वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-32
From जैनकोष
अर्पितानर्पितसिद्धे: ।। 5-32 ।।
विवक्षा व अविवक्षा से पदार्थ में नाना धर्मो की सिद्धि―गौण और मुख्य में विवक्षा से वे परस्पर विरुद्ध धर्म एक साथ सिद्ध होते हैं । अर्पित का अर्थ है जिस दृष्टि से कह रहे, जिस धर्म को प्रधानता दी जा रही है वह है अर्पित और जिस धर्म को प्रधानता नहीं दी जा रही, वह कहलाता है अनर्पित । ये सब बातें वस्तु में समझने से अपने आत्मा को क्या प्रयोजन मिलता है । वह प्रयोजन यही मिलता कि मैं हूँ और नई-नई अवस्थाओं में आता हूँ और पूर्व-पूर्व अवस्थायें विलीन होती हैं । मान लो आज मेरी अज्ञान अवस्था है तो मैं हमेशा अज्ञान अवस्था में ही रहूंगा, ऐसी शंका न करना चाहिये, क्योंकि हम में कभी भी ज्ञान अवस्था आ सकती है । अज्ञान अवस्था नष्ट हो जाती है और वही पदार्थ वही का वही सदा ध्रुव बना रहता है । जैसे मिट्टी का लौंधा, जिसका कुम्हार घड़ा बना रहा है । वहाँ जो भी पदार्थ रखे हैं उन सबको यही देखें कि ये भौतिक रूप पदार्थ हैं इस कारण से वे नित्य चीज हैं, वे तो रहेंगी, क्योंकि वे पदार्थ अपने द्रव्यपने को, पुद्गलपने को कभी छोड़ते ही नहीं है । जब उस द्रव्यपने को गौण कर दें और घड़ा पर्याय को दृष्टि में लें तो वहाँ उत्पाद समझ में आता । मिट्टी के लौंधे को विवक्षा में लें तो उससे व्यय, समझ में आता । यों तत्त्व सब नित्य और अनित्य है । केवल नित्य माना जाये तो द्रव्य नहीं रह सकता और केवल अनित्य माना जाये तो व्यवहार नहीं, वस्तु नहीं । इस प्रकार द्रव्य के बारे में प्रसंग पाकर कुछ थोड़ा खुलासा किया है । अब पहले प्रकरण पर फिर आइये । प्रकरण चल रहा था पुद्गल का । पुद्गल में गुण होते, आकार होता । बिखर कर वे परमाणु रह जाते, इकट्ठे होकर वे पिंड बन जाते । यह सब प्रकरण चल रहा था । अब इस सूत्र में यह कहा जा रहा है कि कैसे परमाणुओं का संयोग मिलने पर बंध दशा बनती है । अलग-अलग परमाणु पड़े हैं तो वह कौन सी वजह हैं जिस कारण वह एक पिंडरूप बंध जाता है? उसके उत्तर में यह सूत्र है?