वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 80
From जैनकोष
णिच्चो णाणवकासो ण सावकासो पदेसदो भेत्ता ।
खंधाणं पि य कत्ता पविहत्ता कालसंखाणं ।।80।।
नित्यदृष्टि में मोहविघात―यह जगत जो कुछ दीख रहा है यह तो विघट जाता है, ओझल हो जाता है, यह सारभूत नहीं है । इस दृश्यमान जगत में इसका जो मूल कारण है वह है परमाणु । उस परमाणु के स्वरूप का इसमें वर्णन है । जैसे हम अपने आपमें अपना मुख्य आधार जो एक चैतन्यशक्ति है उस चैतन्यशक्ति पर दृष्टि जाये तो रागद्वेष मोह नहीं ठहरता, ऐसे ही इस दृश्यमान दुनिया के कारणभूत पर दृष्टि जाये तो रागद्वेष मोह नहीं ठहरता।
सृष्टि का मूल कारण―कुछ लोग इस दुनिया का कर्ता ईश्वर को मानकर उस ईश्वर को अपनी भक्ति और दृष्टि इस ध्यान से लगाया करते हैं कि यह प्रभु मुझे दुःख न दें, सुख दें, सद्बुद्धि पैदा करें आदिक सारी बातों को लिए यह सारा जगत चराचर है, तो जीव और अजीव में तो जीव में मूल कर्ता है यह चैतन्यशक्ति और अजीव का मूल कर्ता है परमाणु । यही है सृष्टिकर्ता और ये हैं सब अनंत, अतएव सभी सृष्टियों में कोई किसी प्रकार की बाधा नहीं होती ।
आत्मरक्षा के लिये नित्यतत्त्व की दृष्टि का अनुरोध―यह परमाणु नित्य है क्योंकि यह एकप्रदेशी है । एकप्रदेशी के रूप से यह कभी नष्ट नहीं हो सकता । इसमें रूप आदिक सामान्य गुण हमेशा रहा ही करते हैं, अतएव यह नित्य है । देखिए नित्य अपने आपके स्वरूप का बोध होने से एक आत्मतृप्ति रहती है और अनित्य पदार्थों से उपेक्षाभाव जागृत होता है । आत्मा स्वयं आनंदनिधान है, क्षमाशील है । वास्तविक क्षमा तो आत्मा की यही है कि यह विषयकषायों में न लगकर अपने आपके ज्ञान दर्शन स्वरूप की रक्षा करे और उसे बिगड़ने न दे, क्षोभ न आने दे । यही है एक उत्तम क्षमा । जगत के अन्य जीवों से प्रयोजन क्या है, इनमें राग करने से क्या सिद्धि है और विरोध करने से क्या सिद्धि है? राग और विरोध जो किये जाते हैं वे भी स्वप्न की तरह अपनी कल्पनाएँ हैं, क्षणभंगुर हैं । जो जीव इन कल्पनाओं में उलझ जाता है, इन क्षणभंगुर घटनाओं में उलझ जाता है वह न शांत रह सकता है, न अपना भावी जीवन सुधार सकता है ।
परमाणु में अनवकाशता का अभाव―इस दृश्यमान दुनिया का कारणभूत परमाणु नित्य है और उस परमाणु में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुण भरे पड़े हुए हैं । उसही प्रदेश में स्पर्श है, उस ही प्रदेश में रस है, गंध है, वर्ण है, कोई किसी को रोकता नहीं है, इसलिए यहाँ अनवकाश नहीं है, अर्थात् यहाँ समाने को जगह न रहे ऐसी बात नहीं है । ऐसी ही बात अपने आत्मा की भी निरखें । इस आत्मा के जिस प्रदेश में ज्ञान है, उस ही प्रदेश में दर्शन गुण है, उसही प्रदेश में आनंदगुण है । यह आत्मा भी इस ही तरह अनवकाश नहीं है । अनंतगुणों से यह अपने आपमें स्थान देने में समर्थ है ।
परमाणु में सावकाशता का अभाव―इस परमाणु में एक ही प्रदेश है, दो आदिक नहीं, अतएव यह परमाणु अपने आप ही आदि, अपने आप ही मध्य और अपने आप ही अंत है, इसलिए यहाँ दूसरे का प्रवेश नहीं है । जरा अपने आत्मा पर भी दृष्टि दो । यह आत्मा एक अखंड है । इस आत्मा में किसी दूसरे आत्मा का प्रवेश नहीं है, अतएव यह भी सावकाश नहीं है । इस आत्मा का यह ही आत्मा आदि है, यह ही मध्य है और यह ही अंत है और यह आत्मा द्रव्यश्रुत से तो प्रतिपाद्य होता है और भावश्रुत से जाना जाता है । इस आत्मा की जिन जीवों ने सुध नहीं ली वे अब भी रुलते हुए इस संसार में चले आ रहे हैं ।
लोकोत्तर वैभव की उपेक्षा―अपने आपकी सुध हो जाना लोकोत्तर वैभव है । एकबार इतना साहस तो देवो कि मेरे आत्मा का वैभव मात्र यह मैं ही हूँ और यह तीन लोक का सारा जड़ वैभव यह तो धूलवत् है । जो समस्त अचेतन पदार्थों से समस्त परिग्रहों से एक बार भी इस तरह से देख लेता है कि है क्या, यह सब धूल है । अरे इस जड़ वैभव के कारण यदि कुछ यहाँ इज्जत भी बढ़ी, इज्जत के लिए तो लोग धन कमाया करते हैं । धन कमाने का, अधिक से अधिक संचय करने का और प्रयोजन क्या है? यही न कि हम भूखे न रहें, ऐसा न हो कि किसी दिन रोटी न मिले । अरे यह प्रयोजन नहीं है । सब जानते हैं कि रोटी खाने के लिए ही लोग धन की कमाई नहीं करते हैं । लोग धन की कमाई करके, धन का संचय कर के इज्जत चाहते हैं । अरे जिस दुनिया में इज्जत चाहते हो वह दुनिया है क्या? जिन लोगों में इज्जत चाहते हो वे लोग हैं क्या? हम आपकी ही तरह कर्मों के प्रेरे वे सब भी जीव हैं ।विपदावों से परेशान होकर संसार में जन्म-मरण कर रहे हैं । अरे वे सब भी मायारूप हैं, स्वयं दुःखी हैं, ऐसे इन जीवों ने मानो कुछ यश भी गा दिया, इज्जत भी कर दिया तो इससे आपके आत्मा का कौनसा सुधार हो जायेगा? यहाँ के सभी जीव मोही मलिन दिखते हैं नरक निगोद के पात्र बने हुए हैं ।
प्रभुपूजा का प्रयोजन―भैया! प्रभुपूजा से यही तो हम अपने आप में भावना लायें कि हे प्रभो ! मुझे तुम अपने निकट बुला लो । यहीं रहने का मेरा धाम नहीं है । निकट बुलाने का नाम जगह के निकट नहीं, किंतु जैसा तुम्हारा स्वरूप है वैसा ही स्वरूप मेरा होने लगे, बन जाये, इससे ही मेरा भला है । बाकी इस दुनिया में जहाँ हम रह रहे हैं यह सब मायाजाल है, विनश्वर है । भिन्न है । इसमें मेरा धाम नहीं है, रहने योग्य स्थान नहीं है । जितना भगवान की भक्ति द्वारा, ज्ञानचर्चा द्वारा, ध्यान द्वारा परपदार्थों से हटकर अपनी ओर का झुकाव होगा उतना ही भला है और इसी झुकाव के लिए ऋषिसंतों ने पदार्थों के यथार्थस्वरूप का वर्णन किया है ।
स्कंधभेतृत्व―यहाँ परमाणु की चर्चा चल रही है । परमाणु का अर्थ जो कुछ यहाँ दिखता है इन दिखने वाली चीजों में मूलतत्त्व क्या है, असली चीज क्या है जो मिट न सके? यह भींत तो मिट जायेगी, यह शरीर तो बिखर जायेगा । न मिटने वाली यहाँ कोई वस्तु है अथवा नहीं? परमाणु है । यह परमाणु स्कंधों में पड़े हुए हैं, किंतु जब इन परमाणुवों में किसी में योग्य स्नेह न रहेगा तो इन स्कंधों का भेदन हो जायेगा और इससे छूट जायेंगे । जैसे कि जिस आत्मा में स्नेह नहीं रहता, रागद्वेष मोह परिणाम नहीं रहता तो वह कर्मस्कंधों से अलग हो जाता है, छूट जाता है । इसी तरह इन दिखने वाले पदार्थों में से परमाणु भी जब अपने एक प्रदेश में उस प्रकार का स्नेह नहीं रहता तो विघट जाया करता है ।
दर्शनकला―भैया! यह सब देखने की कला है । जैसी किसी पुरुष अथवा महिला को किसी को रागभाव की दृष्टि करके देखा तो उसमें स्वच्छता, सुंदरता, साफ इस तरह की दृष्टि बन जायेगी, यह नजर आने लगेगा और जब बुद्धि काबू में हो, रागद्वेष भाव न जग रहा हो, केवल कल्याणमात्र की स्थिति हो तो ये शक्ल सूरत सब पुरुषों जैसी साधारण मालूम होती हैं ।जैसे कोई मरघट में पड़ी हुई खोपड़ी बेढब ढंग की दिखती है ऐसे ही ये सारी सूरतें बेढंगी दिखेगी । सब दृष्टि का बल है । अज्ञानभाव से कोई जीव शांत अथवा सुखी नहीं हो सकता है । परपदार्थों को अपनाना, परिग्रहों में तीव्र ममता रखना यह घोर अज्ञानभाव हैं । इनमें पड़कर परेशान होता है यह जीव । शरण चाहता है दूसरों से, पर शरण मिलती नहीं है तो दुखी होता है । मेरा दुःख मिटे । अरे दुःख कैसे मिटे? दुःख तो तुमने ही ममता परिणाम करके बनाया है । उस ममता परिणाम को मेट लो तो अभी सुखी हो जावोगे।
नि:स्नेहता से विपदा का अभाव―किसी बालक के हाथ में कोई खाने की चीज हो तो उस बालक पर घर के या निकट के बालक टूट पड़ते हैं उस खाने वाली चीज को छीनने के लिए, यह बालक दुखी होता है । अरे बालक उस चीज को फेंक दे, पैरों से कुचल दे, लो सारे दुःख मिट जायेंगे ।अरे फेंक दिया, कुचल दिया तो फिर कोई बालक काहे को लड़ेगा? ऐसे ही ये संसारी बालक अपने उपयोग में इन सभी चीजों को पकड़े हुए हैं, इसीलिए अनेक प्रकार के विवाद, कलह, लड़ाई झगड़े होते रहते हैं । यह सारी संपत्ति मेरे ही घर में आ जाये, ज्ञान में यश में, धन में, व्यापार में सभी बातों में अनेक प्रकार के विवाद बने रहते हैं, झंझट बने रहते हैं ।
माया की प्रीति में अलाभ―भैया! सीधा सा तो काम था कि धर्म के अनुकूल अपनी प्रवृत्ति बनाते । जो कुछ भी आये होती उसमें धर्म का विभाग और पालनपोषण का विभाग करके अपनी आजीविका चलाते । यह कला सबमें मौजूद है, सभी गुजारा कर सकते हैं ।बजाये यह भावना भाने के उल्टी यह भावना भाने लगे कि हमारा तो इतने से काम ही नहीं चलता। लखपति होने से तो कुछ भी सिद्धि नहीं है, इतने से तो हमारा गुजारा ही नहीं चलता है । करोड़पति होना अच्छा है । करोड़पतियों की वांछा देखो―वे भी तृष्णावश अपने को दुःखी अनुभव करते हैं । तृष्णावश उस धन वैभव की कमाई के लिए अथक परिश्रम करते, यत्न करते, अनेक कोशिशें करते, इसी से यह जीव सदा परेशान रहता है, रहेगा । अंत में किसी के पास कुछ नहीं । लेकिन जितना जो कुछ मिला है उतने से संतोष नहीं हो पाता और उतने का भी सुख नहीं भोगा जा सकता है । अरे ये सब धन वैभव विनश्वर हैं, मायारूप हैं । उसमें तो यथार्थ मूल परमाणु ही तत्त्व है । यह परमाणु स्कंधों का भेद करने वाला है।
स्नेह से मायाजाल की वृद्धि―इस ही प्रकार जब इस एकप्रदेशी परमाणु में योग्य स्नेहभाव आ जाता है, स्निग्धता आ जाती है तो यह स्कंधों को बना लेता है । जैसा इस जीव में जब बंधन के योग्य स्नेह रहता है, रागद्वेष मोह रहता है तो यह कर्मस्कंधों का कर्ता हुआ करता है । ऐसे ही यह परमाणु इन स्कंधों का कर्ता बन जाया करता है । देखिये कोईसा भी विवाद हो उस विवाद का प्रारंभिक मूल अत्यंत छोटा हुआ करता है । उस छोटे मूल के बाद विवाद होता है, वह विवाद बड़े रूप में हो जाया करता है । जैसे भाई-भाई में लड़ाई । पार्टी-बंदी, ये सब होते हैं, कचहरियाँ चल जाती हैं तो उसका भी कारण मूल में ढूँढने चलो तो न कुछ जैसा मिलेगा । वह मौलिक कारण ऐसा होगा जो हास्य के योग्य होगा । ऐसे ही जानो कि यह जो इतना बड़ा विस्तार बन गया है दुनिया का, उस दुनिया के विस्तार का मूल-कारण केवल एकप्रदेशी यह परमाणु है । अथवा यह जितना जो कुछ जीवलोक का विस्तार बन गया है, इतना रागादिक भावों का विस्तार बन गया है उसका मूल कारण केवल एक अज्ञानभाव है । कौनसा कि जीव ने इतना भर मान लिया इस देह के प्रति कि यह मैं हूँ, इतना ही मात्र अपराध किया । इस अपराध का दंड, इस अपराध का विस्तार इतना बड़ा बन गया कि ये सारी परेशानियां हम आपको लग रही हैं।
अज्ञानविपदा―क्या यह कम विपदा है किसी को मान लिया कि यह मेरा है, किसी को मान लिया कि यह गैर है, इतनी मन में कल्पना उठना क्या यह कम विपदा है? सारी विपदावों का यह एक मूल उपाय बना है । जीव-जीव सब एक समान हैं । कोई आज आपके पास आ गया, आपके घर पैदा हो गया तो उसे आप मान लेते कि यह मेरा सब कुछ है और वही मरकर किसी पड़ोसी के यहाँ उत्पन्न हो जाये और फिर वही जीव आपको दिखे तो आप उसे अपना नहीं मानना पसंद करते हैं । यह विडंबना नहीं है तो फिर और क्या हैं? आज जो जीव गैर माने जा रहे हैं, वही मान लो आपके घर आकर पैदा हो जावे तो आप उन्हें ही अपना सर्वस्व मान लेते हैं । तो यह क्या है? यह अज्ञान की विडंबना है कि नहीं? ज्ञानी जीव पास आये हुए जीवों में भी वही झलक लेते हैं जो झलक सब जीवों में किया करते हैं । सर्व जीव एक चैतन्यस्वरूप हैं और सब मुझ से अत्यंत जुदे हैं । यह तो एक सफर है ।इस सफर में कुछ समय के लिए अपनी व्यवस्था बनाने के प्रयोजन से इन यात्रियों से परिचय बनाया गया है ताकि हमारी यह जरा से वर्षों की सफर ऐसी बीते कि धर्ममार्ग में हम अग्रसर बने रहे । इसके लिए थोड़ा-सा यह परिचय बना हुआ है ।
निरंश तत्त्व की मार्गणा―परमाणु की चर्चा में ऐसा ध्यान देना चाहिए कि जो कुछ यहाँ दिखने वाला है इसके टुकड़े होते-होते आखिर कोई टुकड़ा ऐसा बन जाता है जिसका दूसरा विभाग ही नहीं हो सकता, वह हाथों नहीं बनाया जा सकता, वह अपने आप बनेगा ।वह परमाणु अपने एक प्रदेशरूप में तो है, इस मंदगति से चलकर दूसरे पास के आकाश प्रदेश पर पहुंच जाये, इतने में जितना समय व्यतीत होता है उससे एक समय कहा करते हैं, और इस लोकाकाश पर ऐसे-ऐसे कालाणु असंख्यात हैं, उन कालाणुवों के बंध का विभाग वाला यह परमाणु है, बल्कि यों समझो कि परमाणु सब मापों का कारण है । छोटा से छोटा द्रव्य कितना? एक परमाणु का । छोटा से छोटा क्षेत्र कितना? एक परमाणु जितने में समा सके वह छोटा से छोटा क्षेत्र है । छोटा से छोटा काल कितना? एक परमाणु अपने प्रदेश का अतिक्रमण जितने समय कर सके वह छोटा से छोटा समय है और छोटा से छोटा भाव क्या? वह जैसा कि एक परमाणु, जैसे कि वह अविभक्तप्रदेशी है अथवा जघन्यगुण वाला परमाणु है । वैसे ही जघन्य भाव मिलेगा । यह परमाणु सबका मापदंड बना हुआ है, यही है इस सारी दुनिया का मूल कारणभूत । इसे दृष्टि में न लेकर जो जीव इन स्कंधों को ही अपना सर्वस्व समझते हैं उनके मोह बढ़ने लगता है ।
परेशानी और उसके दूर करने का उपाय―यह सारा जगत मोह से परेशान है । बड़े बूढ़े, बच्चे बालक इन सबके यही रोग लगा है । जिसके पास बैठो वही कुछ न कुछ अपने दुःख की कहानी सुनाने लगता है । सुख की कहानी सुनाने वाले कम मिलेंगे और जो सब बातों से लोकव्यवहार से परिपूर्ण है और सुख की कहानी भी कदाचित् सुनाने लगे तो भी उसकी अपेक्षा दुःख की कहानी कई गुणा सुनायेगा । कारण यह है कि दुःख सहा नहीं जाता और ऐसी स्थिति से दु:ख ही नजर आता है। जैसे 1 लाख का धन हो, उसमें 1 हजार घट जाये तो 99 हजार का सुख अनुभव नहीं कर सकते, किंतु उस 1 हजार के नुक्सान का दुःख अनुभव करते हैं । ऐसी ही बात सब परिस्थितियों की है । किसी भी परिस्थिति में यह जीव ऐसा संतोष नहीं करता कि अब इससे आगे बढ़ाने से क्या लाभ है? बड़ें तो आत्मा के गुणों के विकास में बढ़े । अपने भीतर के ज्ञानप्रकाश की वृद्धि करें और इसका यत्न भी करें । इस ओर दृष्टि उनकी हुईं जाती है जिनका होनहार अच्छा है ।
योग्य आचार का अनुरोध―भैया! कुछ भी सोच ले यह जीव, कुछ भी कर ले यह जीव । आखिर अपने किए का फल अवश्य पा लेगा यह जीव। वर्तमान में ही देख लो, कोई सद्व्यवहार करता है तो उसे फल उसका बाद में मिल जाता है । ऐसे ही जो जीव असद्व्यवहार करता है, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पापों में रमता है, मिथ्यात्व का खंडन नहीं कर सकता, सम्यक्त्व की उपासना नहीं कर सकता वह जीव वर्तमान में भी दुःखी है और भविष्यकाल में भी दुःखी होगा । आत्मा का दुःख जैसे मिटे वैसा उपाय बना देना ही वास्तविक क्षमा है । अपना ही दुःख मिटा ले तो क्षमा बन जायेगी । चलो न सही दूसरे के दुःख को मिटाने की बात, अपना ही दुःख मिटा लें, सही ईमानदारी से सोचो―किस प्रकार का दुःख लगा है और यह दुःख किस प्रकार से मिट सकेगा? उस उपाय को कर लो, अब क्षमावान हो गए । जो भी आप उपाय करेंगे सही अपने आपको शांत रखने के लिए, उस उपाय से दूसरों का भी भला होगा और अपने आपका भला तो सुनिश्चित ही है ।
प्रभुता की उपासना संकटमुक्ति का उपाय―यह जीव अपने आपके प्रभु पर ही क्रोध कर रहा है । दगा, विश्वासघात, हिंसा, झूठ, चोरी किसी प्रकार के अनेक गड़बड़ परिणाम कर के यह जीव अपने आपका घात कर रहा है । किसका? अपनी प्रभुता का । इस आत्मा में अनंत प्रभुता है । जिसका ज्ञानस्वभाव इतना उदार है कि सारे लोकालोक को एक दृष्टि में जान ले ।अपने आपमें विकल्प बनाकर यह जीव अपने आपकी प्रभुता का घात किए जा रहा है । इस खुद को बचावो, अपने आपकी इस प्रभुता पर कुछ क्षमाभाव तो लावो । अपने आपको व्यर्थ में क्यों सताया जा रहा है, यह शिक्षा हमें प्रभु उपासना से मिलती है । हम प्रभुभक्ति से अपने परिणाम ऐसे बनाएँ कि अपने आपको विषयकषायों में न लगने दें । दूसरे जीवों को जिसमें दुःख उत्पन्न होता हो ऐसा कोई कार्य न करें । यदि ऐसा कार्य कर लिया तो इससे स्वयं को भी प्रसन्नता रहेगी, दूसरे लोग भी प्रसन्न रहेंगे और यही उत्तम क्षमा धारण करने का प्रथम कदम होगा ।
परमाणु की निरंशता का अवगम―यहाँ शुद्ध परमाणु की चर्चा की जा रही है । जैसे निरंश सिद्ध भगवान के ध्यान में विषयकषाय को अवकाश नहीं है, इसी प्रकार निरंश परमाणु के स्वरूप के ज्ञान के समय विषयकषाय का आक्रमण नहीं है । सिद्ध की निरंशता अखंडरूप से है, हैं वे यद्यपि असंख्यातप्रदेशी, किंतु हैं त्रिकाल अखंड पदार्थ चेतनतत्त्व । परमाणु भी अखंड है वह भी निरंश है । देखिये भगवान का भी निज में सर्वत्र एक वही परिणमन है । जो परिणमन प्रभु के एक प्रदेश में है वही सर्वप्रदेशों में है । जैसे भगवान केवली एकप्रदेश में हुए केवलज्ञानांश से, एक समय से समय रूप व्यवहारकाल का और संख्या का परिच्छेदक है, ज्ञायक है, उसी प्रकार परमाणु भी एक प्रदेश से मंदगति से अणु से अन्य अणु पर व्यतिक्रम से समयरूप व्यवहारकाल का परिच्छेदक अर्थात् भेदक होता है ।
परमाणु में संख्या की प्रविभलता व परमाणुपरिज्ञान से लाभ―संख्या को आठ प्रकारों में जानिये―(1) जघन्य द्रव्यसंख्या, (2) उत्कृष्ट द्रव्यसंख्या, (3) जघन्य क्षेत्रसंख्या, (4) उत्कृष्ट क्षेत्रसंख्या, (5) जघन्य व्यवहारकालसंख्या, (6) उत्कृष्ट व्यवहारकालसंख्या, (7) जघन्य भावसंख्या, (8) उत्कृष्ट भावसंख्या । जघन्य द्रव्यसंख्या तो एक परमाणुरूप है, उत्कृष्ट द्रव्यसंख्या अनंतपरमाणु पुंजरूप है । जघन्य क्षेत्रसंख्या तो एक प्रदेशरूप है, उत्कृष्टक्षेत्रसंख्या अनंतप्रदेशरूप है । जघन्य व्यवहारकालसंख्या तो एक समयरूप है, उत्कृष्ट व्यवहारकालसंख्या अनंतसमयरूप है । परमाणु में वर्णादिक की जो सर्वजघन्य शक्ति है वह जघन्यभावसंख्या है, उस ही में जो वर्णादिक की सर्वोत्कृष्ट शक्ति है वह उत्कृष्ट भावसंख्या है । इन संख्याओं का परिच्छेदक भी एक अणु है । देखिये यहाँ शुद्ध अणु की चर्चा चल रही है । इस मायाजाल का मूल अंतस्तत्त्व यह अणु है । इसके परिज्ञान में जो उपयोग रहता है वह उपयोग मायाजाल के विषय से दूर रहता है । पुद्गल के अवगम के प्रसंग में परमाणु का अवगम विषयों से दूर रखता है । इस कारण भी परमाणु का परिज्ञान यहाँ उपयोगी समझा गया है और इस गाथा में परमाणु की एकप्रदेशरूपता का प्रतिपादन किया है ।