वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-12
From जैनकोष
लोकाकाशेऽवगाह: ।। 5-12 ।।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म व काल द्रव्यों का लोकाकाश में अवगाह―लोकाकाश में अवगाह है सूत्र का शब्द के अनुसार इतना ही अर्थ है, पर किसका अवगाह है, यह बात समझने के लिये पूर्व सूत्र देखने होंगे । अनंतर पूर्व के सूत्र देखने से तो पुद्गल का अवगाह आपतित होता है । इतना ही अर्थ निकलेगा, पर इतना अर्थ यहाँ नहीं है । समुदाय की यहाँ अपेक्षा है इस कारण लोकाकाश में धर्म अधर्म आदिक सभी द्रव्यों का अवगाह है, यह इस सूत्र का अर्थ होता है ।
आकाश की स्वप्रतिष्ठता व परमार्थ से सभी द्रव्यों की स्वप्रतिष्ठता―यहाँ एक शंका होती है कि सब द्रव्यों का अवगाह तो लोकाकाश में हुआ, पर इस लोकाकाश का भी क्या आधार है, वह भी तो कहना चाहिये । लोकाकाश कहो या आकाश कहो । आकाश किसके आधार रहता है, यह भी बताना चाहिये । उत्तर इसका यह है कि आकाश का अन्य कोई आधार नहीं होता । आकाश अपने ही आधार में रहता है, अर्थात् आकाश आधेय है और आकाश ही आधार है । इसका कारण यह है कि आकाश से अधिक परिमाण वाला अन्य कोई द्रव्य है हो नहीं । आकाश सर्वव्यापक है, इस कारण से आकाश का आधार अन्य कुछ नहीं होता । यदि आकाश का आधार भी ढूंढने चलेंगे, कल्पनायें करेंगे तो फिर उसका भी आधार बताना चाहिये, फिर उसका भी आधार बताना चाहिये तब तो अनवस्था दोष आ जायेगा । पर यहाँ अनवस्था दोष है ही नहीं । आकाश अपने आधार है, उसका आधारभूत अन्य कोई द्रव्य नहीं है । तथा वस्तु स्वरूप की भी बात देखिये परमार्थ दृष्टि से तो सभी पदार्थ अपने-अपने आधार में रहते हैं । एवं भूतनय की दृष्टि में सभी द्रव्य परमार्थ रूप से अपने आपके आधार में हैं । तो इस परमार्थ बात के कहने से कहीं यह एकांत न कर लेना तो फिर अन्य से अन्य के आधार बताना यह सब खंडित हो जायेगा । सो खंडित नहीं होता । क्योंकि व्यवहार से आधार आधेय की सिद्धि है । हां परमार्थ से तो आकाश की तरह सभी पदार्थ अपने-अपने आधार में हैं, इसका कारण यह है कि क्रियायें दो तरह की देखी जाती हैं एक कर्ता में रहने वाली क्रियायें और एक कर्म में रहने वाली क्रिया । जैसे एक वाक्य बोला―कि देवदत्त ठहर रहा है या देवदत्त जा रहा है तो ठहरने और जाने की क्रिया का समवाय देवदत्त कर्ता में है और जैसे कोई कहता है कि रसोइया चावल को पका रहा तो यहाँ पकने रूप क्रिया का समवाय क्रमकारक रूप चावल में है । तो वहाँ व्यवहारनय की दृष्टि से क्रिया का आधार द्रव्य रहा, और क्रिया सहित द्रव्य का आधार द्रव्यांतर रहा लेकिन परमार्थ दृष्टि से एवं भूतनय की अपेक्षा क्रिया क्रियात्मक में ही रहेगी, द्रव्य भी स्वात्मा में ही रहेगा । तो यहाँ सूत्र में जो लोकाकाश में धर्मादिक द्रव्यों का अवगाह कहा गया है वह व्यवहारनय के आदेश से कहा गया है । परमार्थत: देखा जाये तो सभी द्रव्य अपने-अपने आधार में रहते हैं ।
अयुत सिद्ध में भी आधाराधेयत्व का व्यवहार―अब यहाँ एक शंकाकार कह रहा है कि आकाश का तो बता रहे आधार और धर्मादिक द्रव्यों को कह रहे हैं आधेय तो आधार और आधेय तो भिन्न-भिन्न रूप से होते हैं अर्थात् पहले धर्मादिक आकाश में न हों, पीछे आकाश में चले हों, यह बात बन बैठेगी । जैसे मटके में बेर हैं तो बेर पहले मटके में न थे, पीछे मटके में डाले गये अथवा ये दोनों भिन्न ही तो हो गये, तब तो आधार आधेय समझ में आयेगा । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि पृथक् सिद्ध में ही आधार आधेय की कल्पना हो यह नियम नहीं है । जो आयुक्त सिद्ध है अभिन्न है वहां भी आधार आधेयपना देखा जाता है । जैसे कहते हैं कि हाथ शरीर में है । यहाँ शरीर को आधार कहा और हाथ में आधेय कहा फिर भी हाथ शरीर से कुछ जुदी चीज नहीं । सिर्फ हाथ और शरीर पूर्वापर दृष्टि से ये उत्पन्न तो नहीं हुये कि पहले शरीर हो, पीछे हाथ हो तो अयुत सिद्ध में भी आधार आधेय देखा जाता इसी प्रकार आकाश धर्मादिक पदार्थ अनादि से एक साथ सिद्ध हैं, इनमें पूर्वापर भेद नहीं है फिर भी आधार आधेय हो जाता है, इस कारण कहीं पृथक सिद्ध में भी आधार आधेय का व्यवहार है, कहीं अयुत सिद्ध में भी आधार आधेय का व्यवहार है । सर्व समस्याओं का हल अनेकांत दृष्टि से समझ लेना चाहिये ।
लोक व लोकाकाश का अर्थ―अब यहाँ लोकाकाश का अर्थ कहा जाता है । लोक कहते किसे हैं? तो लोक शब्द के व्युत्पत्ति के अनुसार अनेक प्रकार से अर्थ बनते हैं । पहला अर्थ यह है कि पुण्य पाप कर्म का सुख दुःख रूप फल जहाँ देखा जाये उसे लोक कहते हैं । इस अर्थ से लोक नाम आत्मा का रहा, क्योंकि पुण्य पाप कर्म का फल आत्मा में लिखा जा रहा है फिर भी रूढ़ि से लोक शब्द द्वारा सब द्रव्यों का ग्रहण होता है । दूसरा अर्थ है जो पदार्थ को प्राप्त करता है, लोकता है, देखता है उसे लोक कहते हैं । इस अर्थ में भी लोक नाम आत्मा का ही कहलाया, क्योंकि आत्मा ही पदार्थों की उपलब्धि करता है पर शब्द में ऐसी व्युत्पत्ति होने पर भी रूढ़ि से सभी द्रव्यों का नाम लोक कहलाता है । याने धर्मादिक द्रव्य सभी जहाँ पाये जाते वह लोक है । रूढ़ि के स्थान में क्रिया की मात्र व्युत्पत्ति कुछ समझने के लिये की जाती है । जैसे गौ शब्द कहा तो शब्द के अर्थ से तो गौ यह अर्थ निकलेगा कि जो जावे सो गौ है । तो क्या बैठी हुई गायें गौ न कहलायेगी? यहाँ समभिरूढ़ की प्रधानता है, इसी प्रकार जो लोक न करे, जाने सो लोक है । इस व्युत्पत्ति में भी धर्मादिक की लोकता की हानि नहीं है, क्योंकि यह सब समभिरूढ़ से ही सिद्ध हुआ है । अथवा लोक का यह तीसरा अर्थ किया जाये कि सर्वज्ञ भगवान के द्वारा जो देखा गया सो लोक है । लोक्यते यः सः लोक:, तो सर्वज्ञ के द्वारा समस्त ही पदार्थ जाने गये हैं इसलिये धर्मादिक समस्त पदार्थों के लोकपना सिद्ध होता है । इस तीसरे अर्थ में यह शंका न करना चाहिये कि फिर तो आत्मा छूट गया । देखने में जो आये सो लोक तो देखने में वे धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल आये, तो इनमें लोक न रहेगा यह शंका न करना, क्योंकि देखने में स्वात्मा भी आया है । छहों प्रकार के द्रव्य सर्वज्ञ के द्वारा जाने गये हैं । अब यहाँ यह भी शंका उत्पन्न कर सकते हैं कि इस तीसरे अर्थ की दृष्टि में अलोकाकाश भी लोक बन बैठेगा, क्योंकि अर्थ तो अब यह किया कि जो सर्वज्ञ द्वारा देखा जाये सो लोक है, तो सर्वज्ञ के द्वारा तो अलोक भी जाना गया क्योंकि यदि अलोक नहीं जाना गया तो वह सर्वज्ञ न रहेगा । यह शंका न करना, क्योंकि इस तीसरे अर्थ में भी रूढ़ि विशेष से छहों द्रव्य जहाँ पाये जाते हैं, छहों द्रव्यों का जो समूह है वह लोक कहलाता है, अथवा तीसरे अर्थ में एक यह विशेषण और लगाना चाहिये कि जहाँ रहते हुये सर्वज्ञ के द्वारा जो देखा जाये वह लोक है । तो सर्वज्ञ तो अलोक में हैं नहीं इस कारण समस्त अलोक-लोक से अलग कहलाने लगेगा । अथवा चौथा अर्थ यह करना चाहिये कि धर्म, अधर्म, पुद्गल, काल और जीव जहाँ देखे जायें वह लोक है । कहाँ देखे जाते? लोकाकाश में । लोकस्य आकाश: लोकाकाश: लोक का जो आकाश है वह लोकाकाश है और यह लोकाकाश धर्म द्रव्य के समान असंख्यात प्रदेशी है । यहाँ सब द्रव्यों का अवगाह है, उसके बाहर चारों ओर अनंत अलोकाकाश है । समस्त द्रव्यों का अवगाह स्थान बताया है । अब उस ही लोकाकाश में किन-किन द्रव्यों का कितनी-कितनी जगह में अवगाह है यह बतला रहे हैं ।