शब्दरूप परिणम जाते है, ये स्कंध महास्कंध नाम से कहे गये हैं । इन महास्कंधों के संघट्टन से भाषावर्गणा के स्कंधों का भी अंत: संघट्टन होता है अथवा उस संघट्टन का निमित्त पाकर भाषावर्गणायें शब्दरूप परिणम जाती हैं । जब इन महास्कंधों में परस्पर संघट्टन होता है, स्पर्श होता है, ठोकर लगती है उससमय शब्द से रचे हुए ये अनंत परमाणुमयी शब्द योग्य वर्गणायें स्वयं परस्पर में एक दूसरें में प्रवेश कर के चारों तरफ से व्यापकर इस सकल लोक में ये उदित हो रही हैं ।
शब्दोत्पत्तिपद्धति―शब्दों की उत्पत्ति का इसमें ढंग बताया है । इन महास्कंधों में तो जो स्कंध हैं वे एक दूसरे में प्रवेश करने लगते हैं और जब भाषावर्गणाएँ आपस में प्रवेश करने लगती हैं उस समय शब्दों की उत्पत्ति होती है । कितना सीधा तरी का बताया है, जो शब्द में आविष्कार करने वाले हैं रेडियो आदिक के आविष्कार करने का जिससे मूल मार्ग मिलता है ।इस लोक में यद्यपि ये शब्द ठसाठस भरे पड़े हैं । यह भाषावर्गणा भरपूर पड़ी हुई है । लेकिन जहाँ-जहाँ बहिरंग कारण सामग्री मिलती हैं वहाँ-वहाँ उन शब्दों का उदय होता है अर्थात् उस-उस जगह वे भाषावर्गणायें स्वयं शब्दरूप से परिणम जाती हैं ।
शब्द की उत्पाद्यता व पौद्गलिकता―ये शब्द नियम से उत्पाद्य हैं, इस कारण इनको स्कंध से उत्पन्न हुआ कहा है । कोई दार्शनिक लोग इन शब्दों को आकाश का गुण मानते हैं और स्थूल बुद्धि में यह बात थोड़ी देर को समा भी सकती है कि शब्द आखिर कहां से आते हैं? न निकलते दिखते हैं, न इनकी कोई रचना करता है और आकाश में ही ये शब्द सुनाई देते हैं । तो शब्द आकाश का गुण होना चाहिए । ऐसा कुछ प्रतिभास करने के लिए अवकाश भी मिलता है स्थूल बुद्धि में । लेकिन जो परीक्षण के बाद भी सिद्ध होगा, वह आगम में लिखा हुआ है कि शब्द आकाश का भी गुण नहीं है । आकाश अमूर्तिक है । अमूर्तिक आकाश का गुण शब्द होता तो ये अमूर्त शब्द इन इंद्रियों के द्वारा जाने न जा सकते थे । ये पाँचों इंद्रियाँ मूर्तिक पदार्थों को जाना करती हैं । अमूर्तिक आकाश को जानने की सामर्थ्य इंद्रियों में नहीं हैं, इस कारण ये शब्द आकाश के गुण नहीं हैं ।
शब्दभेदविस्तार व भाषात्मक शब्द का वर्णन―अब इन शब्दों का विस्तार निरखिये ।ये शब्द दो प्रकार के होते हैं―एक प्रायोगिक और दूसरे वैश्रसिक । जो प्रयोग से उत्पन्न हुए हैं, मेलमिलाप से संघट्टन से क्रिया करने वाले जीव की क्रियावों से जो शब्द उत्पन्न होते हैं वे प्रायोगिक हैं और जो स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं जिन में क्रियाशील किसी त्रस जीव का प्रयोग नहीं है, जैसे मेघ गर्जना आदिक ये वैश्रसिक शब्द हैं । अब इन शब्दों के प्रकार दूसरी तरह से यों जानो । शब्द दो तरह के होते हैं―एक भाषात्मक और दूसरे अभाषात्मक । भाषात्मक शब्द दो प्रकार के हैं-एक अक्षरी और एक अनक्षरी । मनुष्य और देव तो संस्कृत प्राकृत इत्यादि अनेक भाषायें बोलते हैं । सारी भाषायें व्यवहार में काम आती हैं । तो ये सब भाषायें अक्षरात्मक हैं, और दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चारइंद्रिय ऐसे जीव अथवा पशु पक्षी भी जो बोलते हैं वे शब्द अनक्षरात्मक शब्द हैं । इनमें अक्षर नहीं हैं, केवल एक ध्वनिरूप है ।
प्रभु की दिव्यध्वनि का रूप―यहाँ यह भी एक विशेष बात समझने की है कि भगवान अरहंतदेव की जो दिव्यध्वनि खिरती है वह भी अनक्षरात्मक है । उसमें संस्कृत प्राकृत या अन्य-अन्य बोलियों की तरह अलग-अलग शब्द नहीं होते हैं । हम आप भाषावों का आलंबन लेकर बोलते हैं या किसी भाषा वाक्यों की पद्धति से बोलते हैं तो इसमें राग सिद्ध नहीं हुआ क्या? रागांश हुए बिना हम इन वचनों को क्रम से नहीं बोल सकते । किसी ही प्रकार का राग हो, यदि हम आपकी तरह भगवान भी किसी से बोलते हों तो उनमें राग सिद्ध हो जाता हैं ।भगवान तो वीतराग हैं, वे यदि हम लोगों की तरह क्रमिक शब्द बोलते हैं तो उनमें तो राग सिद्ध हो जायेगा । वे किसी के प्रश्न सुनें और उसका समाधान दें, इसमें तो राग है । अत: भगवान कोई भाषा नहीं बोलते हैं ।
प्रभुदेह का अतिशय―भगवान वे ही तो हैं जो कभी आदमी थे हम आप सरीखे ही, और संस्कृत प्राकृत बोलते थे, खूब बातें होती थीं । जब उन्होंने मुनिपद धारण न किया था, उससे पहिले जब गृहस्थी में थे तो क्या कभी अपनी मित्र मंडली में उनसे प्रशस्त गप्पें न हुआ करती थी, अथवा शासन-व्यवस्था में न लगते थे क्या या उपदेश वगैरह न किया करते थे क्या? ये सब कुछ किया करते थे, लेकिन अब परमात्मा होनेपर ये सब खतम हो गये । वे सारी की सारी बातें बदल गयीं । शरीर भी वैसा नहीं रहा । निर्दोष परमौदारिक स्फटिकमणि की तरह स्वच्छ उनका शरीर हो गया । इसी कारण तो कोई आगे पीछे कहीं से भी देखे तो उनका मुख दिखता है । उनका शरीर इतना पवित्र स्फटिकमणि की तरह स्वच्छ हो गया जैसा मुख आगे से दिखता ऐसा ही चारों ओर से दिखता है।
दिव्यध्वनि की सर्वभाषारूपता―प्रभु की दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक है । इस बात को आप लोगों ने पढ़ा भी होगा । साथ ही यह भी लिखा है दशअष्ट महाभाषा समेत । यद्यपि उनकी दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक है तथापि 18 महाभाषावों से सहित है । कीड़ा-मकोड़ों की ध्वनि में भी अक्षर नहीं हैं । यदि इन 18 महाभाषावों सहित प्रभु की ध्वनि न हो तब तो उनकी ध्वनि कीड़ा मकोड़ों की जैसी ध्वनि मानी जायेगी, पर ऐसा नहीं है । वह अनक्षरात्मक है फिर भी 18 महाभाषावों सहित है । जिसमें 700 छोटी-छोटी भाषायें समायी हुई हैं ।यहाँ की लौकिक भाषायें किसी तरह किसी दिन मिल-जुलकर बन गयी हों, ऐसा तो नहीं है ।
सर्वभाषामय ध्वनि से सर्व का लाभ―भगवान के समवशरण में अमेरिका वाले, अंग्रेजी, चीनी, रूसी, जर्मन इत्यादि सभी जगह के लोग पहुंचे होंगे । भगवान यदि हिंदी भाषा में बोलते तो और भाषावों के जानकार तो टापते रह जाते, कुछ भी न समझ पाते । पर ऐसा नहीं है । भगवान की दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक है, उसमें कोई भाषा विशेष नहीं है, सर्वभाषामय है । उस दिव्यध्वनि में ऐसा अतिशय है कि वहाँ बैठे हुए सभी भाषावों के जानकार अपनी-अपनी भाषा में अर्थ समझ जाते हैं । अब तो यों सुनने में आता है कि कोई यंत्र ऐसा बना है कि भाषण किसी भी भाषा में हो, मगर तुरंत ही उसका ट्रांसलेशन अन्य भाषावों में होता रहे । भला बतलावो जहाँ इंद्र वैज्ञानिक मौजूद है वहाँ क्या ऐसे अनुपम यंत्र न होंगे? यह दिव्यध्वनि निरक्षर शब्द में है, भाषा में है । शब्द दो प्रकार के बताये जा रहे हैं ना―एकभाषात्मक और एक अभाषात्मक । भाषात्मक शब्द तो ये प्रायोगिक हैं । अब अभाषात्मक शब्द की बात सुनिये ।
अभाषात्मक शब्द का वर्णन―अभाषात्मक शब्द जिन में भाषा नहीं है वे दो प्रकार के होते हैं―प्रायोगिक और वैश्रसिक । एक बात और ध्यान में देना है―भगवान की दिव्यध्वनि अनक्षरभाषामय तो है, किंतु है वैश्रसिक, प्रायोगिक नहीं है । भगवान तालुवों को, ओठों को हिलाकर बोलते हों ऐसा नहीं है । उनके सर्व अंग से एक मधुर प्रिय ध्वनि निकलती है, वह ध्वनि है अभाषात्मक । शब्द दो प्रकार के हैं―एक प्रायोगिक और दूसरे वैश्रसिक ।प्रायोगिक अभाषात्मक शब्द तो संगीत के बाजे के हैं । चमड़े के मढ़े हुए बाजे हों, तार के बाजे हों, वीणा, बांसुरी आदि के जो शब्द निकलते से हैं वे प्रायोगिक नहीं हैं, अभाषात्मक शब्द हैं, और मेघों की गर्जना आदिक ये सब वैश्रसिक शब्द हैं । ये सब शब्द महास्कंधों से संघट्टन होने पर भाषावर्गणा के योग्य पुद्गल में ध्वनि बन जाती है, और उस समय में भाषावर्गणा के स्कंध परस्पर एक दूसरे में प्रवेश करते हुए शब्दरूप परिणमा करते हैं, इसी को ध्वनि तरंग कहते हैं । भाषावर्गणा स्वयं तरंगित हो जाती है और यह ध्वनि इस तरंग रूप से चलती है ।
शब्दविस्तार की पद्धति―देखो भैया ! शब्द का विषय भी एक महान शब्द शास्त्र को बना देगा । ये शब्द जो हम बोलते हैं ये कहीं किसी के कानों में नहीं जाते, क्योंकि जो हमने शब्द बोल दिये वे यदि किसी एक के कान में चले गए तो बाकी जो 200-400 लोग बैठे हैं वे उन शब्दों को सुनने से वंचित रह जायेंगे । यदि ऐसा होने लगे कि जिधर को मुख करके बोल रहे हैं उधर के ही लोग उन शब्दों को सुन पाये, पीछे बैठे हुए लोगों को वे शब्द सुनाई ही न पड़ें तब तो फिर वे पीछे वाले बेचारे शब्द सुनने से वंचित रह जायेंगे । किंतु ऐसा नहीं होता है । चारों तरफ भाषावर्गणायें हैं उन भाषावर्गणावों में शब्दों का परिणमन हो जाता है । और सभी लोग अलग-अलग उन शब्दों को सुन लेते हैं । इन शब्दों की स्कंध से उत्पत्ति बताने के लिए यह गाथा कही गयी है ।
शब्द की अव्यंज्यता व उत्पाद्यता―शब्द पुद्गल की पर्याय है, आकाश आदिक की पर्याय नहीं है । कुछ दार्शनिक लोग ऐसा मानते हैं कि ये शब्द सदा रेडी रहते हैं, बने हुए रहते हैं, तैयार पड़े हैं, उन शब्दों की उत्पत्ति नहीं करनी पड़ती, किंतु जैसे घड़ा ढका है कपड़े से तो घड़ा वहाँ मौजूद है, केवल एक कपड़े का आवरण हटाना है, घड़ा दिख जायेगा । ऐसे ही शब्द सब जगह मौजूद हैं, केवल एक आवरण हटाना है । तो कुछ दार्शनिक लोग शब्दों को व्यक्त करने योग्य मानते हैं, लेकिन शब्द व्यंज्य नहीं है । जहाँ अंतरंग बहिरंग कारण सामग्री योग्य साधन मिल जाते हैं वहाँ भाषावर्गणा के योग्य ये पुद्गल स्वयं शब्दरूप परिणम जाते हैं ।
शब्द की हेयता व आत्मतत्त्व की उपादेयता―ये शब्द मायामय हैं । इन मायामय शब्दों में जो पुरुष आसक्त होते हैं, लीन होते हैं वे रागद्वेष के वश होकर कर्मबंध करते हैं, इस लोक में भी पराधीन हो जाते हैं और कर्म के अधीन होकर भावी काल में भी वे पराधीनता का दुःख सहते हैं । ये शब्द हेय तत्त्व हैं अर्थात् ये शब्द भी हेय हैं, ग्रहण करने योग्य नहीं हैं ।यहाँ तक कि अपने अंतरंग में जो ध्यान के लिए शब्द उत्पन्न होते हैं वे भी हमारे किसी न किसी रूप में बाधक हैं । ऐसे इन शब्दों का भी अभाव हो जाये तब इस आत्मा की आत्मोपलब्धि होती है । ये हेय तत्त्व हैं, इस कारण शुद्ध आत्मतत्त्व ही उपादेय है ऐसा तात्पर्य लेना ।ये बाह्य पौद्गलिक बातें ये समस्त हेय हैं, इनसे हटना और निज सहज ज्ञानानंदस्वरूप में अपना उपयोग देना यही कल्याण का मार्ग है ।