वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-18
From जैनकोष
आकाशस्यावगाह: ।। 5-18 ।।
अवगाह्य अवगाही में अनादि संबंध न हो सकने की आरेका व समाधान―आकाश का अवगाह उपकार है यहाँ अवगाह शब्द भाव साधन में प्रयुक्त हुआ है, जिसकी व्युत्पत्ति है―अवगाहनं अवगाह:, अवगाह का अर्थ होता है अनुप्रवेश अर्थात प्रविष्ट हो जाना । इस सूत्र में उपकार शब्द की पूर्व सूत्र से अनुवृत्ति ली है, जिससे कि पूर्ण अर्थ बना आकाशद्रव्य का उपकार है सब द्रव्यों का अवगाह होना । यहाँ शंकाकार कहता है कि आकाश धर्म अधर्म आदिक पदार्थों के अवगाह का कर्ता है, तब इसका अनादि काल से संबंध नहीं बन सकता । जैसे कहा जाता कि हंस जल में प्रविष्ट हुआ है तो हंस और जल का अनादि संबंध तो न रहा । वे जुदे-जुदे थे या हंस कहीं से आया और जल में प्रवेश कर गया तो ऐसे ही जब यह कहा जाता कि आकाश धर्म और अधर्म आदिक द्रव्यों को अवगाहता है तो आकाश का और सब द्रव्यों का अनादि संबंध तो न रहा । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यहाँ शंका यों न करना चाहिए कि यह अवगाह औपचारिक है, क्योंकि यहां कुछ क्रिया नहीं हो रही, किंतु इन सब पदार्थों की व्याप्ति है यहाँ आकाश में । जैसे आकाश गमन नहीं करता फिर भी आकाश को सर्वगत कहा जाता । सर्वगत का सीधा अर्थ है―जो सब जगह गया हो । तो आकाश में तो क्रिया ही नहीं है, वह तो कहीं जाता ही नहीं है, फिर भी जो सर्वगत कहा है वह व्याप्ति के कारण कहा है कि आकाश बहुत बड़ा व्यापक पदार्थ है, ऐसे ही मुख्य अवगाह क्रिया के न होने पर भी अर्थात् पदार्थ कहीं से आकर लोकाकाश में प्रवेश करते हैं, ऐसा न होने पर भी लोकाकाश में सब जगह व्याप्ति देखी जा रही है धर्म अधर्मद्रव्य की, इस कारण कहा जाता कि धर्म अधर्मद्रव्य का लोकाकाश में अवगाह है ।
अयुत सिद्धों में भी आधाराधेयत्व की उपपत्ति की संभवता होने से लोकाकाश में धर्म व अधर्मद्रव्य के अवगाह की असिद्धि की असिद्धि―अब शंकाकार यह बात रख रहा कि जहाँ आकाश है वहाँ ही धर्म, अधर्मद्रव्य हैं, और अनादि से संबंध है, ये कभी अलग रहे नहीं लोकाकाश से, तो जब ये अयुत सिद्ध हैं तो इनमें आधार-आधेय भाव नहीं बन सकता । जो पृथक् सिद्ध पदार्थ है उनमें ही आधार आधेय भाव देखा गया है । जैसे मटके में गेहूं भरा तो गेहूं पृथक् सिद्ध हैं, गेहूँ अलग पदार्थ हैं, मटका अलग वस्तु है, तो वहां आधार आधेय भाव बन गया, किंतु आकाश धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य ये तो अयुत सिद्ध हैं, याने पहले ये एक जगह न थे बाद में ये एक जगह आये हैं, ऐसी बात तो है नहीं, इस कारण इनमें आधार आधेय भाव नहीं बन सकता । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि युत सिद्ध पदार्थों में भी आधार आधेय भाव देखा जाता है और अयुतसिद्ध पदार्थों में भी आधार आधेय भाव देखा जाता है । जैसे हाथ और हाथ की रेखायें कहीं अलग तो नहीं है फिर भी कहा जाता है कि हाथ में रेखायें हैं तो अयुतसिद्ध में लो आधार आधेय भाव देखा गया ना । और भी देखिये―ईश्वर का जो ऐश्वर्य है वह अलग चीज तो है नहीं कि ईश्वर अलग पड़ा और ऐश्वर्य अलग बना है, अयुत सिद्ध हैं दोनों फिर भी आधार आधेय भाव बताया जाता है कि ईश्वर में ऐश्वर्य है । तो इसी तरह लोकाकाश में धर्मद्रव्य है यह आधार आधेय भाव सिद्ध हो जाता है ।
धर्म अधर्म लोकाकाश आदि में कथंचित् युतसिद्धत्व अयुतसिद्धत्व अनादि संबंधत्व आदि संबंध आदि की सिद्धि―यह भी बात एकांत की नहीं है कि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य आकाश के साथ अनादि से संबंध किये हुये हैं । यहाँ भी अनेकांत घटाया जायेगा, कथंचित् अनादि संबंध है, कथंचित् अनादि संबंध नहीं है इसी प्रकार ये दोनों द्रव्य कथंचित् अयुतसिद्ध हैं और कथंचित् अयुतसिद्ध नहीं हैं, वे इस प्रकार हैं कि जब पर्यायार्थिकनय को गौण करके द्रव्यार्थिक की प्रधानता से निरखते हैं तो उनमें उत्पत्ति व्यय नहीं विदित हुआ । उस समय यह अनादि संबंध है और अयुतसिद्ध है, किंतु जब पर्यायार्थिकनय को गौण करके पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से निरखते हैं तो पर्यायों का उत्पाद व्यय देखा जा रहा है सो इस दृष्टि से न अनादि संबंधी है और न अयुतसिद्ध है और इसी विधि से धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का आकाश में कथंचित् अवगाह है और कथंचित् आधार आधेय भाव है, यह सिद्ध होता है । हाँ जीव और पुद्गल का मुख्य अवगाह एकदम प्रकट विदित होता है, क्योंकि इनमें क्रिया परिणमन है । जैसे हंस कहीं से उड़कर जल में आ गया तो जल में अवगाह किया यह स्पष्ट जाना जाता है । ऐसे ही जीव पुद्गल आकाश के किसी भाग से चलकर किसी भाग में आया तो क्रिया परिणमन होने से इनके अवगाह को प्रकट जान लिया जाता । इस प्रकार क्रिया परिणामी द्रव्य अथवा निष्क्रिय द्रव्य उनकी व्याप्ति आकाश में है अतएव सबका अवगाह आकाश में हुआ है । इस तरह आकाश द्रव्य का उपकार सर्व पदार्थों को अवगाह देना है । ऐसा उपकार की दृष्टि से आकाश का लक्षण कहा गया है ।
सर्व को अवगाह देने के सामर्थ्य वाले आकाश में एक पदार्थावरुद्ध क्षेत्र में अन्य पदार्थ का अवगाह न होने के कारण की मीमांसा―यहाँ शंका होती है कि आकाश का सामर्थ्य बताया है कि वह सबको अवगाह दे-दे तो जब यह सामर्थ्य आकाश में है तो वस्तुओं का परस्पर में प्रतिघात न होना चाहिये, जैसे कि एक बज्र में दूसरा पत्थर नहीं प्रवेश करता या गाय आदिक भींट से छिड़ जाते हैं तो यह प्रतिघात क्यों होता है? जब आकाश सर्वत्र है तो सबको सब जगह समा जाना चाहिये और प्रतिघात देखा जा रहा है इससे सिद्ध होता कि आकाश में दूसरे को अवगाह देने का सामर्थ्य नहीं है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि आकाश का सामर्थ्य तो बराबर है कि सभी पदार्थों को अवगाह दे-दे और दे ही रहा है, मगर जो स्थूल पदार्थ हैं वे परस्पर प्रतिघात कर देते हैं । सूक्ष्म पदार्थ हों तो वे प्रतिघात नहीं करते । वहाँ तो एक दूसरे का प्रवेश होता है । तो जो यह स्थूल पदार्थों का प्रतिशत देखा जा रहा है सो आकाश के अवकाशदान के सामर्थ्य की कमी से नहीं किंतु उन स्थूल पदार्थों का ऐसा ही स्वभाव है कि उनमें परस्पर प्रतिघात होता रहता है । इससे आकाश सर्व पदार्थों को अवगाह देने में समर्थ है, इनमें रंचमात्र भी संदेह नहीं है । तब ही तो आकाश के थोड़े से प्रदेशों में अनंतानंत परमाणुओं के पिंड समाये रहते हैं तो आकाश नहीं दूसरे को रोकता किंतु जो पदार्थ स्थूल हैं वह दूसरे को रोक लेता है ।
आकाश के सर्वसाधारणावगाहरूप असाधारण गुण का समर्थन―यहाँ शंका होती है कि यदि सूक्ष्म पदार्थ सूक्ष्मता के कारण अन्य पदार्थों को अवगाह दे देते हैं तब तो पदार्थों का अवगाह देना, यह आकाश का असाधारण लक्षण नहीं कहलाया । यदि आकाश ही अवगाह देता रहता, सूक्ष्म पदार्थ अन्य कोई भी अवगाह नहीं देते तब तो अवगाह आकाश का असाधारण गुण कहलाता, पर आकाश में ही तो ये गुण नहीं हैं । सूक्ष्म पदार्थों में भी गुण हैं, इस कारण से अवगाह आकाश का गुण नहीं और जब अवगाह आकाश का असाधारण लक्षण नहीं तो आकाश की भी कोई सत्ता न रही । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि अवकाश देना तो आकाश का ही काम है, और सूक्ष्म पदार्थ का यह काम है कि वह दूसरे पदार्थों का प्रतिघात नहीं कर सकता पर सूक्ष्म पदार्थ दूसरों का प्रति- घात न करे तिस पर भी जो पदार्थ का अवगाह हुआ है वह आकाश द्रव्य के नाम से हुआ है । तो आकाश का सभी को अवगाह देना यह विशेष लक्षण पाया जाता है । जैसे कि जल में ठहरने में भूमि आदिक भी कारण देखे जाते हैं । गाड़ी चलती है भूमि पर ठहरती है भूमि पर । तो भूमि आदिक में यद्यपि गति और स्थिति का उपग्रह देखा जा रहा है तो भी समस्त द्रव्यों को गति और स्थिति का उपग्रह कर सके, यह लक्षण भूमि में नहीं है । किंतु धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य में यह असाधारण लक्षण है कि जो चल सके उन सभी द्रव्यों को चलने और ठहरने में असाधारण कारण पड़ता है । तो इस प्रकार सर्व द्रव्यों का अवगाहन करना यह विशेष लक्षण आकाश में पाया जाता । इससे आकाश का अस्तित्त्व युक्तिसंगत है ।
अलोकाकाश में आकाशातिरिक्त अन्य द्रव्य न होने पर भी अवगाहरूप असाधारण गुण का सद्भाव―यहां शंका होती है कि यदि अवकाश दान देना आकाश का असाधारण लक्षण है तो अलोकाकाश में चूंकि अवकाश दान नहीं हो रहा । कोई अवगाही पदार्थ भी नहीं हे तो वहाँ यह लक्षण तो नहीं पाया गया फिर अलोकाकाश का अभाव ही मानना चाहिए । जिसमें असाधारण लक्षण न पाया जाये वह लक्षण फिर नहीं ठहरता । इस शंका का उत्तर देते हैं कि अलोकाकाश में भी अवकाश देने का सामर्थ्य है । भले ही वहाँ अवगाह लेने वाले पदार्थ नहीं हैं मगर आकाश द्रव्य का जो स्वभाव है वह कभी नहीं छूट सकता । जैसे कि नदी या समुद्र का स्वभाव है कि हंस आदि को अवगाह देना, मायने वहाँ हंस आये और उस जल में केलि करता रहे, पर जब समुद्र या नदी में कोई हंस नहीं आ रहा तो अवगाही हंस का अभाव होने से जल का अवगाह्यपना खतम हो जाता । मायने जल में जो यह सामर्थ्य है कि कोई पक्षी आदिक आये तो उसमें बसा करे तो ऐसे ही अलोकाकाश में अवगाह लेने वाले पदार्थ मौजूद नहीं हैं तिस पर भी अलोकाकाश भी आकाश ही तो है । उसमें यह सामर्थ्य तो बराबर है कि वह अन्य पदार्थ को अवकाश दे सके और आकाश एक अखंड द्रव्य है । लोकाकाश दूसरा आकाश है और अलोकाकाश दूसरा आकाश है ऐसा भेद नहीं है किंतु उस ही एक अखंड आकाश में यह भेद बनाया गया है कि जहाँ 6 द्रव्य पाये जायें वह लोकाकाश है और जहाँ केवल आकाश पाया जाये वह अलोकाकाश है । तो आकाश का जो सामर्थ्य है वह तो आकाश में है ही ।
आकाश की भी उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मकता होने से सत्ता की प्रसिद्धि―यहाँ शंकाकार कहता है कि आकाश उत्पन्न नहीं हुआ, सो उत्पन्न न होने से आकाश का अभाव ही है । जैसे गधे के सींग भी उत्पन्न नहीं होते तो उनका अभाव ही है । इस शंका के उतर में कहते हैं कि शंकाकार का हेतु असिद्ध है । शंकाकार का कहना था कि आकाश उत्पन्न नहीं होता? सो किसी दृष्टि से देखें तो आकाश की उत्पत्ति विदित होती है । प्रथम तो आकाश का जातपना सीधे ही सिद्ध है कि जब द्रव्यार्थिकनय को गौण करके पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से देखा जाये तो अपने ही कारण से अगुरुलघुत्व गुण की वृद्धि हानि के भेदों की अपेक्षा से आकाश में उत्पाद होता रहता है और दूसरे ढंग से यों देखिये कि अवकाश करने वाले जीव पुद्गल जो पर पदार्थ हैं उनके कारण से जो अवगाह के भेद होते रहते हैं, अभी इस भाग में अवगाह है, अब यहाँ न रहा वह पदार्थ अन्यत्र पहुँच गया । कभी अधिक क्षेत्र में अवगाह है किसी पदार्थ का तो कुछ कम क्षेत्र में रह गया या अधिक में हो गया । इन भेदों की अपेक्षा से अवगाह भेद से आकाश का उत्पाद सिद्ध होता है । तीसरे इस ढंग को देखिये कि जैसे क्षीण मोह गुणस्थानवर्ती जीव का जो अंतिम समय है वह सर्वज्ञपने से ही है याने वहाँ भो यह आत्मा सर्वज्ञ नहीं है और उसके बाद सर्वज्ञपना आयेगा । 13वें गुणस्थान में सर्वज्ञ होता ही है । तो जैसे यहाँ निरखा जाता है कि असर्वज्ञ रूप से तो व्यय हो गया और सर्वज्ञरूप से उत्पाद हो गया तो ऐसे ही आकाश के बारे में देखिये कि वह चरम समयवर्ती असर्वज्ञ 13वें गुणस्थान के अंतिम समय वाला मुनि आकाश को साक्षात नहीं जान पा रहा था, उसके लिये आकाश साक्षात अनुपलंभ था । अब एक समय बाद जैसे कि वह सर्वज्ञ हुआ तो यह अनुपलंभ आकाश अब साक्षात प्रत्यक्ष हो गया । तो वहाँ यह आकाश उपलंभ रूप से उत्पन्न हो गया, अनुपलंभ रूप से नष्ट हो गया । यदि इस प्रकार उपलंभ रूप से आकाश को उत्पन्न न कहा जाये और अनुपलंभ रूप से नष्ट न कहा जाये तो आत्मा की सर्वज्ञता ही नहीं ठहर सकती । फिर कोई सर्वज्ञ ही न रहेगा । तो इस प्रकार आकाश में भी व्यय उत्पाद देखा जाता है तो शंकाकार का हेतु असिद्ध हो गया । चौथी बात यहाँ यह देखो कि शंकाकार ने जो दृष्टांत दिया कि खरविषाण उत्पन्न नहीं होता इस कारण उसका अभाव है तो यह बात भी एकांत से नहीं कही जा सकती । खरविषाण इस समय अर्थरूप से तो है पर बुद्धि और शब्द रूप से तो है ही । खरविषाण में तो शब्द हुए और इन शब्दों को सुनकर कल्पना में आया कि यह कहा जा रहा तो वह बुद्धि में आ गया तो इस समय अर्थरूप से तो नहीं है फिर भी तो इस दृष्टांत में किसी दृष्टि से साध्य भी नहीं है और साधन भी नहीं है । जैसे कि कोई गधा मरा और गाय बन गया तो जीव तो वही है और वही जीव होने से गाय के भव में भी उसे गधे का जीव कहा जा सकता है और वहाँ सींग पाये गये तो कह सकते कि गधे के सींग हो गये । तो जैसे गधे का सींग यद्यपि उस भव में अर्थरूप से नहीं है तो भी ऐसी दृष्टि से उसको भी उत्पन्न कहा जा सकता है । फिर आकाश में तो कोई ऐसी कल्पना भी नहीं बनाई जा रही । आकाश चूंकि द्रव्य है इस कारण प्रति समय उसमें उत्पाद होता रहता है ।
आकाश की सत्तात्मक पदार्थ लो―अब एक शंकाकार कहता है कि आकाश कोई पदार्थ नहीं है किंतु कोई आवरण नहीं रहता । रुकावट की चीज न होना, ऐसी पोल का ही नाम आकाश कह दिया जाता है । तो आवरण के अभाव मात्र का नाम आकाश है । आकाश कोई सद्भूत द्रव्य नहीं है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यद्यपि आकाश प्रत्यक्ष नहीं हो रहा फिर भी वास्तविक सत् है । आवरण के अभाव मात्र नहीं है जैसे कि नाम वेदना आदिक जो बौद्ध सिद्धांत में स्कंध माने गए हैं वे अमूर्त हैं और आवरण रहित हैं तो मी उनकी सत्ता मानी गई है ऐसे ही आकाश भी यद्यपि अमूर्त हैं तो भी वह वास्तविक है ।
आकाश का अवगाह लक्षण से ही परिचय―अब पुन: एक शंकाकार कह रहा कि आकाश का लक्षण अवगाह बताया है । पर अवगाह में आकाश का ज्ञान नहीं होता । आकाश का अनुमान नहीं बनता फिर किससे बनता है सो सुनो―शब्द नाम हेतु से बनता है, याने आकाश है क्योंकि शब्द गुण प्रकट हो रहा है । शब्द आकाश का गुण है और वह वायु के अवघात रूप बाह्य निमित्त के वश से सब जगह उत्पन्न होता हुआ विदित होता है । इंद्रिय से प्रत्यक्ष भी होता है और ऐसा यह शब्द गुण अन्य द्रव्य में पाया नहीं जाता । तो यही शब्द गुण गुणी आकाश को सिद्ध करता है, क्योंकि शब्द यह गुण है और जो गुण होता है वह द्रव्य के ही अधीन होता है । सो जिसके अधीन यह शब्द गुण है वह है आकाश । तो आकाश का परिचय शब्द गुण से होता है अवगाह से नहीं । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शब्द को आकाश का गुण कहना अयुक्त है । शब्द आकाश का गुण नहीं है, क्योंकि वह पौद्गलिक है । शब्द पुद्गल द्रव्य का विकार है । आकाश का गुण नहीं है और ये शब्द पौद्गलिक हैं । इसकी पहिचान यों जानी जाती कि इनका पुद्गल से अभिघात होता है । शब्द छिड़ जायें । शब्द किसी चीज में रोक दिये जायें तो ये मूर्तिमान पुद्गल से छिड़ते हैं । इससे मालूम होता है कि शब्द आकाश का गुण नहीं है किंतु पुद्गल द्रव्य का विकार है ।
आकाश प्रधान विकाररूप न होकर स्वतंत्र सत्तात्मक पदार्थ―अब यहाँ सांख्य सिद्धांतानुयायी शंका करते हैं कि आकाश कोई अलग चीज नहीं, किंतु वह प्रधान का विकार है । तत्त्व दो है―(1) पुरुष और (2) प्रधान । प्रधान सत्त्व रज, तम गुण का एक पिंड है और उत्पन्न होने के स्वभाव वाला है और मोह महत आदिक में प्रधान के विकार हैं सो उन्हीं विकारों का विशेष कोई आकार है । कोई अलग पदार्थ नहीं है । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि प्रथम तो प्रधान में परिणाम ही नहीं माना गया है, जैसे कि परमात्मा में कोई परिणाम नहीं माना क्योंकि वह नित्य है, निष्क्रिय है । आविर्भाव तिरोभाव यहाँ होता नहीं हे । तो जैसे परमात्मा के परिणमन नहीं माने ऐसे ही प्रधान के भी परिणाम नहीं हो सकते । क्योंकि प्रधान को भी नित्य माना है, निष्क्रिय माना है । अतएव परिणाम नहीं हो सकते, और जब प्रधान में परिणाम नहीं है तो प्रधान के विकार को आकाश कहना यह कल्पना भी नहीं ठहरती, और यदि आकाश को प्रधान का विकार मान लिया जाये तो ऐसे घट पट आदि जो कि प्रधान के विकार माने गए हैं उनमें जैसे अनित्यता है । ये नष्ट हो जाते हैं और मूर्त हैं व एक देश में रहते हैं, तो ऐसे ही आकाश भी अनित्य हो जायेगा । मूर्तमान और एकदेश व्यापी हो जायेगा अथवा जैसे आकाश नित्य अमूर्त सर्वगत है ऐसे ही प्रधान के विकार घट पट आदिक भी नित्य अमूर्त सर्वगत हो जायेंगे । इस कारण आकाश एक स्वतंत्र द्रव्य है । यह किसी अन्य द्रव्य का विकार नहीं है । अब पुद्गल द्रव्य का उपकार कहने के लिए सूत्र कहते हैं ।