वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-11
From जैनकोष
नाणो: ।। 5-11 ।।
परमाणु का एक प्रदेशित्व―सूत्र का अर्थ तो इतना ही है कि परमाणु के नहीं है । इस सूत्र में दो पद हैं । न और अणो: । न शब्द तो अव्यय है और अणो: अणु शब्द की षष्ठी विभक्ति का एक वचन है, पर पूर्व सूत्र से शब्दों को अनुवृत्ति करने पर इसका सही अर्थ बनता है । वह अर्थ है कि परमाणु के संख्यात असंख्यात और अनंत प्रदेश नहीं होते हैं । अर्थात् परमाणु केवल एक प्रदेश परिमाण वाला है । आकाश का एक प्रदेश का जितना परिमाण है उतना ही परिमाण परमाणु का है । क्योंकि परमाणु पुद्गल के अविभागी अंश को कहते हैं । परमाणु से छोटा पदार्थ जगत में कुछ नहीं है इसलिये अणु वह अविभागी पुद्गल द्रव्य परमाणु है कि जिसका विभाग नहीं हो सकता, अर्थात् उसी परमाणु को तो आदि कहो, उसी को अंत कहो और उसी को मध्य कहो, ऐसा परमाणु इंद्रिय के द्वारा ग्रहण में नहीं आ सकता । इस सूत्र का सामान्यतया यह अर्थ हो जाता कि परमाणु के प्रदेश नहीं है सो उससे यह न समझना कि परमाणु अप्रदेश है, अनुवृत्ति से अर्थ लगाया गया कि परमाणु के अनेक प्रदेश नहीं होते । अगर परमाणु एक प्रदेशी भी नहीं है तो वह असत् हो जायेगा । प्रदेशरहित कोई भी पदार्थ नहीं होता । यहाँ कोई एकांतवादी कहता है कि परमाणु एक प्रदेश वाला भी नहीं होता । परंतु उनका यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि प्रदेशरहित परमाणु अवस्तु बन जायेगा । जैसे आकाश पुष्प खरविषाण ये कोई सत् पदार्थ नहीं है । इसमें प्रदेश ही नहीं हैं । यहाँ यह भी शंका न करना चाहिये कि यदि परमाणु को एक प्रदेश स्वरूप मान लिया जायेगा तो फिर वह प्रदेशी कैसे कहला सकेगा? प्रदेश मायने प्रदेश है और प्रदेशी मायने प्रदेश वाला है । धन और धन वाला जब ये एक तो नहीं कहलाते । तो प्रदेश और प्रदेश वाला ये भी एक न हो सकेंगे । यह शंका करना यों ठीक नहीं है कि एक प्रदेश वाला परमाणु स्पर्शन, रसना आदिक गुणों का आश्रयभूत है । सो परमाणु की दृष्टि से देखा तो वह प्रदेशमात्र है और जब गुणों के आश्रय की दृष्टि से देखा तो गुणाश्रय प्रदेश परमाणु का ही प्रदेश कहलाया । यह बात इस तरह भी समझ लेना चाहिये कि परमाणु में प्रदेशीपन स्वभाव से विद्यमान है । यदि परमाणु में प्रदेशीपन स्वभाव न हो तो स्कंध अवस्था होने पर उन परमाणुओं के प्रदेशीपन की सिद्धि नहीं हो सकती । परमाणु में प्रदेशीपना तो आत्मभूत है, स्वलक्षण है तब ही तो अनेक परमाणुओं का बंध होने पर स्कंध दशा में वह प्रदेशीपन एकदम प्रकट हो जाता है, इंद्रियग्राही भी हो जाता है । केवल एक पुद्गल परमाणु एक प्रदेश स्वरूप है फिर भी वह प्रदेशी कहा जाता । यदि केवल एकप्रदेश वाले परमाणु को प्रदेशी न माना जायेगा तो अनेक परमाणु मिलकर भी प्रदेशी न हो पायेंगे । प्रदेश के बिना प्रदेशी होना असंभव है ।
परमाणु को प्रदेशी व प्रदेश स्वरूप न मानने पर परमाणु में द्रव्यत्व की असिद्धि का प्रसंग―अब यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि परमाणु को प्रदेश स्वरूप भी न माना जाये क्योंकि प्रदेश और प्रदेशी अविनाभावी हैं तो हमारे नैयायिक सिद्धांत में परमाणु न प्रदेशी है, न प्रदेश स्वरूप है । इसका समाधान यह है कि यदि परमाणु न प्रदेश स्वरूप है, न प्रदेशी है तो वह द्रव्य भी नहीं हो सकता । जैसे कि इन्हीं नैयायिक वैशेषिक के गुण कर्मादिक पदार्थ प्रदेश शून्य हैं अतः उन्हें द्रव्य नहीं माना तो ऐसे ही परमाणु भी प्रदेशरूप नहीं हैं तो वे भी द्रव्य न रह सकेंगे, पर नैयायिक ने भी तो परमाणु को द्रव्य माना है क्योंकि वह गुणसहित है । स्पर्श आदिक गुण परमाणु में माने गये हैं । अत: प्रदेश और प्रदेशी स्वभाव से होते हैं, अन्यथा जगत में कोई द्रव्य ही सिद्ध नहीं होगा । शंकाकार यहाँ यह तर्क भी सिद्ध नहीं कर सकता कि आकाश आत्मा आदिक द्रव्य प्रदेश स्वरूप नहीं हैं और प्रदेशी स्वरूप नहीं है और वे द्रव्य हैं । यह तर्क उनका इस कारण संगत नहीं है कि आकाश के अनंत प्रदेश कहे गए हैं । आत्मा आदिक के भी असंख्यात प्रदेश सिद्ध किए गए हैं । वे प्रदेशरहित नहीं हैं ।
परमाणु के अनेक प्रदेशित्व की असंभवता―अब यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि यदि परमाणु को प्रदेश वाला मानते हो तो उसे अनेक प्रदेश वाला भी मानो और हम यहाँ अनुमान से सिद्ध करते हैं कि परमाणु अनेक प्रदेश वाला है, क्योंकि यह द्रव्य है । जैसे घट, आकाश, आत्मा ये अनेक प्रदेश वाले हैं, क्योंकि द्रव्य हैं । इसके समाधान में कहते हैं कि शंकाकार का यह अनुमान इस कारण ठीक नहीं है कि जिसको परमाणु कहा जा रहा है वह शब्द में भी यह बतला रहे कि परमाणु बहुप्रदेशी नहीं है । परमाणु का अर्थ है उत्कृष्ट विभाग वाला छोटा पदार्थ । जिस किसी को भी परमाणु का नाम देकर अनेक प्रदेश वाला मानोगे तो चूंकि वह अनेक प्रदेशों में है सो उसके भी विभाग बन सकेंगे और यों विभाग कर करके जो अंतिम एक प्रदेश वाला ज्ञात होगा वही परमाणु कहलायेगा । और वह परमाणु द्रव्य है, सो द्रव्य होने पर भी कोई एक प्रदेशी है, कोई अनेक प्रदेशी है । काल द्रव्य भी तो एक प्रदेशी है और कहलाता है । देखो शंकाकारों ने भी तो शब्द को द्रव्य माना है और शब्द को प्रदेशरहित स्वीकार किया है । तो यह अनुमान ठीक तो न रहा कि जो द्रव्य है वह अनेक प्रदेश वाला है । शब्द विषयक वास्तविकता तो यह है कि शब्द भी अशुद्ध द्रव्य है और वह अनेक प्रदेशी है और परमाणु चूँकि उत्कृष्ट छोटा पदार्थ है जिसका कि फिर भेदन नहीं हो सकता, वह अनेक प्रदेश वाला न हो सकेगा ।
परमाणु को अष्टप्रदेशी मानने के मंतव्य की मीमांसा का प्रारंभ―परमाणु के बारे में कुछ दार्शनिक ऐसा मंतव्य रखते हैं कि परमाणु में कम से कम 8 प्रदेश तो मानना ही चाहिये क्योंकि 8 दिशाओं में से किसी भी दिशा में और कोई परमाणु लगे, तो यों ही तो स्कंध बन पायेगा । सो उस परमाणु की 8 दिशाओं में अन्य परमाणु के लग सकने के कारण परमाणु के 8 प्रदेश हैं । उनका यह कहना यों सिद्ध नहीं है कि फिर तो वह परमाणु न रहा, स्कंध बन गया, क्योंकि 8 अंश मानने वाले को ऊपर और नीचे के भी अंश मानने पड़े और कोई 8 पैर वाला पदार्थ हो, उसके आसपास 8 पैर वाले पदार्थ रखे जायें तो निश्छिद्र बंध नहीं हो सकता याने उनके बीच अंतर रहेगा या गोल-- गोल माना जाये तो । उनके समूह में भी अंतर रहेगा । इस कारण परमाणु के 8 अंश या 10 अंश या गोलाकार मानना ठीक नहीं जंचता । परमाणु तो एक प्रदेशी ही है ।
परमाणु को अष्ट प्रदेशी मानने पर हो स्कंध बन सकने का शंकाकार द्वारा समर्थन―परमाणु को 8 प्रदेश वाला मानने वाले शंकाकार कहते हैं कि यदि परमाणुओं को अनेक प्रदेश वाला न माना जायेगा तो दूसरे परमाणु के बंध होने के प्रसंग में दो ही तो विकल्प हैं, या तो सर्वांग रूप से संयोग हो या एक देश रूप से संयोग हो, सो सर्वांग रूप से दूसरे परमाणु का संयोग होने पर वह पिंड एक परमाणु बराबर ही रहेगा क्योंकि यहाँ बंधन सर्वांग रूप से हुआ है और इस तरह एक क्या, संख्यात असंख्यात अनंत परमाणु एक से बंधे तो भी एक परमाणु रूप से रहेगा, और इस तरह सुमेरु पर्वत भी परमाणु के बार-बार छोटा बन बैठेगा । अब यदि एक देश से परमाणुओं का संयोग माना जाये तब तो अवयव सहित परमाणु कहलाने लगा । याने परमाणु के एकदेश में बंध होता है, बाकी देश में तो नहीं होता । तो यों परमाणु अवयव सहित बन गया । तो जैसे पदार्थ के अनेक अवयव होते हैं उसी पदार्थ में कई एकदेश बन गये, और वहाँ उसके एकदेश से संयोग माना । तो पहले तो वह अकेला ही परमाणु अवयवी कहलाया और फिर उस अवयवी परमाणु के अवयवों में संयोग बनाया तो यों तो अवयवों के कल्पना की लंबी धारा बढ़ती चली जायेगी । और अनवस्था हो जायेगी, और तीसरी बात यह है कि चाहे सर्वात्मरूप से संयोग मानो, 8 प्रदेश वाला न मानने पर बड़े स्कंध की प्रतीति हो ही नहीं सकती । इस कारण 8 प्रदेश वाला वह रूपाणु उत्तरोत्तर विभाग हो होकर अंत में अविभागी के परमाणु बन जायेंगे । लेकिन वह परमाणु भी अंशों से रहित नहीं है । हम लोगों को प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा ज्ञात नहीं हो पाता इसलिये अंश सहित परमाणु की भी हम निरंश रूप में कल्पना कर लेते हैं । इससे चूँकि दिशायें 8 हैं, चार दिशायें, चार विदिशायें, एक नीचे, एक ऊपर, सो प्रदेश भी 8 प्रदेश वाले माने जाना चाहिये ।
परमाणु को अष्टप्रदेशी मानने पर परमाणुत्व की असिद्धि और संयोग विधि का स्याद्वाद से समाधान―उक्त शंका का समाधान करते हुये आचार्य देव कहते हैं कि अनेक तर्क-वितर्क से क्या लाभ है? स्याद्वाद सिद्धांत के अनुसार विचार करने पर सर्व समस्यायें हल हो जाती हैं । एकप्रदेश वाले परमाणु का किसी का सर्वात्मरूप से संयोग होता, किसी का एकदेश रूप से संयोग होता, सो कभी अणु-अणुमात्र भी स्कंध हो सकता याने छोटे स्कंध हो जायेंगे और कोई बड़े स्कंध भी बन जाते, इसमें कोई दोष नहीं है । सो एक प्रदेशमात्र परमाणु को मानने पर कोई दोष नहीं है । बल्कि 8 प्रदेश वाले परमाणु मानने पर उसके फिर टुकड़े किये जा सकते और वह अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है कि रूपाणु टुकड़े किये जाने योग्य है, क्योंकि मूर्त होकर भी अनेक अवयवों वाला है । जैसे घटपट आदिक ये मूर्त हैं और अनेक अवयवों वाले हैं तो इनके टुकड़े किये जा सकते, ऐसे ही जो लोग परमाणु को 8 प्रदेश वाला मानते हैं सो वे मूर्त हैं और अनेक अवयवों वाले हैं इस कारण उनका भेदन हो सकता । अनेक अवयवों वाला तो आकाश भी है पर वह मूर्त नहीं है इसलिये इस हेतु में कोई दोष नहीं है निष्कर्ष यह है कि अंतिम सबसे छोटा अवयव केवल एक प्रदेश स्वरूप है ।
परमाणु के अष्टप्रदेशित्व की असिद्धि का विवरण―जब यहाँ परमाणु को 8 प्रदेश वाला मानने वाले शंकाकार पुन: शंका रख रहे हैं कि परमाणु को एक ही प्रदेशमात्र मानने पर तो बड़े स्कंधों की प्रतीति न हो सकेगी, क्योंकि परमाणु के प्रदेश अनेक तो माने नहीं, ऐसी दशा में अनेक परमाणुओं का भी संयोग हो जाये तो भी वह पिंड अणुमात्र ही बना रहेगा । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि ऐसी समस्या तो तुम्हारे 8 प्रदेश वाले परमाणु में भी आ खड़ी हो सकती है । भला 8 प्रदेश वाले परमाणु का एकदेश से अन्य का संयोग बनता है तो उस बीच छिद्र रह जाते हैं । ऊपर नीचे की जगह न भर पायेगी और एकदेश संयोग मानने पर अनवस्था दोष भी आयेगा और संपूर्ण रूप से फिर आप संयोग मानने की कहेंगे । तो भले ही 8 प्रदेश वाला परमाणु है शंकाकार जैसा मानता है फिर भी सर्वांग रूप से अन्य परमाणु का संयोग होगा तो वह पिंड भी अणुमात्र रह जायेगा, बड़े पिंड की प्रतीति न हो सकेगी । भला 8 प्रदेश वाला परमाणु मानने वाले यह बताये कि पूर्व आदिक दिशाओं में प्राप्त हो रहे अन्य परमाणु क्या एकदेश से संबंधित होंगे या पूर्ण रूप से संबंधित होंगे? दोनों ही पक्षों में जैसे कि शंकाकार ने एक प्रदेश वाले परमाणु में दोष दिया था वे ही दोष यहाँ आ सकते हैं इस कारण स्याद्वाद सिद्धांत से ही यह बात सिद्ध होती है कि कभी परमाणु सर्वांगरूप से संयुक्त हो तो उसका आकार नहीं बढ़ता, कोई एकदेश से संयुक्त होता तो उसका आकार याने स्कंध पिंड बढ़ जाता है ।
परमाणु परमाणु के परस्पर बंधन का कारण स्निग्धत्व रूक्षत्व गुण की विशेषता―परमाणु परमाणु के बंधन के संबंध में वास्तविकता यह है कि न तो एकदेश संयोग की बात प्रश्न में उठती है न सर्वांगरूप से संयोग की बात प्रश्न में उठती है । किंतु इन दोनों प्रकारों से अतिरिक्त तीसरे ढंग से ही बंधन होता है । और वह है स्निग्ध रूक्ष गुण के कारण बंधन । और, चाहे दोनों परमाणु स्निग्ध हों या रूक्ष हों या एक स्निग्ध हो एक रूक्ष हो वहाँ एक से दूसरे में दो अधिक डिग्री का गुण हो तो वहाँ बंध हो जाता है । जो कि एक देश से संसर्ग कराता हुआ बड़ा पिंड बना देता है और कभी सर्वात्मरूप से संसर्ग हो तो अणु मात्र हो रह जाता है । ऐसे उन परमाणुओं में भी अवगाह शक्ति है तब ही तो इस छोटे से लोक में अनंतानंत परमाणु निरापद विराजमान हैं । तो स्याद्वाद सिद्धांत में परमाणुओं का परस्पर एकदेश से भी संयोग होता है, व सर्व देश से भी संयोग होता है । तब स्कंधों में परमाणु तो अवयव कहलाता और स्कंध अवयवी कहलाता । फिर उनमें कार्यकारण भाव आदिक सब विधियां ठीक प्रकार से निर्णीत हो जाती हैं ।
सभी वस्तु धर्मों की स्याद्वाद से सिद्धि का संकेत―इस पंचम अध्याय के प्रथमसूत्र में बताया था कि धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये अजीव काय हैं । और द्वितीय सूत्र में बताया था कि ये द्रव्य हैं फिर आगे के सूत्र में बताया कि जीव भी काय है और द्रव्य है सो इन सबके संबंध में द्रव्यपना नित्यपना रूपीपना, निष्क्रियपना आदिक स्वभाव से भी घटित किया था । सो यहाँ एक एक बात यह जानना कि जिसको द्रव्य कहा था वह एक दृष्टि से द्रव्य रूप है । पर किसी अपेक्षा से पर्यायरूप भी है । यदि हम केवल एक सत् को मूल आधार मानते हैं याने सत् कहकर सबका संग्रह मानते हैं तब तो उस सत् का भेद कर जो बताया जाये वह पर्यायरूप बनता है । भेद को भी पर्याय कहा गया है । किंतु कितने ही भेद करके बताया जाये प्रत्येक पदार्थ अपने सत्त्व से सत् रूप है और वह स्वयं द्रव्यपर्यायात्मक है । नित्यानित्यात्मक है । अत: वे सभी द्रव्य हैं । और, जो कुछ भी बात कही गई जैसे कि ये सब नित्य अवस्थित हैं, तो किसी अपेक्षा से अवस्थित है, निष्क्रिय है, इसकी गति नहीं होती इसलिए आकाश आदिक द्रव्य निष्क्रिय हैं पर उनमें स्वयं में परिणमन होने का, द्रव्यपना होने का ये सब क्रियायें चलती हैं इस कारण कथंचित् सक्रिय भी हैं । इस तरह प्रत्येक द्रव्य में अनेक स्वभावमयता की सिद्धि होती है । प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप से चलित नहीं है इसलिए अचल है, निष्क्रिय है, पर किसी में हलन चलन आदिक क्रियायें पायी जातीं और जिनमें हलन चलन आदिक क्रियायें नहीं पाई जातीं वहाँ अवस्थितपन, परिणमनपन आदिक क्रियायें भी तो हैं । परिस्पंद न होना याने अपरिस्पंद होना यह भी एक क्रिया है । तो यों क्रिया सहितपना भी सिद्ध होता है । जीवद्रव्य में असंख्यात प्रदेश बताये हैं । पर किसी अपेक्षा जैसे प्रदेश का संहार विसर्प है उन अपेक्षाओं से उनमें संख्यात असंख्यात विभाग भी बन सकते । स्याद्वाद से अनेक विधि की सिद्धि होने पर भी प्रधान का प्रधानतया कथन होता है । तात्पर्य प्रकरण में यह है कि परमाणु के एक देश संयोग सर्व देश संयोग या पदार्थों का द्रव्यपना पर्यायपना आदिक सभी बातें स्याद्वाद से सिद्ध कर ली जाती हैं । यहाँ तक अस्तिकायों के संबंध में स्वरूप, प्रदेश आदिक का वर्णन हुआ । अब जिज्ञासा होती कि ये सब कहां हैं सो उनका अधिकरण बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।