वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-17
From जैनकोष
गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरूपकार: ।। 5-17 ।।
धर्म व अधर्म द्रव्य के उपकार के निर्देश से उनके लक्षण की व लोक व्यापित्व की सिद्धि―गति और स्थिति उपग्रह ये धर्म और अधर्म द्रव्य के उपकार हैं, यहाँ पुद्गल आदिक का एक प्रदेश आदिक में अवगाह बताया था । वह तो ठीक समझ में आता था पर धर्म और अधर्म द्रव्य के जीवों की तरह असंख्यात प्रदेश होने पर भी ये धर्म अधर्म द्रव्य लोक व्यापी हैं, लोकाकाश में संपूर्ण प्रदेशों में रहते हैं, यह बात समझ में नहीं आयी, ऐसी यदि कोई पुन: जिज्ञासा करे तो उत्तर उसका यह है कि जैसे जल मछली के तैरने में उपकारक है अर्थात् जल के अभाव में मछली का तैरना संभव नहीं है उसी प्रकार जीव और पुद्गल की गति में और स्थिति में धर्म और अधर्मद्रव्य सहायक होते हैं । तो अब यहाँ यह समझना चाहिये कि जीव और पुद्गल की गति समस्त लोक में होती है तो उपकारक कारण भी सर्वगत होना चाहिये और इस ही कारण धर्म अधर्म द्रव्य समस्त लोक में व्यापक हैं । अब गति और स्थिति के लक्षण कहे जा रहे हैं । बाह्य और अंतरंग कारणों से परिणमन करने वाले द्रव्य को जो अन्य देश में प्राप्त कराने वाली परिणति है उसको गति कहते हैं । जो पदार्थ गति कर रहा है वह अपने में नाना परिणमन कर रहा है और वे परिणमन सब अंतरंग कारण उपादान की योग्यता से होते हैं, और बहिरंग कारण काल द्रव्य तो साधारण है ही, पर जो विषम परिणमन हुये उनमें अन्य कारण भी पड़ते हैं, तो ऐसे बाह्य और अंतरंग कारणों से परिणमन करने वाले द्रव्य जो एक देश दूसरे देश में पहुँचते हैं, वह भी तो एक-एक परिणति है तो उसकी इस परिणति का नाम गति है । स्थिति क्या कहलाती है? अपने प्रदेश से च्युत न होने का नाम स्थिति है । स्थिति के दो अर्थ हैं―एक तो यह कि कोई चल रहा है और उसकी चलन क्रिया रुक गई, लो उसका ठहरना हो गया, अब इसके बाद जो ठहरना है वह इस रूप है कि अपने प्रदेशों से अब वह हिल नहीं रहा । वहीं का वहीं अवस्थित है । सो स्थिति का जो यह लक्षण है कि अपने देश से न हटना सो स्थिति है, यह लक्षण दोनों ही दशाओं में पाया जा रहा है और उसका व्यक्तिकरण चलते हुये पदार्थ का जो अपने देश में ठहरना है उस स्थिति से प्रकट होता है । तो गति और स्थिति ये दो उपग्रहण हैं अर्थात् जीव पुद्गल की गति और स्थिति की जो शक्ति है उस शक्ति के आविर्भाव करने में धर्म अधर्म निमित्त कारण पड़ रहे हैं ।
सूत्रोक्त प्रथम पद के अर्थ का विवरण―अब इस सूत्र में कहे गये पहले पद का व्याकरण समास आदिक के अनुसार अर्थ प्रकट किया जा रहा है । प्रथम पद है, गतिस्थित्युपग्रहौ, इस पद में नाना प्रकार के विग्रह संभव हैं । यह भी कहा जा सकता कि यह बहुब्रीहि समास वाला पद है अर्थात् ‘‘गति और स्थिति उपग्रह हैं, जिनके’’ ऐसा भी समास किया जा सकता है, लेकिन यह बहुब्रीहि समास यहाँ नहीं है । यदि इस पद में बहुब्रीहि समास किया गया होता तो धर्माधर्मयो: यह पद षष्ठी में न रहकर प्रथमांत हो जाता । धर्माधर्मौ यह शब्द बन जाता, क्योंकि इस समास से ऐसा ही संगत बैठेगा कि गति और स्थिति उपग्रह हैं जिनके ऐसे ये, धर्म और अधर्मद्रव्य हैं । किंतु यहाँ धर्माधर्मौ नहीं कहा गया । इससे सिद्ध है कि यह बहुब्रीहि समास वाला पद नहीं है । यह भी सोचा जा सकता है कि यह षष्ठी तत्पुरुष होगा याने गति और स्थिति का उपग्रह, सो यह समास भी संभव नहीं है । यदि इस सूत्र में, इस पद में षष्ठी तत्पुरुष अभिप्रेत होता तो अवग्रहौ शब्द द्विवचन न होता किंतु एकवचन होता । गति और स्थिति रूप उपग्रह और ऐसी ही संगति बैठती है कि धर्म और अधर्म का उपकार है । सो यहाँ द्विवचनांत कहा जाने से यह सिद्ध होता है कि यह तत्पुरुष समास भी नहीं है तब कौन सा समास है, सो देखिये―यहाँ समानाधिकरण की वृत्ति है इस कारण कर्मधारय समास है याने गति और स्थिति वे उपग्रह हैं । इस प्रकार ये दोनों धर्म और अधर्मद्रव्य के उपकार हैं, यह संगति सही बैठती है ।
सूत्रोक्त विभक्तियों की संगति से धर्म व अधर्मद्रव्य के साधारण कारणपने का समर्थन―अब यहाँ उपकार शब्द की मीमांसा की जाती है कि इसकी व्युत्पत्ति किस तरह है? क्या भावसाधन में है या अन्य प्रकार है? तो उपकार शब्द से यहाँ भावसाधन की प्रधानता न देकर कर्ता में यह गुण है, इस प्रकार कर्तृसाधन प्रसिद्ध किया जाता है, क्योंकि यह उपकार कर्तृस्थ क्रिया है । याने जीव पुद्गल की गति और स्थिति रूप जो उपग्रह है सो यह उपकार याने ऐसी निमित्तरूप बात यह धर्म और अधर्मद्रव्य में पायी जाता है । और उपग्रह याने गति स्थिति रूप परिणमन यह जीव पुद्गल में पाया जाता है । सो कर्मस्थ क्रिया हो गई । सो दोनों साधनों में सूत्रोक्त विभक्ति संगत नहीं होती? समाधान―जैसे कहा जाये कि साधु का कार्य क्या है? तो उसका उत्तर होता है―तप और अध्ययन । तो कार्य तो एक पूछा गया है और उत्तर में दो बातें आयी हैं । तो ऐसे ही यहाँ उपकार शब्द तो एक वचन है । धर्म और अधर्म का उपकार क्या है? तो उत्तर में आया है गति और स्थिति रूप उपग्रह । उपग्रहौ दो वचन में आया है । अथवा उपग्रह शब्द को भावसाधन मान लीजिये और इसी तरह उपकार को भी मान लीजिये जिससे कि अर्थ होता है कि गति और स्थिति रूप उपग्रहण और धर्म और अधर्म का उपकरण । अथवा इन दोनों को कर्मसाधन भी मान लीजिये । किन्हीं भी प्रकारों से माने, उसके एकांत में कुछ न कुछ सिद्धांत में कमी रह जाती है । अत: वास्तविकता तो यह है कि सामान्य कारण मानना चाहिये और सामान्य का ग्रहण भी करना चाहिये । तो परिणमनरूप या पूर्व पक्ष रूप में तो सामान्य का अर्थ है कि धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार और उत्तर में विशेष अर्थ है कि गति और स्थिति रूप उपग्रह ।
एक वचनांत उपकार: व द्विवचनांत उपग्रहौ शब्द में वचन विषमता रखने का कारण―धर्म व अधर्म द्रव्य के भिन्न-भिन्न उपकार का प्रदर्शन―अब यहाँ एक शंका यह होती है कि उपकार: शब्द एक वचन में है तो उपग्रह शब्द क्यों नहीं एक वचन में हुआ? उत्तर यह है कि दोनों द्रव्यों के कार्य जुदे-जुदे हैं अर्थात् धर्म द्रव्य का उपकार तो जीव और पुद्गल की गतिरूप उपग्रह है और अधर्म द्रव्य का उपकार जीव और पुद्गल की स्थिति रूप उपग्रह है, इस कारण उपग्रह शब्द में द्विवचन का प्रयोग ही ठीक है । यदि एक वचन का प्रयोग किया जाता तो उससे यह अर्थ जाहिर होता कि धर्मद्रव्य ही तो जीव और पुद्गल की गति और स्थिति कराता है और अधर्मद्रव्य भी जीव और पुद्गल की गति और स्थिति कराता है पर यह अर्थ अभीष्ट नहीं है, जुदा-जुदा उपकार है, इस कारण उपग्रहौ अब्द में द्विवचन लगाना ही संगत बैठता है । यह अर्थ बनता है कि स्वयं गति रूप परिणमे हुये जीव और पुद्गल को उस गति के उपग्रह के कारण रूप से अनुमान किया गया धर्मास्तिकाय है और इसी प्रकार स्थिति रूप से परिणमने वाले जीव पुद्गल के बाह्य उपग्रह के कारण रूप से अनुमान किया गया अधर्मास्तिकाय है और चूँकि यह गति और स्थिति रूप उपग्रहण समस्त लोकाकाश में होता है, इस कारण ये दोनों लोकाकाश में पूर्णतया व्याप्त हैं ।
उपकार: शब्द से ही अर्थ संभव होने पर उपग्रहौ शब्द कहने की व्यर्थता की शंका―अब यहां एक शंका उपस्थित होती है कि जब उपकार शब्द इस सूत्र में दिया गया है तो उसका अर्थ ध्वनित हो जाता, तो उपग्रह शब्द कहना व्यर्थ है । अर्थ भी वही हो जाता कि धर्म और अधर्म का उपकार गति और स्थिति है । और सूत्र भी छोटा बन जाता―गति स्थिति धर्माधर्मेयोरुपकार: यहाँ कोई यह भी शंका न करे कि यदि उपग्रह शब्द न देते और सूत्र में लघुता बनावें तो कर्ता का प्रसंग आ जाता कि धर्म और अधर्म द्रव्य जीव पुद्गल की गति और स्थिति के कर्ता हैं । तो इस प्रकार कर्तृत्व के प्रसंग का संदेह न करना, क्योंकि उपकार शब्द यहाँ कहा गया है । गति और स्थिति को धर्म अधर्म जबरदस्ती नहीं कराता किंतु गति और स्थिति में धर्म अधर्म का उपकार है अर्थात् अवलंबन है, और इस प्रकार स्वतंत्र कर्तापन भी गति स्थिति का धर्म अधर्म में नहीं आता । जैसे कि कोई अंधा पुरुष चल तो रहा है अपनी जंघा के बल से पर, लकड़ी उसके लिये उपकारक हो रही है तो इसका अर्थ यह है कि वह अंधा पुरुष लकड़ी से प्रेरित नहीं हो रहा, किंतु स्वयं चले तो उसमें लकड़ी बलाधान रूप है, प्रेरक नहीं है, इस प्रकार अपनी शक्ति से ही चलने वाले और ठहरने वाले जीव और पुद्गल का धर्म अधर्म उपकारक है, किंतु प्रेरक नहीं है । चलना और ठहरना तो जीव और पुद्गल का अपनी शक्ति में ही हो रहा है, उसको धर्म और अधर्म नहीं करते । मगर स्वयं चलें और ठहरें तो उनकी इस क्रिया में धर्म और अधर्मद्रव्य बलाधान रूप हैं अर्थात् अवलंबनमात्र हैं और फिर सूत्र जो लघु बना है उससे ही यह साबित होता है कि धर्म और अधर्मद्रव्य गति और स्थिति का प्रधानतया कर्ता नहीं है । यदि प्रधान कर्ता बताना होता तो सूत्र यों बनाते कि गति स्थिति धर्माधर्मकृते, किंतु ऐसा सूत्र नहीं किया, इससे ही यह सिद्ध है कि प्रधानकर्ता नहीं कहा जा रहा । तो इस प्रकार उपग्रह शब्द कहना यह व्यर्थ पड़ता है ।
यथार्थ अर्थ की संगति के लिये उपग्रह शब्द की सार्थकता बताते हुये उक्त शंका का समाधान―उक्त शंका का उत्तर कहते हैं कि उपग्रह शब्द कहना यह व्यर्थ नहीं है, व्यर्थ सा मालूम पड़ रहा । यह उपग्रह शब्द इस बात को सिद्ध करता है कि यहाँ शब्द का क्रम से उठाकर अर्थ न लगाना कैसा कि आत्मा की गति रूप परिणमन का उपकार तो धर्म का है और पुद्गल की गति परिणाम का उपकार धर्म का नहीं है, इस प्रकार पुद्गल की स्थिति रूप परिणमन का उपकार अधर्मद्रव्य में है, आत्मा की स्थिति रूप परिणमन का नहीं है, इस तरह क्रम वाली बात नहीं लेना है । इसको सिद्ध करता है उपग्रह शब्द । यदि शंकाकार यह कहे कि उसका व्याख्यान बना दिया जायेगा । उससे यह सिद्धांत का अर्थ कह दिया जायेगा सो यह बात भी संगत नहीं, क्योंकि इस तरह तो व्याख्यान विशेष कहना पड़ेगा और उसमें समझ में विलंब भी होगा । बुद्धि में खेद न हो इस कारण उपग्रह वचन ही कह दिया ताकि आगे कुछ सोचने का व्यायाम ही न करना पड़ेगा ।
जीव और पुद्गलों की गति व स्थिति में धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य की ही साधारण कारण रूपता―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि चलना, ठहरना यह सब तो हम को आकाश का उपकार दिख रहा, ये जीव पुद्गल आकाश में ठहर रहे, आकाश में चल रहे, आकाश बिना कैसे चलना, कैसे ठहरना? सो सारा उपकार आकाश का ही है, और धर्म, अधर्म की कल्पना करना व्यर्थ है । समाधान इसका यह है कि आकाश तो धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आत्मद्रव्य, पुद्गलद्रव्य इन सबका आधार रूप है, गति और स्थिति का निमित्त रूप नहीं है । जैसे किसी नगर के अंदर जो मकान आदिक खड़े है उनका आधार नगर है ऐसे ही धर्मादिक 5 द्रव्यों का आधार आकाश है । तो, किसी एक पदार्थ का धर्म दूसरे पदार्थ में नहीं जोड़ा जाता, धर्म अधर्म द्रव्य का गति स्थिति में उपकार रूप धर्म आकाश में न जोड़ा जा सकेगा । यदि एक का धर्म दूसरे द्रव्य में जोड़ दिया जाये तो जल और अग्नि में गुण जो द्रवण और दहन हैं उन्हें पृथ्वी के ही मान लिये जाये । फिर शंकाकार पृथ्वी, जल, अग्नि आदिक को अलग-अलग पदार्थ क्यों मानता है? और इस तरह भी निरखिये कि ये जैसे मछली का गमन जल के उपग्रह से होता है यदि जल न हो तो जमीन पर तो मछली नहीं चलती । सो जैसे यहाँ यह सोचा जा सकता है कि जल आकाश का कार्य है तो आकाश तो पृथ्वी पर भी है वहाँ क्यों नहीं मछली चल पाती? तो इससे मालूम होता है कि भले ही आकाश में मछली का अवस्थान है लेकिन मछली के चलने में सहायक जल है, और जल मछली को जबरदस्ती चलाता नहीं है किंतु गति रूप परिणमने वाली मछली को जल अवलंबन है, ऐसे ही यहाँ यह समझना कि गति और स्थिति रूप परिणमने वाला आत्मा और पुद्गल का धर्म और अधर्म के उपग्रह से चलना और ठहरना होता है, आकाश के उपग्रह से नहीं । यदि आकाश के उपग्रह से जीव और पुद्गल का चलना ठहरना होता तो अलोकाकाश में भी जीव और पुद्गल का चलना ठहरना होने लगता फिर तो लोक और अलोक बराबर रहें । अरे जहाँ तक वे द्रव्य रहते हैं वह लोक है और जहाँ मात्र आकाश है अन्य द्रव्य जहाँ नहीं रहता वह अलोक है । लोक है तो अलोक भी है, यह सिद्धि भी इस तत्त्व का साधन करती है कि लोकाकाश में धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, जिनके अवलंबन से जीव और पुद्गल का चलना और ठहरना होता है । सो धर्म अधर्म द्रव्य हैं जिनके आलंबन से जीव और पुद्गल का चलना और ठहरना होता है । सो धर्म अधर्मद्रव्य होने पर भी ये जीव और पुद्गल को जबरदस्ती नहीं चलाते और न ठहराते, किंतु ये मात्र बाह्य कारण रूप ही पड़ते हैं और वहाँ यह अन्वय व्यतिरेक बन जाता है कि जीव व पुद्गल चले तो धर्मद्रव्य के सन्निधान में ही चल सकता है, धर्मद्रव्य के अभाव में नहीं, इसी प्रकार जीव व पुद्गल ठहरे तो अधर्मद्रव्य के सन्निधान में ही ठहर सकता है । अधर्मद्रव्य के अभाव में नहीं । जैसे कि मछली चले तो जल के सन्निधान में ही चल सकती है जल के अभाव में नहीं । तो यहाँ इस दृष्टांत में कहीं यह न समझना कि मछली के चलने में धर्मद्रव्य सहायक है, यह कैसे सिद्ध होगा? क्योंकि जल ही सहायक दिख रहा है । सो बात यह है कि कोई साधारण कारण होता है, कोई विशेष कारण होता है, जीव और पुद्गल के चलने में साधारण कारण धर्मद्रव्य है, इसी तरह मछली के चलने में भी साधारण कारण धर्मद्रव्य है । पर विशेष कारण जल है । तो कहीं धर्म और अधर्मद्रव्य का अभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता । जैसे मनुष्य के अवस्थान में यह भूमि कारण पड़ रही है पर आकाश न हो तो कहां रहे? तो आकाश तो हुआ साधारण सब जगह है और भूमि हुई विशेष । सो ऐसे ही मछली के चलने में धर्मद्रव्य तो साधारण कारण है, वह तो है ही, पर विशेष कारण जल आदिक हैं, सो स्वयं गति, क्रिया रूप से परिणम रहे जीवों को पुद्गलों को धर्मद्रव्य आलंबन रूप कारण होता है ।
विभुपना होने से आकाश का ही गति स्थिति उपकार मानने की हठ करने वाले वैशेषिकों के दिशा काल व्यवहार का उपकार आकाश का ही माना जा सकने से अन्य पदार्थों की मान्यता की व्यर्थता―यहां निमित्तपने की मुख्यता से धर्म और अधर्मद्रव्य का लक्षण कहा जा रहा है जिससे कि यह प्रकट हो कि धर्म अधर्म आदिक द्रव्य एक क्षेत्र में एक साथ सर्वज्ञ रहते हुये भी ये परस्पर भिन्न पदार्थ हैं । तो यहाँ उपकार बताया गया कि धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार गति और स्थिति रूप उपग्रह करना है । उपग्रह क्रिया तो जीव और पुद्गल में पायी जाती है और उपकारपने का निमित्तपना धर्म व अधर्म द्रव्य में पाया जाता है, और इस प्रकार जीव पुद्गल की गति और स्थिति में हेतुपना होने के परिचय से धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य का लक्षण प्रसिद्ध होता है । इस विषय में यहाँ एक शंकाकार कहता है कि गति और स्थिति के होने में आकाश ही पर्याप्त है याने आकाश के ही कारण जीव पुद्गल की गति हो रही है और आकाश व्यापक भी है । वही सर्व द्रव्यों की गति और स्थिति का साधारण कारण रहा आये । धर्म और अधर्म द्रव्य के मानने की कुछ आवश्यकता नहीं । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यदि इस प्रकार विभुपना होने से आकाश को ही सबका साधारण कारण मान लिया आये तो इसमें सभी दार्शनिकों के सिद्धांत में विरोध आता है । जैसे कि कोई दार्शनिक मानते हैं कि आकाश, काल, दिशा, आत्मा ये सर्वगत होकर भी अपने-अपने लक्षण में नियत हैं, तो यहाँ यह कह सकते हैं कि दिशा के निमित्त से जो व्यवहार होता है कि यह तीन तरफ है । तो वह तो आकाश का ही भाग बताया गया । आकाश के इस भाग से आकाश के इस भाग तक है । तो दिशा का जो काम है वह आकाश से ही निकल आया, फिर दिशा मानने की उन दार्शनिकों को जरूरत नहीं रहती है । इस प्रकार काल के निमित्त से यह व्यवहार होता है कि यह जेठा है, यह लघु है, यह आगे है, यह पीछे है, सो यह व्यवहार आकाश के बिना तो हो ही नहीं सकता । यदि आकाश का ही यह सामर्थ्य मान लिया जाये तो लो यों काल का भी अभाव हो गया और सभी आत्मा एक बन बैठेंगे । यदि व्यापी होने से आकाश का ही काम गति और स्थिति का उपग्रह मान लिया जाये तो एक ही आत्मा व्यापक होने से सभी जगह चेतन को बनाता रहे तो सब आत्मा एक बन बैठेंगे । फिर तो जो बुद्धि सुख दुःख आदिक अनेक अंतर बताकर आत्मा को नाना बताया है वह उनके विरूद्ध हो जायेगा । सो यदि आकाश को ही व्यापक होने से गति और स्थिति का कारण माना हुआ है तो लो यहाँ इन वैशेषिकों के दिशा, काल आदिक कुछ न रहे । आत्मा भी नाना न रहे, सो इन दोषों को दूर करने की अभिलाषा है तो उन्हें यह भी मान लेना चाहिए कि गति और स्थिति का उपग्रह धर्म और अधर्म द्रव्य के निमित्त से होता है ।
विभुपना होने से जीव पुद्गलों की गति स्थिति को आकाश का ही उपकार मानने की हठ करने वाले सांख्यों के व्यापक सत्त्व में ही रजो तमो गुण का अंतर्भाव होने से त्रिगुणात्मकता की मान्यता का खंडन―अच्छा, और देखिये―सांख्य सिद्धांत वाले मानते हैं तीन गुण―सत्त्व, रज और तम । और जिसके काम बतलाते हैं―प्रसार और लाघव तो सत्त्व गुण का काम है, शोषण और आताप करना रजोगुण का काम है और आवरण तथा विघात करना तमोगुण का काम है, ऐसा भिन्न स्वभाव भी मान रखा है । अब ये दार्शनिक भी हठ करें कि व्यापी होने से आकाश ही गति और स्थिति का उपग्रह करने वाला है तो यहाँ भी यह ही कहा जा सकता कि सत्त्व गुण व्यापी है सो शोषण व ताप जो रजोगुण के धर्म हैं व विघात और आवरण जो तमोगुण के धर्म हैं वे सत्त्व के ही मान लिये जाना चाहिये और इसी प्रकार रजोगुण में इन दोनों को मान लेना चाहिये क्योंकि व्यापी होने से किसी को भी किसी का कारण मानने की अब स्वच्छंदता व्यक्त कर दी है । सो यदि इन दार्शनिकों को अपने सत्त्व रज और तम गुण ज्यों के त्यों व्यवस्थित रखना है तो उन्हें यह भी हट छोड़ देना चाहिये कि व्यापी होने से आकाश ही जीव और पुद्गल की गति और स्थिति का अनुग्राहक है ।
आकाश का ही उपकार गति स्थिति मानने का हठ करने वाले क्षणिकवादियों के विभु विज्ञान में ही रूप वेदनादि आस्रव गर्भित हो जाने से रूप वेदनादि आस्रवों के अभाव का प्रसंग व रूपवेदनादि आस्रवों के अभाव में विज्ञान स्कंध के भी अभाव का प्रसंग―और भी देखिये क्षणिकवादी दार्शनिक 5 स्कंध मानते हैं―(1) रूप, (2) वेदना, (3) संज्ञा, (4) संस्कार और, (5) विज्ञान और लक्षण भी जुदे-जुदे माने है । देखने में रूप है, अनुभवने में वेदना आती है, निमित्त के ग्रहण में संज्ञा बनती है और बार-बार भावना के संस्कृत होने से संस्कार होता है और जाननरूप आलंबन से विज्ञान बनता है । तो अब यहाँ ऐसा कहा जा सकता है कि विज्ञान के न होने पर अनुभव आदिक संभव हो ही नहीं सकते, इस कारण ये सारे आस्रव विज्ञान के ही मान लेना चाहिये, और ऐसा अगर मान लिया तो फिर 5 स्कंध न रहे, एक विज्ञान रहा, सो जब चार न रहे तो विज्ञान न रहेगा, क्योंकि अब तो एक ही पदार्थ में सारे धर्म कल्पना करने की ठान ली है । आकाश को उदाहरण बनाकर कि आकाश ही जीव पुद्गल की गति और स्थिति का उपग्राहक है सो ऐसी हठ वाले के यहाँ ये 5 स्कंध नहीं बन सकते हैं । सो यदि भिन्न-भिन्न लक्षण वाले 5 स्कंधों को यथावत बनाये रखने की अभिलाषा है तो यहां भी धर्म अधर्म द्रव्य को गति और स्थिति का उपग्राहक मानो । आकाश तो सर्व पदार्थों के अवगाह का निमित्त है ।
धर्म व अधर्मद्रव्य के व्यापी और गति स्थिति के उपग्राहक होने से परस्पर प्रतिबंध की शंकाकार द्वारा शंका―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य जब समान रूप से समग्र लोकाकाश में फैले हैं और उनका काम परस्पर भिन्न है । धर्मद्रव्य का उपकार तो जीव पुद्गल की गति कराना है और अधर्मद्रव्य का उपकार जीव पुद्गल की स्थिति कराना । तब तो इन दोनों में खींचातानी हो जायेगी, धर्मद्रव्य उन्हें गति कराने में कटिबद्ध रहेगा और अधर्मद्रव्य जीव पुद्गल को ठहराने में ही कटिबद्ध रहेगा, फिर तो इनका परस्पर प्रतिबंध हो जायेगा । जैसे कि समान बल वाले दो मल्ल लड़ते हों तो वहाँ प्रतिबंध है या दो पक्षी किसी मांसपिंड को खींच रहे हों तो एक ने जितने क्षेत्र में खींच लिया उतने क्षेत्र में वह दूसरा हार गया और जितने क्षेत्र में दूसरे पक्षी ने खींच लिया उतना यह पहला हार गया, तो ऐसे ही धर्म अधर्मद्रव्य तो लोकव्यापी हैं, सो जब धर्मद्रव्य के उपग्रह से जीव पुद्गल की गति हो रही है तो उस ही समय अधर्मद्रव्य के उपग्रह से स्थिति हो रही । ऐसी अगर स्थिति हो जाये तो गति रुक जायेगी और जब गति का जोर पड़ गया तो स्थिति रुक जायेगी । तो इस तरह जीव पुद्गल में न गति रह पायेगी और न स्थिति रह पायेगी । दोनों का अभाव हो जायेगा ।
स्वयं गति स्थिति परिणाम सामर्थ्य से गति स्थिति रूप परिणमने वाले जीव पुद्गलों के गति स्थिति परिणमन में मात्र सन्निधान रूप साधारण कारणपना धर्म व अधर्मद्रव्य में होने से प्रतिबंध का अवसर न आने का दिग्दर्शन कराते हुये उक्त शंका का समाधान―अब उक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि ऐसा प्रतिबंध का संदेह करना युक्त नहीं है, इसका कारण यह है कि जो स्वत: गति और स्थिति रूप परिणमन में सामर्थ्य रखते हैं और गति और स्थिति रूप परिणमते हैं उनके लिये धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य निमित्तमात्र है । सामर्थ्य सिर्फ उपग्रह का आकांक्षी होता है । जैसे कि कोई वृद्ध पुरुष गमन करने का सामर्थ्य रख रहा है पर उसके लिये उपग्राहक लाठी होती है, पर लाठी उस वृद्ध पुरुष का गमन कराने वाली नहीं है उसमें यदि सामर्थ्य है गमन करने का तो लाठी सहायक हो गयी । यदि सामर्थ्य न होने पर भी किसी पुरुष की गति के करने वाली लाठी बन जाये तो जब कोई पुरुष मूर्छित है या सोया हुआ है तो उससे लाठी चिपका दी जाये, वह तो फिर एकदम भाग खड़े होना चाहिये, पर ऐसा होता कहां है? दूसरा उदाहरण देखिये कि जिसके नेत्र में देखने का सामर्थ्य है उसके लिये दीपक या चश्मा ये उपग्राहक हैं, पर चश्मा या प्रदीप नेत्र की दर्शन शक्ति के करने वाले नहीं हैं । यदि चश्मा असमर्थ पुरुष के भी, अंधे के भी या शक्तिहीन के भी दृष्टि का करने वाला बन जाये तो जो प्राणी मूर्छित हैं, सोये हुये हैं, जन्म के अंधे हैं उनको भी यह दीपक या चश्मा दर्शन करा बैठे, मगर ऐसा कहाँ होता? बात सही तो यह है कि स्वयं दिखने की सामर्थ्य रखने वाले पुरुष को ही दीपक उपग्राहक है, चश्मा भी उपग्राहक है, ऐसे ही स्वयं गति और स्थिति रूप परिणमने की सामर्थ्य रखने वाले और गति स्थिति, रूप परिणमने वाले जीव और पुद्गल को भी धर्म और अधर्म द्रव्य मात्र उपग्राहक है पर वे जीव और पुद्गल की गति और स्थिति के करने वाले नहीं है । यदि धर्म अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति के कर्ता माने गये होते तो प्रसंग दोष दिया जा सकता था कि गति और स्थिति का विरोध हो जायेगा । सो धर्म अधर्मद्रव्य गति और स्थिति के मात्र अनुग्राहक हैं इस कारण दोष नही लगता ।
अन्य उपग्राहकों का अनियम होने से धर्म व अधर्मद्रव्य के ही गति स्थिति हेतुत्व का परिचयन―और भी देखिये―कहीं तो उपग्राहक न भी हो तो भी गति और स्थिति देखी जाती है जैसे पक्षी उड़ता है तो पक्षी के गमन करने के लिए मछली के गमन करने में जल की तरह कोई बाह्य उपग्राहक नहीं है फिर भी वह जहाँ चाहे उड़ गया, जहाँ चाहे बैठ गया । सो बात क्या है कि धर्म और अधर्म द्रव्य ये सर्वज्ञ हैं, वे निमित्त कारण हैं पक्षियों के गमन और स्थिति में । तो ऐसे ही सब द्रव्यों का समझ लेना चाहिये । जो द्रव्य गति स्थिति करते हैं उनका यह गमन और ठहरना धर्म और अधर्मद्रव्य के निमित्त अवलंबन से होता है । शंकाकार कहता है कि पक्षी आदिक जो उड़ते हैं, गमन करते हैं, ठहरते हैं और जल आदिक की तरह कोई बाह्य कारण नहीं मिलाने पड़ते हैं तो वहाँ आकाश उपग्राहक है, तो आकाश से ही गति स्थिति बन रही है पक्षी की । तब धर्म अधर्म द्रव्य मानने की क्या आवश्यकता? इस शंका के समाधान में कहते हैं कि यह बात तो भलीभांति सिद्ध की जा चुकी है कि आकाश गति और स्थिति के उपग्रह में कारण नहीं है । आकाश का लक्षण तो अवगाहन है । सर्व पदार्थ समा जायें इसका निमित्तभूत है आकाश । अब देखिये कि यह कोई एकांत भी नहीं है कि बाहरी उपग्राहक हो तब ही गति स्थिति हो या कार्य हो । किसी के बाहरी उपग्राहक मिलने पर भी कार्य होता है और किसी के बाह्य उपग्रह न मिलने पर भी कार्य होता है । जैसे―मनुष्य बाहरी प्रकाश आदिक के उपग्रह से रूपादिक को देखते हैं किंतु सिंह, बिलाव आदिक किसी बाह्य दीपादिक के उपग्रह के बिना अपनी ही शक्ति बल से रूप को देख लेने में सामर्थ्य रखते हैं, और मनुष्यों के उस प्रकार देखने की शक्ति नहीं है सो वहाँ दीपक, आदिक का निमित्त होना पड़ता है । तब यह एकांत न रहा कि बाह्य स्थूल कारण मिलने पर ही सभी कार्य बनते हैं । हां अंतरंग कारण का होना बहुत आवश्यक है, इसी तरह यहाँ भी देखिये कि यह कोई एकांत न रहा कि सभी गमन करने वाले पुरुष लाठी आदिक के सहारे गमन करते हैं । देखने की जिसके शक्ति है, पंचेंद्रिय का पूरा सामर्थ्य चल रहा है वह पुरुष बाहरी लाठी आदिक उपग्रह के बिना भी धर्मद्रव्य के निमित्त से गमन कर लेता है, पर जो अंधा है सो गमन तो वह अपनी शक्ति से करता है लेकिन उसमें साधारण निमित्त कारण धर्मद्रव्य है, पर जब तक उसे यह न मालूम पड़े कि यह आगे की जमीन बराबर है या ऊंची नीची है ऐसे भूमि प्रदेश न दिखे तो चल ही न सकेगा सो उस भूमि प्रदेश का ज्ञान कराने के लिये वह लाठी सहायक है । वह अंधा पुरुष लाठी से टटोलकर यह समझता है कि यह जमीन सही है, चलने लायक है तो उसको लाठी का सहारा लेना पड़ा, पर सभी मनुष्य लाठी का सहारा तो नहीं लेते, ऐसे ही यहाँ भी एकांत नहीं है कि सभी जीव पुद्गलों का बाह्य उपग्रह कारण होना ही चाहिये । देख लीजिये―पशु आदिक के गमन के लिये धर्म और अधर्मद्रव्य ही निमित्त कारण हैं । उन्हें बाह्य उपग्रह न चाहिये और मछली आदिक के धर्म और अधर्म द्रव्य तो गति स्थिति में साधारण कारण हैं ही, पर जल आदिक भी बाह्य उपग्राहक चाहिये । इस प्रकार सबकी गति स्थिति में चाहे किसी को लाठी की जरूरत हो या न हो, पर धर्म और अधर्मद्रव्य में अनिवार्य सहायक कारण होते ही हैं ।
धर्म व अधर्मद्रव्य की सत्ता सिद्ध करने का शंका समाधानपूर्वक विवरण―शंकाकार कहता है कि धर्म और अधर्मद्रव्य हैं कहाँ? जिनका नाम लेकर चर्चा बढ़ायी जा रही है । जो चीज दिखती नहीं, प्राप्त होती नहीं उसकी चर्चा करके समय क्यों खोया जाये? धर्म और अधर्मद्रव्य तो गधे के सींग की तरह है ही नहीं । जो हों लाठी आदिक, उनकी उपलब्धि हो ही रही है और यह भी समझ में आ रहा कि लाठी का यह उपकार है कि नीचे ऊँचे भू भाग में भेद बता दिया कि यहाँ नीचा भू भाग है यहाँ ऊँचा भू भाग है, पर धर्म और अधर्मद्रव्य तो उपलब्धि में नहीं आ रहे और न उनका उपकार भी देखने में आ रहा इस कारण धर्म अधर्मद्रव्य का सत्त्व ही नहीं है । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि यदि लोग ऐसी प्रतिज्ञा करके बैठ जायें कि जो-जो हमको उपलब्धि में न आये, आंखों से न दिखे वे-वे सब असत् हैं, ऐसी प्रतिज्ञा करके कोई रह जाये तो वहाँ तीर्थ, गुरु, देव, स्वर्ग, नरक आदिक सबका अभाव बन बैठेगा । कहा जा सकता है कि जैसे गधे का सींग उपलब्घ नहीं है तो उसकी कोई सत्ता नहीं, ऐसे ही तीर्थंकर पुण्य, पाप, परलोक, स्वर्ग नरक आदिक भी उपलब्ध नहीं होते तो इनकी भी सत्ता नहीं है । मुख्य बात यह है कि धर्म और अधर्मद्रव्य की उपलब्धि नहीं है, यह हेतु ही असिद्ध है । भगवान अरहंत सर्वज्ञदेव के प्रत्यक्ष ज्ञान में यह आया है कि धर्म और अधर्मद्रव्य है और उन भगवान के द्वारा प्रणीत परम आगम में वर्णित है, सो आगम प्रमाण से भी गम्य है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य है और फिर उनके अनुसार कार्य देखा आ रहा है, तो उसके अनुमान के द्वारा भी वह सिद्ध है । जो धर्म और अधर्मद्रव्य अनुपलब्ध से हैं यह हेतु देना गलत है । जो हेतु स्वयं असिद्ध है, वह अपनी साध्य सिद्धि नहीं कर सकता और अनुपलब्धि हेतु तो निर्णायक नहीं होता किंतु विवादकारक हो सकता है कि धर्म अधर्मद्रव्य चूंकि हम लोगों को अनुपलब्ध हैं तो क्या गधे के सींग की तरह तुच्छाभाव रूप हैं वह या परमाणु आकाश आदिक की तरह सूक्ष्म हैं वे इतने कि वे हम लोगों को उपलब्ध नहीं होते । तो अनुपलब्धि हेतु से विवाद तो हो सकता है, पर उससे निर्णय नहीं किया जा सकता कि वे हैं ही नहीं । उनका सद्भाव जो लोक में कार्य देखा जा रहा है उससे जान लिया जाता है क्योंकि कार्य अनेक उपकरणों द्वारा साध्य हुआ करते हैं । जैसे मृत् पिंड यह सामर्थ्य रखता है कि वह घटरूप परिणम जाये पर बाहरी कुम्हार, दंड, चक्र, सूत्र, पानी आदिक अनेक उपकरणों की अपेक्षा रखता हुआ घट पर्याय रूप से प्रकट होता है । खाली एक मृत् पिंड ही कुम्हार आदिक बाह्य सन्निधानों के बिना घट रूप से प्रकट होने में समर्थ नहीं है, ऐसे ही पक्षी आदिक गति और स्थिति के परिणमन करने के अभिमुख हैं पर बाह्य अनेक कारणों के सन्निधान के बिना गति और स्थिति रूप परिणमने के लिये सामर्थ्य नहीं हैं, उनमें गति स्थिति के उपग्रह का कारणभूत धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य है, यह भली-भाँति सिद्ध होता है । इस प्रकार जीव पुद्गल की गति और स्थिति रूप कार्य देखा जाने से सिद्ध होता है कि उनके साधारण कारण भूत कोई द्रव्य होना ही चाहिये, अन्यथा ये चलकर लोकाकाश के बाहर भी पहुँच सकते हैं, तो वे कारण हैं धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ।
संसर्ग को कार्योत्पत्ति में हेतु मानने पर भी कार्य की अनेक कारण साध्यता की सिद्धि―यहाँ धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य के अस्तित्त्व के बारे में शंका समाधान चल रहा था जिसमें एक यह भी बात आयी थी कि जब जीव और पुद्गल के गमन और स्थिति में भूमि, जल, आकाश आदिक कारण देखे जा रहे हैं तो धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य को मानने की क्या आवश्यकता है? दूसरी चर्चा यह भी चल रही थी कि धर्म और अधर्मद्रव्य की तो उपलब्धि हो ही नहीं रही, इस प्रकार शंकाओं का समाधान किया था । अब धर्म अधर्मद्रव्य की सिद्धि के लिये प्रथम शंका से संबंधित यह बात कही जा रही थी कि इस लोक में कार्य अनेक कारणों द्वारा साध्य होता हुआ देखा जाता है । जैसे घट कार्य बनने में कुम्हार, दंड, चक्र आदिक अनेक कारण देखे गए हैं तो ऐसे ही भले ही गति और स्थिति में भूमि जल आदिक कारण पड़ते हैं वे भी रहे आयें लेकिन साधारण कारण धर्म अधर्मद्रव्य भी होते हैं, और इस प्रकार धर्म अधर्मद्रव्य की सिद्धि की गई थी । उसी विषय में यहाँ शंकाकार यह कहता है कि अनेक कारणों से कार्य नहीं बनता किंतु अनेक पदार्थों के संसर्ग से कार्य बनता है, अर्थात् कार्य उत्पन्न होने में संसर्ग ही कारण है । कारण अन्य कुछ नहीं है, जैसे कपड़ा बनता है तो अनेक डोरों का संबंध होना ही कपड़े के कार्य को पूरा करता है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यदि संसर्ग को ही कारण माना जाये तब तो कारण का नियम ही न बन सकेगा । जिस चाहे पदार्थ का संसर्ग होने से कपड़े की उत्पत्ति होने लगेगी । और संसर्ग मानने वाले भी यदि यह कहें कि खास पदार्थों के संसर्ग से कार्यं होता है तो बस इसी से अनेक कारणपने की सिद्धि हो गई । जब संसर्ग अनेक पदार्थों का है तो संसर्ग भी अनेक हो गये । और जिनका संसर्ग है वे पदार्थ ही तो कारण रूप हैं, इस प्रकार कार्य के अनेक कारणों से सिद्धि होती है । और इस तरह गति और स्थिति के परिणमन में लाठी दीपक भूमि चश्मा जल आदिक भी कारण कहे जायें, पर धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ये मूल साधारण कारण हैं । अन्य कारणों में तो कमीबेशी होती रहेगी, । किसी में कुछ कारण हैं किसी में कुछ नहीं है, पर धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य सभी के लिये साधारण कारण हैं ।
सभी दार्शनिकों के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष अर्थ की मान्यता होने से अनुपलब्धि हेतु धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य के असत्त्व की असिद्धि―जो पुरुष यहाँ यह हठ करते हैं कि जो आँख आदिक प्रत्यक्ष से नहीं प्राप्त होता है वह है ही नहीं । तो जिनका ऐसा अभिप्राय है उनका तो अपने मत से ही विरोध आता है । जितने भी दार्शनिक हैं वे सब प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अर्थ को बताने वाले हैं । जैसे क्षणिकवादी दार्शनिक कहते हैं कि प्रत्येक रूप परमाणु अतींद्रिय है और अप्रत्यक्ष है किंतु उन रूप परमाणुओं का समुदाय बने, अनेक परमाणुओं का संसर्ग बने तो वह ही इंद्रिय द्वारा ग्राह्य हो जाता है । सांख्य लोग कहते हैं कि पृथ्वी आदिक जो दिख रहे हैं ये तो प्रकट प्रधान के परिणाम हैं, वे तो प्रत्यक्ष हो रहे हैं, पर उनमें जो सत्त्व आदिक गुण हैं वे गुण अप्रत्यक्ष हैं, तो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के अर्थ सभी दार्शनिक मानते हैं । वैशेषिक लोग कहते हैं कि अनेक परमाणुओं के समुदायरूप से उत्पन्न हुए पृथ्वी आदिक प्रत्यक्ष हैं उनके विषय रूपादिक भी प्रत्यक्ष हैं, उनका समवायों संख्या प्रमाण, संयोग, विभाग आदि भी प्रत्यक्ष हैं । पर यहाँ अणु और आकाश आदिक अप्रत्यक्ष हैं । तो प्रत्येक दार्शनिकों के यहाँ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के पदार्थ माने गये हैं । यदि अनुपलब्धि होने से धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य का अभाव माना जाये तो जो अप्रत्यक्ष अर्थ ऊपर कहे गये हैं विज्ञान सत्त्व परमाणु आदि उनका भी अभाव मान लेना चाहिए, क्योंकि वे प्रत्यक्ष हैं । उनके बारे में यदि यह कहा जाये कि एक अप्रत्यक्ष पदार्थ का कार्य देखा जाता है, उस कार्य से उनका अस्तित्त्व जाना जाता है तो फिर धर्म और अधर्म द्रव्य के बारे में यही बात मानने में ईर्ष्या क्यों की जा रही है? धर्म और अधर्म द्रव्य का कार्य गति और स्थिति भी तो देखा जा रहा है ।
परस्पराश्रय से रचना मानने पर भी साधारण हेतु होने की अनिवार्यता की भांति गति स्थिति के साधारण हेतुभूत धर्म व अधर्म द्रव्य की अनिवार्यता―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि जैसे ज्ञानादिक आत्मपरिणामों का और दही आदिक पुद्गल परिणामों का निर्माण एक दूसरे के आश्रय से हो रहा है, जैसे दूध में जामन पड़ने पर दही का निर्माण हो गया, उस ज्ञान के कारण आत्मा का अस्तित्त्व जाना गया । आत्मा का ज्ञान जाना गया तो ऐसे ही जीव और पुद्गल की जो गति और स्थिति बनती है वह भी परस्पर के आश्रय से बन जाती है । उसमें धर्म द्रव्य और अधर्म कैसे सिद्ध हो जाता? इस शंका के उत्तर में कहना इतना ही है कि यह भले प्रकार सिद्ध कर दिया गया कि पक्षी आदिक की जो गति स्थिति होती है उसमें कारण अनेक हैं । कुछ असाधारण कारण हैं । तो साधारण कारण धर्म अधर्म द्रव्य हैं । अन्य तो पक्षी आदिक की गमन स्थिति की योग्यता के प्रकट करने वाले आश्रयभूत हैं, और जैसे, शंकाकार ने अभी-अभी दृष्टांत दिया कि ज्ञानादिक या दधि आदिक विकार की रचना परस्पर के आश्रय से है । सो भले ही ये असाधारण कारण रहें, मगर उन सबकी रचना का बाह्य साधारण हेतु काल नामक द्रव्य मानना ही पड़ता है । इस प्रकार धर्म द्रव्य और अधर्म का अस्तित्त्व प्रमाण सिद्ध है ।
गति स्थिति का हेतु अदृष्ट को मानने पर अनेक दोषापत्तियां होने से धर्म व अधर्म द्रव्य के ही गति स्थिति हेतुत्व की सिद्धि―अब यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि आत्मा का एक अदृष्ट नाम का गुण है जिसके भाग्य, कर्म, आदिक पर्यायवाची शब्द हैं । उस अदृष्ट गुण के कारण सुख दुःख आदिक फल मिला करते हैं । और उसी अदृष्ट गुण के कारण सुख दुःख के साधनभूत―धन स्वर्णादिक साधन मिला करते हैं । वैशेषिक सूत्र में इस विषय को काफी विवरण से बताया गया हे । अग्नि में ज्वाला ऊपर उठती है । हवा सीधी तिरछी चलती है ये सब अदृष्ट द्वारा ही कराये गए हैं और भी जितने कार्य हैं जन्म मरण नये-नये शरीर का संयोग वह सब अदृष्ट द्वारा कराया है । तो इसी प्रकार आगम और स्थिति ये भी अदृष्ट के कारण ही माने जावें । धर्म द्रव्य अधर्म द्रव्य नामक पदार्थ की कल्पना क्यों की जाये । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि जितनी गति और स्थिति में अदृष्ट को कारण माना जाता है, धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य को नहीं तो पुद्गल की गति स्थिति कैसे बनेगी? अदृष्ट तो आत्मा का गुण है सो आत्मा की गति स्थिति का हेतु बताया जा सकता, पर पुद्गल में गति और स्थिति का कारण अदृष्ट तो नहीं हो सकता क्योंकि ये अचेतन हैं, वे न पुण्य कर सकते न पाप कर सकते । तो जब उसके अदृष्ट नहीं बन सकता तो अदृष्टकृत गति स्थिति यहाँ कैसे हो सकती? इस पर शंकाकार यदि यह कहे कि ये पुद्गल पदार्थ जिनके उपयोग में आये उन आत्माओं के अदृष्ट के कारण इन पुद्गलों की गति स्थिति मान ली जायेगी । तो यह कहना भी संगत नहीं है, क्योंकि आत्मा का गुण है अदृष्ट । उसके द्वारा पुद्गल में क्रिया का आरंभ नहीं हो सकता । किसी गुण का सामर्थ्य अन्य में क्रिया करने का नहीं होता, और फिर देखिये―जब यह जीव कर्म से मुक्त होता है, सिद्ध भगवान बनता है तो उसके न तो पुण्य रहा न पाप रहा । कोई अदृष्ट ही न रहा फिर भी उनकी ऋजुगति होती है जिससे वे एक ही समय में लोक के अंत में पहुंच जाते हैं और अधर्मद्रव्य के द्वारा वहाँ उनकी स्थिति बनी रहती है । तब गति स्थिति अदृष्ट के कारण होते हैं यह बात संगत नहीं रही ।
अमूर्त होने पर भी धर्म व अधर्मद्रव्य के गति स्थिति हेतुत्व की सिद्धि―अब यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य तो मूर्त पदार्थ हैं, इसमें रूपादिक गुण नहीं हैं ऐसा जैनों ने माना है, तो अमूर्त जो होगा वह जीव, पुद्गल की गति और स्थिति का कारण नहीं बन सकता । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि अमूर्त होने से गति और स्थिति की कारणता दूर होती है इसको सिद्ध करने में कोई दृष्टांत शंकाकार नहीं दे सकता और अमूर्त होकर भी उनके कार्य देखे जाते हैं, इसके उदाहरण अनेक मिलते हैं । जैसे―आकाश अमूर्त है सो वह अमूर्त होकर भी समस्त पदार्थों की अवगाहन क्रिया को करता है, अथवा सांख्य सम्मत प्रधान अमूर्त है, वह अमूर्त होकर भी पुरुष प्रयोजन की प्रवृत्ति से महान् आदिक विकारों को उत्पन्न करके पुरुष का उपकार करता है, अथवा बौद्ध सम्मत विज्ञान अमूर्त होकर भी नाम रूपादिक की उत्पत्ति में निमित्त होते हैं, अथवा मीमांसकों के द्वारा माने गये अपूर्व नाम का धर्म क्रिया से प्रकट होता हुआ अमूर्त होकर भी पुरुष का उपकारी होता है । तो ऐसे ही धर्म और अधर्मद्रव्य अमूर्त होकर भी गति और स्थिति में उपकारी होता है अब यहाँ अतींद्रिय धर्म अधर्मद्रव्य का उपकार मुखेन अस्तित्त्व जानने के बाद जिज्ञासा होती है कि धर्म अधर्मद्रव्य के बाद कहे गये आकाश का जो कि अतींद्रिय है उसके समझने के लिये हम क्या उपकार परिचय में लायें, इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिये सूत्र कहा जा रहा है ।