वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-31
From जैनकोष
तद्भावाव्ययं नित्यम् ।। 5-31 ।।
द्रव्य के नित्यपने का स्वरूप―वस्तु के भाव से च्युत न होना सो नित्य है । कोई चीज नित्य है यह कब समझ में आता, जब अपने बारे में यह ज्ञात हो कि यह वही चीज है जो पहले थी, तब तो कह सकते कि यह नित्य है, सदा रहती है । तो ऐसा प्रत्यभिज्ञान पदार्थ में हो रहा है । जो घट दिखा, जो घट का समूह दिखा, जिन लोगों को दिखा इन को देखने पर वही ज्ञान बनता है कि यह वही है । तो यह वही है, ऐसा भाव बनने का जो कारण है वह सत्भाव कहलाता है । वस्तु सदा रहती है, ऐसा यदि न माना जाये तो लोकव्यवहार सब समाप्त हो जायेगा । उधार लेने वाला व्यक्ति उधार का द्रव्य कहो वापिस भी न दें । यदि उधार देने वाला व्यक्ति अपनी चीज वापिस मांगे तो लेने वाला कह देगा कि हमने कहां लिया, उधार लेने वाला जीव कोई दूसरा था, मैं तो कोई दूसरा जीव हूँ । यों गड़बड़ मच जायेगा, पर ऐसा है कहां? वस्तु तो वही की वही रहती है । भले ही दिखने में यह बात अटपट सी लगे कि जो ही उत्पन्न हुआ वही नष्ट हुआ, लेकिन इसमें विरोध कुछ नहीं है । मिट्टी घड़ा रूप से उत्पन्न हुई, मृत्पिंड रूप से विलीन हुई, यह बात बिल्कुल स्पष्ट है और वह द्रव्य रूप से नित्य बनी रहे । यदि द्रव्य एक हो तब विरोध है । पर्याय दृष्टि से अनित्य है, द्रव्य दृष्टि से नित्य है तो इसमें विरोध क्या? कोई एक ही पुरुष को पिता कहता है, पुत्र कहता है, मामा कहता है, फूफा कहता है तो सुनने में हर एक कोई कह सकता है कि इसमें तो बड़ा विरोध है । जो जुदा-जुदा धर्म है, वह एक पदार्थ में कैसे हो सकता है? अपने पुत्र की दृष्टि से पिता है और अपने पिता के लिये यह पुत्र है, तो उनमें कोई विरोध नहीं आता । एक ही द्रव्य में ये उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, और सदा रहते हैं, इनका विरोध सा जंचता, पर दृष्टि लगाकर निरखें तो इसमें कोई विरोध की बात नहीं आती है । इस बात को सूत्र द्वारा कहते हैं ।