वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-19
From जैनकोष
शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ।। 5-19 ।।
शरीर और वचन पुद्गलों का उपकार तथा उनको पूर्वापर नाम रखने का कारण―पुद्गल द्रव्य का उपकार शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवास है । विकार के मायने यहाँ कार्य है और वह किसके प्रयोजन के लिए है यह प्रश्न होने पर उत्तर आता है कि जीव के लिए है, क्योंकि इन सबका उपभोग जीव करता है । सामान्यतया अर्थ है कि शरीर तो जीवों के जैसे शरीर पाये जाते वे शरीर हैं । वचन जो शब्दवर्गणा के विकार हैं वे वचन हैं । मन―जिससे हितोपदेश ग्रहण करने की शिक्षा मिल पाती है वह मन है । और श्वासोच्छ्वास तो प्रकट है कि जीवों को श्वांस होती है और उच्छ्वास होती है याने श्वांस निकलती है और ग्रहण की जाती है । इसका विशेष अर्थ आगे कहेंगे पर इस समय यह जानना युक्त है कि सूत्र में शरीरादिक का यह कम क्यों रखा गया है? सबसे पहले शरीर शब्द इस कारण रखा है किं शरीर के होने पर ही वचन, मन और श्वासोच्छवास हुआ करता है । तो उन आधेयों की प्रवृत्ति इस शरीर के आधार से है तब शरीर प्रधान हुआ और इसी कारण उसका सर्वप्रथम ग्रहण किया गया । शरीर बाद वचन कहा है । उसका कारण यह है कि वचन पुरुष हित की प्राप्ति का मूल कारण है । पुरुष के वचन हित में लगाने वाले हैं याने ये वचन पुरुष को हित प्रवर्ताते हैं ।
वचन के निर्देश से तथा अग्रिम सूत्र में च शब्द के ग्रहण से अन्य इंद्रियों की भी पुद्गल के उपकार में अंतर्निहितता―यहां वचन चूंकि मुख से ही बोला गया, जिह्वा से ही बोला गया, जिसके जिह्वा नहीं, वह वचन नहीं बोलता तो यह रसना इंद्रिय का प्रतीक जैसा है । ऐसा समझकर एक शंकाकार कहता है कि जैसे वचन पुरुष के उपकारक हैं ऐसे ही चक्षु आदिक इंद्रियां भी तो पुरुष के उपकारक हैं । फिर उनका भी ग्रहण करना चाहिये । तो उसका उत्तर यह है कि यह तो हमें इष्ट ही है, पर इसका ग्रहण जो इससे अगला सूत्र आयेगा उसमें च शब्द पड़ा है उससे ग्रहण हो जाया करता है । यहाँ यह शंका होती है कि चक्षु आदिक इंद्रियां तो आत्मा के प्रदेश रूप हैं । उन्हें पौद्गलिक कैसे कह दिया? और पुद्गल का विकार कैसे बता दिया? उसका उत्तर है कि यद्यपि वह आत्म प्रदेश रूप है । चक्षु, कर्ण आदिक, पर इन इंद्रियों की रचना दो प्रकार की है―(1) बाह्य और (2) आभ्यंतर तो आभ्यंतर रचना में आत्मप्रदेश का योग माना है । तथापि जितनी बाह्य रचना है, द्रव्येंद्रिय है, वह तो एकदम पौद्गलिक ही है, क्योंकि अंगोपांग नामकर्म के उदय से ये द्रव्येंद्रिय रूप परिणमन होते हैं सो इसका कारण भी पुद्गल है और ये स्वयं आहार वर्गणा के परिणमन हैं । औ ये जीव के सांसारिक उपग्रह में रहते हैं ।
मन उपग्रह भी पुद्गलों का उपकार―मन भी पुद्गलों का उपकार है यद्यपि मन आत्मप्रदेशों में है और नोइंद्रियावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । परद्रव्य मन की रचना तो मनोवर्गणा का ही परिणमन है । वह भी पौद्गलिक है । यहाँ यह संदेह न करना कि चक्षु आदिक जो आत्मप्रदेश हैं या इंद्रियाँ हैं वे तो अवस्थित हैं । जिस जगह हैं वहीं हैं पर मन तो अवस्थित नहीं है तो उसका यहाँ ग्रहण क्यों किया है? या वह भी गौण होने से अंतर्भूत हो जाता । उत्तर देते हैं कि यद्यपि मन अनवस्थित है, क्योंकि जहां-जहां प्रदेशों में उपयोग जाता है वे ही प्रदेश अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण मन नामक हो जाते हैं, किंतु वह मन भी नोइंद्रियावरण के क्षयोपशम के निमित्त से होता है सो वह भी पुद्गल का उपकार है यहाँ यह कहा जा रहा था कि यदि आत्मा का परिणाम होने से चक्षु आदिक का ग्रहण न किया जाये तो वचन का भी ग्रहण न किया जाना चाहिये । क्योंकि वचन भी ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और वीर्यांतराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ है इस कारण वह भी आत्मपरिणाम कहलायेगा । इसे प्रकार शंकाकार समाधान देता है कि जो बाहर निकल गये वचन हैं वे पुद्गल हैं, वे आत्मा के परिणाम नहीं होते इसलिए वचनों का पृथक ग्रहण करना तो उचित है और वचन ग्रहण नहीं कर सकता । ऐसा प्रसंग देकर चक्षु आदिक इंद्रिय का अग्रहण में आपत्ति देना युक्त नहीं है, और यह बात सर्वत्र है कि शरीर में रहने वाले चक्षु आदिक इंद्रियां तो पौद्गलिक ही हैं । वे द्रव्येंद्रियाँ कहलाती । तो इस प्रकार यह बात बिल्कुल युक्त है कि अन्य इंद्रिय का ग्रहण यहाँ होता है और वह अगले कहें जाने वाले सूत्र में च शब्द से विदित होता है ।
शरीर आदि शब्दों को इस क्रम से रखे जाने का कारण और सूत्र में उपकारज्ञापन―सूत्र में सबसे प्रथम शरीर कहा क्योंकि वह सबका आधार है । उसके बाद वचन कहा क्योंकि हित अहित का साधन है और उसके बाद यहाँ मन को ग्रहण किया क्योंकि जिसके शरीर है और जिसके वचन हैं उसी के ही मन हो सकता है इसलिये तीसरे नंबर पर मन कहा । अंत में प्राणापान शब्द कहा है । वह सर्व संसारी जीवों का कार्य है इसलिए इसको अंत में कहा है । यहाँ शंकाकार कहता है कि यह जो सूत्र बनाया है, शरीर, वचन, मन ,श्वासोच्छ्वास ये पुद्गल के उपकार है । सो वास्तव में उपकार बताने के लिये यह सूत्र नहीं हो सकता, किंतु पुद्गल द्रव्य का लक्षण बताने के लिये हैं । और बहुत पहले सूत्रों की उत्थानिका में भी कहा कि उपकार के कथन से द्रव्य का लक्षण कहा जा रहा है । सो मुख्यतया तो यह लक्षण यही ही बता रहे हैं । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि पुद्गल द्रव्य का लक्षण तो आगे स्वयं बताया जायेगा । सूत्र आवेगा पुद्गल के लक्षण वाला । उसमें स्पष्ट बताया जायेगा कि जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाले पदार्थ हैं वे पुद्गल कहलाते हैं । इस सूत्र में तो आत्मा के उपकारक होने से उपग्रह के प्रकरण में पुद्गल का कार्य अथवा उपयोग कहा जा रहा है ।
शरीर वचन आदि की प्रत्यक्षता व अप्रत्यक्षता दोनों हो सकने से इनके उपदेश की संगतता―यहाँ शंकाकर कहता है कि ये शरीर वचन आदिक तो एकदम प्रत्यक्ष है । सबको स्पष्ट विदित हो रहा है, दिख रहा है । इस कारण से उपदेश न करना चाहिये । बात वह बताई जाती है जो लोगों को प्रत्यक्ष न हो और उसका ज्ञान आवश्यक हो । जैसे कि धर्म अधर्म द्रव्य का उपकार बताया था कि गति और स्थिति का उपग्रह करते हैं तो वह बात तो सही जंची, क्योंकि वह प्रत्यक्ष नहीं है तो उसका ज्ञान इस उपयोग से, कर्मों से किया गया है । किंतु शरीरादिक जो उपग्रह बताये हैं पुद्गल के उनके उपदेश निरर्थक हैं । क्योंकि वे तो प्रत्यक्षभूत हैं । जैसे कोई बहुत बोलने लगे कि पहले सूर्य उदित होता है पीछे अस्त होता है, गुड़ मीठा होता है तो ऐसा बोलने से क्या फायदा है? वह तो लोगों को प्रत्यक्ष है ही । इनका उपदेश थोड़े ही किया जाता है । तो ऐसे ही शरीरादिक प्रत्यक्ष हैं तो इनका उपदेश न किया जाना चाहिये । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शरीरादिक जो बताये गए हैं ये भी कोई-कोई प्रत्यक्ष हैं, कोई-कोई प्रत्यक्ष नहीं हैं । कोई शरीर प्रत्यक्ष होता है कोई शरीर प्रत्यक्ष नहीं होते । शरीर 5 बताए गए―(1) औदारिक (2) वैक्रियक (3) आहारक (4) तैजस और (5) कार्माण । सो ये शरीर जब सूक्ष्म हों तो प्रत्यक्ष नहीं होते । जैसे सूक्ष्म जीवों का शरीर है वह हमको कैसे प्रत्यक्ष हो और यहाँ पशु पक्षी आदिक स्थूल शरीर ये प्रत्यक्ष हो रहे हैं । वचन भी है । जो अंतर्जल्प हैं या मंद आवाज में हैं और दूसरे को विदित नहीं होता । मोटे वचन प्रत्यक्ष हैं । मन तो प्रत्यक्ष है ही नहीं । श्वासोच्छ्वास भी कोई प्रत्यक्ष होता है कोई अप्रत्यक्ष भी होता है । किसी का श्वांस विदित हो जाता है, किसी का श्वांस इतना हल्का है कि वह विदित नहीं हो हाता तो ये सब कोई प्रत्यक्ष हैं और कोई प्रत्यक्ष नहीं हैं । इस कारण इनका भी ग्रहण करना युक्ति संगत है और इसीलिए पुद्गल का उपकार स्पष्ट बताने के लिए शरीरादिक का उपदेश किया गया । इस प्रकार औदारिक आदिक शरीर का व्याख्यान पूर्ण होता है ।
कामर्ण शरीर की पौद्गलिकता―यहां शंकाकार कहता है कि शरीरों में एक कार्माण शरीर का भी नाम लिया है सो वह तो पौद्गलिक नहीं है, क्योंकि वह अनाकार है, उसके अंगोपांग हाथ पैर नहीं हैं, जो आकार वाले हों औदारिक आदिक शरीर उनकी पौद्गलिक कहना तो युक्त है पर कार्माण शरीर तो अंगोपांग से रहित है, अनाकार हैं, उसे पौद्गलिक कैसे कहा जा सकता? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि कार्माण शरीर का जो विपाक है, फल है वह पौद्गलिक पदार्थ के संबंध के निमित्त से होता है इसीलिये कार्माण शरीर पौद्गलिक है, यह निश्चय होता है । देखिये―जैसे चावल आदिक हैं तो जल आदिक के संबंध से उनका पाक होता है, पचते हैं, फल देखा जाता है तो वे पौद्गलिक कहलाये । जिसका फल पुद्गल के संबंध से हो, वह पौद्गलिक होता है, तो कार्माण शरीर का भी फल जो सुख-दुःख आदिक है सो वह सुख-दुःख के साधनभूत गुड़, भोजन, काँटा आदिक पौद्गलिक द्रव्यों का समागम होने पर ही मिलता है । याने कार्माण शरीर का विपाक पौद्गलिक पदार्थ के समागम से होता है, इस कारण ये शरीर भी पौद्गलिक हैं । ऐसा कोई अमूर्तद्रव्य नहीं है, जो मूर्तिमान के संबंध होने पर पकता हुआ देखा जाये, और कार्माण शरीर का विपाक मूर्तिमान पदार्थ के संबंध से होता है, काँटा लग गया दुःखी हुये, मिठाई खाया सुखी हुये तो यों पुद्गल के संबंध से कर्म का फल प्राप्त होता इस कारण कर्म पौद्गलिक हैं ।
वचन की पौद्गलिकता―वचन भी दोनों प्रकार के वचन पौद्गलिक हैं । वचन के दो प्रकार ये हैं―(1) भाव वचन और, (2) द्रव्य वचन । सो भाववचन तो वीर्यांतराय के क्षयोपशम से, मति श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और अंगोपांग नामकर्म की प्रकृति के उदय से प्राप्त हुये अंगों के संयोग वियोग से अंतर में हुआ सो वह पौद्गलिक है । पुद्गल संबंध हुये बिना भाव वचन भी नहीं बनते इस कारण वह पौद्गलिक है । मति श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से वीर्यांतराय के क्षयोपशम से सामर्थ्य पैदा हो तो क्रियावान आत्मा के द्वारा प्रेरे गए पुद्गल ही वचन रूप से परिणमते हैं । सो द्रव्य वचन पौद्गलिक हैं यह बात अत्यंत स्पष्ट है और ये वचन श्रोत्रइंद्रिय के विषयभूत हैं, इससे भी जाना जाता है कि ये पौद्गलिक हैं । यह शंका होती कि कोई सा भी वचन श्रोत्र इंद्रिय के द्वारा ग्रहण में आये फिर भी मिट क्यों जाता है? और तुरंत ही मिट जाता है । वह श्रोत्रेंद्रिय द्वारा ग्रहण में आते ही रहना चाहिये । इस शंका का उत्तर कहते हुए कि वचन अपने क्षण प्रकट हुआ उसके पश्चात् वचन की वर्गणायें विशीर्यमाण हो जाती हैं, अलग-अलग हट जाती हैं इस कारण श्रोत्रेंद्रिय के द्वारा पुन: शब्द ग्रहण में नहीं आता । जैसे कि बिजली चमकी, चक्षुइंद्रिय के द्वारा जान लिया गया, बाद में वह चक्षु इंद्रिय के द्वारा हमेशा जाना ही क्यों नहीं जा रहा? उसका कारण यह है कि बिजली प्रकाशरूप हुई और अनंतर ही वह बिखर जाती है, तो आंख से भी बिजली नहीं दिख रही अब, ऐसे ही शब्द आया श्रोत्र इंद्रिय से जाना गया फिर बिखर गया तो शब्द भी श्रोत्र इंद्रिय से सदैव नहीं जाना जा रहा । यहाँ यह भी जानना कि शब्द श्रोत्र इंद्रिय का विषय है मगर शेष इंद्रिय का नहीं है सूक्ष्म होने से जैसे कि गंध द्रव्य घ्राणेंद्रिय से जाना जाता है और जैसे द्रव्य में गंध है उसमें उसका अविनाभावी रस आदिक भी है मगर घ्राण इंद्रिय से रस आदिक का ग्रहण नहीं हो रहा, तो ऐसे ही शब्द का श्रोत्रेंद्रिय से ही ग्रहण होता अन्य इंद्रिय से ग्रहण नहीं होता ।
शब्द की मूर्तिमत्ता के विषय में शंका व समाधान―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि शब्द तो अमूर्त हैं, पुद्गल की चर्चा तो दूर रही, पर वह मूर्त ही नहीं है, क्योंकि शब्द अमूर्त का गुण है । आकाश अमूर्त है और उसका गुण शब्द है और इस कारण से वचन पुद्गल का उपकार नहीं कहा जा सकता । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शब्द आकाश का गुण नहीं है क्योंकि मूर्तिमान पदार्थ से यह ग्रहण में आता, मूर्तिमान पदार्थ से शब्दोत्पत्ति की प्रेरणा होती, मूर्तिमान पदार्थ से शब्द का रुकाव देखा जाता । तो चूंकि शब्द मूर्तिमान इंद्रिय के द्वारा ग्रहण में आते हैं इसलिये अमूर्तिक नहीं, मूर्तिक ही है, गुण भी अमूर्त पदार्थ इंद्रिय द्वारा ग्रहण में नहीं आ सकते । अच्छा दूसरी बात यह है कि मूर्तिमान जो हवा है उसके द्वारा शब्द से प्रेरणा होती है और इस ही वजह से ये अन्य देश में स्थित हुये जीवों के द्वारा ग्राह्य होते हैं । जो-जो अमूर्त होगा उसको मूर्तिमान प्रेरित नहीं कर सकता । तो शब्द मूर्तिमान के द्वारा प्रेरित होता है इस कारण पौद्गलिक ही है, अमूर्त नहीं है शब्द का अवरोध भी देखा जाता । जैसे कोई कमरे के अंदर बोल रहा और भींट किवाड़ खिड़की आदि बंद कर दिया तो उसके शब्द का अवरोध हो गया, याने शब्द बाहर नहीं पहुंच रहा । कोई भी अमूर्त पदार्थ मूर्तिमान पदार्थ के द्वारा अवरुद्ध नहीं हो सकता ।
शंकाकार द्वारा शब्द की मूर्तिकता के साधक हेतुओं में दोष का प्रख्यापन―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि शब्द को मूर्तिमान सिद्ध करने के लिये जो हेतु दिये गये हैं वे सब सही नही हैं । एक हेतु यह दिया कि चूंकि शब्द इंद्रिय द्वारा ग्राह्य हैं इस कारण से मूर्तिक हैं, सो बात यह है कि शब्द श्रोत्र इंद्रिय द्वारा ग्राह्य तो है पर श्रोत्र मूर्ति या पौद्गलिकता नहीं है । श्रोत्रइंद्रिय तो आकाशमय है और अमूर्तिक है, सो अमूर्त आकाश के द्वारा याने श्रोत्र इंद्रिय के द्वारा अमूर्त शब्द का ग्रहण हो जाना युक्त ही है । इसमें क्या विरोध आता है । और भी देखिये―दूसरा हेतु दिया गया है प्रेरणा का याने शब्द की प्रेरणा होती है । हवा चली तो शब्द बढ़ गया सो यह हेतु भी ठीक नहीं है क्योंकि गुण का गमन ही नहीं होता, प्रेरणा क्या होगी? कोई पूछे कि फिर अन्य देश में स्थित पुरुषों के द्वारा शब्द ग्रहण में कैसे आयेंगे यदि गमन नहीं होता तो? तो उसका उत्तर यह है कि संयोग से, विभाग से और शब्द से शब्द की निष्पत्ति होती है, तो शब्द से शब्द बनता गया और वह दूर देश में रहने वाले पुरुषों के द्वारा जाना गया । तीसरा हेतु जो दिया है कि शब्द का अवरोध होता है सो कोई भी अमूर्त पदार्थ किसी मूर्तिमान के द्वारा रोका हुआ नहीं देखा गया तो शब्द भी कैसे रुकेगा? इस कारण यह समझना कि शब्द आकाश का गुण है अतएव शब्द अमूर्तिक हैं, उसे पुद्गल न कहा जाना चाहिये ।
शब्दों की मूर्तिकता के साधक हेतुओं में शंकाकार द्वारा दिये गये दोषों का निवारण करते हुये शब्दों की मूर्तिकता का समर्थन―अब उक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि शंकाकार द्वारा किया गया दोष निवारण यहाँ एक भी लागू नहीं होता श्रोत्र आकाशमय है, ऐसा जो शंकाकार का मंतव्य है सो भी ठीक नहीं बैठता । अमूर्त आकाश किसी अन्य कार्य को करने की शक्ति से रहित है याने अन्य कार्य करने की शक्ति आकाश में नहीं है । यदि शंकाकार यह सोचे कि अदृष्ट की वजह से ऐसा हो लेगा, अन्य कार्य की शक्ति आकाश में आ जायेगी, इस पर आचार्यदेव कहते हैं कि इस संबंध में तो बहुत-बहुत विचारणीय बातें हैं । अच्छा यह बतायें शंकाकार कि यह अदृष्ट जो एक संस्कार बनाता है तो क्या वह आकाश में संस्कार बनाता है या यह अदृष्ट आत्मा में संस्कार बनाता है या यह अदृष्ट शरीर के एक देश में संस्कार बनाता है? आकाश में संस्कार बनाता है, ऐसा कथन तो युक्त नहीं है, क्योंकि आकाश अमूर्तिक है और अन्य के गुण होने से यह संबंध से रहित भी है । तो आकाश में तो संस्कार न बना सकेगा अदृष्ट । यदि कहा जाये कि आत्मा में संस्कार बना देगा तो आत्मा तो शरीर से अत्यंत भिन्न है, अखंड है, उसमें संस्कार डाल दे अदृष्ट यह बात संभव नहीं है, सो आत्मा नित्य है, अखंड है, उसमें संस्कार अदृष्ट नहीं डाल सकता, शरीर के एक देश में अदृष्ट संस्कार डाल दे, यह भी बात युक्त नहीं है, क्योंकि अन्य का गुण अन्य में संबंधित नहीं होता । और भी जो उपाय श्रोत्रइंद्रिय को मूर्तिक पौद्गलिक सिद्ध करने के लिये बताये हैं सो भी नहीं बनते । बात यह कि मूर्तिमान पदार्थ के संबंध से विपत्ति संपत्ति जो देखी जा रही है उससे यह सिद्ध है कि श्रोत्र मूर्तिक ही हैं, याने कान में तेल डाला तो उससे उस कान को लाभ हुआ, कान में घाव आ गया उससे दुःख हो रहा तो यह कैसे कहा जायेगा कि श्रोत इंद्रिय आकाशमय है, वह तो पौद्गलिक ही है । और जो शंकाकार अपने दर्शन में ऐसा कहता है कि स्पर्शवान द्रव्य के अभिघात से शब्दांतर का आरंभ नहीं होता सो यह तो मन की ही बात कही, क्योंकि इसीलिये तो शब्द मूर्तिक हैं और पौद्गलिक हैं मूर्तिमान पदार्थ के द्वारा कोई भी अमूर्त पदार्थ दबता नहीं है और चूंकि भींट आदिक से ये शब्द दब जाते हैं इस कारण से सिद्ध हुआ कि शब्द पौद्गलिक हैं । आकाश का गुण नहीं है ।
पुद्गलों के उपकारभूत वचन उपग्रह की पौद्गलिकता―पुद्गलों का उपकारभूत वचन के विषय में चर्चा चल रही है । यहाँ शंकाकार कह रहा था कि शब्द अमूर्तिक है, आकाश का गुण होने से तो यह सिद्ध किया गया कि शब्द आकाश का गुण नहीं है क्योंकि वह मूर्त है । और कैसे समझें कि मूर्त हैं? तो शब्द का अभिभव आदिक देखा जाता है । जैसे ताराओं के प्रकाश का सूर्य के प्रकाश से अभिभव देखा जाता, सूर्य के प्रकाश में तारागण नहीं दिखते तो इससे सिद्ध है कि वे सब तारायें मूर्तिमान पौद्गलिक हैं । इसी प्रकार वन में सिंह, हाथी, भेड़िया आदिक का शब्द होने पर चिड़ियों के शब्द नहीं सुनाई देते हैं । बड़े-बड़े घटाओ के सामने छोटे शब्द नहीं सुनाई देते हैं । कुओं गुफाओं में कोई आवाज बोली जाये तो उसकी झाईं (प्रति ध्वनि) आती है, तो आवाज टकराकर कुछ थोड़ा वापिस सुनाई देती है, इन बातों से सिद्ध है कि शब्द मूर्त है, आकाश के गुण नहीं हैं । यदि शंकाकार कहे कि अमूर्त पदार्थ का भी तो अभिभव देखा जाता है जैसे शराब आदिक पीने से विज्ञान का अभिभव देखा जाता । विज्ञान तो अमूर्त है और शराब मूर्त है तो मूर्त के द्वारा अमूर्त का भी तो अभिभव हो जाता है, तो इस प्रकार शब्द अमूर्तिक रहे । और मूर्त के द्वारा उसका अभिभव भी होता रहे इसमें कौन सा अपराध है? तो इसका उत्तर यह है कि जैसे विज्ञान का अभिभव बताया है कि शराब के द्वारा विज्ञान का अभिभव होता है । सो विज्ञान पौद्गलिक है क्योंकि कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । तो जितने भी क्षयोपशमिक भव हैं वे भी पौद्गलिक कहलाते हैं । यदि यह विज्ञान पौद्गलिक न होता तो आकाश की तरह विज्ञान का भी अभिभव न हो सकता था ।
पुद्गल के उपकारभूत मन उपग्रह का परिचय―अब सूत्र में कहे गये तीसरे निर्देश के विषय में कहते हैं कि मन दो प्रकार का होता है―(1) द्रव्य मन (2) और भावमन । सो ये दोनों ही प्रकार के मन पौद्गलिक हैं । द्रव्य मन तो पुद्गल उपादान से ही परिणत हुआ है । वह भी पौद्गलिक है और भाव मन पुद्गल का अवलंबन लेकर बनता है, किसी भी बाह्य पदार्थ का ध्यान लेता है, द्रव्य मन का सहारा लेता है और वह भी कर्मों के क्षयोपशम से होता है अत: भाव मन जीव की परिणति होने पर भी पौद्गलिक है । यहाँ शंकाकार कहता है कि मन तो आत्मा से अत्यंत ही भिन्न वस्तु है क्योंकि आत्मा अलग पदार्थ है और मन अलग पदार्थ है, भले ही मन का आत्मा में संयोग होता है और विज्ञान क्रिया चलती है, पर हैं पृथक् द्रव्य । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यहाँ स्याद्वाद से सिद्ध करना चाहिये । अर्थात एक दृष्टि से तो मन आत्मा से भिन्न नहीं है, दूसरी दृष्टि से मन आत्मा से भिन्न है । यही बात इंद्रिय के विषय के भी हैं । जैसे वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम होने पर तथा ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर आत्मा को ही इंद्रिय परिणाम के आदेश से देखा जाये तो इंद्रिय आत्मा से अन्य नहीं है और इस दृष्टि से देखें कि उस इंद्रिय की निवृत्ति होने पर भी आत्मा बराबर रहता है । जैसे कि कोई पंचेंद्रिय जीव मरा और चतुरिंद्रिय में जन्म लेता है तो उसका वह पंचेंद्रियपना समाप्त हो गया । अब यदि चतुरिंद्रियपन हुआ तो पहले इंद्रिय की निवृत्ति हो गयी और आत्मा फिर भी रहा आया । इस दृष्टि से देखा जाये तो इंद्रिय आत्मा से अन्य चीज हैं । ऐसे ही क्षयोपशम की अपेक्षा से आत्मा का ही मन रूप परिणाम होने से आत्मा से मन अन्य नहीं है, अर्थात भावमन आत्मा की ही एक परिणति है, किंतु मन की निवृत्ति होने पर आत्मा रहता है इस दृष्टि से देखा जाये तो मन आत्मा से भिन्न है । जैसे कोई संज्ञी पंचेंद्रिय जीव था और मरकर वह चौइंद्रिय आदिक मन रहित में उत्पन्न हुआ तो मन की तो निवृत्ति हो गई और आत्मा बराबर रहा तो इससे मालूम हुआ कि मन भिन्न चीज है । यहाँ कोई ऐसा प्रश्न कर सकता है कि मन भी अवस्थायी है, उसकी निवृत्ति कैसे होती? तों उन्हें यह जानना चाहिये कि अनंतर समय में मन की निवृत्ति हो जाती है, ओर की तो बात क्या? एक ही जीवन में मन रूप से परिणत पुद्गल गुण दोष के विचार स्मरण का कार्य करके उसके अनंतर समय में ही मन रूप से हट जाता है अर्थात अब मन रूप रचना नहीं रहती है, अथवा इस विषय में भी स्याद्वाद का आश्रय लेना चाहिये कि मन कथंचित् अवस्थायी है और कथंचित अवस्थायी नहीं है, द्रव्यार्थिक के आदेश से मन अवस्थायी है और पर्यायार्थिक के आदेश से मन अवस्थायी नहीं है ।
मन की एक द्रव्यरूपता, अणुरूपता व प्रत्यात्यर्वितता के सिद्धांत की मीमांसा―यहाँ कोई शंकाकार कहता है कि मन तो एक द्रव्य है और वह प्रत्येक आत्मा में रहता है ऐसा वैशेषिक सिद्धांत में कहा गया है कि कोई जैसे रूप के देखने का प्रयत्न कर रहा है तो उस समय चूंकि ज्ञान उसका ही हो रहा है, अन्य का ज्ञान नहीं हो रहा है, इससे जाहिर होता है कि मन एक है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि एक मन में सबके जानने का सामर्थ्य नहीं हो सकता । प्रत्येक आत्माओं की बात एकमन कैसे कर सकता है और फिर उस मन को माना है परमाणुमात्र, अत्यंत छोटा मन, सो वह परमाणुमात्र मन आत्मा और इंद्रिय के साथ संयुक्त होकर अपने प्रयोजन के प्रति व्यापार करता है । ऐसा इस शंकाकार का मत है । तो वहाँ यह विचार करना चाहिये कि वह मन जो आत्मा और इंद्रिय के साथ संयुक्त होता है तो क्या सर्वदेश अथवा एकदेश से संयुक्त होता है? यदि कहें कि सर्व रूप से संयुक्त होता तो आत्मा और इंद्रिय से भिन्न मन न रहा, अगर कहो कि अन्य एक देश से आत्मा के साथ मन का संबंध होता है और अन्य किसी देश से इंद्रिय के साथ मन का संबंध होता है तो ऐसा पक्ष मानने पर तो मन में प्रदेशपना आ गया मायने मन अब बहुत अवयवों वाला बन गया, सो ऐसा शंकाकार मानते नहीं । मन को परमाणुमात्र मानते हैं, और भी देखिये―यदि आत्मा मन के साथ सर्वरूप से संयुक्त होता है तो मन तो अणु है, अत: अत्यंत छोटा है । तो आत्मा भी अणु बन बैठेगा, क्योंकि आत्मा बड़ा हो और मन छोटा हो तो सर्वरूप से संयोग कैसे हो सकता? अथवा जितना व्यापक आत्मा है उतनी ही व्यापक मन बन बैठेगा, यदि सर्वदेश के संयोग माना जाये तो, यदि एक देश से आत्मा मन के साथ संयुक्त होता है तो आत्मा में प्रदेशत्व सिद्ध हो गया और इस गृह ज्ञान का, सुख का, दुःख का भिन्न-भिन्न प्रदेश में रहना हो गया । सो यों बन बैठेगा कि आत्मा में कोई प्रदेश तो ज्ञानसहित हैं और कोई प्रदेश ज्ञानरहित हैं । तो जो ज्ञानरहित प्रदेश हैं उनमें आत्मा का चिन्ह रहा नहीं । आत्मा का चिन्ह है ज्ञान । तो ज्ञानरहित प्रदेश या तो कहो अचेतन हो गया या कहो कि आत्मा के उन प्रदेशों का अभाव हो गया, फिर सर्वज्ञतापना तो न रहा । इस प्रकार मन यदि इंद्रिय के साथ सर्वदेश से संयुक्त होता है तो मन अब परमाणु प्रमाण न रहा, क्योंकि इंद्रियां परमाणु प्रमाण नहीं हैं । और इंद्रियों के साथ सर्वदेश से मन का संयोग होता है तो मन छोटा न रहेगा । और भी देखिये―गुण और गुणी इनमें भिन्नता है और मन को नित्य माना है तो फिर इस मन का आत्मा के साथ वा इंद्रिय के साथ संयोग विभाग परिणमन बन न सकेगा । फिर जानना कैसे सिद्ध हो? यदि यों स्वीकार किया जाये कि संयोग विभाग रूप से मन परिणमता है तो मन नित्य न रहा और गुणी गुण में अन्यपना भी न रहा । दूसरी बात यह है कि मन तो अचेतन है तो उसका आत्मा और इंद्रिय के साथ संयोग करने का ज्ञान तो नहीं है कि अब इस इंद्रिय के साथ या इस आत्मा के साथ संयोग करना चाहिये अब अन्य इंद्रिय से या अन्य आत्माओं से संयोग न करना चाहिये । तो मन में जब विशेष ज्ञान ही नहीं जग सकता तो विभिन्न प्रतिनियत आत्मा और इंद्रिय के साथ संयोग का अभाव हो जाता है ।
अचेतन अणु व एक मन का आत्माओं और इंद्रियों के साथ संयोग की असंभवता―यहाँ शंकाकार कहता है कि जैन लोग भी तो अचेतन कर्म को इस ही तरह मानते हैं कि कर्म अचेतन हैं और वे आत्मा के साथ संयुक्त हैं इंद्रिय के साथ संयुक्त है और रचना भी करते रहते हैं तो ऐसे ही हमारे मन पदार्थ की बात भी समझिये कि हमारा मन भी अचेतन होकर इन सारी रचनाओं को करता रहता है । तो इसका उत्तर यह है कि कर्म में भी किसी दृष्टि से चेतनत्व स्वीकार है क्योंकि वह कर्म पौरुषेय परिणामों से अनुरंजित है याने आत्मा के जैसे भाव होते हैं उस भाव से अनुरंजित होकर पुण्य व पाप कर्म का बंध होता है तो इस दृष्टि से कर्मों मे कथंचित चेतनता है और पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से देखा जाये तो कर्म में अचेतनता है । तो अनेकांत बल से कर्म में केवल अचेतनता ही न रही अथवा कर्म दो प्रकार के हैं―(1) भावकर्म और (2) द्रव्यकर्म । भावकर्म तो जीव की विकृत परिणति का नाम है । सो जीव चेतन है तो उस चेतन की ही यह परिणति मन है और द्रव्य मन से देखा जाये तो वह पुद्गल द्रव्य के उपादान में ही हुआ है इस कारण अचेतन है । शंकाकार के यहाँ एक आपत्ति यह आती कि उन्होंने मन को माना अत्यंत सूक्ष्म, तो अत्यंत सूक्ष्म होने से मन का चक्षु आदि इंद्रिय के रूपादिक ग्रहण की योग्यता नहीं रहती है । क्योंकि मन तो है छोटा, अब वह इंद्रिय के साथ जुड़े तो समग्र इंद्रिय से कैसे जुड़ सकता? एक ही इंद्रिय में पूरा कैसे जोड़ सकते? तब जितने प्रदेश चक्षुओं ने अणु मन रोका है उनमें रागादिक के ग्रहण की सामर्थ्य रहती है । सब इंद्रिय में यह सामर्थ्य न रही, मगर देखा यह गया है कि जब भी किसी वस्तु का ग्रहण होता तो पूरा ही ग्रहण होता है । देखिये यह बात सिद्ध है कि मन, अणु प्रमाण नहीं होता । यहाँ शंकाकार यदि यह कहे कि मन तो है अणु प्रमाण ही, मगर उसकी सीधी गति है इसलिए समग्र के ग्रहण का कारण हो जाता है तो उसका उत्तर यह है कि मन अचेतन है और अचेतन मन के बुद्धि पूर्वक सब जगह व्यापार नहीं हो सकता । यदि शंकाकार कहे कि अदृष्ट के कारण उस मन का सब जगह व्यापार हो जायेगा, जैसे कोई पुरुष दंड चक्र को चला रहा, प्रेरणा कर रहा और उस तरह वह शीघ्रता से चला रहा तो वे चक्र के आरे सब जगह प्राप्त होते हैं ऐसे ही अदृष्ट की प्रेरणा से मन का व्यापार होता है और उस भ्रमण से सर्व में व्यापक विदित हो जाता है । इस शंका के उत्तर में कहते कि भाई जिस पुरुष ने उस चक्र की प्रेरणा की है वह पुरुष क्रियावान है और क्रियावान पुरुष के द्वारा प्रेरित किया गया वह चक्र सर्वत्र दिखता है, किंतु अदृष्ट तो आत्मा का गुण है । इस कारण वह स्वयं निष्क्रिय है । जो स्वयं क्रियारहित है वह अन्य में क्रिया करने का कारण कैसे हो सकता है।
मन का आत्मा से अनादि संबंध की असिद्धि―यदि शंकाकार यह कहे कि आत्मा के साथ मन का संबंध अनादि काल से चल रहा है तो यह कथन उनका योग्य नहीं है, क्योंकि अब तो आत्मा और मन का संयोग मान लिया है और संयोग होता है तब जब कि पहले तो उस चीज की प्राप्ति न हो और पीछे प्राप्त हो जाये उसे कहते हैं संयोग । जैसे पहले घड़ा रखा था, बाद में उसमें पानी भर दिया तो अब पानी का घड़े का संयोग हो गया ऐसा शंकाकार ने स्वयं माना है । तो अब मन द्रव्य का आत्मा के साथ इस तरह का संबंध बताओ अनादि हो सकता है क्योंकि पहले में मन न था और पीछे आ गया तब तो वह कहलायेगा संयोग और ऐसा अगर होता है तो वह अनादि संबंध न रहा । अरहंत भगवान के आगम में बताया है कि मन क्षायोपशमिक है और आत्मा पारिणामिक भाव रूप है । उसके साथ मन का अनादि संबंध कैसे हो सकता है? यदि अनादि संबंध वाला मन रहे तो इसका परित्याग भी नहीं किया जा सकता और परित्याग देखा जाता है । इससे सिद्ध है कि मन का आत्मा से अनादि संबंध नहीं है । शंकाकार कहता है कि जैनों ने फिर कर्म का आत्मा के साथ अनादि संबंध कैसे मान लिया? पहले आत्मा में कर्म न लगे हों और पीछे कर्म आकर लगे तब तो संयोग कहा जायेगा । जैसा कि हमारे सिद्धांत में आपत्ति दी है? तो जैसे जीव और कर्म का अनादि संबंध है और कर्म के परित्याग का विरोध भी नहीं है ऐसे ही मन का भी जीव के साथ अनादि संबंध सिद्ध हो जायेगा । इसके उत्तर में कहते हैं यह कथन भी तुम्हारा युक्त नहीं है । यहाँ भी तथ्य स्याद्वाद से समझें―जीव और कर्म के बारे में ऐसा एकांत नहीं है कि जीव और कर्म का अनादि संबंध हो, किंतु यथार्थ बात क्या है कि मिथ्यादर्शन आदिक परिणामों के द्वारा जो कर्मबंध हुआ उसकी अपेक्षा से तो कर्मबंध अनादि नहीं है । जिस समय कर्म बंधा उसके बंधने का प्रारंभ समय वह है पर कर्मबंध की संतति की अपेक्षा देखा जाये तो अनादि संबंध है और इसी कारण जब कर्म बंध न हो ऐसा शुद्ध भाव बढ़ता है तो कर्म का प्रक्षय भी हो जाता है । अब यहाँ शंकाकार कहता है कि मन तो इंद्रिय का सहकारी कारण है । चक्षु आदिक इंद्रिय ने इष्ट अनिष्ट रूप रस आदिक विषयों की उपलब्धि की । उस समय जिस जीव को सुख दुःख का अवगम होता है वह मन के सन्निधान में होता है इस कारण दूसरा पदार्थ दूसरे के व्यापार रूप नहीं होता । वह मन इंद्रिय का ही सहकारी कारण है । उत्तर में कहते हैं कि मन को इंद्रिय वेदनाओं का सहकारी कारण नहीं कहा जा सकता क्योंकि इंद्रियाँ अचेतन स्वभावी हैं वे स्वयं इंद्रियाँ अपने आप अपने में इष्ट अनिष्ट रूप रस आदिक की ज्ञप्ति करती रहती हैं ।
गुण दोष विचारस्मरणरूप कार्य से मन के अस्तित्त्व की सिद्धि―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि मन है ही नहीं क्योंकि मन का पृथक उपकार कुछ नहीं देखा जा रहा । इंद्रिय ने भी अपना अनुभव किया तो अब मन का उपकार क्या रहा? देखने, सूंघने चखने वाली तो ये इंद्रियां हैं, मन और करता क्या है? और जब मन कुछ अर्थ क्रियाकारी न रहा तो उसे हो न समझिये । इसके उत्तर में कहते हैं कि मन का कार्य देखा जाता है और उससे मन की सत्ता की सिद्धि होती है । मन का काम है गुण और दोषों का विचार करना आदिक । जिनको मनोलब्धि प्राप्त है वे संज्ञा कहलाते हैं और उनके मन रूप से परिणामित हुए पुद्गल गुण दोष का विचार करना, स्मरण करना आदिक कामों में वह सहायक होता है । चाहे अंधकार हो, बाह्य इंद्रिय का प्रतिघात हो, कैसी भी स्थिति हो, मन का काम इंद्रिय से अलग है इस कारण यह मन वास्तविक पौद्गलिक है ।
मन को क्षणिक विज्ञानरूप मानने के सिद्धांत की मीमांसा―यहाँ शंकाकार कहता है कि मन कोई अलग चीज नहीं है । विज्ञान का ही नाम मन रख लिया है । 5 इंद्रिय ज्ञान और मनोज्ञान के बाद जो नष्ट हुआ विज्ञान है वही मन कहलाता है । ऐसा क्षणिकबाद सिद्धांत में कहा गया है और उसके अनुसार विज्ञान का ही नाम लोग मन रख देते हैं । इसके उत्तर में कहते हैं कि शंका ठीक नहीं है । क्योंकि शंकाकार के उस विज्ञान में यह सामर्थ्य नहीं कि वह पदार्थ को जान सके । क्षणिकवाद में जो विज्ञान माना गया है, वह विज्ञान वर्तमान ही बाह्य अर्थ को जानने के लिये समर्थ नहीं है । फिर वह अतीत को कैसे जाने ? क्योंकि निरंशवादसम्मत विज्ञान क्षणिक है और वह पूर्व और उत्तर विज्ञान से कुछ संबंध रखता नहीं है । ऐसा क्षणिकवाद में माना है । तो वह वर्तमान विज्ञान जो एक क्षण को हुआ और पूर्व और भावीविज्ञान से कुछ संबंध नहीं वह विज्ञान गुण और दोष के विचार में, स्मरण में कैसे सहायता कर सकता है, क्योंकि यह स्मरण न तो स्वयं अनुभूत अर्थ का बन सकता है, न अनुभूत अर्थ का बन सकता है और न दूसरे के द्वारा अनुभूत अर्थ का बन सकता है । क्षणिकवाद में स्मरण बन ही नहीं सकता है । यहाँ शंकाकार कहता है कि विज्ञान क्षणिक जरूर है मगर एक संतान में पतित होने से स्मरण की उपपत्ति हो जायेगी अर्थात एक देह में लगातार आत्मा पैदा हो रहे हैं । विज्ञान उत्पन्न हो रहे हैं तो उनकी ही एक धारा चली है । उस धारा में, आने के कारण स्मरण की उपपत्ति बन जाती है । उत्तर में कहते हैं, कि यह सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि विज्ञान तो अवस्तुरूप है । एक संतान में पतित हुआ भी विज्ञान पदार्थ की जानकारी स्मृति कैसे कर सकता है । जैसे अतीत देवदत्त वर्तमान पौत्रादिक का क्या उपकार कर सकता? जैसे, एक वंश परंपरा में बाबा देवदत्त था और उनके लड़के और लड़के के लड़के उत्पन्न हो गए और वह देवदत्त गुजर गया तो वह गुजरा हुआ देवदत्त इन वर्तमान पोतों का क्या उपकार कर सकता, ऐसे ही अतीत जो विज्ञान है वह गुण दोष विचार का स्मरण कैसे कर सकता है? भले ही एक संतान में आया है मगर गुजरा हुआ विज्ञान आगे की बात का उपकार नहीं करता । शंकाकार कहता है कि जो विज्ञान अतीत हो गया, नष्ट हो गया वह विज्ञान बीज शक्ति रूप होकर अवस्थित सत् का आलंबनरूप होता है । जैसे धान का बीज बो दिया और वह बीज अतीत हो गया, नष्ट हो गया मगर वह भविष्य में होने वाले अंकुर फल आदिक का आलंबन तो बन जाता, तो ऐसे ही जो विज्ञान नष्ट हो गया वह आगे के गुण दोष विचार आदिक का आलंबन बन जाता है । इसके उत्तर में कहते हैं कि जो आलंबन विज्ञान है उस एक का अन्य काल में अगर अवस्थान माना जाता है तब तो क्षणिकवाद न रहा और कालांतर में अवस्थान नहीं माना जाता तो आलंबन भी नहीं बन सकता । इससे विज्ञान को ही मन कहना सिद्ध नहीं होता, किंतु मन अंत: एक पौद्गलिक रचना है और ज्ञानावरण के क्षयोपशम से द्रव्य मन का आलंबन लेकर ज्ञान किया करता है ।
मन को प्रकृति विकाररूप मानने के सिद्धांत की मीमांसा―अब यहाँ दूसरा शंकाकार कहता है कि मन पौद्गलिक नहीं है किंतु वह प्रधान का (प्रकृति का) विकार है । साँख्य सिद्धांत में दो, तत्त्व माने गए हैं―(1) पुरुष और (2) प्रधान । पुरुष तो जीव हुआ और प्रधान अचेतन हुआ । उनमें प्रधान ऐसा तत्त्व है कि जिससे सारी रचना चलती है । तो प्रधान का जो महान अहंकार आदिक रूप में परिणमन होता है उसी प्रधान का कोई विकार विशेष मन कहलाता है । मन कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह मंतव्य ठीक नहीं है क्योंकि प्रधान अचेतन है । तो अचेतन के जो विकार होंगे, परिणमन होंगे वे भी अचेतनात्मक होंगे । जैसे मिट्टी अचेतन है तो मिट्टी से, घड़ा, सकोरा आदिक जो बनेंगे वे भी अचेतनात्मक होंगे । मन को यदि प्रधान का विकार माना जाये तो मन अचेतन रहा फिर वह गुण दोष के विचार स्मरण आदिक कार्य में सहायक हो ही नहीं सकता । अच्छा यह ही बताओ कि जो मन है सो उसे तो करण माना है मन के द्वारा जानता है, पर जानने वाला कौन है? गुण दोष का विचार करने वाला कौन है? क्या पुरुष है अथवा प्रधान है? पुरुष को तो निर्गुण माना है इसलिए वहाँ विचार आदिक कुछ संभव ही नहीं हो सकते । ऐसा स्वयं सांख्यों में स्वीकार किया है, क्योंकि गुण दोष का विचार आदि ये तो सत्त्व गुणमय हैं । और सत्त्व, रज, तम ये गुण पुरुष में याने आत्मा, में नहीं होते । तो विचार आदिक का कर्ता पुरुष नहीं माना जा सकता । और विचार आदिक का कर्ता प्रधान भी नहीं हो सकता, क्योंकि प्रधान अचेतन माना गया है । लोक में कोई भी अचेतन पदार्थ गुण दोष के विचार आदिक का कर्ता नहीं देखा गया है । अब सांख्यानुयायी यह बताये कि जो प्रधान और प्रधान के परिणाम अहंकार आदिक माने हैं सो यहाँ अब दो बातें आयी । एक तो प्रधान तत्त्व, दूसरा उसका परिणमन । तो वह परिणमन प्रधान से भिन्न है या अभिन्न? यदि बुद्धि अहंकार आदिक परिणमन प्रधान से भिन्न हैं तो जो यह प्रतिज्ञा की जाती है कि कार्य और कारण में एकत्व रहता है, याने एक ही पदार्थ में कार्य कारण भाव देखा जाता है, यह प्रतिज्ञा खंडित हो जायेगी, और यदि बुद्धि, अहंकार, शरीर आदिक परिणमनों को प्रधान से अभिन्न माना जाये तो वह सब प्रधान ही कहलाये, परिणमन कुछ न रहे, तो जब परिणमन ही न रहा और प्रधान ही रहा तो मन कहाँ रहा? निष्कर्ष यह है कि मन पौद्गलिक है और वह पुद्गलों का उपकार है । यहाँ उपकार का अर्थ भलाई से नहीं है । चाहे भला हो चाहे बुरा हो पर जीव के काम आ रहा है मन इसलिए यह पुद्गलों का उपकार कहलाता है ।
पुद्गल के उपकारभूत प्राणापान उपग्रह का परिचय―अब सूत्र में कहे गये चौथे प्राणापान का विवरण करते हैं । प्राण और अपान ये दोनों पुद्गल के उपकार हैं । प्राण क्या है कि नाली से याने शरीर के भीतर रहने वाले कोठे से जो निकलने वाली वायु है उसको प्राण कहते हैं । इसका नाम उच्छ्वास है अर्थात निकलने वाली वायु उच्छ्वास प्राण कहलाती । इसका निर्माण कैसा है कि वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम हो, ज्ञानावरण का क्षयोपशम हो और अंगोपांग नाम कर्म का उदय हो, ऐसी स्थिति में उस जीव के शरीर कोष्ठ से निकलने वाली जो वायु है उसे प्राण कहते हैं । अपान का अर्थ है बाहरी हवा को भीतर करना । उस ही आत्मा के द्वारा जो बाहरी वायु भीतर को जाती है वह अपान कहलाती है । इसे श्वांस कहते हैं । ये दोनों ही जीव के उपकारक हैं, क्योंकि जीव उस भव में जीवन बनाये रहने में कारण हैं । जब तक प्राण और अपान हैं तब तक जीव उस भव में जीवित है, प्राण अपान नष्ट हो जाने पर वह जीव उस भव में जीवित नहीं रहता । इसे मरण कहते हैं और मरकर यह आगे बढ़ देता है । तो ये प्राण और अपान मूर्त और पौद्गलिक हैं, क्योंकि इनका भी प्रतिघात देखा जाता । जैसे हाथ को मुख के सामने कर लें तो निकलती हुई वायु का प्रतिघात हो जाता । वह आगे नहीं जा पाती । कफ भीतर बढ़ जाये तो उससे भी श्वासोच्छ्वास का प्रतिघात हो जाता । तो मूर्तिमान पदार्थों के द्वारा अभिघात आदिक मूर्त के ही होंगे अमूर्त के नहीं होते और इस श्वासोच्छ्वास की परीक्षा हर एक लोग करते हैं । मरणहार पुरुष के मुख और नाक के आगे हाथ रखकर परीक्षा किया करते कि श्वासोच्छ्वास हैं या नहीं । तो जिसका अभिघात होता है वह मूर्त होता है, पौद्गलिक होता है ।
प्राणापान से आत्मा के अस्तित्त्व का अनुमान―प्राण और अपान की क्रिया से तो आत्मा का अस्तित्त्व सिद्ध होता है । सभी लोग श्वासोच्छ्वास को देखकर कहते हैं कि अभी यह जिंदा है । जब श्वासोच्छ्वास नहीं रहती तो कहते हैं कि बस मृतक हो गया है । तो प्राण और अपान से आत्मा का अस्तित्व इस तरह जाना जाता है जैसे यंत्र की प्रतिमा या कोई मशीनरी की चेष्टा हो तो वह ड्राइवर का याने उसके प्रयोक्ता का अस्तित्त्व जानता है इसी तरह श्वासोच्छ्वास के कार्य भी इस क्रियावान आत्मा को सिद्ध करते हैं । क्योंकि प्राण और अपान अगर न हों तो क्रियावान आत्मा नहीं है ऐसा स्पष्ट निर्णय रहता है । प्राण और अपान ये अकस्मात नहीं हो जाते क्योंकि इनका नियम देखा गया है । अकस्मात होने वाले का कुछ नियम नहीं होता और यह प्राण अपान क्षणिकवादसम्मत विज्ञान आदिक के द्वारा भी किया गया नहीं है, क्योंकि विज्ञान तो अमूर्त है । वह प्रेरणशक्ति से रहित है । वह कहीं प्रेरणा नहीं कर सकता । ये प्राण और अपानरूप और स्कंध के द्वारा भी किए गये नहीं हैं, क्योंकि वे रूप स्कंध भी अचेतन हैं । यहाँ यह शंका न रखना कि कुछ भी पदार्थ होता है तो वह निरीहक होता है । प्राण अपान या जो भी माना जाये उनमें ईहा व क्रिया तो होती नहीं, बुद्धि तो लगाई नहीं जाती, फिर व्यापार कैसे संभव है? क्रिया कैसे संभव हो? इसके उत्तर में कहते हैं कि यदि क्रिया का अभाव माना जाये तो एक देश से दूसरे देश में जो मनुष्य आदिक का जाना देखा जाता उसका अभाव हो बैठेगा । शंकाकार कहता है कि वायु नामक धातु की विशेषता से देशांतर में पहुँचना, प्रादुर्भाव होना क्रिया है । यह बात उपचार से मानी जाती है । मुख्य क्रिया नहीं है । उत्तर में कहते हैं कि वायु धातु विशेष में भी यह सामर्थ्य नहीं है कि वह अन्य देश में किसी मनुष्यादिक को ले जाये, क्योंकि वायु धातु भी क्षणिकवादियों के यहाँ निष्क्रिय है । मतलब प्राण और अपान ये आत्मा के अस्तित्त्व को सिद्ध करते हैं और क्रियावान आत्मा को सिद्ध करते हैं । तो प्राण और अपान ये पुद्गल के उपकार हैं ।
सूत्रोक्त प्रथम पद में द्वंद्व समास―यहाँ यह आशंका की जा रही है कि सूत्र में जो 4 बातें कही हैं―शरीर, वचन, मन और प्राणापान । ये सब प्राणी के अंग हैं और इनका द्वंद्व समास किया है तो इनका एकवद्भाव अर्थात समाहार हो जाना चाहिये । बहुवचन न आना चाहिये । जैसे कि समाहार द्वंद्व समास में अनेक शब्दों के साथ समास बन जाता है और एकवचन का प्रयोग रहता है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यहाँ ये चार सभी अंग नहीं हैं । यहाँ अंग और अंगी ये 2 बातें पाई जाती हैं । सो जहाँ अंग और अंगी ऐसी दो बातें पायी जायें वहां समाहाररूप द्वंद्व नहीं होता किंतु बहुवचन वाला द्वंद्व होगा । प्राणियों के अंगों में ही द्वंद्व समास उनका एकवद्भाव होता है । अंग कहो अथवा अवयव कहो या एक देश कहो । ये एकार्थवाचक शब्द हैं । तो शरीर तो अंगी है और वचन, मन, प्राणापान ये सब अंग हैं, मायने शरीर का ही हिस्सा तो वचन है, मन है और श्वासोच्छ्वास है अथवा वचन आदिक ये अंग भी नहीं कहे जा सकते क्योंकि ये अवस्थित नहीं हैं । जैसे शरीर में दाँत हैं, जहाँ हैं वहाँ ही हैं, उन्हें अंग कह सकते, पर वचन, मन, श्वासोच्छ्वास, ये अवस्थित कहाँ हैं, और फिर ये चारों नाना प्राणियों की अपेक्षा कहे गये हैं । एक प्राणी के विषय में कहे जाते तो भी समाहार की युक्तता मानी जा सकती थी । तो इस प्रथम पद में द्वंद्व समास है और एकवद्भाव नहीं है याने समाहार नहीं है किंतु बहुवचन वाला द्वंद्व समास है ।
पुद्गल और उपग्रह का अर्थ―यहाँ पुद्गल का उपकार बताया जा रहा है । पुद्गल कहलाता है वह पदार्थ कि जिसमें पूरण और गलन होता है, अथवा जो पुरुष के द्वारा गिले जाते हैं, ग्रहण किये जाते हैं वे पुद्गल कहलाते हैं । पुद्गलानां इस पद में षष्ठी विभक्ति इस कारण है कि उपग्रह शब्द जिसकी अनुवृति आ रही है वह भावसाधन है अर्थात उपग्रहण करना उपग्रह है, उपकार है याने जीव के लिये शरीरादिक परिणमनों के द्वारा पुद्गल उपग्रह किया करते हैं । यदि एकांत से इस पुद्गल को निष्क्रिय माना जाये या आत्मा को निष्क्रिय माना जाये और उस आत्मा को अत्यंत शुद्ध माना जाये तो शरीरादिक के साथ आत्मा का बंध नहीं हो सकता जब बंध नहीं है तो पुद्गलकृत उपकार भी न रहा या प्रकृतिकृत उपकार न रहा । जब क्रिया हेतुपना कुछ न रहा तो संसार का अभाव हो गया । संसार का अभाव होने से फिर मोक्ष कैसे हो सकता है? सो यह शरीरादि पुद्गलों का उपकार है, इनका वियोग होना मोक्ष है । अब पुद्गल का अन्य उपकार भी बतला रहे हैं ।