वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 7
From जैनकोष
अण्णोण्ण पविसता दिंता ओगासमण्णमण्णस्स।
मेलता वि य णिच्च सग सगभाव ण विजहंति।।7।।
क्षेत्रसंकरता होने पर भी विविक्तता―अनंत जीव द्रव्य और उनसे भी अनंत गुणे पुद्गल द्रव्य एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य ये समस्त पदार्थ अपने स्वरूप चतुष्टय से है पर के स्वरूप से नहीं हैं। ये पदार्थ यद्यपि एक ही जगह पाये जाते है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर छहों द्रव्य उपस्थित है यों कहो कि एक दूसरे में प्रवेश किए हुए हैं। बाह्य क्षेत्र की अपेक्षा आकाश के उस प्रदेश पर ही सर्व द्रव्य अवस्थित हैं और जब उस ही प्रदेश पर अवस्थित हैं तो एक दूसरे में प्रवेश किए हुए हैं। और यहाँ तक कि निमित्त नैमित्तिक बंधन में जीवकर्म और शरीर ये विशेषतया एक दूसरे में प्रविष्ट हैं, इतने पर भी कोई भी पदार्थ अपने स्वभाव को छोड़ता नहीं है। सभी पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं।
पदार्थों का स्वातंत्र्य―पूर्व गाथा में यह बताया था कि ये पदार्थ प्रतिक्षण परिणमते रहते हैं तिस पर भी शुद्ध दृष्टि से देखा जाय तो वे नित्य है अनित्य नहीं, विनाशीक नहीं, इस ही तरह इस ही कारण से इन समस्त पदार्थों में एकत्व का प्रसंग नहीं होता है। जीव और कर्म में व्यवहार दृष्टि से एकत्व है, परस्पर में बंधे हुए है, मूर्त हैं, फिर भी परस्पर में एक दूसरे के स्वरूप को ग्रहण नहीं करते हैं। एक ही जगह में कोई पदार्थ आ जाय तो उसे संकर कहा करते हैं ऐसा बाह्य संकरता आने पर भी उस स्थिति में एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का प्रवेश नहीं है सब अत्यंत व्यतिकर रहा करते हैं। ऐसे एक ही जगह सब पदार्थ होने में संकर और व्यतिकर की आपत्ति हो सकती है पर यहाँ यह आपत्ति नहीं है, क्योंकि पदार्थ अपने-अपने सत्त्व से ही रहता है, पर के सत्त्व से नहीं।
सक्रिय और निष्क्रिय समस्त पदार्थों की परस्पर विविक्तता―इन पदार्थों में जीव और पुद्गल तो सक्रिय पदार्थ है, जीव और पुद्गल दोनों एक जगह से दूसरी जगह चल देते हैं, इनमें क्रिया पायी जाती है, किंतु शेष के चार द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये जहां है तहां ही अनादिकाल से हैं। और अनंतकाल तक वहाँ ही रहेंगे। इन चार द्रव्यों में क्रिया नहीं पायी जाती है, ऐसे ये सक्रिय और निष्क्रिय पदार्थ एक ही क्षेत्र में पाये जाते हैं फिर भी सब एक दूसरे से भिन्न ही है। जैसे आप हम जिस जगह बैठे हैं, जितने प्रदेश में हमारा आत्मा है उनके प्रदेश में यह शरीर भी तो हैं शरीर अलग पड़ा हो आत्मा अलग जगह बैठा हो ऐसा तो नहीं है। दूध और पानी की तरह है। जैसे दूध और पानी एक स्थान पर होकर भी भिन्न-भिन्न हैं। ऐसे ही शरीर और आत्मा हैं तो एक स्थान पर, परंतु शरीर, शरीर की जगह है और आत्मा, आत्मा की जगह है। एक ही स्थान में होकर भी परस्पर में अत्यंत भिन्न हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप त्रिकाल भी नहीं हो सकता है। ऐसी तो वस्तु की स्थिति है, किंतु मोहीजन इस दृढ़ दुर्ग को न समझकर यह एक दूसरे का स्वामी निरखता है, एक का दूसरे पर अधिकार निरखता है। बस यही भ्रमबुद्धि ही कर्म बंधन का कारण है।
समस्त अर्थों में सार तत्त्व―इन द्रव्यों के बीच में सारभूत द्रव्य क्या है? हम किस पर अपनी निगाह रक्खा करें कि हमें कल्याण मिले, शांति मिले, ऐसा सारभूत तत्त्व क्या है। जो कुछ यह दृश्यमान है वैभव, समागम, परिजन, घर ये सब मायारूप स्कंध हैं, ये तो स्वयं में ही परमार्थ नहीं हैं, मेरे लिए तो क्या परमार्थ बनेंगे। जो कुछ दिखता है यह सब मेघ और बिजली की तरह चंचल है। ये सब एक दिन विघट जायेंगे। जैसे मेघ कितने ही रूप रख लेते हैं―हाथी, घोड़ा, मकान, इत्यादि और देखते-देखते ही वह आकार विलीन हो जाता है। तो जैसे ये मेघ क्षणिक हैं, चंचल हैं, इसी तरह जो कुछ भी यहाँ दिखता है सब चंचल है। ऐसे इन दृश्यमान स्कंधों में कोई सारभूत चीज है ही नहीं। धर्म, अधर्म आदिक अमूर्त आदिक परद्रव्यों से हमारा कोई व्यवहार चलता ही नहीं, हम उन पर क्या निगाह करें। केवल हमारे लिए सारभूत शरणभूत पदार्थ है तो वह है निज शुद्ध जीवास्तिकाय, अर्थात् अपने आपका जो अंत:स्वरूप है, विशुद्ध चैतन्यमय है उस विशुद्धस्वरूप की दृष्टि करना यही सारभूत और शरण तत्त्व है। यह अपने आपके अंदर मौजूद है।
सार शरण अनुपम परमात्मतत्त्व―अहा, कैसा यह विलक्षण परमात्मतत्त्व है कि इसे देखने की विधि जिसे मालूम हो सो तो देख सकता है, और जिसे देखने की पद्धति नहीं मालूम है वह अंत:विराजमान होने पर भी इस प्रभुता को निरख नहीं सकता है। जैसे शुद्ध द्रव्यार्थिकनय अथवा शुद्ध पर्यायार्थिकनय से देखना चाहिए। अपने आपको जितना अकेला अनुभव करेंगे उतना ही हम प्रभु के मर्म में पहुंच जायेंगे। अपने आपकी इस प्रभुता को इस भगवत् तत्त्व को निरखने की यही एक पद्धति है कि हम अपने को अकेला निरखा करें। उस अकेले की बात नहीं कह रहे हैं जिसके आगे पीछे कोई नहीं है, जिसकी कोइ्र पूछ भी नहीं करता है। वह तो पर्यायदृष्टि से शरीर सहित अपने को निरखता हुआ अकेला कह रहा है, किंतु अपने आपमें अनादि अनंत विराजमान जो शुद्ध चैतन्य स्वभाव है उस भगवत् तत्त्व के दर्शन हो सकेंगे। इस प्रभुता के दर्शन में अनंत आनंद बसा हुआ है।
शांति का सुगम स्वाधीन उपाय―देखो भैया ! कितना सुगम स्वाधीन शांति का उपाय है, पर ये रागद्वेष की ज्वालाएँ यह मोह का पंक कलंक इस प्रभुता के ऊपर आवरण रूप पड़ा हुआ है जिन आवरणों से यह स्वयं प्रभु होकर भी अपने आपकी प्रभुता का दर्शन नहीं कर पाता हैं। इसके दर्शन की विधि यही हे, अपने को शरीर सहित न अनुभव करो। मैं शरीर से न्यारा हूं। जो रागद्वेष विचार विकल्प वितर्क उठ रहे हों उन रूप अपने को न तको। मैं उन विचार वितर्कों से न्यारा हूं। ऐसा अपने आपके एकत्व स्वरूप को देखो। जितना अपने आपको अकिंचन अकेला निरखोगे उतना ही अपना ही अपने आपके मर्म को पावोगे। यह शुद्ध जीवास्तिकाय परमात्मस्वरूप ज्ञान और आनंद से भरपूर है। इसे स्वसम्वेदन ज्ञान से ही जाना जाता है। जानने वाला यह मैं जब इस जानने वाले को ही निरखने लगूँ उसे कहते हैं स्वसम्वेदन ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान के ही स्वरूप को जानने लगे तो वहाँ जानने वाला भी ज्ञान रहा और जो जानने में आया वह भी ज्ञान रहा यों ज्ञान-ज्ञान दोनों ज्ञाता ज्ञेय हो जाने से एक निर्विकल्प अवस्था हो जाती है। स्वसम्वेदन ज्ञान से ही यह आत्मतत्त्व जाना जाता है, इसी को कहते हैं शुद्ध परमपारिणामिक भाव को ग्रहण करने वाला उपयोग।
शाश्वत स्वभाव का आश्रयण―जो हममें परिणतियां होती हैं उन परिणतियों को न निरखकर उन परिणतियों का आधारभूत जो एक स्वभाव है उस स्वभाव का उपयोग करें उस उपयोग के द्वारा शुद्ध जीवास्तिकाय सम्विदित होता है। यह स्वसम्वेदन ज्ञान जिस समय हो रहा होगा उस समय यह जीव समतारस से भरपूर रहा करता है। उस परम समता में शुद्ध आत्मीय आनंद रहा करता है। यह परम आनंद निर्विकल्प दशा में उत्पन्न होता है। इस स्थिति में किसी प्रकार का संकल्प विकल्प की तरंग वहाँनहीं उठती है।
द्वैतबुद्धि की तरंग―यह आत्मा स्वभावत: शांत है, किंतु इसमें जैसे ही कोई विकल्प और वितर्क की कल्लोल उठी कि बस यही फिर त्रस्त और संक्लिष्ट हो जाता है। ये संकल्प विकल्प उठा करते हैं पर द्रव्यों का आलंबन करने से। खूब अनुभव कर लीजिए। अपने आत्मतत्त्व के सिवाय किसी भी पर द्रव्य का जब हम आलंबन करते हैं तो उस उपयोग में ही ऐसी खासियत है कि इससे विकल्पजाल उत्पन्न हो जाते हैं। यह द्वैत, भेदकर दिया ना। मैं कौन हूं और किसी दूसरे पर दृष्टि गयी। इस द्वैतभाव में विकल्प हुआ, कष्ट हुआ, यह सब प्राकृतिक बात है।
पराशा का क्लेश―यह जीव पर द्रव्यों का आलंबन करता क्यों है? इसको किसी न किसी प्रकार के इंद्रिय के विषय अथवा मन के विषयों में वांछा रहा करती है। मन का विषय है ख्याति, लाभ, पूजा का मेरा बड़प्पन बढ़े, सारी दुनिया मुझे जान जाये, यह कितनी मोह की दृष्टि है, अरे यह सारी दुनिया का मानव समूह स्वयं मायामयी है, विनाशीक है, दु:खी है, कर्मों का प्रेरा है। इन दु:खी और भिखारी पर द्रव्यों में मोह रखने वाले इन जीवों में मैं अच्छा कहलाऊं ऐसा भाव का क्या अर्थ है? जैसे कोई कहे कि मैं बादशाहों का बादशाह कहलाऊं तो यह कोई अच्छी भावना तो नहीं है? पूछ होगी तो यह तो कोई भली बात नहीं है। इस ही तरह से कर्मों के प्रेरे जन्म मरण के दु:ख से दु:खी निरंतर विकल्प की ज्वालावों से जल रहे इस संसार के प्राणियों में मैं कुछ अच्छा कहलाऊं इस प्रकार की इच्छा होना यह कितनी बड़ी कलुषता है। यही है मन का विषय। अब सोच लीजिए कि मन का विषय भी कितना गंदा और भूल में भटकाने वाला विषय है।
मन का उद्वेग―मोही जीव निरंतर यह चाह रहे कि मुझे अमुक चीज का लाभ हो जाय, अमुक चीज प्राप्त हो जाय ऐसी लाभ की बातों का बहुत-बहुत विचारना यह ही तो मन का विषय है, पर सोचो तो सही तेरा आकाशवत् अमूर्त चैतन्यस्वभाव, उसमें किसी पर वस्तु का प्रवेश भी हो सकता है क्या? अनहोनी बात को होनी बनाने की इच्छा करना यह तो बुद्धिमानी नहीं है, और देखिये इंद्रिय के विषय जिन विषयों को देखो उनकी ही तो चाह होती है अथवा जिन विषयों को भोगा है उन विषयों की ही तो चाह होती है ऐसी इष्ट श्रुत और अनुभूत विषयों की जो वांछा है, इस ही कारण कृष्ण, नील, कपोत आदिक जो खोटे परिणाम हैं उन परिणामों से प्रेरित होकर यह जीव परपदार्थों का सहारा तकता है और जहां इस जीव ने अंत: श्रद्धा से किसी परद्रव्य का सहारा तका कि बस यह दु:खी हो जाता है। इन सब क्लेशजालों से छूटने की सामर्थ्य एक सम्यक्त्व में है।
सम्यक्त्व का प्रताप―सम्यग्दर्शन होने पर अनंत कर्मों का बंधन शिथिल हो जाता है। सच पूछो तो जितनी स्थितियां कर्मों की और जितने अनुभाग कर्मों के सम्यक्त्व होने पर खिर जाते हैं इनके खिरने पर फिर तो ये बहुत हल्के बोझ वाले हो जाते हैं, यों समझिये कि एक सम्यग्दर्शन प्राप्त करने पर हमने 99 प्रतिशत काम कर लिया है, अब केवल एक प्रतिशत काम और रह गया है। किसी भूली भटकी स्थिति में सही मार्ग की झलक आ जाय तो वह सबसे बड़ा कार्य हैं। अब चलने का रहा तो चला लिया जायगा।
सम्यक्त्व के प्रताप पर एक दृष्टांत―एक दृष्टांत में सद्दर्शन का प्रताप सुनिये। कोई पुरुष किसी गांव को जा रहा था। शाम हो जाने से उसे सही रास्ता न मिला, वह भटक गया अंधेरी रात्रि में एक जंगल में फंस गया। अब वह मुसाफिर 9, 10 बजे के लगभग में विचार कर रहा है कि मैं बहुत फंस गया हूं। यदि बढ़ता ही चला गया तो भूल बढ़ती ही जायगी। वह वहीं ठहर गया। हिम्मत बना ली, मर जायेंगे तो मर जायेंगे, अथवा जो दशा होनी होगी हो लेगी। करीब 12 बजे रात्रि को क्षण भर को एक बिजली चमकी। उस क्षणिक बिजली की चमक में उसे दिख गया वह रास्ता जो एक मुख्य मार्ग था। उस मार्ग के देखते ही उसके मन में बड़ा संतोष आ गया। फंसा है यद्यपि जंगल में और सिर्फ एक मार्ग की ही झलक तो हुई, उस मार्ग की झलक के कारण उसे पूर्ण संतोष हो गया। अब उसे डर नहीं रहा। चिंता शोक नहीं रहा। उसे यह निर्णय हो गया कि तीन चार घंटे और रह गये हैं। रात्रि गुजरने दो, इस ही रास्ते से चलकर सुबह पहुंच जावेंगे। तो आप सोचो कि क्षण भर की सच्ची झलक कितना बड़ा काम कर देती है। ऐसे ही इन इंद्रिय विषयों से, मन के विषयों से निवृत्त होकर हम अपने आपके स्वरूप की कुछ क्षण झलक कर पायें तो यह कितना काम देगा।
सम्यक्त्व में आशय की स्वच्छता―सम्यक्त्व का अचिंत्य प्रभाव है। सम्यक्त्व बिना ही यह जीव अब तक संसार में भ्रमण करता चला आया है। सम्यक्त्व में यही तो एक विश्वास बनता है। सर्व परिपूर्ण हैं, सर्व अपने द्रव्यगुण के कारण अपने आपमें निरंतर परिणमन किया करते हैं। सभी पदार्थ अपने आपके ही कर्ता और भोक्ता होते हैं। इसी विधि से ही सर्व पदार्थों का सत्त्व बना हुआ है ऐसी स्थिति में कहां गुंजाइश है कि कोई पदार्थ किसी का स्वामी बन जाय, कर्ता भोक्ता बन जाय। यह स्वरूप का किला बड़ा मजबूत है। इसमें विघटन नहीं हो सकता है। ऐसे एक इस स्वतंत्र स्वरूप की श्रद्धा में यह सम्यक्त्व हो जाता है। सम्यक्त्व से वास्तविक मायने में जैन का प्रारंभ हुआ। सही दृष्टि से यह कबसे जैन कहलायेगा? जबसे इसे सम्यक्त्व हो। सम्यग्दृष्टि को चिंता, आकुलता, व्याधि, शोक ये कुछ नहीं हुआ करते हैं। वह अपने को अकिंचन परिपूर्ण सुरक्षित निरख-निरखकर अंत: प्रसन्न रहा करता है।
स्वरूपदर्शन की बाधाहरता―इस गाथा में वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताया गया है, जिसको देखने से जीव को कोई बाधा नहीं रहती है। देखो ये अनंतानंत द्रव्य एक ही जगह भी रहें, परस्पर में संकरता भी हो जाय तो भी अपने-अपने प्रतिनियत स्वरूप से यह च्युत नहीं होता है। अपने इस अमिट स्वरूप को अपने में ही लिए रहा करता है, एक दूसरे का स्वरूप ग्रहण नहीं करता है। इस चीज को अपने आप पर आजमाय, जितने कुछ ये पिंड हैं, जिसे यह मोही प्राणी मैं-मैं कहा करता है इस पिंड में इस व्यंजनपर्याय में जीव तो एक हुआ और इसके साथ अनंते तो पुद्गल परमाणु लगे हैं और अनंते कर्मों के परमाणु लगे हैं। इस समर्थ एक के साथ ये अनंतानंत द्रव्य चल रहे हैं, लिपट रहे हैं जिससे यह संसार में रुल रहा है। लेकिन जब इसे सही तत्त्व का बोध हो जाय तो ये अनंतानंत भी पुद्गल परमाणु इसके साथ लगे हुए यों शोभा देंगे जैसे किसी समर्थ हाथी के पीछे छोटे-छोटे अनेक कुत्तों के बच्चे भोंकते हैं। वह हाथी गंभीर ही रहता है, उसको रंच भी क्षोभ नहीं होता है, वह अपनी ही धुन में अपनी गज चाल से चलता ही जाता है। ऐसे ही, ज्ञानी जीव किसी संसार की किसी परिस्थिति तक इसके साथ अनंत आपत्तियां और दंदफंद पक्ष लग रहे हैं, किंतु जिसने अपनी ज्ञान गंभीरता का निर्णय किया है वह गंभीर और धीर होकर अपने ही स्वरूप पथ पर चलता जाता है।
ज्ञानपद्धति―भैया ! अपना कर्तव्य है कि हम जिस किसी को भी जानें, इस ढंग से जाने कि एक स्वतंत्र पदार्थ है, यह अपने सत्त्व के कारण परिणमता रहता है, इसमें मेरा स्वामित्व नहीं है। इस तरह वस्तु की स्वतंत्रता को निरख-निरखकर जो अपना ज्ञानबल पुष्ट किया करता है ऐसा पुरुष ही परम समता में आता है। इस समतारस का स्वाद लेकर जो एक स्वसम्वेदन ज्ञान बना है उस ज्ञान से यह भरपूर और उस ज्ञान से गम्य अपने आपको निरंतर अनुभवता रहता है। इससे बढ़कर धर्म करने का अन्य व्यवसाय नहीं है। उस अपने आपमें विराजमान अपने ही चैतन्यस्वरूप को निरखना, यही वास्तविक मायने में धर्मपालन है और इस धर्मपालन फल में अवश्य ही निर्वाण प्राप्त होगा।